नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छब्बीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - २६
मित्रता की सदानीरा - ५
दूसरी घटना इसके कुछ समय बाद की है। एक रोज कालिया ने अश्क जी को शाम के वक्त ‘इलाहाबाद प्रेस’ बुलाया। इरादा था वहाँ कुछ पियेंगे-पिलायेंगे और फिर खाना भी वहीं खायेंगे। या शायद खाने की बात नहीं थी, सिर्फ शाम के ‘रस-रंजन’ ही का मामला था। जो भी हो, कालिया ने इसरार करके मुझे भी आने को कहा। हम लोग जब ‘इलाहाबाद प्रेस’ पहुंचे तो देखा कि वहाँ सतीश जमाली भी मौजूद था। चूंकि अश्क जी से इंटरव्यू लेने के सिलसिले में सतीश के साथ उनकी खासी बदमजगी हो चुकी थी, इसलिए हम लोग उसे लेकर कुछ ज़्यादा ही सतर्क रहते थे। पहले पता होता कि कालिया ने सतीश को भी बुला रखा है तो शायद मैं तो टाल ही गया होता, पर अब सीढि़यां चढ़कर ‘इलाहाबाद प्रेस’ के ऊपर रवि की बैठक में पहुंचकर नाहक कोई सीन क्रिएट करने में लज़्ज़त नहीं थी। सो, हम लोग बैठ गये और पीने का दौर शुरू हुआ। थोड़ी देर बाद सतीश अपनी स्वाभाविक दुष्टता पर उतर आया और बिना किसी प्रसंग के, उलटी-सीधी बातें करने लगा। जाहिर था कि वह कालिया के घर बैठे होने का फायदा उठा रहा था, काॅफी हाउस में या और किसी जगह वह कतई ऐसी जुर्रत न करता। कुछ देर तक अश्क जी उसे तरह देते रहे, लेकिन वह तो और शेर होता चला गया।
मेरा अन्दाजा था कि मेजबान होने के नाते कालिया या सतीश को उसकी बेअदबी के लिए बरजेगा, क्योंकि यही तहजीब का तकाजा होता है कि मेजबान अपनी छत के नीचे किसी दोस्त का अपमान न होने दे। कुछ साल पहले एक बार जब गिरिराज किशोर इलाहाबाद में ‘होटल टेप्सो’ के पीछे रहते थे तो उनके यहाँ दूधनाथ और शैलेश मटियानी के बीच खासी तू-तू, मैं-मैं हो गयी थी। बातों को ऐसा रुख लेते देख गिरिराज किशोर ने दूधनाथ और शैलेशजी को यह कहकर घर के बाहर निकाल दिया था कि आप लोगों को लड़ना-झगड़ना है तो बाहर झगडि़ए।
लेकिन कालिया अव्वल तो इन बारीकियों और नफासतों का शनासाई नहीं; दूसरे वह जिन्हें पसन्द नहीं करता, उन्हें इसी तरह अपमानित करने की कोशिश करता है। यूं तो मैं भी अपने पिता के झगड़ों मंे आमतौर पर नहीं पड़ा करता था, क्योंकि वे खुद अपना ख़याल रखने और ईंट का जवाब पत्थर से देने के काबिल थे। लेकिन यहाँ तो मामला ही अलग था। कालिया खुद सतीश की पुश्त पनाही कर रहा था। तब मैंने उठकर सतीश से कहा कि अब अगर उसने एक भी शब्द और कहा तो मैं जूते से उसकी पिटाई करूंगा।
मामले को हाथ से बाहर जाते देख कालिया ने फौरन पैंतरा बदला और सुलह-सफाई पर उतर आया। मगर तब तक मुँह का जायका इतना खराब हो चुका था कि वहाँ ठहरना असम्भव था। चलते-चलते मैंने कालिया से कहा, ‘रवि, न तो तुम अच्छे दोस्त से, न मेजबान और दुश्मन भी शिखण्डीमारका हो। सभी कायरां की तरह अपनी लड़ाइयां खुद न लड़ कर दूसरों की मदद लेते हो और तुममें इतनी भी शराफत नहीं है कि कम-से-कम अपनी छत के नीचे तो ऐसी हिमाकतें न करो। आज के बाद मैं तुम्हारे यहाँ नहीं आऊंगा।’
इस घटना के बाद मेरे पिता तो गुस्सा ठण्डा होने के बाद कालिया के यहाँ जाते रहे, पर मैं उसके घर चौदह-पन्द्रह साल नहीं गया, जब तक कि वह रानी मण्डी से उठकर महदौरी काॅलोनी के अपने मकान में नहीं चला आया और तब भी बहुत बिरले ही।
बगरहाल, चूंकि कालिया के यहाँ जाना बिलकुल बन्द हो गया तो ज्ञानरंजन के साथ मुलाकातें भी बहुत कम हो गईं। चिट्ठी-पत्री भी बहुत नियमित नहीं रही। पहले जब कभी वह जबलपुर से इलाहाबाद आता था तो फोन करके या आकर पता देता था और फिर ‘बम्बई से आया’ मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो’ की तर्ज पर खाने-पीने और घूमने-घुमाने का सिलसिला शुरू हो जाता। मगर अब कई बार वह इलाहाबाद आता तो उसके जाने के बाद खबर मिलती कि वह आया था। मैंने दिल को समझा लिया था कि कुछ भी हो, ज्ञान दोस्त है और रहेगा, जब उसकी तबियत गवाही देगी, हम मिल लेंगे। फिजूल के गिले-शिकवे में कोई दम नहीं। मैं गालिब का शेर दोहराता:
निकाला चाहता है काम तानों से तू ऐ गालिब
तेरे बेमेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबां क्यों हो
और दिल को तसल्ली दे लेता।
इस बीच वीरेन डंगवाल बरेली कालेज में लेक्चरर नियुक्त होकर इलाहाबाद से विदा हो चुका था। रहा रमेन्द्र तो उसने हाॅस्टल छोड़कर गड़ेरिया का पुरवा में किराये का एक मकान ले लिया था और प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में बैठने की तैयारी शुरू कर दी थी। इतनी दूर रोज या अक्सर जाना तो सम्भव न था। अलबत्ता, जब कभी तबियत बहुत उचट जाती तो मैं मोटर साइकिल उधर को मोड़ देता। प्रभाव था जिससे अक्सर भेंट होती, काॅफी हाउस में ‘परिमल’ के पुराने महारथी शाम को इकट्ठा होते, शनिवार को भैरव प्रसाद गुप्त की अध्यक्षता में मार्कण्डेय, शेखर जोशी, अमरकान्त और सतीश जमाली अपनी धूमी रमाते। लेकिन फिज़ा से कोई चीज़ मानो नामालूम ढंग से गायब हो गयी थी, ढेर सारे तारों वाले वाद्य में कोमल स्वर वाला कोई तार आहिस्ता से खामोश हो गया था।
दो-तीन बरस ऐसे ही बीत गये।
फिर ज्ञान ने ‘पहल’ का सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया। जबलपुर में परसाई जी की प्रेरणा से वह प्रगतिशील लेखक संघ और मार्क्सवाद की तरफ आहिस्ता-आहिस्ता उन्मुख हो रहा था। नक्सलबाड़ी के आन्दोलन और 1970 के युवा लेखक सम्मेलन ने भी इसमें अपने ढंग से भूमिका निभायी थी। फिर यह बात भी थी कि हालांकि यह कहीं घोषित रूप से तय नहीं था कि ज्ञान ‘आधार’ के सिर्फ एक अंक ही का सम्पादन करेगा और हम सबका खयाल था कि यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा, लेकिन वह सिर्फ एकल-प्रयास ही बनकर रह गया। यूं भी ‘आधार’ रामावतार चेतन की पत्रिका थी और यह बात कि ज्ञान उसका सम्पादन करे, रवीन्द्र कालिया ने तय की थी, चेतन जी की तरफ से कोई प्रस्ताव नहीं आया था। इसलिए भी अगर ज्ञान ने अपनी खुद की पत्रिका निकालने का फैसला किया हो तो यह मुनासिब ही था।
पहल के शुरूआती तीन अंक ज्ञान ने किसी तरह खुद छपवाये थे या शायद उसने ‘परिमल प्रकाशन’ के शिवकुमार सहाय की मदद ली थी, लेकिन चौथे अंक से उसके कहने पर ‘पहल’ की छपाई की व्यवस्था मैं करने लगा और जब तक 1980 में मैं बी.बी.सी. की प्रोड्यूसरी पर लन्दन नहीं चला गया, ‘पहल’ के अंक मैं ही छपवाता रहा। लेकिन यह भी दिलचस्प है कि ‘पहल’ का काम हाथ में लेने के बावजूद न तो वह पहले जैसी आवारागर्दी सम्भव हो पायी, न बैठकी। अलबत्ता, चिट्ठी-पत्री थोड़ी और नियमित हो गयी, और कारोबारी। कभी-कभार ज्ञान इलाहाबाद आता और उससे भेंट होती तो ज़्यादा बातें काम-काजी होतीं। वह पीना-पिलाना, तीन-पत्ती की फंडें, काॅफी हाउस और मुरारी स्वीट होम की बैठकियां और धींगा मस्ती, वह एक-दूसरे की रचनाएं सुनना-सुनाना-सब मानो पिछले जन्म की कोई भूली हुई स्मृति बन गया था। इसके अलावा, मैं उन दिनों एक और मानसिक उलझन में गिरफ्तार था।
(जारी)
Beautiful narration !
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