Wednesday, June 22, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की तैंतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४३



मित्रता की सदानीरा - २२

जैसे-जैसे लोगों का पता चलने लगा कि मैं लौट आया हूं, सिविल लाइन्ज वाले हमारे दफ्तर पर मित्र-परिचितों की भीड़ जुटने लगी।

लन्दन जाने से पहले तीसरी धारा की भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से मेरा नजदीकी सम्बन्ध रहा था। पार्टी तब भूमिगत थी और कभी-कभार कुछ कामरेड, जो छद्म नामों से काम करते थे, आ कर मुझसे या वीरेन-मंगलेश से मिला करते थे। मेरे लन्दन प्रवास के दौरान पार्टी ने एक खुला संगठन ‘इण्डियन पीपल्स फ्रण्ट’ गठित कर लिया था। इसके साथ ही भूमिगत पार्टी को धीरे-धीरे खुले में लाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। पार्टी के महासचिव विनोद मिश्र और बहुत-से वरिष्ठ नेता भूमिगत थे, नागभूषण पटनायक पर मुकदमा चल रहा था। इस सबको और गतिशील बनाने के लिए एक सांस्कृतिक संगठन बनाने की प्रक्रिया भी तेज कर दी गयी थी।

आपातकाल के दौरान और बाद में प्रतिबन्ध के दौर में नक्सलवादी विचारधारा से जुड़े सांस्कृतिकर्मियों ने जो नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चे बनाये थे, खास तौर पर बिहार में उन्हें एकजुट करके एक बड़ा सांस्कृतिक संगठन बनाने की योजना को सामने रख कर 1983 में इलाहाबाद में एक बड़ा सम्मेलन हो चुका था। इरादा यह था कि जहां "प्रगतिशील लेखक संघ" और "जनवादी लेखक संघ" मुख्य रूप से लेखक संगठन थे, प्रस्तावित "जन संस्कृति मंच" सांस्कृतिक गतिविधि को उसकी समग्रता में ले कर चलेगा। इसी सिलसिले में दिल्ली, पटना, लखनऊ, इलाहाबाद, कलकत्ता और दूसरे बड़े-छोटे शहरों में बैठकों और विचार-विमर्श का क्रम शुरू हो चुका था और गोरख पाण्डे, जो संयोजक थे, अक्सर इलाहाबाद आते थे।

इन चार वर्षों के दौरान इलाहाबाद में रचनाकारों की एक नयी खेप तैयार हो गयी थी; देवी प्रसाद मिश्र, बद्री नारायण, अखिलेश वगैरा, फिर चित्रकार अशोक भौमिक और रंगकर्मी अनिल भौमिक आजमगढ़ से इलाहाबाद आ गये थे। शहर में बड़ी गहमा-गहमी थी। सो, जल्द ही मैं भी इस गहमा-गहमी का हिस्सा बन गया, पहले की तरह।

इलाहाबाद की गहमा-गहमी का हिस्सा बनने के बावजूद मुझे चार साल लन्दन से लौट कर इलाहाबाद में पूरी तरह रमने में दिक्कतें पेश आ रही थीं। चार साल तक मैं प्रकाशन की दुनिया से दूर रहा था, बल्कि कहा जाय कि पांच साल तक क्योंकि लन्दन जाने से साल भर पहले से दिल्ली में मकान बनवाने के सिलसिले में अक्सर वहाँ जाना होता था। दूसरी बात थी कि अपनी बीमारी और अपने स्वभाव -- दोनों के चलते मेरे बड़े भाई ने प्रकाशन के काम में बेहद बेतरतीबी पैदा कर दी थी, जिसे मुझे तिनका-तिनका ठीक करना और उसी नीरस काम में सिर खपाना पड़ रहा था, जिससे भाग कर मैं लन्दन गया था।

तीसरा कारण यह था कि हालांकि पूरे घर भर ने मुझे लन्दन पत्र लिख कर यह आश्वासन दिया था कि जिन कारणों से मैंने लन्दन जाने का फैसला किया था, वे दोबारा मेरे आड़े नहीं आयेंगे, पर धीरे-धीरे मुझे पता चलने लगा कि मेरे भाई-भाभी-भतीजों के ये आश्वासन झूठे थे और सिर्फ मेरे पिता के जोर देने पर दिये गये थे। जैसे ही शुरूआती दौर ख़त्म हुआ और मैं प्रकाशन को फिर ढर्रे पर ले आया, उन्होंने फिर वही रवैया अख्तियार कर लिया था और धीरे-धीरे हमारे संयुक्त परिवार में दरारें पड़ने लगी थीं, जिनकी चोट मुझे सहनी पड़ रही थीं। मेरे भाई-भाभी उस बड़े संयुक्त परिवार के अन्दर अपना एक छोटा-सा संयुक्त परिवार बनाने के मंसूबे बना चुके थे और इन्हें अमल में लाने की दबी-छिपी कोशिशें कर रहे थे।

जाहिर है कि इन सब कारणों से सुलक्षणा और बच्चे, जो न चाहते हुए भी मेरी ही वजह से हिन्दुस्तान लौटे थे, तकलीफ पा रहे थे। सुलक्षणा से यूं भी मेरा एक तनाव-भरा रिश्ता रहा था। वह एक बेहद काबिल, गुणी और समर्थ औरत थी, लेकिन संयोग से उसकी शादी मुझसे हो गयी थी। हम दोनों जिन दुनियाओं से आते थे, वे बिलकुल अलग थीं। फिर चूंकि वह बहुत-सी बातों में मुझसे सहमत नहीं थी, इसलिए अगर मेरी वजह से उसे चोट पहुचंती तो भी दुख मुझे ही होता था और अगर मेरे परिवार की वजह से पहुंचती तब भी। इन सारी वजहों से मेरा दिल उचटा-उचटा रहता था और मैं कभी लखनऊ, कभी दिल्ली, कभी भोपाल और कभी किसी दूसरी जगह भागा फिरता था।
(जारी)

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