नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उनतालीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - ३९
मित्रता की सदानीरा - १८
लखनऊ से मैं दिल्ली चला गया था, जहां पंकज सिंह, जैसा कि मैंने कहा, अजीब-से फकीरी अन्दाज़ में दिन गुजार रहा था। अभी सविता से उसकी भेंट नहीं हुई थी, वह तारीक अनवर और उनकी ‘युवक धारा’ से जुड़ा नहीं था। उसका बहुत-सा वक्त भगवती बाबू के छोटे बेटे कैप्टन वर्मा के परिवार के साथ बीतता था। कैप्टन वर्मा विमान चालक थे, उनकी पत्नी कत्थक नृत्यांगना थीं, बेटी सोना और बेटा पढ़ रहे थे। कैप्टन वर्मा और उनके परिवार में एक सहज स्वभाविक गर्मजोशी थी। पंकज से (और उसके मिस उसके दोस्तों से) वे सहज ही स्नेह करते थे। कभी-कभी वे सब 35 फिरोजशाह रोड पर श्री लव के फ्लैट में पंकज के कमरे पर आ धमकते और हम सबको अपने साथ ले जाते। कभी कुबेर दत्त अपने स्कूटर पर वहाँ आ जाता। कभी हम लोग कनाट प्लेस के चक्कर लगाने चले जाते।
देखते-देखते वह छह हफ्ते का समय भी बीत गया और मैं वापस लन्दन चला गया। चूंकि मन के किसी कोने में यह बात बैठी हुई थी कि मुझे अन्ततः हिन्दुस्तान लौटना है, लन्दन में ही नहीं रहना, इसलिए एक सोची-समझी योजना के तहत मैंने अपने अनुबन्ध के बढ़ाये जाने पर हामी भर दी थी ताकि मुझे बी.बी.सी. के खर्च पर हिन्दुस्तान की एक यात्रा का अवसर मिल जाय। इसके बाद अगर इरादा यह बनेगा कि दूसरा अनुबन्ध पूरा किये बिना ही वापस आना है तो साल भर बाद जब जी चाहेगा एक महीने की सूचना पर बोरिया-बिस्तर समेट लिया जायेगा। इसके अलावा मुझे बी.बी.सी. की ही अपनी सहकर्मी श्रीमती रजनी कौल को सात सौ पाउण्ड लौटाने थे जो उन्होंने बड़ी सहृदयतापूर्वक मुझे उस समय दिये थे, जब मैंने किस्तों पर अपना मकान खरीदा था और कहा था, ‘तुम इन पैसों को सुविधा से लौटाना। मुझे मालूम है शुरू-शुरू में कैसी दिक्कतें होती हैं।’ इसीलिए मैंने छुट्टियों में घर जा कर वापस आने के लिए सबसे सस्ती हवाई सेवा से टिकट लिये थे ताकि बचे हुए पैसों से उधार चुका सकूं।
और इस तरह मैं लन्दन लौट आया था। इस यात्रा से कुछ बातें बहुत साफ हो गयी थीं। एक तो यह कि मैं अपने घर-परिवार, परिवेश और शहर से कैसे अदृश्य लेकिन अटूट धागों से बंधा हुआ था। यह ठीक है कि लन्दन में मुझे किसी किस्म की दिक्कत नहीं थी। वैसी भी नहीं, जो आम आप्रवासियों को होती है। और मैं आम हिन्दुस्तानियों के विपरीत, जो सिर्फ अपने ही लोगों के बीच विचरते थे, अंग्रेजों और वेस्ट इण्डियन लोगों से भी मिलता-मिलाता और उठता-बैठता था। तो भी इतना मुझे मालूम था कि अगर मुझे सचमुच हिन्दी में लिखना जारी रखना है तो मुझे हिन्दुस्तान वापस जाना ही होगा। अगर मैं अंग्रेजी में लिखता होता जैसे सलमान रश्दी या मेरा मित्र फारूख ढोंढी तो फिर बात दूसरी होती।
फिर यह सच्चाई भी पेश-पेश थी कि मैं 34 की उमर में वहाँ गया था और जितना ही अधिक वहाँ रहता, उतना ही मेरे लिए लौटना मुश्किल होता जाता, क्योंकि मेरे बच्चे भी बड़े हो रहे थे और ऐसी दहलीज पर आ खड़े हुए थे, जिसे पार करने के बाद उनके लिए लौटना नामुमकिन हो जाता। आखिरी बात यह थी कि बी.बी.सी. से जो मुझे सीखना और हासिल करना था, और वह कम नहीं था, मैं कर चुका था; सामान्य ‘इन्द्रधनुष’, ‘झंकार’, ‘सांस्कृतिक चर्चा’ और ‘बाल सभा’ जैसे अचार-चटनी मार्का कार्यक्रमों से ले कर, ‘आपका पत्र मिला’ और मुख्य भोजन वाले ‘विश्व भारती’ और ‘आजकल’ जैसे कार्यक्रम सफलता से कर चुका था। उसके बाद दुहराव का अन्तहीन सिलसिला था, जो काम के सन्तोष से ज़्यादा भौतिक सुख-सुविधा का जीवन जी पाने के अवसर ही जुटा सकता था।
लिहाजा जब 1983 की गर्मियों में मैंने अपने पिता को पांच महीने के लिए अपने पास बुलाया तो उनसे काफी विचार-विमर्श करके यह फैसला किया कि मुझे अब इस्तीफा दे कर घर चले जाना चाहिए। फिर चाहे मैं प्रकाशन देखूं या लिखूं या जो करूं। सुलक्षणा इंग्लैण्ड में बहुत रमी हुई थी। चलने से पहले उसे एक पुस्तकालय से नौकरी का प्रस्ताव भी आ गया था, जिसे स्वीकार करने पर हमारी स्थिति और बेहतर हो जाती। ओंकार भाई की पत्नी प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री कीर्ति चौधरी पुस्तकालय ही में काम करती थीं ओर उन्होंने उसकी सुविधाओं के बारे में सुलक्षणा को बता रखा था। इसलिए सुलक्षणा वापस इलाहाबाद के उसी माहौल में लौटने की बहुत इच्छुक न थी, जहां संयुक्त परिवार की बन्दिशें थीं; सास ही नहीं, जेठानी का भी आधिपत्य था। बच्चों को बहुत फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि दोनों वहाँ की जि़न्दगी में रच-बस गये थे। इस सबके बावजूद मैंने फायदों और नुकसानों को तोला तो लौटना ही ज़्यादा लाभकर लगा।
मगर इस्तीफा देने की बात कहना एक बात है, इस्तीफा देना दूसरी; क्योंकि इस्तीफा देते ही उसके मंजूर हो जाने की संभावना नहीं थी। साथ ही मकान को बेचने से ले कर सारा सामान समेट-समाट कर वापस जाने का बन्दोबस्त करने तक बीसियों झंझट थे। मेरी शंका को साबित करते हुए कैलाश बुधवार ने पहले तो जबानी तौर पर मुझे समझाया, कहा कि ऐसी नौकरी आसानी से नहीं मिलती, कि मैं अनुबन्ध पूरा करूं तो वे मुझे स्थायी रूप से नियुक्त करने के लिए सिफारिश करेंगे; उनके समझाने के बावजूद मैं अपने फैसले पर कायम रहा तो उन्होंने कहा, ‘ठीक है, जैसा तुम चाहो।’ और यह कह कर उन्होंने अपनी निजी सचिव से कहा, ‘कैरोल, नीलाभ विशेज टू रिजाइन। प्लीज टेक डाउन हिज़ रेविगनेशन लेटर।’ जब मैंने इस्तीफा लिखाकर दस्तखत कर दिये तो कैलाश ने उसे अपने पास रख लिया और कहा, ‘मेरा खयाल है, तुम अभी कुछ दिन और सोच लो। इस्तीफा तो लिखा ही गया है, लेकिन मैं इसे अभी आगे की कार्रवाई के लिए नहीं भेजूंगा।’
मेरे पिता उन दिनों मेरे पास आये हुए थे और उन्होंने जिद बांधी हुई थी कि मुझे वादे के मुताबिक वापस चलना चाहिए। जो मुझे शिकायतें हैं वे सब दूर कर दी जायेंगी। उनके हठ और माता-पिता के प्रति अपने जुड़ाव के चलते मेरा सारा प्रतिरोध ढह गया था। चूंकि अश्क जी कैलाश बुधवार से बहुत पहले से परिचित थे, लिहाजा उन्होंने कैलाश पर जोर दिया कि वे मुझे मुक्त कर दें। कैलाश ने उन्हें भी समझाने की कोशिश की, पर वे माने नहीं और उन्होंने विस्तार से कैलाश को सारी परिस्थिति से अवगत कराया। अन्त में कैलाश ने मेरा इस्तीफा मंजूर करके आगे की कार्रवाई के लिए भेज दिया। बतौर नोटिस मैं अनुबन्ध के बढ़ाये जाने के बाद एक साल बाद ही मुक्त हो सकता था, जिसका मतलब था कि मैं जून 1984 में जा कर मुक्त होता। लेकिन मेरी लगभग तीन-चार महीने की छुट्टियां बाकी थीं, मैंने उन्हें नोटिस की अवधि में समायोजित करा दिया और इस तरह अपनी रवानगी की तारीख़ को फरवरी तक खींच लाया।
इस्तीफे के स्वीकार हो जाने के बाद सबसे ज़रूरी काम था मकान को बेचना। लेकिन जिस समय मैंने लन्दन से वापसी की सोची थी, मकानों की कीमतें और पाडण्ड का मूल्य, दोनों ही गिरे हुए थे। लेकिन मैंने जि़न्दगी में अहम फैसले करते समय पैसों की परवाह कभी नहीं की। यहाँ तक कि जब ओंकार ने कहा कि अगर मैं महज तीन महीने बाद मई के अंत में जाऊं तो मुझे इंग्लैण्ड में स्थायी निवास का अधिकार मिल जायेगा और मैं भविष्य में जब चाहूंगा लौट सकूंगा तब मैंने उनसे कहा था कि अव्वल तो दोबारा इंग्लैण्ड आ कर रहने की नौबत ही नहीं आयेगी। और अगर आयी तो तब की तब देखी जायेगी।
पिता भी मेरे इस्तीफे के स्वीकार हो जाने से आश्वस्त हो गये थे और जब सितम्बर में खबर आयी कि मेरी मां को हल्का-सा स्ट्रोक हुआ है तो उन्होंने लौटने का फैसला किया। देखते-ही-देखते मकान का सौदा हो गया और मैंने दिसंबर में सुलक्षणा और बच्चों को मय साजो-सामान इलाहाबाद के लिए रवाना कर दिया। सामान ले जाने का खर्च मुझे बी.बी.सी. से मिलना था और चूंकि मैं निवास का स्थानान्तरण कर रहा था इसलिए जो चाहता, बिना महसूल अदा किये वहाँ से ला सकता था। कुछ लोगों ने कहा भी कि यह ले जाओ, वह ले जाओ, लेकिन मैं सिवा अकाई के एक उम्दा म्यूजिक सिस्टम के, वहाँ से और कुछ अतिरिक्त नहीं लाया। यूं मेरे पास पैनासानिक का एक म्यूजिक सिस्टम था, जो मैंने अपनी पुरानी मित्र और बी.बी.सी. की सहकर्मी अचला शर्मा के म्यूज़िक सिस्टम को देख कर लिया था; लेकिन अकाई का यह सिस्टम उससे कहीं बेहतर था और मेरे बड़े बेटे को भी पसन्द था। सो वही एक चीज़ मैंने फाजिल ली।
सुलक्षणा को वापस भेजकर मैं फिर बेज़वाटर के उसी इलाके में चला गया, जहां बी.बी.सी. का हास्टल था और जहां मैं चार साल पहले तीन महीने रहा था। लेकिन हास्टल में जगह नहीं थी, चुनांचे एक ऐसे मकान में जो अब किराये पर कमरे उठाने के काम ही आता था, मैंने एक कमरा ले लिया। फरवरी में मुझे चल देना था। ज़्यादातर सामान मैं हिन्दुस्तान भेज ही चुका था। सिर्फ अकाई का म्यूजिक सिस्टम था, सो मुझे कोई वैसी चिन्ता नहीं थी।
(जारी)
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