नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उन्तीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - २९
मित्रता की सदानीरा - ८
राजेश के पास दो कमरे थे। शायद दस गुना दस के या आठ गुना दस के। पहले कमरे में एक चारपाई, कुर्सी और मेज़ थी और दीवार में बना खानेदार ताक जिसमें कुछ किताबें। साथ के कमरे में पहले विजय गोयल रहा करता था, जो परिवार नियोजन में काम करता था। लेकिन जब मैं राजेश से मिला वह जा चुका था, वेणु ने भी विदिशा की दिशा पकड़ ली थी और उस कमरे में कोई रहता न था। वहाँ क्या था, यह अब मुझे याद नहीं, शायद विजय गोयल का कुछ छूटा हुआ सामान और कुछ और अल्लम-गल्लम। दोनों कमरों के बाहर लम्बा-सा बारजा था, जिस पर टहलते हुए सुबह के समय राजेश होंटों पर झाग लपेटे मंजन किया करता था। इन कमरों के ऊपर कुछ मियानी जैसा था। सण्डास अलग थी; नहाना-धोना अलबत्ता नीचे सीढ़ियों के किनारे लगे नल पर होता था, घर में कोई न हो तो सब कपड़े उतार कर, वरना कम-से-कम जांघिये की ज़रूरत तो पड़ती ही थी। अजीब मुसाफिरखाना-नुमा बोहीमियन रहन-सहन था। खाना-पीना सब बाहर होता, यहाँ तक कि सुबह की चाय भी सुल्तानिया रोड वाले तिराहे की दायीं जानिब, दुकानों के बीच शिखर जैन के होटल में पी जाती।
आम तौर पर राजेश आठ के बाद ही उठता था और फिर ‘प्रेशर’ बनाने के लिए जैन के होटल पर चाय पीने और सिगरेट के सुट्टों के साथ अख़बार पर नजर दौड़ाने जाता। लौट कर निपटता और फिर बकौल राजेश के मित्रों के, ‘थूकड़े उड़ाता' और नीचे गली का मुजरा करता हुआ, मंजन करता। नहाने का राजेश कभी उतना कायल नहीं रहा था। सो उसके बाद जल्दी से मुँह-हाथ धो कर कपड़े बदल स्टेट बैंक की हमीदिया रोड शाखा की तरफ भाग जाता, जहां वह प्रिमाइसिस विभाग में काम करता था। ऐसी दिनचर्या की वजह से और चूंकि फितरतन भी राजेश साफ-सफाई का बहुत कायल न था, उसके कमरे के फर्श पर जहां-तहां सिगरेट के टोटे बिखरे रहते। हफ्ते में एक बार वह कमर कस कर सफाई की मुहिम शुरू करता। मैं चूंकि उसकी चारपाई की बगल में होल्ड आल बिछा कर सोता था, इसलिए इन दो द्वीपों को छोड़ कर बाकी फर्श ऐसा लगता मानो थिर सागर का कोई टुकड़ा, जिस पर पहले से ध्वस्त किसी जहाज के अवशेष तैर रहे हों।
ऐसे ही में एक बार जब मेरा किशोरावस्था का मित्र सुहास अपने भाई से मिलने भोपाल आया था, जो ग्रैफाइट इण्डिया में काम करता था और मुझसे मुलाकात करने राजेश के कमरे पर पहुंचा था तो इस मंजर को देखकर अवाक रह गया था। बाद में राजेश ने जब वेणुगोपाल का किस्सा बताया तो मुझे लगा मैं नाहक तकल्लुफ में पड़ा रहा। जब वेणु आया था तो उस समय भी नीचे ताला लगा था, लेकिन वेणु उसे खोल-खाल कर अन्दर चला गया था और जब राजेश बैंक से लौटा था तो उसने अपनी चारपाई पर गठे हुए बदन के एक काले आदमी को सिर्फ़ धारीदार जांघिये में मलबूस, बांहें और टांगें फैलाये खर्राटे लेता पाया था। उन दिनों विजय गोयल बगल के कमरे में ही रहता था। राजेश ने उससे पूछा तो उसने कहा कि जब वह आया था तब भी यह आदमी ऐसे ही सो रहा था। पूछने पर उसने बताया था कि वह वेणुगोपाल है।
बहरहाल, यह जानकारी राजेश ने कुछ समय बाद दी थी। तब तक मैं भी 4-मारवाड़ी रोड का एक अस्थायी बाशिन्दा बन चुका था। चूंकि मैं राजेश के हिसाब से ‘तड़के’ ही पहुंचा था, इसलिए परिचित होने-हवाने के क्रम में वह मुझे अपने घर से बीस-पच्चीस कदम आगे जैन के होटल ले गया था, जहां मेरा परिचय पहले तो नरेन्द्र जैन से हुआ, फिर राजेन्द्र शर्मा से। नरेन्द्र शिखर जैन के होटल से थोड़ा बायीं तरफ गली में मज़हर डेयरी में रहता था। स्वभाव से वह और राजेश दोनों उत्तर-दक्खिन थे, शायद इसीलिए दोनों में पट गयी थी। नरेन्द्र ने अपने कमरे में खाना-वाना बनाने का सारा इन्तज़ाम रखा हुआ था, लेकिन सुबह की चाय पीने, अख़बार के पन्ने पलटने और राजेश से मिलने वह अक्सर जैन के होटल आ जाता। राजेश स्टेट बैंक में था, नरेन्द्र सेंट्रल बैंक में। राजेन्द्र डाकखाने में काम करता था। तीनों कवि थे, तीनों अविवाहित थे और जौन स्टाइनबेक के उपन्यास "टौर्टिया फ़्लैट" के तीनों देसी पात्रों -- डैनी, पाइलौन और जीसस मारिया -- की तरह मस्ती और मलंगई के साथ उन दिनों भोपाल में एक मोर्चा-सा बांधे हुए थे।
दिन में तो ये तीनों अपने-अपने दफ्तर चले जाते, मैं या तो राजेश के कमरे पर रहता या फिर भोपाल में और लोगों से मिलने चला जाता। दुष्यन्त कुमार उन दिनों वहीं थे, उनकी ग़ज़लों का संग्रह ‘यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है’ बड़ा लोकप्रिय हुआ था और वे कविताओं का एक नया सिलसिला शुरू करने की योजनाएं बना रहे थे, जो गंगाराम नामक पात्र के गिर्द बुनी जाने वाली थीं। गंगाराम आम आदमी का कुछ वैसा ही प्रतीक बनने वाला था, जैसा लक्ष्मण के व्यंग्य चित्रों में नज़र आता है। शानी भी उन दिनों भोपाल में थे और ‘साक्षात्कार’ का सम्पादन कर रहे थे। ‘साक्षात्कार’ का दफ्तर उन दिनों प्रोफेसर्स कालोनी में होता था और वहाँ सह-सम्पादक पूर्णचन्द्र रथ से भी मुलाकात होती रहती।
शरद जोशी तब तक मुस्तकिल तौर पर बम्बई नहीं गये थे। उन दिनों उनका अशोक वाजपेयी और मध्यप्रदेश कला-परिषद से शीत-युद्ध जोरों पर था। उनके साथ ज़्यादा मुलाकातें तो नहीं हुई थीं, पर एक बार की याद है जब उन्होंने बताया था कि 1972 के आस-पास जब अशोक वाजपेयी सीधी से भोपाल पहुंचे थे और शायद संस्कृति सचिव बन कर उन्होंने साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां शुरू की थीं तो शरद जी और अन्य लोगों ने इसका स्वागत ही किया था। लेकिन फिर कई मुद्दों पर उनके बीच मतभेद पैदा हो गये थे। शरद जी का कहना था कि इसके बावजूद उन्होंने कोई ऐसा-वैसा कदम नहीं उठाया था, यानी सार्वजनिक रूप से पत्र-पत्रिकाओं या अख़बारों में नहीं लिखा था। लेकिन उन्होंने बताया था कि उन्हें अमूमन रचना-पाठ के लिए कार्यक्रमों में बुलाया जाता था और अख़बारों में स्तम्भ-लेखन के साथ-साथ यह उनकी आजीविका का मुख्य साधन था। जब यह होने लगा कि कोई बाहर से आये और पूछे शरद जी कहां मिलेंगे और उसे कहा जाये कि शरद जी, अरे वे तो बम्बई रहते हैं, यहाँ नहीं मिलेंगे -- और ऐसा एकाधिक बार हुआ -- तो उन्हें लगा कि यह तो पेट पर लात मारने जैसा है और उन्होंने अपना मोर्चा खोला था।
उन दिनों त्रिलोचन जी भी मध्यप्रदेश ग्रन्थ अकादमी में भोपाल आ गये थे। अशोक वाजपेयी थे ही। सोमदत्त और भगवत रावत से भी उसी भोपाल-प्रवास में परिचय हुआ था और मुझे याद है कि एक रोज़ अशोक जी ने मुझे शाम को, उन्हीं के शब्दों में कहूं तो, ‘रसरंजन’ और खाने पर बुलाया था। राजेश की उन दिनों अशोक जी से कुछ खटपट थी, सो वह ज़रूरी काम से इन्दौर जाने का बहाना बना कर कट लिया था। अलबत्ता, त्रिलोचन जी और मैं टहलते हुए चौहत्तर बंगले अशोक जी के मकान पर पहुंचे थे। सोमदत्त और भगवत रावत वहीं थे और एक ठीक-ठाक-सी, मगर नाक़ाबिले-ज़िक्र शाम गुजरी थी। बस, मुझे पीछे चल रहे संगीत पर भगवत रावत का सिर हिलाना और ‘सम’ पर सिर को झटका देना, सोम का तत्परता से गिलास भरना और त्रिलोचन जी का हर पेग के साथ और भी खामोश होते चला जाना याद है।
भोपाल की पहली या दूसरी यात्रा के दौरान ही हम विदिशा भी गये थे। विजय बहादुर सिंह तब वहीं थे और वेणु या तो उन्हीं के यहाँ ठहरा हुआ था या फिर किसी और मित्र के यहाँ। राजेश और नरेन्द्र मेरे साथ थे। हमने वेणु को साथ ले कर साइकिलों पर विदिशा की सैर की थी और हीलियोडोरस का स्तम्भ और उदय गिरि की गुफाएं देखने गये थे। उदयगिरि की गुफाओं में ही मैंने वराह का वह अद्भुत मूर्तिशिल्प देखा और भारतीय मूर्ति कला के बारे में मेरी पहले की सारी अवधारणाएं बदल गयी थीं। मैं तब तक भारतीय मूर्तिकला की तुलना में पश्चिमी मूर्तिकला को ज़्यादा पसन्द करता आया था। लेकिन पृथ्वी का उद्धार करते वराह अवतार के इस मूर्तिशिल्प में भले ही पश्चिमी मूर्ति शिल्प जैसी ‘डिलिनिएशन’ नहीं थी, पर उसका ओज और भारतीय पुराकथा को कला का जामा पहनाने में शिल्पकार की उपज और सूझ ने मुझे चमत्कृत कर दिया था। तभी मुझे कला, कलाकार और सत्ता के पेचीदा रिश्ते के एक दिलचस्प पहलू का भी परिचय मिला था।
जब हम गुफाओं में घूम-टहल कर बाहर आये तो प्रवेश द्वार पर पुरातत्व विभाग की एक बड़ी-सी तख़्ती पर हमारी नज़र पड़ी। उस में इन गुफाओं के बारे में जानकारी के साथ-साथ एक किंवदन्ती का भी उल्लेख था जो वराहावतार की मूर्ति से सम्बन्धित थी। क़िस्सा यह था कि जब समुद्रगुप्त दक्षिण की विजय के बाद पाटलिपुत्र लौटते हुए विदिशा आया था तो इस वराह शिल्प के मूर्तिकार ने यह कह कर समुद्रगुप्त को यह मूर्ति समर्पित की थी कि आपने भारतवर्ष का उद्धार वैसे ही किया है जैसे विष्णु ने वराह के अवतार में पृथ्वी का उद्धार किया था। प्रकट ही बहुत नफ़ीस क़िस्म की ख़ुशामद थी और अगर यह किंवदन्ती जनता की स्मृति में अक्षुण्ण रही आयी है तो इसीलिए कि ख़ुशामद बहरहाल ख़ुशामद है और इस बात को जनता बख़ूबी पहचानती है। ज़ाहिर है, यह मूर्ति-शिल्प मामूली शिल्प नहीं है। यह सोलह सदियां बीत जाने के बाद भी अपनी कला और कौशल से हमें चमत्कृत करता है। दूसरी ओर समुद्रगुप्त भी कोई मामूली सम्राट नहीं था। हैरत तो तब होती है जब आज के रचनाकार अपनी सारी अगली-पिछली टेक भुला कर संस्कृति और राजनीति के छोटे-छोटे नगण्य समुद्रगुप्तों को "देवता" और माई-बाप कहने में ज़रा भी शर्म महसूस नहीं करते।
उसी विदिशा यात्रा में एक प्रसंग रात को मदिरापान का है। साधु-संगत विजयबहादुर के घर की छत पर हुई थी, फर्श पर बिछी सफेद चादरों और गावतकियों पर महफिल जमी थी। भोपाल जाने से पहले मैंने ठर्रा शायद एक ही बार पिया था। वह भी कसौली में जब मैं एम.ए. पास करने के बाद दो महीने वहाँ रहा था। उसके बाद फिर ठर्रा मैंने भोपाल आ कर ही पिया था --राजेश, नरेन्द्र और फजल के साथ। तभी किसी ने बताया था कि विदिशा की सौंफिया का मज़ा ही कुछ अलग है। वह लगभग रंगहीन दारू जो पानी मिलाते ही दूधिया हो जाती है। विजयबहादुर की छत पर बैठ कर मैंने कहा था कि सुना है, यहाँ की सौंफिया बहुत अच्छी होती है। विजयबहादुर ने फौरन वेणु को साइकिल पर सौंफिया लाने दौड़ा दिया था और उस शाम हमने सौंफिया पी थी।
(जारी)
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