Saturday, September 19, 2015

तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा



क़िस्त सोम


हमारे बीबीसी पहुंचने के कुछ ही समय बाद रमा पाण्डे और नरेश कौशिक भी वहां आ शामिल हुए थे. दोनों आख़िरी दौर तक बीबीसी के उम्मीदवारों की सफ़ में हमारे साथ-साथ थे. संयोग की बात कि मनोज भटनागर (जो अब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह कर हमारा साथ छोड़ गये हैं) और मैं पहले चुन लिये गये. ख़ैर, रमा पाण्डे के मिज़ाज का अन्दाज़ा मुझे आवाज़ के टेस्ट और आख़िरी जी.के. के पर्चे के समय ही हो गया था, जब उसने बाहर आ कर हंसते हुए बताया था कि वो जी.के. में कुछ का कुछ लिख आयी है.
रमा प्रसिद्ध गायिका और अभिनेत्री इला अरुण की बहन है, हालांकि ये बात उसने हमें सरे-राहे यों बतायी मानो कह रही हो "नो बिग डील."
(इसी तरह उसने एक बार हंसते हुए बताया कि मंझली बहन होने की वजह से उसे इला से बहुत हसद होती थी और उसने एक बार इला के बहुत-से तमग़े नाली में फेंक दिये थे. तीन चार साल पहले जयपुर साहित्यिक उत्सव में जब रमा और इला से मेरी और रानी की मुलाक़ात हुई तो दोनों बहनों के आपसी लगाव को देख कर मुझे बेसाख़्ता वो क़िस्सा याद आ गया. रमा ने बड़े तपाक से इला से हमारा परिचय कराया था और हमें तो इला भी बिन्दास लगी थी.)
चूंकि हम ख़ुद नामी रिश्तेदारों से ख़ुद को जोड़ने के क़ायल नहीं चुनांचे: हमें रमा की यह फ़ितरत अच्छी लगी थी.. अलावा इसके रमा बहुत बहिर्मुखी है, आगे -आगे रहने की शौक़ीन, हंसने-हंसाने वाली, मन में कीना न रखने वाली, बातूनी, दोस्त-नवाज़ और उस विनोद-वृत्ति से कूट-कूट कर भरी हुई, हिन्दीवालों में जिसका अज़हद अभाव रहता है. चुनांचे: हमारी उस से पट गयी और आज तक पटती है, हालांकि अब मिलने-जुलने के मौक़े बहुत कम हो गये हैं. इला अरुण तो अपने लोकगीतों की अदायगी के लिए मशहूर हैं ही, रमा ने भी इनमें काफ़ी महारत हासिल कर रखी है, गो वह गाती नहीं है. सो, एक दिन बातों-बातों में रमा ने हमें एक दिलचस्प गीत नुमा चीज़ सुनायी --
"सांझ भयी दिन अथवन लागा 
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार, 
रात भयी चन्दा चमकानो, 
राजा छतियां लगावें चुमकार-चुमकार, 
भोर भयी चिड़ियां चहचानीं, 
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार"
बहुत बाद में चल कर हमने अपने एक और दोस्त ज्ञानरंजन के बारे में लिखते हुए अपनी किताब में उसका इस्तेमाल किया. बहरहाल, इससे आप रमा के मिज़ाज का अन्दाज़ा लगा लीजिये.
इसी तरह एक दिन रमा कंजी आंखों वाली एक सुन्दर गुजराती युवती को ले कर हमारे कमरे में आ धमकी और उससे हमारे सामने ही बोली, "देखो, यह आदमी तो बहुत दिलफेंक और गड़बड़ है, पर पूरे हिन्दी सेक्शन में अगर कोई तुम्हें काम सिखा सकता है तो यही वो आदमी है." हमारे लिए हमारी ये तारीफ़ साहित्य अकादेमी पुरस्कार से रत्ती भर कम न थी. वैसे, उन दिनों ख़ुद रमा हमारे एक पाकिस्तानी दोस्त शफ़ी नक़ी जामी को (जो संयोग से छै-सात साल बाद पाकिस्तान जाने पर पता चला कि हमारे मित्र कथाकार-आलोचक आसिफ़ अस्लम फ़र्रुखी का कज़न था) हिन्दी सिखा रही थी. उसने शफ़ी को इतना ताक़ कर दिया कि लौटने के बाद एक दिन नौस्टैल्जिया के मूड़ में जब हमने "खेल और खिलाड़ी" प्रोग्राम लगाया, जो कभी हम किया करते थे, तो शफ़ी के प्रसारण को सुन कर दिल बाग़-बाग़ हो गया था.
अचला तो थोड़ी नहीं, ख़ासी इन्टलेक्चुअल मिज़ाज थी, और है, और हमारी ही तरह "हिसाब-ए-दोस्तां दर दिल" के उसूल पर पर चलने वाली, मगर रमा पाण्डे की ख़सलत बिलकुल अलग क़िस्म की थी. ऐन मुमकिन था कि आप से शदीद झगड़ा हो जाने के घण्टे भर बाद वो आये और खिली-खिली मुस्कान फेंकते और गालों के गड्ढे खिलाते हुए सीधे ही किसी जुमले से लड़ाई को दफ़्न कर दे, जो शायद न मेरे बस की बात है, न अचला के. हिन्दुस्तान लौट आने के बाद रमा से बहुत दिन तक मुलाक़ात नहीं हुई, पर फिर राबिता क़ायम हो गया और अब कभू-कभार मुलाक़ात हो जाती है और देख कर अच्छा लगता है कि सरापा बदल जाने के बावजूद रमा की सीरत नहीं बदली.
तेज़ी से बदलती इस दुनिया में यह क्या कोई कम बात है.
मज़े की बात देखिये, अभी कुछ महीने घर-बदर कर दिये जाने के बाद एक रोज़ जब हम अपने काग़ज़ात उलट-पलट रहे थे तो हमें वो रुक़्क़ा हाथ लगा जिस पर रमा ने अपने डील-डौल से मेल खाते बड़े-बड़े अक्षरों में ऊपर वाला गीत लिख कर दिया था. हमने अचला के कार्ड की तरह उसे भी संभाल कर रखा हुआ है और इसे अपनी ख़ुशनसीबी मानते हैं कि घर-बदर होते हुए तमामतर चीज़ों में से, जो दुनियावी नज़रों में क़ीमती मानी जायेंगी और हमें अज़ीज़ भी थीं, हम इस क़िस्म की अनमोल दौलत बचा लाने में कामयाब रहे.

(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें.
आखिरी क़िस्त अब कल सुबह की सभा में प्रसारित होगी क्योंकि एक दिन में ऐसे क़िस्से की तीन क़िस्तें ही ज़ायद हैं, चार तो यक़ीनन हाज़्मे के लिए नामुनासिब होंगी.)

Tuesday, September 15, 2015

तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा


क़िस्त दोयम

अगर हम वाक़फ़ियत के लिहाज़ से चलें तो सबसे पहले हमारी जान-पहचान अचला शर्मा से हुई, जो हमारे बीबीसी से चले आने के बरसों बाद वहां की कामयाब प्रोग्राम और्गनाइज़र यानी प्रमुख बनीं और काफ़ी मक़बूल साबित हुईं.

अचला को हम पहले से जानते थे, उनका पहला कहानी संग्रह "बर्दाश्त बाहर" शाया करने का शर्फ़ हमें हासिल हुआ था. ये तो महज़ इत्तेफ़ाक़ था कि वे आकाशवाणी से डेप्युटेशन पर बीबीसी तब पहुंचीं, जब हम वहां साल भर गुज़ार चुके थे. हिन्दुस्तान में छूटा हुआ धागा वहां फिर जुड़ गया.
अचला की पहली शादी हमारे दोस्त और अग्रज रमेश बक्षी से हुई थी, जो बहुत अच्छे कथाकार और नाटककार थे और जिनके नाटक "देवयानी का कहना है" को हम एक शानदार नाटक मानते हैं. अचला की उनसे पटी नहीं और वो आकाशवाणी में चली गयी. अचला बेहद ज़हीन थी, ख़ुद भी अच्छी कहानीकार है और माहिर ब्रौडकास्टर, ऊपर से इण्टलेक्चुअल, जो साहित्य और राजनीति पर यकसां दख़ल रखती है. चुटीली फब्तियां कसने में उसका कोई जवाब नहीं और काफ़ी प्रबुद्ध महिला है, जो बिना ढोल-नगाड़े पीटे स्त्री-मुक्ति में यक़ीन रखती है. हमारी-उसकी चपकलश के सैकड़ों क़िस्से हैं, दोस्तो, जिन्हें हम बयान करने बैठें तो रात बीत जाये और क़िस्से का उन्वान बदल कर एक मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिला करना पड़े.यह हम भी नहीं चाहते और यक़ीनन आप भी नहीं चाहते होंगे.तो हम बस एक अदद मद का ज़िक्र करके आगे बढ़ते हैं.
एक दिन हमने अपने पसन्दीद: शाइर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब का शेर पढ़ा "छेड़ ख़ूबां से चली जाये असद / गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही." अचला ने फ़ौरन टोका,"नीलाभ, सही शेर है - यार से छेड़ चली जाये असद." हम अड़ गये. ये वाक़या उस होली का है, जिसकी पार्टी हमारे सीनियर सहकर्मी ओंकार नाथ श्रीवास्तव ने अपने उत्तरी लन्दन वाले आशियाने में दी थी.
अचला ने वही किया जो ऐसे में लोग करते हैं -- दीवान ला कर हमारे मुंह पर दे मारा. हम भी कहां हार मानने वाले थे, बोले -- हम अहल-ए-दीवान नहीं, अहल-ए-ज़बान हैं, हमने इस शेर को इस रूप में भी सुना है, हो सकता है, ग़ालिब के काग़ज़ात में ये वाला दूसरा प्रारूप छुपा हुआ हो, वरना लोग इसे इस रूप में क्यों याद रखते." मुक़ाबला बराबरी पे छूटा, जिसमें दोनों फ़रीक अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए थे.
फिर समय बीता, ख़ाकसार ने बीबीसी से इस्तीफ़ा दे दिया. चलते वक़्त अचला ने विदाई का एक कार्ड दिया, जिसमें लिखा था "यार से छेड़ चली जाये असद...नीलाभ, हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."
बीबीसी से आये 31 बरस बीत चुके हैं, अचला बीबीसी हिन्दी सर्विस की प्रमुख बनने के बाद एक कामयाब पारी खेल कर रिटायर हो चुकी है, पर वो कार्ड आज तक मेरे पास है, और वो सतर, "हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."

(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें)

Sunday, September 13, 2015

तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा



 क़िस्त अव्वल

साहबो,
जब-जब हम फ़ेसबुक पर आते हैं, हमें अपनी अज़ीज़ा गीताश्री का ख़याल हो आता है. ये क़िस्सा उन्हीं के मुतल्लिक़ है. और उनके हवाले से हमारी दो और दोस्तों से.
जिन क़द्रदानों ने हमारे क़िस्सों पर नज़रसानी की है, वे इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ हो गये होंगे कि हमें बात चाहे ज़री-सी कहनी हो, मगर हमारी कोशिश यही रहती है कि वह मुन्नी-सी बात भी एक अदा से कही जाये जिससे हमारे सामयीन का दिल भी बहले और हमें भी कुछ तस्कीन हो कि हमने वक़्त ज़ाया नहीं किया. ये बात दीगर है कि बहुत-से लोग तो यही कहते पाये गये हैं कि हम वक़्त ज़ाया करने के अलावा कुछ करते ही नहीं, कि हमारे पास वक़्त के सिवा और बचा ही क्या है जिसे ज़ाया करें. ख़ैर, जैसा कि देवभाषा में कहते हैं -- "मुण्डे-मुण्डॆ मतिर्भिन्ना." यों बाज़ लोगों का कहना है कि अच्छा क़िस्सागो वही हो सकता है, जो बातूनी हो, लफ़्ज़ और फ़िक़रे जिसकी ज़बान पर रस छोड़ते हों. हमें भी इस बात से पूरा इत्तेफ़ाक़ है. चुनांचे: हमने इन दोनों कलाओं -- क़िस्सागोई और जिसे अंग्रेज़ी में कौन्वरसेशन या स्मौल टौक भी कहते हैं, बड़ी काविश से महारत हासिल की है. गो इसके चलते हमने एकाधिक मित्र खोये हैं, क्योंकि आजकल का मिज़ाज फ़ास्ट का है, ख़्वाह वो फ़ूड हो या फ़न (दोनों हिन्दी-अंग्रेज़ी मानी में).
बहरकैफ़, बात आज के क़िस्से की चल रही थी, जो तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं (ज़रा अनुप्रास की छब और छटा पर ग़ौर करें, मेहरबान) के बारे में है.
अब आप सोच रहे होंगे कि ये किन ख़वातीन का ज़िक्र हुआ चाहता है. तो हम ससपेन्स में कटौती करते हुए आपको शुरू ही में बता दें कि ये तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाएं हैं....दिल थाम कर बैठिये हुज़ूर .... गीता श्री, अचला शर्मा और रमा पाण्डे, जिनमें से दो आख़िरी शख़्सियतें बीबीसी में हमारी सहकर्मी रहीं और पहली मोहतरमा से हमारा परिचय बीबीसी से लौटने के काफ़ी बाद यहां इस शहर शाहजहानाबाद उर्फ़ दिल्ली में हुआ. यह पोस्ट दरअसल गीताश्री के बारे मॆं है, जिनकी याद, जैसा मैंने पहले ही अर्ज़ किया, मुझे फ़ेसबुक पर आते ही हर बार हो आती है.

(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें)

Tuesday, September 8, 2015

एक औलिया की ज़बानदानी



दोस्तो,
इधर कुछ दिनों से हमें ये ख़दशा बुरी तरह सताने लगा है कि रफ़्त:-रफ़्त: हम औलियों की कोटि में पहुंचनेे वाले हैं. बात यों है कि जब लोग हम जैसे सीधे-सादे (अपनी तरफ़ के गांव-जवार की बोली में कहें तो "सोधे") शख़्स से उस के ग़लत गुणों-अवगुणों की वजह से रश्क करने लगें तो मामला कुछ ऐसा ही होता है. यानी दिगरगूं.
अब यही देखिये कि कुछ दिन पहले हमारे एक युवा मित्र ने जो ख़ासे ज़हीन हैं मगर अपनी तमामतर ज़हानत को एक बिल्ली के प्रेम में ज़ाया कर रहे हैं और आये दिन उसकी फोटू चिपकाय-चिपकाय के हम लोगों का सुख-चैन हराम किये रहते हैं, हमें अपनी हसरत-भरी आंखों से देखते हुए ययाति के लक़ब से नवाज़ा दिया.
कल एक और युवा मित्र ने, जो ख़ासे लड़ाके मशहूर हैं और अब नौ हज़ार चूहे खाने के बाद सब त्याग कर योग की शरण चले गये हैं, हमारी उमर के ब्योरे तलब करने के बाद हमारे बुढ़ापे पर तंज़ करते हुए हमारा शुमार "जवानों" में कर डाला.. पिछले दिनों किन्हीं और वजूहात से लोग हमारे बारे में तरह-तरह की चर्चा-कुचर्चा में मुब्तिला रहे ही हैं.
और रही-सही क़सर आख़िरी तिनके की मसल पर अमल करते हुए जब आज हमारी एक सगोतिया युवा और प्रतिभाशाली कवयित्री ने हमारी कविता के नहीं, बल्कि एकाधिक भाषाओं की हमारी जानकारी के सबब हमसे ईर्ष्या का इज़हार करते हुए पूरी कर दी, तो हमको यक़ीन हो गया कि हम चाहें या न चाहें, हमारे ये शुभ-चिन्तक हमें सूली पर देख कर ही ख़ुश होंगे.
बहुत दिन पहले एक कहावत पढ़ी थी कि कुछ तो पैदाइशी औलिया होते हैं, कुछ अपने कर्मोम से औलिया बनते हैं, मगर कुछ ऐसे ख़ुश या बद नसीब होते हैं जिन पर औलियाई थोप दी जाती है.लगता है कि हम इस तीसरी कोटि में प्रवेश किया ही चाहते हैं. लगातार हमें हृत्कम्प होता रहता है कि या रब्ब, अब और क्या हमें देखना बाक़ी है.
बहरहाल यह तो उस कहानी की भूमिका मात्र है जो हम आपके सामने बयान करना चाहते हैं उस आख़िरी टीप के हवाले से जो हमारी ज़बानदानी के सिलसिले में की गयी. मगर उसे हम एक अदद चाय की चुस्की और एक सुट्टा 501 नम्बर गणेश छाप मंगलूर बीड़ी का लगा कर बयान करेंगे. तब तक जिसे रुख़सत होना है वो किसी दूसरे के लिए जगह ख़ाली करके फ़ेसबुक सर्फ़िंग का एक दौर पूरा कर ले. (क़िस्सा जारी है).

लीजिये आपके इन्तज़ार की घड़ियां ख़त्म करते हुए  क़िस्सा पेश है.

हां तो जनाब, अब हम क़िस्से को आगे बढ़ाते हैं, मगर उससे पहले दो बातें. पहली यह कि हर माहिर क़िस्सागो जानता है कि जब तक क़िस्से में पेंच-ओ-ख़म न हों, लज़्ज़त नहीं आती. चुनांचे: हमने एक भूमिका पहले ही लगा दी और अब इस क़िस्से को जो एक बाहुनर, बावक़ार मलियाली शख़्स की सलाह से ताल्लुक़ रखता है, बयान करने से पहले कुछ पुरपेंच गलियों की सय्याही करने की इजाज़त चाहते हैं. दूसरी बात यह है कि हमने बहुत पहले संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था जो अरसिकों से काव्य निवेदन करने से सम्बन्धित है. जाने भर्तृहरि का था या कालिदास का. कुछ यों था --

इतरकर्मफलानि यद्दच्छ्या विलिखितानि सहे चतुरानन |
अरिसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मालिखमालिखमालिख ||
(हे चतुरानन, मेरी ज़िन्दगी के दूसरे प्रसंगों के सिलसिले में तुम मेरे नसीब में चाहे जो लिखना चाहो या गवारा करो, मुझे स्वीकार होगा, मगर अरसिकों के सामने काव्य निवेदन करने का नसीबा मुझे मत देना, मत देना, मत देना.)

तो जिनको इतना पढ़ने के बाद जमुहाई सताने लगे, वे बराये-मेहरबानी तशरीफ़ ले जायें. ताकि हम क़िस्से को आगे बढ़ा सकें.

बात उस समय की है, जब हमारी उमर मुश्किल से 23 बरस की थी. शादी हुए फ़क़त पांच हफ़्ते हुए थे कि हमें अपने बड़े भाई के साथ केरल के दौरे पर जाना पड़ा. आसानी यह थी कि संयुक्त परिवार था और हमें यह फ़िक्र न थी कि हमारी नयी ब्याही बीवी को अकेलेपन का सामना करना पड़ेगा. उन दिनों आज जैसी तेज़-रौ रेलगाड़ियां नहीं थीं, न रिज़र्वेशन की ऐसी सुविधा, न सीधा कनेक्शन. इलाहाबाद से इटारसी, इटारसी से गाड़ी बदल कर मद्रास और मद्रास से फिर लम्बा सफ़र मीटर गेज की गाड़ी पर तय करते हुए तिरुवनन्तपुरम. 

ख़ैर साह्ब, इटारसी से हम जी.टी. पर सवार हो गये. भोर में कोई चार बजे हम नेल्लूर-गुण्टूर के क़रीब आन्ध्र-तमिलनाडु की सीमा पार कर रहे थे कि एक अख़बार वाला आया और बोला कि  अन्नादुरै का देहान्त हो गया है. यह सुनना था कि लोगों ने फटाफट खिड़्कियां बन्द करना शुरू कर दिया. हम चकित. अभी आन्ध्र में थे और लोग भी ज़्यादातर आन्ध्रवासी थे. बोले, देखते चलिये, अभी लोग पत्थर चलाने लगेंगे. हमें और हैरत हुई. हमने कहा यह तो दुख का मौक़ा है, पत्थर चलाने की क्या ज़रूरत. और फिर अन्नादुरै का क़त्ल तो हुआ नहीं है. बोले यहां के लोग ऐसे ही पागल हैं. बहरहाल. कुछ देर बाद सचमुच खिड़कियों से कुछ पत्थर आ टकराये. 

सुबह हुई. हम मद्रास पहुंचे तो पहली बार मैंने टोटल हड़ताल का मंज़र देखा. मैं मान गया कि तमिलनाडु सार्वजनिक हड़तालों के सिलसिले में हिन्दुस्तान का सूबा-ए-सिरमौर है. कुछ नहीं चल रहा था. हम मद्रास सेण्ट्रल पर थे और हमें शाम को वह गाड़ी पकड़नी थी जो एगमोर से तिरुवनन्तपुरम जाती थी. मज़े की बात यह कि खाने को भी कुछ नहीं मिल रहा था. किसी तरह जुगाड़ करके कुछ साम्बर-भात का जुगाड़ किया गया और एक चार पहिये की ठेला गाड़ी पर सामान रखे (बैग, सूटकेस, प्रकाशन की किताबों का ट्रंक, आदि), ठेलेवाले के साथ बराबर का हाथ लगाते हुए हम एगमोर पहुंचे.

(बाद में मुझे राजीव गान्धी की हत्या के बाद हैदराबाद में कुछ इसी क़िस्म का नज़ारा देखने को मिला जब मैं वहां गोलकुण्डा के साउण्ड ऐण्ड लाइट शो की स्क्रिप्ट लिखने के सिलसिले में ठहरा हुआ था और मैंने किसी लोकप्रिय नेता की मौत या गिरफ़्तारी पर हड़ताल और ख़ुदकुशियों की उस प्रवृत्ति को पहचाना जो आन्ध्र और तमिलनाडु में आम है. यह बात अलग है कि तमिलनाडु इसमें अव्वल है और  बाज़ी मार ले जाता है.)

ख़ैर, इस विषयान्तर के बाद, आगे बढ़ें तो रात को हम केरल जाने वाली गाड़ी में जा सवार हुए. रात भर से ज़्यादा की सफ़र था और भीड़ नाम मात्र को थी. हमारे डिब्बे में एक और शख़्स था. उससे बातों का सिलसिला चल निकला. नाम तो उसका अब इतने बरस बाद याद नहीं, पर उसकी सूरत-शक्ल आज भी स्मृति में नक़्श है. आम मलियालियों की तरह सांवला रंग था उसका, गठा हुआ छरहरा लम्बा क़द, तीखे नख-शिख, बदन पर सफ़ेद लुंगी और सफ़ेद ही बुश्शर्ट. बोली में अनुभव के कशिश और ख़ुशबू. पता चला बहुत दिन कराची और उधर फ़्रण्टियर सूबे तक के इलाक़े में कटे हैं उसके. दिलचस्प शख़्सियत का मालिक था.

बातों-बातों में मैंने ज़बानें सीखने के अपने शौक़ का ज़िक्र किया. तब उसने मुस्कराते हुए जो कहा वह मैं आज तक नहीं भूला. बोला, हमारे यहां एक कहावत है कि अगर कोई भाषा सीखनी हो तो उस भाषा-भाषी प्रान्त की लड़की से शादी कर लो. मैंने कहा, इससे तो बहुत मुश्किल पैदा हो जायेगी. कारण यह कि अगर कोई एक से ज़्यादा ज़बानें सीखना चाहे तो.... इस पर वह कुछ नहीं बोला. सिर्फ़ अपनी मानीख़ेज़ मुस्कान बिखेरता रहा. फिर बातें दूसरी तरफ़ मुड़ गयीं.

आज जब रश्मि भारद्वाज ने भाषाओं की मेरी जानकारी की बात उठायी तो बेसाख़्ता मुझे 46 साल पहले की यह घटना, वह मलियाली सज्जन, और वह पहली केरल यात्रा ज़ेहन में कौंध गयी. 

(मेहरबानी करके इससे यह अन्दाज़ा मत लगा लीजियेगा कि अपने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, पंजाबी और बांग्ला ज्ञान के लिए मुझे कोई वैसी हिकमत-अमली आज़मानी पड़ी है, जैसी उन मलियाली सज्जन ने तजवीज़ की थी. यों हमारे कुछ टेढ़ी नज़र वाले दोस्त इस क़िस्से से ये नसीहत निकाल कर पेश कर सकते हैं कि एक पत्नीव्रत लोगों को एक से ज़्यादा भाषा नहीं सीखनी चाहिये, ज़रूरत ही क्या है.)     


Tuesday, August 25, 2015

मुसन्निफ़ की तलाश में


मुसन्निफ़ की तलाश में

एक किताब का ख़ाका




बया उरीद गर ईं जा बुवद ज़बाँदाने 
ग़रीबे-शहर सुख़नहा-ए-गुफ़्तनी दारद
((ज़बानें जानता हो जो बुला के लाओ उसे
शहर में एक परदेसी बताना चाहे बहुत कुछ))
-- ग़ालिब
दोस्तो, 
जैसे-जैसे हम साठे-तो-पाठे की मसल पर पाठे होने के बाद बाइबल के तीन कोड़ी और दस बरस की तरफ़  बढ़ते गये हैं, हम देख रहे हैं कि दिमाग़ का ख़लल और दिल का जुनून उसी रफ़्तार से बढ़ता गया है. उम्र कम होती देख कर ग़ैब ने भी, हमारे साईं ने जैसे कहा था, ख़यालों में मज़ामीन भेजने की कुछ ज़ियादा ही ठान ली है. मगर ऐसा तो हमारे साईं के साथ भी हुआ था (हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले). बहरहाल, चूंकि आजकल रात बहुत देर हो जाती है, ज़िन्दगी कुछ ठीक नहीं चल रही, चुनांचे सुबह कुछ अजीब-ओ-ग़रीब ख़याल आते हैं. 

आज ग़ैब ही से आया एक नाम उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां साहब. हमने यूट्यूब खोला और अपनी पसन्दीदा दो रचनाएं सुनीं -- एक भैरवी और एक मराठी जिसके दो रूप मिले.फिर जाने क्या सूझी साहेबो, हमने विकीपीडिया पर उस्ताद साहब का पेज खोला. पढ़ने से पहले दायीं तरफ़ नज़र डाली देखा जन्म और मौत की तारीख़ों के नीचे औलाद के नाम पर लिखा था सुरेशबाबू माने. हम एकबारगी चकरा गये. ख़ान साहब की ज़िन्दगी के बारे में पढ़ा. पैदाइश सन 1872 में कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश एक क़दीमी मूसिकारों के ख़ानदान में. तालीम अपने वालिद उस्ताद काले ख़ां साहब से और चचा अब्दुल्ला ख़ां से और कुछ रहनुमाई एक और चचा नन्हे ख़ां से. पहले सारंगी में शुरुआत, फिर वीणा, तबला और सितार को आज़माने के बाद गायन का फ़ैसला. अपने भाई अब्दुल हक़ के साथ गाने की शुरुआत और जगह-जगह राह-पैमाई. आख़िर पहुंचे बड़ौदा जहां दोनों को दरबारी संगीतकार का दर्जा मिला. 

यहीं से क़िस्मत ने अपना खेल दिखाना शुरू किया. राजमाता के भाई थे मराठा गोमान्तक सरदार मारुति राव माने, जिनकी बेटी तारा बाई को सिखाते-सिखाते कब दोनों इतने क़रीब आ गये कि पता भी न चला और दोनों शादी की ठान बैठे. ख़ूब बावेला मचा. मगर सरदार सरदार थे तो तारा बाई दुख़्तरे-सरदार. देश निकाला मिला उस्ताद को भी, उनकी नयी ब्याही बीवी को भी और भाई को भी. अब्दुल करीम ख़ां साहब बम्बई चले आये और वहां बस गये. 1902-1922 के बीच पांच बच्चे हुए -- अब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना. 1922 में ताराबाई ने पति से अलग होने का फ़ैसला किया और बच्चों का फिर से नामकरण किया और अब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना बन गये (रुकिये और दिल थाम कर बैठिये, क्योंकि यहीं से इस क़िस्से का सबसे बड़ा मोड़ आने वाला है) सुरेशबाबू माने, हीरा बाई बड़ोदकर, कृष्ण राव माने, कमला बाई बड़ोदकर और सरस्वती राणे. जी, वही हीरा बाई बड़ोदकर जिन्हें सरोजिनी नायडू ने गान कोकिला कहा था और वही सरस्वती राणे जिन्होंने अपने पार्श्व गायन से धूम मचा दी थी. इसके बाद उस्ताद का गाना भी बदल गया, उसमें ज़्यादा अवसाद आया गहराई आयी. वे और दक्षिण उतरे और संगीतकारों की स्वाभाविक जन्मभूमि कोल्हापुर, धारवाड़ और मैसूर आने-जाने के क्रम में मिरज में बस गये. इससे पहले वे 1913 में पूना में आर्य संगीत विद्यालय खोल चुके थे जहां वे अन्य उस्तादों के उलट सबको तालीम देते थे. यही सिलसिला बाद में भी चलता रहा जब उन्होंने अपने चचेरे भाई उस्ताद वहीद ख़ां के साथ किराना घराना की शाख़ वहां जमायी और करनाटकी शैली के मेल से एक क्रान्ति पैदा कर दी.

आर्य संगीत विद्यालय में उस्ताद साहब से संगीत की तालीम हासिल करने के लिए  1920 में आयी 1905 में गोआ में जन्मी सरस्वतीबाई मिरजकर नाम की शिष्या भी थी. ख़ान साहब और ताराबाई के सम्बन्ध-विच्छेद के बाद उस्ताद साहब ने सरस्वतीबाई से शादी कर ली जिन्होंने अपना नाम बानूबाई लत्कर रख लिया और दोनों मिरज जा कर बस गये और मद्रास और मिरज में समय गुज़ारने लगे. बानूबाई के पहले-पहले रिकार्ड 1937 में रिलीज़ हुए, ख़ान साहब के गुज़रने के बाद. मिरज में ख़ान साहब की दुनियावी विरासत उन्हीं को मिली और वे मिरज ही में रहीं. धीरे-धीरे उन्होंने अपने को संगीत की दुनिया से पीछे खींच लिया और एक नितान्त निजी ज़िन्दगी जीती रहीं. 1970 में मिरज में उनका इन्तेक़ाल हुआ और वहीं उस्ताद साहेब की क़ब्र के बग़ल में उन्हें दफ़्नाया गया. 

लेकिन हज़रात और ख़वातीन, हमारा मक़सद सिर्फ़ उस्ताद साहब की ज़िन्दगी का बयान करना ही नहीं था. यह तो असली तरंग-ए-ग़ैब की भूमिका थी. हमारी दिलचस्पी का सबब यह था कि वो कौन-सी बात थी जिससे ताराबाई लगभग पच्चीस साल की शादी-शुदा ज़िन्दगी को छोड़ कर अलग हो गयीं और उन्होंने बच्चों के दोबारा नामकरण भी कर डाले. ख़याल रहे कि अलहदगी के समय बड़े बेटे की उमर थी बीस और सबसे छोटी की नौ. क्या सरस्वतीबाई मिरजकर का भी कोई दख़ल इसमें था ?

चूंकि इस प्रसंग का हमारी ज़ाती ज़िन्दगी से भी कुछ कांटा भिड़ता है, चुनांचे: हमें इसमें एक बड़े उपन्यास की सम्भावना नज़र आयी. मज़े की बात यह है कि बेटे को तालीम बाप ने दी और बड़ी बेटी को उसके चचा उस्ताद वहीद ख़ां साह्ब ने. उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां के सबसे बड़े शिष्य थे सवाई गन्धर्व और शिष्या सुरश्री केसर बाई केरकर. यह वही किराना घराना 

याद रहे यह वो ज़माना था, जब सामने बैठ कर सुनने की सहूलत ही थी, छोटी महफ़िलों से ले कर बड़े-मझोले सम्मेलनों तक. फिर आया गिरामोफ़ोन का युग. पहले-पहले 78 RPM (revolutions per minute) रिकार्ड बने. मीयाद 3-3.30 मिनट. अब सोचिये, पक्के राग जो रात-रात भर गाये जाते थे, 3-3.30 मिनट में पेश करने पड़े. यहीं उस्ताद अब्दुल करीम ख़ान साहब की प्रतिभा के दर्शन होते हैं. यही गुण बहुत बाद में चल कर हमें रवि शंकर और विलायत ख़ां और अमीर ख़ां साहब में नज़र आता है.

इसी मुक़ाम पर पहुंच कर इस कहानी में गौहर जान की कहानी भी जोड़ी जा सकती है जो अब्दुल करीम ख़ान साहब से एक साल बाद 1873 में पैदा हुईं और उस्ताद साहब से सात साल पहले 1930 में गुज़र गयीं. गौहर जान का जन्म पटना में ऐन्जेलीना येओवर्ड के रूप में हुआ था. पिता विलियम राबर्ट येओवर्ड आर्मीनियाई यहूदी थे जो आज़मगढ़ में बर्फ़ फ़ैच्टरी में इन्जीनियर थे जिन्होंने 1870 में एक आर्मीनियाई यहूदी लड़की ऐलन विक्टोरिया हेमिंग से शादी की थी.विक्टोरिया का जन्म और लालन-पालन हिन्दुस्तान में हुआ था और उन्हें संगीत और नृत्य की तालीम मिली थी.  दुर्भाग्य से, 1879 में यह शादी नाकाम साबित हुई और मां-बेटी पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. विक्टोरिया अपनी बेटी को ले कर 1881 में एक मुस्लिम सामन्त ख़ुर्शीद के साथ, जो विक्टोरिया के संगीत को उनके पति की बनिस्बत ज़्यादा सराहते थे, बनारस चली आयीं. आगे चल कर विक्टोरिया ने इस्लाम अपना लिया और अपना नाम मलिका जान और बेटी का नाम गौहर जान रख दिया.

1902 में हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना हुई. इसी साल "ग्रामोफ़ोन कम्पनी" ने गौहर जान को आमन्त्रित किया कि वो कम्पनी के लिए गानों की एक श्रृंखला रिकार्ड कर दें. ये रिकार्ड बरसों तक कम्पनी की शान बने रहे. गौहर जान को हर रिकार्ड के लिए 3000 रु. दिये गये थे जो उस समय के हिसाब से एक बहुत बड़ी रक़म थी. 1902-1920  तक गौहर जान ने दस भाषाओं में  600 से ज़्यादा गाने रिकार्ड कराये. वे हिन्दुस्तान की पहली "रिकार्डिंग सितारा" बनीं, जिन्होंने बहुत जल्द ही रिकार्डों की अहमियत समझ ली थी. इसे भी दर्ज किया जाना चाहिये कि गौहर जान ही ने शास्त्रीय टुकड़ों को 3-3.30 मिनट में पेश करने की हिकमत विकसित की थी, क्योंकि 78 RPM वाले तवों की बन्दिश के चलते "ग्रामोफ़ोन कम्पनी" ने इस पाबन्दी पर ज़ोर दिया था. और यह मान-दण्ड तब तक क़ायम रहा जब तक कि कई दशकों बाद एक्स्टेण्डेड प्ले और लौंग प्ले रिकार्ड नहीं बनने लगे. 

चूंकि अब्दुल करीम ख़ान साहब ख़ुद ग्रामोफ़ोन तवों की अहमियत से वाक़िफ़ थे और 78 RPM के रिकार्डों की बन्दिश के अन्दर-अन्दर शास्त्रीय राग पेश करने का एक मेआर क़ायम कर रहे थे, चुनांचे वे गौहर जान से नावाक़िफ़ तो नहीं ही होंगे. 

कौन लिखेगा यह कहानी जो खां साहब के माध्यम से किराना घराने और जयपुर अतरौली घरानों को जा कर जोड़ती है धारवाड़-कोल्हापुर-मिरज में ? जिससे सवाई गन्धर्व, केसरबाई केरकर और आगे चल कर वसवराज राजगुरु, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदकर, बेगम अख़्तर और मुहम्मद रफ़ी जैसे गायक और रामनारायण जैसे सारंगी वादक निकले. कौन लिखेगा ख़ां साहब की अपनी व्यथा और तारा बाई की और बच्चों की. और गौहर जान और उनके योगदान की. आह ! साहबो, हमें तो उमर ने इस लायक़ नहीं रखा कि बिना अच्छी तरह पड़ताल और जानकारी के ये क़िस्सा लिख सकें. वरना क़सम अपनी देवी सरस्वती की, पच्चीस का सिन होता तो जाते, पांच बरस पता लगाने में लगाते और पांच लिखने में. मगर तब तक क्या हमारी ज़िन्दगी मे वो ज़लज़ला आ चुका होता जो खां साहब की ज़िन्दगी में पचास बरस और हमारी ज़िन्दगी में इक्यावन बरस की उमर में आया जिसने हमें इस क़िस्से की कुछ बारीक़ियां समझने की सलाहियत दी ? है कोई मर्द-ए-मैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून जो इस काम को ख़ुश-असलूबी से करे. वैसे, जब हम ये सब लिख चुके थे तो हमें इत्तफ़ाक़ से  जानकी बाखले की किताब Two Men And Music: Nationalism In The Making Of An Indian Classical Tradition का पता चला. जो थोड़ा-बहुत अंश फ़्लिपकार्ट वालों ने बतौर झलक दिखाया उससे अन्दाज़ा हुआ कि इस घराने की काफ़ी कुछ जानकारी वहां से मिल सकती है. उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां और ताराबाई वाला प्रसंग भी प्रसंगवश उसमें आया है. मगर बहुत कुछ ऐसा है जिसके लिए कैराना, बड़ोदा, बम्बई, पूना, कोल्हापुर, धारवाड़, मिरज, मैसूर और मद्रास की यात्रा करने, संगीत के प्रति दिलचस्पी होने, संगीत सीखने-सिखाने और रियाज़ करने की  और उस ज़माने की रिकौर्डिंग तकनीक और माहौल की जानकारी हासिल करने और थोड़ा-सा उस ज़माने के इतिहास को जानने की दरकार पड़ेगी. काम मुश्किल ज़रूर है, पर नामुमकिन नहीं. और यह तो हमारा उस महान साझी हिन्दुस्तानी परम्परा के तईं हमारा ख़िराज होगा, बशर्ते कि हम इस महान परम्परा और उसके वुजूद को तस्लीम करें. आज तो हालात ने हमें बहुत मजबूर कर दिया है, पर अगर हमारे पास ज़राए’ होते तो आज के हिसाब से हम दो लाख रुपये इस काम के लिए वक़्फ़ कर देते. कल अगर हालात ने पलटा खाया और हम इस क़ाबिल हुए तो हम ये रक़म देने में उज्र न करेंगे. पैसे का ज़िक्र हमने इसलिए किया कि जज़्बे और मेहनत और लगन का कोई मोल नहीं  दिया जा सकता, वह अनमोल है, पर जो यात्राएं हमने तजवीज़ की हैं, उनमें पैसा लगता है, मय किराये-भाड़े के, अगर सेकेण्ड क्लास भी जाया जाये. कुछ किताबें जुगाड़नी पड़ेंगी. एक सफ़री टेप रिकौर्डर और कैसेट लेने होंगे. और भी कुछ अख़राजात हो सकते हैं. हम महात्मा गान्धी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए कुछ इसी क़िस्म का काम कर चुके हैं, चुनांचे तजरुबे से बोल रहे हैं. एहतियात रहे कि अगर इस पर उपन्यास न भी बन पड़े, तो कम-अज़-कम एक बेहतरीन क़िस्से का मज़ा ज़ुरूर रहे, जिसका मेआर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने अपने तवील क़िस्से "कई चांद थे सरे-आस्मां" में क़ायम कर दिया है.  है कोई मर्द-ए-मैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून ?
(तमामशुद)

Friday, July 31, 2015

अपने आप से लम्बी बहुत लम्बी बातचीत



#

अपने आप से एक लम्बी 
बहुत लम्बी बातचीत करने के लिए 
तुम ढूँढते रहे हो
इस शहर के सम्पूर्ण विस्तार में
कोई एक निजी और बेहद अकेली जगह
जो कहीं भी तुम्हें अपने आप से अलग नहीं होने देगी
2.
सारे का सारा दिन
एक डूबता हुआ जहाज़ है।
अर्से से डूबता हुआ।
सारी शक्ति से समुद्र के गहरे अँधेरे को
अपना शरीर समर्पित करता हुआ।

जहाज़। धूप में। डूबता हुआ।
अर्से से डूबता हुआ।
असफल। नाकामयाब...
...और रात। रात नहीं,
चारों ओर फैला वहीं अटल और आदिम कारागार है -
अपने अन्धकार के साथ इस धरती की उर्वरता पर छाया हुआ

परती पर उगा कारागार
जिसके पार
अब कोई आवाज़ - कोई आवाज़ नहीं आती
सच्ची बात कह देने के बाद
कोई चीख़ नहीं... कोई पुकार नहीं....
कोई फ़रियाद नहीं... याद नहीं...
तुम्हारा अकेलापन इस कारागार का वह यातना-गृह है,
जहाँ अब बन्दियों के सिवा कोई नहीं।
कोई नहीं, चीख़ता हुआ और फ़रियाद करता हुआ और उदास...
उदास और फ़तहयाब...
सच्ची बात कह देने के बाद
3.
सच्ची बात कह देने के बाद 
चुप हो कर तुम सहते रहोगे इसी तरह
उस सभी ‘ज़िम्मेदार और सही’ लोगों के अपमान।

नफ़रत करते हुए और जलते हुए और कुढ़ते हुए।

क्योंकि तुम्हें लगता है,
चालू और घिसे-पिटे मुहावरों के बिना 
जी नहीं सकता
तुम्हारा यह दिन-दिन परिवर्तित होता हुआ देश।

सच्ची बात कह देने के बाद तुम पाते हो,
तुमने दूसरों को ही नहीं,
अपनों को भी कहीं-न-कहीं
ढा दिया है
और तुम चुपचाप और शान्त
अपने साथियों की शंका-भरी नज़रें देखते हुए टूट जाते हो।

इसी तरह टूटता रहता है हर आदमी निरन्तर
शंका और भय और अपमान से घिरा हुआ -
सच्ची बात कह देने के बाद
लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता
नफ़रत करते, जलते और कुढ़ते रहने की आग से
गुज़रते रहने के बावजूद - सहता हुआ।
4.
मैं एक अर्से के बाद अपने शहर वापस आया हूँ
और मुझे नहीं लगता, इस बीच 
कहीं भी कोई अन्तर आया है

कोई अन्तर नहीं:
मोमजामे की तरह सिर पर छाये आकाश में,
जाल की तरह बिछी हुई सड़कों, अँधेरी उदास गलियों 
और मीलों से आती हुई,
गन्दे नालों और अगरबत्ती की मिली-जुली बास में

कोई अन्तर नहीं:
लोगों के निर्विकार भावहीन चेहरों में
उनकी घृणा में, द्वेष में

कोई अन्तर नहीं:
शहर के दमघोंटू, 
नफ़रत और पराजय-भरे परिवेश में
सिर्फ़ शहर में जगह-जगह उग आये हैं
कुकुरमुत्तों की तरह
कुछ खोखले, रहस्यमय और खँडहरों जैसे टूटते हुए मकान

क्या इस अन्तर में उतनी ही सच्चाई है
जितनी नींद से सहसा जागने पर
स्वप्न की सच्चाई होती है ? 
नहीं। यह स्वप्न नहीं है।
एक लम्बे अर्से से टूटता हुआ ताल-मेल है।

जिसके अन्दर ज़हरीली लपटें छोड़ते 
वही सदियों पुराने विषधर हैं
वही दलदल है
अन्दर और बाहर फैलता हुआ लगातार
वही दलदल। वही रेत। वही अँधेरी गलियाँ।
बाँझ विष-भरी बेल
विरासत में मिला हुआ वही घातक खेल
जिसमें हारे जा कर भी लोग
अपना भविष्य
ख़ाली आसमान की तरह ढोते हैं

स्वप्न नहीं है यह। ताल-मेल है।
टूटता हुआ। लम्बे अर्से से।
5.
तुम पूछते हो, मैं क्यों हूँ ?
इस भ्रष्ट और टूटते हुए माहौल में रहने के लिए
घृणा और द्वेष सहने के लिए
मुझे किसने विवश किया है ?
क्यों मैं इस विषधर-हवा में रह कर लगातार
अन्दर और बाहर कटुता सँजोता हूँ ?

किसी भी चीज़ पर इलज़ाम लगाना बहुत आसान है
सहना - बहुत मुश्किल

भाषा पर नाकाफ़ी होने का इलज़ाम
दोस्त पर ग़द्दार होने का इलज़ाम
सबसे आसान है: चीज़ों के, हालात के
अपने ख़िलाफ़ होने का इल्ज़ाम 

जबकि मैं जानता हूँ: एक सही इल्ज़ाम भी होता है
अकर्मण्यता का
जिसका दाग़ तुम्हारे माथे पर हो सकता है

सुन पाते हो तुम अब अपनी ही आवाज़
देख पाते हो अब तुम
सिर्फ़ अपना ही सूखा और उमर-खाया चेहरा 
पढ़ते हो अब सिर्फ़ अपनी शादी पर लिखा गया सेहरा
(जिसमें कुछ भी सच नहीं, सिवाय नामों के)

तुम भूल गये हो बाक़ी नाम
भूल गये हो बाक़ी चेहरे
अपने हमशक्ल गिरोह में खो गये हो
ज़िन्दगी के लम्बे मैदान को बेचैनी से पार करते हुए

नहीं। अब हम एक-दूसरे की चीख़ों में से
नहीं गुज़र सकते - लावे की तरह

अब सह नहीं सकते हम
वह भय और आतंक और घृणा
और शंका और अपमान। सब कुछ।

क्योंकि नफ़रत आख़िर क्या है ?
क्या वह धीरे-धीरे अपने अन्दर
निरन्तर नष्ट  होते रहना नहीं है ?
नष्ट होते रहना। लगातार।
6.
मैं जानता हूँ,
अपने संसार से कलह
तुम्हारा शौक़ नहीं मजबूरी है
तुम्हारी ज़बान पर रखी गयी भाषा
और तुम्हारे मन्तव्य के बीच
 एक अलंघ्य दूरी है
जिससे भाषा अपने अर्थ को खो कर भी
   जीवित रहती है
और रोज़ नये तानाशाहों के कील-जड़े बूट
अपने सीने पर सहती है
और तुम अपनी ओर तनी पाते हो
अपने साथियों की आरोप-भरी उँगलियाँ।

टूटे हुए हाथों में थामे हुए, 
अपना जलता और सुलगता दिमाग़
अब कहो
क्या तुम कोई नया और कारगर झूठ रच सकते हो ?
इस दलदल में डूबने से कैसे बच सकते हो ?
7.
इसीलिए मैंने अपने रंग-बिरंगे वस्त्रों को
अजानी यात्राओं पर निकले हुए
काफ़िलों के हाथ बेच दिया
और इस अन्धे कुएँ में चला आया।

यहाँ इतना सन्नाटा है कि सुनाई देता है
और गहराती साँझ में चमकता हुआ शुक्र
कभी-कभी आँखों में
बर्छी की चमकती हुई नोक-सा धँसता चला जाता है।
तुम मुझे इस अन्धे कुएँ के
बाहर निकालने के लिए हाथ बढ़ाते हो
जब कि मैं जानता हूँ,
इस कुएँ से बाहर निकलना
एक और भी ज़्यादा अँधेरे मैदान में
  ख़ूँख़ार सुनसान में
खो जाना है

जहाँ आदमी नहीं जानता
कि वे राहें कहाँ जाती हैं
जो इस तरह बिछी हुई हैं
उसके अन्दर और बाहर
और आँखें उठाने पर पाता है
पुतलियों के सामने
गहरे रंगों से पुते हुए अन्तहीन अँधियारे क्षितिज।
और किसी भी समय अपने आपको अलग कर सकता है
अपने एहसास से। दरकते विश्वास से।
स्पर्श की माँग को झुठला कर।

इसी तरह मैंने अपने चारों ओर देखा और जाना
मैंने इसी तरह इस संसार को परखा
और इसके घातक सौन्दर्य को पहचाना

यही वह पहचान है। बहुत गहरी पहचान।
आँखों की पथरायी पुतलियों से हो कर
जलते हुए दिमाग़ के स्तब्ध आकाश तक

मैंने तुम्हारे ताल-मेल को बदलना छोड़ दिया है
आख़िरकार।
और अब मुझे अपने गूँगेपन के इस अन्धकार में
बहुत ज़्यादा - बहुत ज़्यादा आराम है।
8.
मुझे नहीं लगता, हमारे बीच
किसी तरह का सम्वाद अब सम्भव है।
मेरे साथ अब तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है
जब से मैंने अपने लिए चुन लिया है देश
   दमन और आतंक, घृणा और अपमान और द्वेष
तुम्हें सिर्फ़ एक आशंका है
मैं किसी भी दिन तुम्हारे कुछ भेद खोल सकता हूँ
सरे आम।
और मुझे मालूम है,
इसे रोकने के लिए तुम कुछ भी कर सकते हो।
लेकिन मैं अभी तक निराश नहीं हुआ
मैं अब भी तुम्हारे पास खड़ा रहता हूँ, शायद कभी
जब तुम याद करने की मनःस्थिति में हो या फिर उदास
मैं तुम्हें उस घर की झाँकी दिखा सकूं
जिसे छोड़ कर तुम
अन्धकार में उगे हुए इस कारागार में चले आये थे
और तुमने उसे ढूँढ लिया था आख़िरकार
वह जो तुम्हारे अन्दर बैठा हुआ
लगातार तुम्हें सब कुछ सहने के लिए
विवश करता रहता था
जो अपनी तेज़ और तीख़ी आवाज़ में
तुमसे पूछता रहता था:
”कौन-सा रास्ता इस नरक के बाहर जाता है ?“

निश्चय ही एक बहुत बड़ी आस
मुझे तुम्हारे पास
खड़े रहने पर विवश करती है
और तुम्हारी ख़ामोशी की तराश को चुपचाप सहती है
एक समय था, जब तुमने निरन्तर
मेरा अपमान करने की कोशिश की थी
पर मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है
आख़िरकार
और मन पर पड़े धब्बों को
आईने की तरह साफ़ कर दिया है।
9.
तुमसे कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है
मैंने अपने ऊपर ओढ़ लिया है आकाश
और हरी घास की इस विशाल चरागाह पर
पाप की तरह फैल गया हूँ
मुझे ख़ुद कभी-कभी आश्चर्य होता है। बहुत आश्चर्य 
मैं तुम्हारे साथ क्यों हूँ ?
जबकि तुम्हारे चारों ओर घिरा हुआ
तुम्हारा परिवेश है
दमन है। आतंक है। नफ़रत, अपमान और द्वेष है
क्या तुम्हें कभी इस पर विश्वास होगा
मुझे सचमुच तुमसे कोई आकांक्षा नहीं है
तुम अब भी लौट सकते हो
बड़े आराम से। धूप में पसरी हुई उन्हीं चरागाहों में
जहाँ तुमने एक-एक करके छोड़ दिये थे
अपने सारे आकाश।
नहीं। मुझे यह कभी नहीं महसूस हुआ -
अपने और तुम्हारे सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए
मुझे किसी व्याख्या की ज़रूरत है।
मैं - जो तुम्हारी उस घातक सक्रियता का आखेट हूँ
आज लौट जाना चाहता हूँ। वापस
यात्रारम्भ के उसी स्थान पर
जहाँ पाँसों के खेल से नियन्त्रित होता है
द्रव्य के एक गाढ़े घोल में
पूरा-का-पूरा वंश-वृक्ष
10.
तुम्हें इसका ज़रा भी आभास नहीं है पिता
कि तुम कभी-कभी मुझे कितना उदास कर जाते हो।

वह जो मुझसे बार-बार उप न कर बहता रहा
वह जिसे सहा मैंने लगातार
वह जिसकी प्रखर धूप मुझे झुलसाती रही
वह जिसकी आभ मुझे निराभ कर जाती रही
वही रस। लपटों के बीच से वही रस
मुझे पुकारता है। जो मेरा शरीर है

रौंदी हुई घास पर पैरों के निशान
सीने पर महसूस करते हुए
मैं आम पर फूटते बौर को देखता
और दहकते पलाश को याद करता
जब एक तेज़ चाकू की तरह काम करता था वसन्त
और रंग हवा के साथ मिल कर एक ऐसी साज़िश रचते
जिससे धूप ख़ून में उबलती हुई महसूस होती।

बहुत-से दिन मैंने इसी तरह बिताये हैं।
बहुत-सी रातें
निरर्थक प्रतीक्षा की तरह लम्बे, बहुत लम्बे दिन
जिनकी सुनहली धूप मेरी याददाश्त पर पसरी हुई है
मेरे चाहने या न चाहने के बावजूद
जबकि दिमाग़ आजकल बिलकुल सुन्न हो गया है
तुम्हें इसका ज़रा भी आभास नहीं है पिता
कि तुम कभी-कभी मुझे कितना उदास कर जाते हो

तुमने मुझे मेरे बचपन की चित्रावलियों के काट कर
वयस्कता के कैसे घृणा-भरे नरक में धकेल दिया है
जहाँ सहसा और अनायास।
मैं अपंग हो गया हूँ - और असहाय

तुम्हें मालूम है, मैं किस तरह चुपचाप नगर में
बिलकुल अकेला चला जाता
और अपनी देह बार-बार खो आता

अगले दिन मेरे मित्रों को आश्चर्य होता
जब वे पाते मेरे चेहरे पर 
अजाने वृक्षों की घनी, गहरी चितकबरी छाया।

मेरे सामने से रात के पिछले पहरों में एक जुलूस गुज़रता
असमर्थ और अशक्त हिलती हुई भुजाओं का। पैरों का।
शराबी क़हक़हे सड़क से चाँदनी पर तैरते हुए आते।
और मुझे सौंप जाते: उनींदी रातें। जलती हुई आँखें।
अपने ही टूटे हुए संसार का अकेलापन।

कभी-कभी चाँदनी मेरे कमरे में घुस आती
निर्विरोध और चुपचाप
और उसे पकड़ने के लिए बढ़ते हुए मेरे हाथ, मेरी बाँहें
लहर लेते विषधरों में बदल जातीं
मैं इसी तरह निःशब्द
अपने कमरे के बाहर फैले कारागार में देखता रहता
और धीरे-धीरे किसी सुनसान प्रहर में
सामने बाग़ में लगे कचनार के पेड़
चाँदनी में ख़ाम¨श
एक-दूसरे में
घुल-मिल जाते

कभी-कभी मैं भोर मैं
किसी लता को अपने चारों ओर लिपटी पाता
और नींद के हलके झँकोरे से अचानक जाग पड़ता

लेकिन वह। मेरी देह। जिसकी मुझे तलाश थी।
कहीं उस चाँदनी में। शराबी क़हक़हों में।
आपस में गुत्थम-गुत्था पेड़ों में।
भुजाओं के जुलूस में। अपने चारों ओर लिपटी लता में।
या अपने मकान के जहाज़-नुमा खँडहर में
खोयी रह जाती।
11.
मैं समझता था -
इस खँडहर के अन्दर से 
एक विशाल इमारत खड़ी हो जायेगी
रात के अन्तिम पहरों में।
चाँदनी में निःशब्द घुलती हुई। अदृश्य

कभी-कभी मैं प्रतीक्षा करता रह जाता।
कुछ होगा। कुछ होगा,
मैं सोचता,
कुछ ऐसा होगा
जो सब कुछ बदल देगा।

जो बदल देगा उनींदी रातें। जलती हुई आँखें।
परती पर उठे हुए अन्तहीन कारागार।
मेरी शाखों को खाते हुए धुँधुआते अन्धकार।

ओर। दोनों शिखरों के बीच एक गहरी घाटी उग आयेगी
जिसकी सुनहरी शान्ति में
अपनी सारी शक्ति के साथ
मैं दौड़ता हुआ निकला जाउँगा
फिर कभी इस धुँधुआते अँधेरे में वापस नहीं आऊँगा।
12.
तभी एक दिन।
एक दिन अचानक,
अनजाने ही। पिता
तुमने मुझे खिलौनों की जगह दे दिये थे - शब्द
जलते हुए और चीख़ते हुए और उदास।

यह तुम्हारी अन्तिम और सबसे कामयाब साज़िश थी।

तुमने मुझे मेरे बचपन से
या मेरे बचपन को मुझसे
काट कर अलग कर दिया था
और अपनी नसों में उबलते हुए लावे को
बरदाश्त करता हुआ
मैं बहुत जल्द ही ज़िन्दगी के प्रति कटु हो गया था।

मैंने तब भी तुमसे कुछ नहीं कहा था।
मैं तो एक ऐसी स्पष्टता चाहता था
जिससे अपने बचपन को अच्छी तरह देख सकूं ।

क्या तुम खड़े रहोगे। इसी तरह। हमेशा-हमेशा के लिए।
घर की एक मात्र खिड़की के सामने। बाहर से आती हुई
सुनहरी रोशनी को झेलते हुए। रोकते हुए।
घर को अपनी विशाल परछाईं में
डूब जाने के लिए विवश करते हुए।

और वह सब जो बाहर है और मोहक है,
उसका एहसास मुझे
तुम्हारी इस चितकबरी परछाईं पर हिलते हुए प्रकाश-धब्बों
या टूट कर विलीन होती आकृतियों ही से होगा।
13.
तभी मैंने तय कर लिया था,
दिन में अपना समय काटने के लिए
मैं रात में दबे पाँव जा कर चुरा लाऊँगा
दूसरों के अन्तहीन दुःस्वप्न। उनींदी रातें।
दुरूह और उलझे हुए विचार। परेशान घातें।

मैं सोचता, मैं चुरा लाऊँगा
दूसरों की खिड़कियों के अन्दर आने वाला
अवरोधहीन प्रकाश

और इस सब में डूब कर
अपनी उस देह की तलाश करूंगा
जिसे मैं बहुत पहले
घर के बाहर लगे कचनार के
उन गुत्थम-गुत्था पेड़ों के पास
कहीं खो आया था।
लेकिन फ़िलहाल। फ़िलहाल तो मैं ही रह गया हूँ
अब असमाप्त। निरुद्देश्य।
बेचैनी के रंग को पहचानने के बाद।
14.
हवा के रुख़ को जानने के बाद
काले आकाश पर छाये हुए बादलों के जहाज़
अकस्मात बह निकलते हैं -
एक अन्तहीन और निरुद्देश्य यात्रा को
जहाँ हमें सभी रास्तों के अन्त में
मिलती है वही एक निर्वासित मूर्ति
और कहीं भी वह पहचान नहीं रह जाती।

मैं पाता हूँ अपनी स्मृति इसी मूर्ति के ख़ून से रँगी हुई -
एक रक्ताभ और अविस्मरणीय यात्रा -
अस्त होते सूर्य से फीके क्षितिज की निराभ छाया में
15
तुम ढूँढते रहे हो निरन्तर
इस शहर के सम्पूर्ण विस्तार में
अन्तर के सुलगते अन्धकार में
अपने आप से एक लम्बी
बातचीत करने के लिए
कोई एक निजी और अकेला स्थान
जो तुम्हें कहीं भी अपने आप से अलग नहीं होने देगा।
16.
तुम्हारी आँखों से होता हुआ
तुम्हारे अन्तर में उग आया है
एक उदास अनमना बियाबान


जिसे कुतरते रहते हैं बारी-बारी से
रात और दिन। निःस्तब्धता और कुहराम
नफ़रत। प्रेम। पाप। प्रतिकार। प्रतिशोध।

एक उदास अनमना बियाबान
तुम्हारे अन्तर में। तुम्हारी आँखों से

सब कुछ उन्हें दे देने के बाद भी
तुम्हारे अन्तर में झरता हुआ
वही एक अछूता संगीत
जिसमें सारे-का-सारा दिन एक डूबता हुआ जहाज़ है
अर्से से डूबता हुआ
जिसकी धूप से रँगे हुए मँडराते विचार
नीली नदियों की तरह
तुम्हारे दिमाग़ के रेतीले कछार में विलीन होते रहते हैं

और रात...
... रात और एक विचित्र संसार
अन्तर्मुखी विचित्र संसार

दबे पाँव तुम्हारे सपनों पर
तुम्हारे मस्तिष्क के तरल फैलाव पर
किसी डरावनी छाया की तरह उतरता हुआ
17.
तुमने क्यों सौंप दिया है अपने आप को
उनींदी रातों के इस ज़हरीले संसार के हाथों
जबकि तुम्हारे अन्तर के गहन अन्धकार में से हो कर
अब भी गुज़रता है
आवाज़ों का वह अन्तहीन जुलूस।

बार-बार वही-वही चेहरे बेनक़ाब 
वही अजीबो-ग़रीब सूरतें
चीख़ती हुईं और फ़रियाद करती हुईं और उदास...
और फ़तहयाब...

आख़िर तुम्हें कब तक
उन्हीं चेहरों का सामना करते रहना पड़ेगा
जो रात में अपने मुखोश उतार कर
तुम्हारी आँखों के सामने नाचने लगते हैं।

उन्होंने मुझे सौंप दिया है
उनींदी रातों का यह अन्तहीन अन्धकार
बंजरता से फूट कर निकलता हुआ
नफ़रत और द्वेष और अपमान की दीवारों से बना
वह अन्तर्मुखी निःस्तब्ध कारागार।
इतने सारे दिवंगत और तुम्हारे चारों ओर - ख़ालीपन
और अधिक - और अधिक घिरता हुआ ।
तुम्हें क्यों महसूस होता है,
तुम्हारे अन्दर और बाहर
क़ब्रों का एक लगातार सिलसिला उग आया है
और तुम्हारे पीछे वही ख़ून-सनी डोलती छाया है
तुमने क्यों अपनी सारी याददाश्त को
अपने जलते हुए दिमाग़ से काट कर
अलग कर दिया है
जबकि तुम सिर्फ़ एक ऐसी स्पष्टता चाहते थे
जिससे अपने बचपन को अच्छी तरह देख सको।

18.
अक्सर तुम इस मकान के बाहर चले आये हो
अक्सर तुम इस जलते धुँधुआते सुनसान के बाहर
चले आये हो
जो तुम्हारा घर है या शहर या देश

अब तुम चुपचाप घूमते रहते हो
शहर की नीम-अँधेरी गलियों में

अब तुम चुपचाप और सतर्क
देखते रहते हो बाज़ारों में उमड़ती हुई
उस जगमगाती भीड़ को
जिसे तुम बहुत पहले, बहुत पहले ही
अस्वीकृत कर चुके हो

शायद तुम कहीं-न-कहीं उन लोगों से शंकित थे
जो तुम्हें इस जलते धुँधुआते अन्धकार से जुड़े हुए देख कर
तुम पर छिड़क देते अपने अन्दर का
वही कलुष-भरा मटमैला रंग।
अपने अन्तर की सारी नफ़रत से, भय से, शंका से
तुमने अपने आप को इस भीड़ से अलग कर दिया है
अलग कर लिया है तुमने आपने आप को
उन सभी दमकते हुए चेहरों से

और अब अगर सचमुच तुम अपनी स्मृति को
किराये पर उठाना चाहो
तो कौन देगा तुम्हें इस यन्त्रणा के बदले में
सुविधाओं से भरा हुआ, शान्त और सुखी,
(और ऊब-भरा) अनुर्वर जीवन

क्या सचमुच तुम उस जलते हुए नरक में लौट जाओगे ?
क्या सचमुच तुम फिर कभी वापस नहीं आओगे ?
19.
तुम समझ गये थे, यह सब तुम्हें गूँगा बनाने की
वही घृणा-भरी साज़िश है
तुम समझ गये थे,
इस सब के बावजूद
उस कोहरे के पार कहीं एक रास्ता निकलता है

लेकिन तुम एक लम्बे अर्से से नफ़रत करते रहे हो
नफ़रत करते रहे हो। और प्यार।
और इसीलिए तुम इतने दिनों तक ख़ामोश रह कर
अपने ही तरीक़े से उन्हें पराजित करते रहे हो

तब तुम्हारे लिए बहुत ज़रूरी था कुछ-न-कुछ करना
बहुत ज़रूरी था अपने आप को लगातार
इसी तरह - इसी तरह छलना

मुझे याद है। तुमने मुझसे कहा था:
‘वक़्त बीत चुका है कहने का
चुपचाप नफ़रत और शंका और अपमान
सहने का वक़्त बीत चुका है।
आओ, हम इस मौन में शामिल हो जायँ
आओ, अब हम इस लगातार और निष्फल मौन में डूब जायँ
यह हमें कहीं-न-कहीं तो ले ही जायेगा -
अन्दर या बाहर - अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।’


और अब तुम्हें कितनी मोहक लगती हैं
वे सारी-की-सारी साज़िशें
जिनसे तुम्हारा कोई भी वास्ता नही रह गया है
20.
उस जलते हुए ज़हर से गुज़र कर
तुम्हें विश्वास हो गया है:
जो तुम जानते हो
उससे कहीं ज़्यादा तुम्हारे लिए उसका महत्व है
जो तुम महसूस करते हो
आग की सुर्ख़ सलाख़ों की तरह
बर्फ़ की सर्द शाख़ों की तरह

तुम्हें मालूम है: जब कभी तुम्हारा सच
उनकी नफ़रत और शंका
और अपमान से टकराता है -
टूट जाता है

इसी तरह टूट जाता है हर आदमी निरन्तर
भय और आतंक, अपमान और द्वेष में रहता हुआ

सच्ची बात कह देने के बाद
अपने ही लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता
सहता हुआ।
और अब तुम थके कदमों से
अपने घर की तरफ़ लौटते हो
और जानते हो कि
तुम्हारे जलते हुए और असहाय चेहरे पर कोई पहचान नहीं।
अब तुम लौटते हो। अपने घर की तरफ़। थके कदमों से।
अकेले...और उदास...और नाकामयाब...
21.
लेकिन वह ख़ून से सना हुआ डोलता कबन्ध
तुम कहीं भी जाओ
तुम्हारे साथ-साथ जायेगा

दूर, दूर, दूर
उसे ढूँढने के लिए
तुम्हें कहीं भी दूर नहीं जाना पड़ेगा
वह ख़ून से सना हुआ डोलता कबन्ध
तुम कहीं भी जाओ - तुम्हारे साथ-साथ जायेगा

वही जिसे तुम लगातार-लगातार काट कर
अपने से अलग करते रहते हो
वही जिसे तुम अपने ही अलग-अलग रूप¨ं में
        गढ़ते रहते हो
अपने अन्तर की सारी घृणा से, भय से
शंका और अपमान और पराजय से

वह लेकिन इसी तरह डोलता रहता है। निरन्तर।
ख़ून से सना हुआ। तुम्हारे अन्दर और बाहर।

तुम कहीं से भी शुरू करो: हाथों से। पैरों से।
उसके दीर्घकाय शरीर की गठी हुई माँस-पेशियों से
या उसकी रक्त-रंजित खाल पर गुदे हुए चिन्हों से
तुम्हें उसे पहचानने में ज़रा भी दिक्कत नहीं होगी

दूर, दूर, दूर
तुम कहीं भी जाओ। तुम देखोगे:
तुम्हारे अन्तर की सारी नफ़रत और शंका,
अपमान और द्वेष झेल कर
जो छाया तुमसे पीछे और विमुख
ख़ून-सनी ज़मीन पर पड़ रही है -
उसी कबन्ध की है
उसी रक्त-रंजित डोलते कबन्ध की
अन्दर और बाहर। चुपचाप। निःशब्द। निर्विकार।
22.
मैं एक लम्बे अर्से से तलाश कर रहा हूँ
अपनी जड़ों की। इस यात्रा पर
मैं जानता हूँ: सिर्फ़ मुझे ही जाना है
सभी सम्बन्धों से कट कर
धरती और चट्टान के अँधेरे में
इस बार सिर्फ़ मुझे ही ढूँढना है वह स्रोत
अपने दिमाग़ के सन्तुलन के लिए
हाथों और शब्दों की मुनासिब कार्रवाई के लिए

कौन-सी वह धारा थी
जिस पर तिरती हुई यह नाव
इतनी दूर तक चली आयी
कौन-सी हवा इस पतंग को
यहाँ तक खींच लायी
जब-जब मेरे कदम बढ़े
मेरे अन्दर से आवाज़ आयी
रुक जाओ। रुक जाओ।
पहले अपने चारों ओर फैली इस दुनिया को देखो और जानो

अकसर मैंने ख़ुद से सवाल किया है
कहाँ से ? क्यों ? किस ओर ?
मेरे दिमाग़ में गूँजता रहा है यह शोर। निरन्तर

इसीलिए मैं लौटा हूँ। बार-बार
पत्तियों से टहनियों और शाख़ों से जड़ों की ओर

और मेरा दिमाग़ अपने इस निजी संसार को
बदल डालने की तेज़ और आशा-रहित इच्छा से
लगातार ज़ख़्मी होता रहा है

सोचो, क्या यह बहुत दिनों तक चल सकता है -
सर्द बारिश में खड़े रह कर
इतनी उपेक्षा को सह कर
अपने अन्दर की आग को समिधा देना

जब किसी भी चीज़ की सही पहचान
आँखों के लिए तकलीफ़ बन जाय
जब अन्तर का लहलहाता वन
सुख्र्¤ा लपटों में डूब जाय
जब एक ओर समय
और दूसरी ओर उसका सबक़ रह जाय

कितना मुश्किल है
अन्तर की लहलहाती धूप की जगह
जलते हुए अँधेरे को दाख़िल होते हुए देखना
आँखों के नष्ट हो जाने के बाद।

बहुत-से दिन मैंने इसी तरह बिताये हैं।
बहुत-सी रातें।
निरर्थक प्रतीक्षा की तरह लम्बे बहुत लम्बे दिन
जिनकी सुनहली धूप -
मेरी याददाश्त पर पसरी हुई है।
मेरे चाहने या न चाहने के बावजूद
जब कि दिमाग़ आजकल लपटों में खो गया है
कितना मुश्किल है
इस तरह ख़ामोश रहना और प्रतीक्षा करना
जब कि सारी सम्भावनाएँ
आग और लोहे की
एक अन्तहीन हलचल में खुलती हैं
23.
मैंने अपने शब्दों को ख़ुद अपने निकट -
अपने और अधिक निकट होने के लिए रचा है
सच्ची बात कह देने के बाद

और मुझे महसूस होता है -
कोई भी मेरे शब्दों से हो कर
मेरे पास नहीं आ सकेगा
उस इन्तज़ार और सपने के टूट जाने पर
अपने अन्दर की पहचान को ज़िन्दा रख कर
सारी-की-सारी शंका और घृणा और अपमान झेल कर

क्योंकि ये शब्द आख़िर क्या हैं ?

इस दलाल सभ्यता के ख़िलाफ़ एक चीख़
एक ऐसा शोक-गीत
जिसकी भूमिका शोक की नहीं
ख़ुद अपने क़रीब जाने के उल्लास की है

क्या मैं ये शब्द लिख कर कहीं उस गहरी -
बहुत गहरी और अन्तरंग विवशता की
चिरपरिचित पहचान को झुठला नहीं देता ?
आँखों की पथरायी पुतलियों से हो कर
जलते हुए दिमाग़ के स्तब्ध आकाश तक निरन्तर
उस सारी-की-सारी नफ़रत और शंका
भय और अपमान को सहता हुआ
टूटता हुआ और सिमटता हुआ और बिखरता हुआ 

नहीं। नहीं। अपने हृदय की गहराई से
दोनों हाथ भर-भर कर
मैं उलीचता रहा हूँ एहसास

इसीलिए मैं चाहता हूँ
जो भी मेरे शब्दों को पढ़े और जाने
जैसे आदमी अपनी पत्नी को
निरन्तर उसके साथ रह कर जानता है
सच्ची बात कह देने के बाद लोगों का अविश्वास सह कर
जैसे आदमी कटुता को
पहचानता है
वह लगातार अपने ही लोगों के 
और अधिक निकट हो।
निकट हो। उल्लसित हो। और संगीतमय।
24.
नहीं। मैं अँधेरे में डूबती हुई शाम नहीं हूँ
वह जो कुछ भी मैं हूँ - गुमनाम नहीं हूँ

अब भी कहीं भीतर से आती हुई वह पुकार। वह एक पुकार
मुझे कहीं-न-कहीं आश्वस्त करती रहती है

और मैंने अक्सर सोचा है
एक समय आयेगा, जब मुझे तुमसे पूछना ही पड़ेगा
तुम्हारी इन सभी मुद्राओं का अर्थ
जब। जब एक लम्बे अन्तराल के बाद
आख़िरकार
शुरू होगा - दर्शक-दीर्घा की ओर से
नाटक का वह अन्तिम अंक।

मुझे अब धीरे-धीरे यह एहसास होने लगा है:
तुम तक मेरी बात पहुँच नहीं सकती।
मैंने अकसर अपने भय और आतंक
नफ़रत और अपमान और द्वेष के
उस अँधेरे कारागार से लौट कर
तुम्हें अपने अन्तर की उस गहरी विवशता के बारे में
     बताने की कोशिश की है
और हर बार ग़लत समझा गया हूँ।

अपने अन्दर किसी एक नंगे,
बहुत नंगे सच का सामना करते हुए
मुझे हमेशा यह एहसास हुआ है कि
तुमने मुझे अपने से काट कर
किस क़दर
असहाय और निराश और बन्दी बना दिया है

और जैसा कि तुम मुझसे हमेशा कहते रहे हो:
‘जो हम महसूस करते हैं, वह हमारे लिए
उस सब से कहीं ज़्यादा सच होता है
जिसे हम जानते हैं।’

तभी एक बार। सिर्फ़ एक बार मेरे मन में
तुम्हारे प्रति सन्देह हुआ था।

मुझे लगा था, कहीं कुछ बहुत ज़्यादा -
बहुत ज़्यादा ग़लत हो गया है। प्रारम्भ
या फिर उस कहानी में न अट सकने वाला
पहले से तय कर लिया गया अन्त।

और मैं सोचता: ऐसा ही होगा -
क्या सचमुच ऐसा ही होगा अन्त -
असहाय और बंजर और अशक्त बना कर छोड़ता हुआ ?
क्या मैं इसी तरह अपनी सारी शक्ति के साथ
टूट कर गिरता हुआ बिखर जाऊँगा -
अकेला और उदास और नाकामयाब ?

नहीं। जब भी वह बियाबान
जब भी वह उदास अनमना बियाबान
इसी तरह मृत्यु-सा निःशब्द
मेरे चारों ओर फैल जायेगा

तब मैं जाऊँगा नहीं नगर-पिताओं के पास
अपने सपनों के अर्थ पूछता हुआ
कमींगाह में छिपे क़ातिलों से
हताहत मित्रों के नाम पूछता हुआ

मैं सिर्फ़ अपना जलता हुआ एहसास
आँखों की अथाह गहराई में सँजो कर
सौंप जाऊँगा
अपने हाथों और शब्दों के उत्तराधिकारियों को

फिर मैं लौट जाऊँगा
उसी धुँधुआते अन्धकार में
दमन और आतंक और नफ़रत के
उसी जलते हुए नरक में

जहाँ आग और लोहे की कारगर कोशिश से
टूटते हुए कारागार के खँडहरों पर
फैल रहा होगा
एक नयी भोर का सुर्ख़ उजाला।
1967-70