Sunday, January 30, 2011

देशान्तर



इलाहाबाद की डायरी


दोस्तो,

जहाज़ से उड़ कर फिर जहाज़ पर लौट आने वाले पंछी की तरह २६ तारीख़ को मैं फिर इलाहाबाद नामक अपने जहाज़ पर लौट आया.

इस बार सात महीने बाद लौटा था. देखा कि मौसम, फ़िज़ा और दीवानगी वही पहले जैसी थी, लेकिन सारा शहर मानो किसी क़हर या दैवी कोप की ज़द में आया हुआ था. पूछने पर पता चला कि शहर जवाहरलाल नेहरू अरबन रीन्यूअल मिशन की चपेट में आया हुआ था, नगर के पुनरुत्थान का पहला धमाका सड़कों को गहरा खोद कर सीवर लाइन बिछाने का था. सड़कें खुदी हुईं ख़ुदा की पनाह मांग रही थीं, बुलडोज़र प्रागैतिहासिक डाइनोसौरों की मानिन्द धरती उधेड़ रहे थे, धूल के बादलों ने आसन्न वसन्त की सारी मस्ती हर लेने की ठानी हुई थी, जगह-जगह और वजह-बेवजह टिराफ़िक जाम रही-सही क़सर पूरी किये दे रहे थे.

मुझे बेसाख़्ता अपने मित्र प्रयाग शुक्ल की याद हो आयी जिन्होंने ऐसे महौल पर फ़ौरन से पेश्तर एक ललित टिप्पणी "जनसत्ता" में छपा दी होती, पर यहां तबियत का फ़ालूदा निकला जा रहा था. सन १९५०-६०-७० के दशकों में हर ख़ास--आम को मोह लेने वाली सड़कें अपनी दुर्दशा की कहानी खुले आम बयान कर रही थीं. ऊपर से यहां-वहां मिट्टी के ऊंचे-ऊंचे ढेर किसी ज़लज़ले का-सा मंज़र पेश कर रहे थे. ऐसे में मुझे किसी ललित टिप्पणी के ख़याल की बजाय बेहद दुनियादार क़िस्म के विचार सताने लगे. यह नहीं कि हमारे यहां हर योजना किसी--किसी नेहरू या गान्धी के नाम पर शुरू होती है और देश का बाजा बजाती चली जाती है. क्योंकि वंशवाद की भारतीय प्रवृत्ति के चलते यह तो होना ही था. बल्कि मेरा ध्यान कुछ दूसरे तथ्यों ने खींचा.

अब यही देखिए कि कहने को यह जवाहरलाल नेहरू शहरी पुनरुत्थान अभियान है, लेकिन अन्दर का मामला यह है कि यह ठेकेदार पुनरुत्थान अभियान है. सब से पहले तो वे ठेकेदार चाचा नेहरू के गुन गायेंगे जिन्हें सीवर लाइन बिछाने के ठेके दिये गये हैं. फिर बारी उन ठेकेदारों की आयेगी जो इन तबाहो-बरबाद सड़कों की मरम्मत करेंगे और यह ख़याल रखेंगे कि इतनी अच्छी मरम्मत कर दें कि आगे उनके ठेकों का राम नाम सत्त हो जाये. इसे कहते हैं उत्तम क़िस्म का व्यापार यानी वह व्यापार जो आगे व्यापार पैदा करता चले.

फिर जैसे पुराने पंछी को झटका देने के लिए इतना ही काफ़ी था, शहर का नक़्शा पहले से भी ज़्यादा बदला नज़र आया. वैसे तो बाज़ार हमेशा से ही हर समाज का एक अहम हिस्सा रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में ऐसा लगता है कि असली बस्ती तो दुकानों की है, रिहाइशी इलाक़ों का वजूद तो महज़ इसलिए है कि बाज़ार का वजूद क़ायम रह सके, उसका औचित्य संगत ठहराया जा सके. हाई कोर्ट से शुरू हो कर संगम तक जाने वाली सड़क -- महात्मा गान्धी मार्ग -- जो कभी कैनिंग रोड कहलाती थी, तरह-तरह की दुकानों से पट गयी है. पहले दुकानों का सिलसिला इस सड़क पर कौफ़ी हाउस से ले कर सरदार पटेल मार्ग से कुछ आगे सेंट्रल बैंक तक था, पटेल मार्ग पर दुकानें नवाब यूसुफ़ रोड के तिराहे से ले कर ताशकन्त रोड के चौराहे तक थीं और यह इलाक़ा जो सिविल लाइन्ज़ कहलाता था ख़ूब खुला-खुला था. अब शरीर में फैलते कैंसर की तरह सिर्फ़ महात्मा गान्धी मार्ग और सरदार पटेल मार्ग पर दुकानें विष-ग्रस्त कोशिकाओं की तरह बढती चली गयी हैं बल्कि इस कैंसर के संक्रमण ने इन से फूटने वाली और इनके समानान्तर चलने वाली छोटी सड़कों को भी अपनी गिरफ़्त में ले लिया है.

जो शहर किसी ज़माने में उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी था, वहां हर जगह अब सिक्कों की झंकार सुनाई देती है, धड़ा-धड़ दुकानें बन रही हैं, देसी-बिदेसी कम्पनियां पूंछ उठाये दौड़ती चली रही हैं, कला, साहित्य, संगीत, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान अगर बिकने को तैयार नहीं हैं या बेचे नहीं जा सकते, तो फिर उनकी जगह किसी टूटे-फूटे गोदाम में भी नहीं है, वे सिर्फ़ घूरे पर फेंक दिये जाते हैं.

(जारी)

Saturday, January 29, 2011

दोस्तों, मुझको टाटा ने मारा। सात महीने बाद इलाहाबाद आया तो फोटोन प्लस जवाब दे दिहिस, अब कल उम्मीद बा कि कौनो हिसाब लगी। बुरा ना मानें । सलाम

Tuesday, January 25, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की आठवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ८



अधूरी लड़ाइयों के पार


लड़ाइयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
-असद ज़ैदी, 1857: सामान की तलाश

पटना में 27-28 दिसम्बर 1970 को आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में क्या-कुछ हुआ, क्या-क्या नज़ारे देखने को मिले, कैसी-कैसी थिगलियाँ साहित्य के नभ-मण्डल में लगायी गयीं, और जिसे अंग्रेज़ी में ‘फ़्रोम द सब्लाइम टू द रिडिक्युलस’ कहते हैं, यानी अगर मनोहर श्यामिया सुख़नगोई से काम लेते हुए कहें कि ‘उदात्त से चौत्य’ तक कैसी उठा-पटक रही, इसे आज 35-40 वर्ष बाद, स्मृतियों के कबाड़ख़ाने से उबार कर, तमाम गर्द-ग़ुबार झाड़ कर पेश करना ख़ासा मुश्किल है। लेकिन पीछे मुड़ कर उस दौर को याद करते हुए, इतना यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि 1970 का वह सम्मेलन कई अर्थों में ऐतिहासिक था। एक तो इसलिए कि वह लेखकों के जम्बूरी-नुमा सम्मेलनों की शृंखला में आख़िरी बड़ा जमावड़ा था।

जिस तरह से 70 पार कर आये लेखक आज भी ‘वो झाड़ियाँ चमन की, वो मेरा आशियाना’ के अन्दाज़ में 1957 के लेखक सम्मेलन को याद करते हैं, वैसे ही 60 के पाँच वर्ष इधर या उधर के लेखकों की आँखें 1970 के युवा लेखक सम्मेलन के ज़िक्र से चमक उठती हैं। इस सम्मेलन में शायद सबसे कम उम्र वाले लेखकों में वीरेन डंगवाल और पंकज सिंह थे, 21-22 की दहलीज़ पर और शायद सबसे ज़्यादा उम्र रेणु जी की थी। ज़्यादातर साहित्यकार इन दोनों छोरों के दरमियान थे - 30-35 के पेटे में। कुछ मेरे जैसे 25 वर्ष के थे तो कुछ, मसलन नामवर जी, महज़ 42-43 वर्ष के, और यह तो हम सभी लोग अपने भारतीय अनुभव से जानते ही हैं कि जिस तरह नेतागण अपनी अर्द्ध-शती मनाने के बाद भी अपने राजनैतिक दल के युवा संगठन के महासचिव और अध्यक्ष वग़ैरह बने रहते हैं, उसी तरह लेखक भी सिर के आधे बाल पक जाने के बावजूद युवा लेखक बने रहते हैं। उम्र वाले इस पहलू का ज़िक्र शुरू में ही इसलिए किया है ताकि उस सम्मेलन में जो कुछ हुआ, उसकी संगति-असंगति-विसंगति के बारे में हैरत न हो।

बहरहाल, ऐसा जमावड़ा कभी देखा नहीं गया - न उससे पहले, न उसके बाद। गो, दो साल बाद बाँदा में भी एक हंगामाख़ेज़ सम्मेलन आयोजित हुआ था, लेकिन वह न तो इतने बड़े पैमाने पर था, न उसमें इतने भिन्न-भिन्न विचारों के लेखक शामिल थे और न वहाँ उस तरह के दृश्य देखने को मिले जो पटना में देखने को मिले थे, इस बात के बावजूद कि बाँदा में वैचारिक ढिशुम-ढिशुम एक समय तो ऐसी भौतिक समीक्षा की दिशा में बढ़ चली थी कि पुराने मुजाहिद मन्मथनाथ गुप्त और नये मरजीवड़े सुधीश पचौरी के बीच डब्ल्यू.डब्ल्यू.ए. जैसा कुछ घटित होने को था। दूसरी तरफ़ धूमिल, ऐसा बताया जाता है कि, एक भण्टा कुर्ते की जेब में डाले उसे बम बताते हुए ठेठ बनारसी लण्ठई और लनतरानी का मुज़ाहिरा करता घूम रहा था। इस सब को देखते हुए कुल मिला कर बड़े सुरक्षित ढंग से यह कहा जा सकता है कि बाँदा वाला सम्मेलन इसी 1970 वाले युवा लेखक सम्मेलन का, ग़ालिबन, उत्तरकाण्ड था।
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वैसे, हिन्दी में बड़े-बड़े साहित्यकार सम्मेलनों की परम्परा कभी नहीं रही। कुछ संस्थाएँ ज़रूर अपने अधिवेशनों में साहित्यकार जुटाया करती थीं, जैसे इलाहाबाद का हिन्दी साहित्य सम्मेलन या बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा या फिर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद आदि, लेकिन वहाँ साहित्य गौण और दूसरी चीज़ें ज़्यादा महत्वपूर्ण होती थीं। एक लम्बे अर्से तक तो इन संस्थाओं में हिन्दी की राजनीति की ही पटफेराबाज़ी होती रही, जिसका सम्बन्ध हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य से कम और राजनीति से अधिक था। कई किस्म के जुगाड़ और गुन्ताड़े इन अधिवेशनों में भिड़ाये जाते। फिर, इनमें सभी साहित्यकार आमन्त्रित भी नहीं होते थे।

हिन्दी में यूँ भी पंगतपरक सम्मेलनों की परम्परा रही है। यानी अपनी पंगत, अपना एजेण्डा, अपने लोग। ऐसे सम्मेलन बिरले ही देखे गये हैं जिनमें हर जाति-प्रजाति के साहित्यकार, अपने-अपने मतभेदों को किनारे रख कर या फिर उन्हें झण्डों की तरह लहराते हुए, शामिल हुए हों। इस लिहाज़ से भी 1970 का युवा लेखक सम्मेलन अपने आप में अनोखा था, क्योंकि उसमें लगभग एक प्रतिशोध-भरे आग्रह, या कहें कि पूर्वाग्रह, से हर नस्ल के युवा लेखक जुटाये गये थे - किंचित युवा, कतिपय युवा, लगभग युवा, हत युवा, गत युवा, आहत युवा, आगत युवा, आदि - और जिनमें सुविद्रोहियों के साथ-साथ अविद्रोहियों और कुविद्रोहियों की भी अच्छी-ख़ासी भरमार थी।

इससे पहले, 1957 में जो दो बड़े सम्मेलन इलाहाबाद में हुए थे, उनमें जो ख़ेमेबन्दियाँ थीं, वे साफ़-साफ़ नज़र आती थीं। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, नामवर जी ने अपने किसी आत्म-चरित में साहित्यकारों के जमावड़ों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त गिनायी थी, लेकिन न तो वे इतने बड़े पैमाने पर आयोजित हुए थे और न उनमें परस्पर विरोधी विचारों के लेखकों ने शिरकत ही की थी। कुल मिला कर वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ही की जम्बूरियाँ थीं।

1957 के सम्मेलन भी - हालाँकि उनमें से एक ‘परिमल’ ने आयोजित किया था और दूसरा ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ने - जहाँ तक दायरे और सरोकारों का सवाल है - पहले के सभी सम्मेलनों से भिन्न थे। इनमें से दूसरे सम्मेलन को बड़े भाव-भीने ढंग से याद करते हुए कवि अशोक वाजपेयी ने एकाधिक बार कहा है कि वे उस सम्मेलन में शामिल होने वाले सबसे कमसिन साहित्यकार थे और ग़ालिबन उनकी उम्र उस वक्त 17 बरस की थी। मुझे इतना और याद पड़ता है कि मेरी उम्र उस समय बारह की रही होगी और मैं उस सम्मेलन के लिए चन्दा जुटाने वाले और आव-भगत करने वाले दस्ते में शामिल था और इस मुहिम पर किसी के साथ कानपुर भी गया था।

अब 1970 के युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए पीछे मुड़ कर देखते समय, 1957 के इन सम्मेलनों के बारे में कुछ और बातें भी दिमाग़ में कौंधती हैं। मिसाल के लिए यह कि 1957 में इलाहाबाद में आयोजित दोनों साहित्यकार सम्मेलनों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 1956 में दिल्ली में आयोजित पहली ऐफ़्रो एशियन राइटर्स कॉनफ़रेन्स की छाया मँडरा रही थी, जिसमें तमाम हिन्दी-उर्दू और अन्य भारतीय, एशियाई और अफ़्रीकी देशों के साहित्यकार शामिल हुए थे। ऐफ़्रो एशियन रॉइटर्स कॉन्फ़रेन्स को प्रकट ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त था। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, उसमें ऐसे लोग भी बड़ी तादाद में शामिल हुए थे जो भले ही सोवियत समर्थक या ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ अथवा कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य न रहे हों, मगर सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध थे। लेकिन कुल-मिला कर उसकी मूल प्रेरणा वामपन्थी ही थी। वह समय भी ख़ासी उथल-पुथल का था। स्टालिन युग समाप्त हुआ ही हुआ था, ख़्रुश्चेव ने नयी-नयी सत्ता सँभाली थी और भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी, जो बाद में ‘इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए’ की तर्ज़ पर कई-कई खण्डों और उपखण्डों में बँटी, उस समय तक एक थी। यह बात दीगर है कि उसी दौर में कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक या प्रगतिशील साहित्यकार अनेक विषयों पर तीखे अन्दरूनी मतभेद का शिकार थे - चाहे वह हिन्दी-उर्दू का मसला हो या फिर पार्टी लाइन का। पी.सी.जोशी और उनके उदार प्रगतिवादी दौर को पीछे छोड़ कर एक ऐसा कट्टरतावादी गुट कम्यूनिस्ट पार्टी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में उभर आया था जिसने राहुल सांकृत्यायन से ले कर यशपाल, अश्क, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय आदि पुराने प्रगतिशीलों के ख़िलाफ़ तालिबानी अन्दाज़ में जिहाद बोल दिया था।

दूसरी ओर, यह भी कहने की बात नहीं है कि वह शीतयुद्ध का ज़माना था। हीरोशिमा और नागासाकी पर अमरीकी युद्धोन्माद ने जो तबाही बरपा की थी, उसकी स्मृति ताज़ा बेखुरण्ड ज़ख़्म की तरह थी। इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाते हुए अमरीका ने मार्शल प्लान चालू किया था, इसलिए एक बड़े पैमाने पर दुनिया भर में वामपन्थी, जनवादी और कम्यूनिस्ट लेखकों का हरकतज़दा होना अमरीका के कान खड़े कर देने के लिए काफ़ी था। इस सब की सांस्कृतिक पेशबन्दी के तौर पर अमरीका परस्त संस्था ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की स्थापना हो चुकी थी जिसके मानद अध्यक्षों में बेनेदेत्तो क्रोचे, कार्ल जास्पर्स और बरट्रेण्ड रसेल के साथ हिन्दुस्तानी समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण भी शामिल थे। ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के रंगून सम्मेलन के अध्यक्षों में डॉ. सम्पूर्णानन्द जैसे काँग्रेसी-समाजवादी बहैसियत मुख्यमन्त्री, उत्तर प्रदेश सरकार शिरकत कर रहे थे।

‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ ने ‘एनकाउण्टर’ के नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की थी, जिसके सम्पादक थे पुराने वामपन्थी स्टीफ़न स्पेण्डर। हालाँकि तब तक ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ को सी.आई.ए. से मिलने वाले आर्थिक अनुदान की बात और इस भण्डाफोड़ से उठे कौआरोर के चलते ‘एनकाउण्टर’ से स्टीफ़न स्पेण्डर के इस्तीफ़े की घटना में अभी दस बरस की देरी थी, लेकिन यह बात राजनैतिक रूप से सचेत सभी लेखक जानते थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की असलियत क्या है और स्टीफ़न स्पेण्डर जैसे घोषित वामपन्थी इसी बिना पर ‘एनकाउण्टर’ के सम्पादक बन भी सके हैं, क्योंकि उन्होंने 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘द गॉड दैट फ़ेल्ड’ में लिखे गये अपने लेख में, उसी पुस्तक के सहयोगी लेखक आर्थर केस्लर के सुर-में-सुर मिलाते हुए, साम्यवाद और साम्यवादी विचारधारा से किनाराकशी कर ली थी। अगर यह बात इतनी प्रकट और प्रत्यक्ष नहीं भी थी, तो भी स्टीफ़न स्पेण्डर के राजनैतिक स्खलन के साथ ‘एनकाउण्टर’ में उनके सम्पादक बनने को जोड़ कर लोग इतना तो जान ही रहे थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक अमरीका-परस्त और अमरीकी पैसों से चलने वाली संस्था है।

यों, जैसा कि शीत युद्ध की तकनीक है, दोनों पक्ष एक-दूसरे पर नज़र रख कर चलते थे। यही वजह है कि 1956 के ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन में अनेक ग़ैर-वामपन्थी लेखक तो गये ही थे, ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव प्रभाकर पाध्ये भी गये थे। ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन की सफलता, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बढ़ते हुए प्रभाव और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हो रहे परिवर्तनों ने जहाँ ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ जैसी संस्था को अपनी गतिविधियाँ तेज़ करने के लिए उकसाया, वहीं कम्यूनिस्ट जगत में होने वाली तब्दीलियों और प्रगतिशील लेखकों की बिरादरी के आपसी मतभेदों ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ को एक बड़ा साहित्यकार सम्मेलन करने की प्रेरणा दी। चूँकि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक दाग़ी संस्था थी, तकरीबन वैसी ही, जैसी पच्चीस-तीस वर्ष बाद ‘फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन’ बनी, और उसके काम करने का ढंग लुका-छिपी वाला था, जिसे अंग्रेज़ी में ‘क्लोक ऐण्ड डैगर’ वाला तरीका कहते हैं, इसलिए उसने अपने मंसूबों के लिए प्रगतिशील लेखक संघ की घोषित विरोधी संस्था ‘परिमल’ को चुना और ‘परिमल’ ने ‘साहित्य और राज्याश्रय’ के सवाल पर एक लेखक सम्मेलन आयोजित किया।

उधर, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ पहले ही से एक सम्मेलन की सोच रहा था। अब, इसे संयोग ही कहा जायेगा कि दोनों सम्मेलन 1957 में हुए और दोनों इलाहाबाद में हुए। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में मतभेद चाहे कितने रहे हों, लेकिन कोई दुराव-छिपाव तो था नहीं। उससे जुड़े लेखकों की राजनैतिक प्रतिबद्धताएँ सबको मालूम थीं। लेकिन ‘परिमल’ के मुखौटे के पीछे असली चेहरा किसका था, यह उस समय उजागर हो गया जब ‘परिमल’ वाले सम्मेलन के बाद धन्यवाद-ज्ञापन के पत्र ‘परिमल’ के पदाधिकारियों की ओर से जारी न हो कर ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव, प्रभाकर पाध्ये की ओर से लेखकों को भेजे गये। चूँकि इलाहाबाद की पुरानी परम्परा के अनुसार सम्मेलनों में सभी तरह के साहित्यकार न्योते जाते थे, इसलिए ‘परिमल’ वाले समेलन में अज्ञेय, ताराशंकर बन्द्योपाध्याय, शिवराम कारन्त, समरेश बसु, फ़ादर कामिल बुल्के आदि के साथ-साथ यशपाल और उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे प्रगतिशील साहित्यकार भी शामिल हुए। और चूँकि प्रगतिशीलों की आपसी कशमकश भी कोई छिपी हुई चीज़ नहीं थी, इसलिए भी किसी बाहरी व्यक्ति को किसी साहित्यकार विशेष की प्रतिबद्धता के बारे में भ्रम हो सकता था जो प्रभाकर पाध्ये को भी हुआ होगा, क्योंकि उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन के जो पत्र भेजे, उनमें से एक पत्र ऐसे ही प्रगतिशील लेखक के नाम था जिन्होंने वह पत्र अमृत राय को सौंप दिया और इलाहाबाद से निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के जुलाई 1957 के अंक में अमृत राय ने इस तोड़क-फोड़क गतिविधि का भाँडा ऐन बीच चौराहे फोड़ दिया।
(जारी)