Wednesday, June 22, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की बयालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४२


मित्रता की सदानीरा - २१

चार साल बाद सब कुछ समेट कर इलाहाबाद वापस आ कर बसना आसान काम नहीं था और जो परेशानियां मेरा इन्तजार कर रही थीं, उनका अन्दाजा हवाई अड्डे पर उतरते ही हो गया था, लेकिन जैसा कि अंग्रेजी में कहते हैं, ‘पांसा फेंका जा चुका था’।
मुझे लेने मेरे बड़े भाई आये हुए थे। तब तक उनका और उनके परिवार को रूख मेरे प्रतिकूल, कहा जाय कि वैसा वैमनस्य-भरा, नहीं हुआ था जैसा कि बाद में उत्तरोत्तर होता चला गया। मेरे लन्दन प्रवास के दौरान वे काफी बीमार रहे थे, जिसका साफ-साफ अन्दाजा मुझे हवाई अड्डे पर उनसे मिलते ही हो गया।

हमने सामान उतरवाया था और हौज़ खास पहुंचे थे जहां सुलक्षणा के भाई रहते थे। अलग से मेरा जो सामान आ रहा था, वह एकाध दिन में पहुंचने वाला था और हम उसे ले कर ही इलाहाबाद जाना चाहते थे। मुझे अपनी मां की भी चिंता सता रही थी, जिन्हें कुछ महीने पहले फालिज का हलका-सा दौरा पड़ा था।


तभी मेरे बड़े भतीजे का फोन आया कि हममें से एक फौरन इलाहाबाद चला आये। बात यह थी कि जिस बंगले में हम रहते थे और जिसे मेरे पिता ने खरीद लिया था, उसके पीछे एक छोटी-सी बंगलिया और दसेक कोठरियां और अहाता था, जो पहले इसी बंगले का हिस्सा था, लेकिन मकान मालिक ने उसे पीछे के विश्वकर्मा बन्धुओं को बेच दिया था। यह वही बंगलिया थी, जिसमें हम लोग 1948-49 में आ कर टिके थे, जहां से मेरी मां ने प्रकाशन शुरू किया था, जहां मेरा बचपन और किशोरावस्था के दिन गुज़रे थे। 1962 में जब हम सामने के बड़े बंगले में चले गये थे तो इसे हमने गोदामों की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था।

आगे चल कर जब विश्वकर्मा बन्धुओं की माली हालत बिगड़ गयी, उनका बसों का धन्धा चौपट हो गया तो उन्होंने अपने मकान में भी तरह-तरह के किरायेदार बसा लिये और उनसे कर्ज भी लेने लगे। इन्हीं में से एक ऋणदाता शहर के एक कुख्यात भूमाफिया का लठैत था। उसकी एक रखैल पीछे विश्वर्मा बन्धुओं की किरायेदार थी और उसकी हसरत उस बंगलिया में रहने की थी। यों, उस भूमाफिया की नजर उस बंगलिया पर पड़ी और चूंकि उसके मालिक आर्थिक रूप से टूटे हुए थे, उसने वह बंगलिया हासिल करने की ठानी। पहले कुछ सन्देसे आये, फिर कुछ धमकियां दी गयीं और अन्त में जब मैं दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतर रहा था, दसेक लोग मकान को जबरदस्ती खाली कराने के लिए चढ़ आये।

मेरे पिता यों तो पतले-छरहरे आदमी थे, उमर भी उनकी उस समय चौहत्तर की थी, लेकिन वे किसी धौंस-धमकी से डरने वाले नहीं थे। जाहिर है, भूमाफिया के उन गुर्गों ने जवाबी साहस की उम्मीद न की थी। वे धमकियां देते हुए चले गये। और अगले तीन-चार वर्षों तक चलने वाला मुक्खल महाराज प्रकरण अश्क जी के जीवन में शुरू हो गया।

खैर, मैंने अपने भतीजे से कहा कि वह घबराये नहीं, एकाध दिन की बात है, हम सामान ले कर पहुंचते हैं।

इलाहाबाद पहुंचने पर एक और मुसीबत सामने थी। किसी जमाने में बगल के मकान में, जो हमारे पास किराये पर था और जिसमें हमारा दफ्तरीखाना और गोदाम था, हमने एक आदमी को उसकी देख-रेख के लिए रखा था। वह बाद में पुलिस का मुखबिर निकला। कुछ समय तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा, फिर उसने भी पर निकालने शुरू कर दिये। यहाँ तक कि मुख्य फाटक से आने-जाने में बाधा डालने लगा। पुलिस का मुखबिर था, सो पुलिस कुछ करती नहीं थी, मुकदमा वह हार गया था तो भी टिका हुआ था।

मेरे इलाहाबाद पहुंचने पर पता चला कि हाईकोर्ट से भी उसकी अपील खारिज हो गयी है। तिस पर भी वह उस जगह को खाली नहीं कर रहा।

जहां तक भूमाफिया वाले प्रसंग का सवाल था, मैंने अश्क जी से कहा कि उससे उसी के तरीकों से लड़ने का न तो हमारे पास समय है, न साधन। या तो हम भी वैसे ही बन जायें, जो सम्भव नहीं है या फिर दूसरे उपाय अपनायें। मैंने उन्हें सलाह दी कि वे अपनी प्रसिद्धि का फायदा उठायें और मुख्यमन्त्री और प्रधानमन्त्री को पत्र लिखें।

रही बात उस चौकीदार की तो वह हाईकोर्ट से अपने मुकदमे के खारिज हो जाने के बाद ढीला पड़ा हुआ था। ऊपर से मेरे वापस आ जाने के बाद वह समझ गया था कि अब वह ज़्यादा दिन अपनी हरकतें जारी नहीं रख पायेगा। मेरे भाई झगड़ों-झंझटों से बच कर चलते थे जबकि मुझे न तो अन्याय करना पसन्द था, न अन्याय सहना। उस चौकीदार ने भी अगर मेरे लन्दन जाने का फायदा उठा कर मेरे परिवार को तंग न किया होता और पहले की तरह अपने बीवी-बच्चों के साथ आराम से रहा होता तो मैं उसे निकाल बाहर करने पर जोर न देता। तो भी मैंने अपने पिता से कहा कि मुकदमा हार कर वह ढीला पड़ा हुआ है, उसे कुछ पैसे दे कर रफा-दफा कीजिये।

इस झंझट से मुक्त होने के बाद हमने उस दूसरी बड़ी परेशानी की तरफ ध्यान दिया। तब तक चिट्ठियों का असर दिखने लगा था। वे लोग जो पिस्तौलें ले कर चढ़ दौड़े थे, दुबक गये; अब वार्ताओं का दौर शुरू हुआ। ऊपर से अख़बारों में इस मामले के उछलने से उस भूमाफिया को भी लगा कि आम बल प्रयोग वाला तरीका कारगर साबित नहीं होगा तो भी, चूंकि उसने चार बंगले छोड़ कर एक बंगले पर कब्जा कर रखा था, वह रोज अपनी फौज-फाटा ले कर सड़क से गुजरता, कई महीनों तक शहर के चार बड़े अफसर -- शहर कोतवाल, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, जिलाधिकारी और उपजिलाधिकारी -- हर शाम हमारे घर मौजूद होते। धीरे-धीरे सबको समझ में आ गया कि यह मामला अब बातचीत ही से तय होगा और इसमें लम्बा वक्त लगेगा।

इन दो फौरी समस्याओं से निपट कर मैंने उस बड़ी समस्या को हाथ में लेने की सोची, जिसके लिए दरअसल मैं घर लौटा था। भाई की बीमारी की वजह से हमारा दफ्तर सिविल लाइन्ज़ वाली दुकान से हटकर घर आ गया था। सारा हिसाब-किताब बेतरतीबी के आलम में था, नयी किताबों का प्रकाशन रूक गया था, ऊपर से कर्ज चढ़ गया था।

मैंने मई के पहले हफ्ते में सिविलाइन्स वाले दफ्तर के दो दफ्तरियों की मदद से खुद साफ किया, घर से सब वहाँ ले जा कर सही जगह सजाया और दफ्तर में बैठना शुरू कर दिया।
(जारी)

1 comment:

  1. दिलचस्प.....चलते रहिये हम वक़्त से गुजर रहे है

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