नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अड़तीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - ३८
मित्रता की सदानीरा - १७
लखनऊ ही में मेरे पुराने मित्र राजेश शर्मा भी थे, जो सूचना विभाग में थे जहां लीलाधर जगूडी भी उन दिनों था या कुछ ही अर्से बाद आया। राजेश जिसने बाद में ओसीआर बिल्डिंग से कूद कर आत्महत्या कर ली और बहुत-से लोगों को दुखी कर दिया, बहुत प्यारा इन्सान था।
राजेश शायद मूलतः गोरखपुर की तरफ का था या शायद उसका कुछ समय गोरखपुर गुजरा था और वह मदन वात्स्यायन के मित्रों में से था। आज तो खैर मदन वात्स्यायन की किसी को याद नहीं, पर एक समय उनकी कविताएं बहुत शान से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती थीं और हम नये-नये लिखने वालों पर उनका बड़ा रोब और रूतबा था। लखनऊ आने से पहले राजेश का बहुत वक्त इलाहाबाद में गुजरा था, जहां वह पवन मन्ध्यान के नाम के एक सिन्धी युवक (जो बाद में वकील बना) और जगदीश सरदाना नाम के एक शख्स के साथ छोटे-से ‘एक्सक्लूसिव’ गुट का सदस्य था।
हालांकि मैं उन दिनों प्रभात और काफी हाउस में शाम को अड्डा जमाने वालों में बैठता था, लेकिन चूंकि मेरे प्रकाशन का कार्यालय काफी हाउस वाली इमारत में था इसलिए राजेश वगैरा, जिनकी नियमित बैठकी तीन-चार बजे के करीब होती, मुझे भी कृपा करके शामिल कर लिया करते।
तीनों नकचढ़े लोग थे और बड़ी ऊंचाई से कला-साहित्य वगैरा पर बात करते। जगदीश उधर कहीं कल्याणी देवी या मीरापुर की तरफ रहता था और मेरे पिता से सिफारिशी पत्र ले कर पूना के फिल्म संस्थान जाने, वहाँ की शुरूआती खेप में प्रशिक्षण लेने, लगभग तत्काल ही राजेन्द्र सिंह बेदी का प्रिय पात्र बन कर ‘दस्तक’ के सहायक निर्देशक का अवसर पाने से पहले, इलाहाबाद में पढ़ाई पूरी करने के बाद पर तोल रहा था। बाद में उसने पद्मा खन्ना से शादी कर ली थी और अनेक प्रतिभाओं की तरह जो उल्का की तरह उभर कर गायब हो जाती हैं, वह भी अचानक गायब हो गया था। कुछ साल तक उसकी खैर-खबर मिलती रही, फिर वह भी बन्द हो गयी। अभी दो-तीन साल पहले अमरीका बस गयी एक युवती से, जो जाने किसका पता पूछती भटक कर हमारे इलाहाबाद वाले बंगले में चली आयी थी, पता चला कि पद्मा खन्ना, जो डांस करते-करते ‘सौदागर’ में अमिताभ और नूतन के साथ बराबरी की भूमिका निभाने तक की मंजिलें तय कर आयी थी, अब लास ऐन्जिलीज या वहीं-कहीं कैलिफोर्निया के धूप-धुले इलाके में नृत्य का विद्यालय चला रही है, जिसका बन्दोबस्त ’जगदीश सर’ के हाथों में है।
खैर, बात राजेश शर्मा की हो रही थी। राजेश मुझे शुरू ही से एक बेचैन आत्मा लगता था। अक्सर वह मुझसे बात करते-करते, एक उड़ान-सी भरते हुए मेरे पिता से अपनी मुलाकातों का जिक्र छेड़ देता। ज़ाहिर है, जिस ऊंचाई पर वह विचरता था, वहाँ से उसे उपेन्द्रनाथ अश्क भी अदना-से नजर आते रहे हों तो कोई हैरत की बात नहीं। मैं चूंकि ऐसी ही फितरत वाले हिन्दी के बहुत से लेखकों की अदाओं से वाकिफ हूं, इसलिए मुझे राजेश से खीझ नहीं होती थी। यूं बेहद प्यारा आदमी था, नयी कविता के जमाने की कविताई करता था, जो शादी-ब्याह, बच्चों और नौकरी के बाद प्राथमिकताओं के क्रम में काफी नीचे खिसक गयी थी।
उस लखनऊ प्रवास में रिक्शे पर ‘अमृत प्रभात’ से महानगर मंगलेश के घर जाना, वहाँ मोहित (जो तब शायद साल भर का था) और संयुक्ता से मिलना याद है। एक रात शैलेश के कमरे पर बिताने की भी याद है, लेकिन सबसे गहरी याद उस मजलिस की है, जो राजेश के घर पर हुई थी। मेरी वापसी के मौके पर पंकज सिंह भी दिल्ली से लखनऊ आ गया था, वीरेन भी। अजय वहां था ही, सो एक उत्सवी हलचल हवा में थी।
तभी राजेश ने मुझसे कहा कि वह मेरी वापसी का जश्न मनाने के लिए अपने घर पर एक पार्टी रख रहा है। पार्टी मतलब ‘पवित्र विचार’। अजय तो पीता नहीं है, लेकिन हम सब कहा जाय कि ‘रिन्दे बलानोश’ किस्म के लोग थे, जो ‘अच्छी पी ली खराब पी ली, जैसी मिली शराब पी ली’ में विश्वास करते थे। सो जहां तक मुझे याद है ‘पवित्र विचार’ की उस सभा में मंगलेश, वीरेन, पंकज, शैलेश, अजय और मैं शामिल थे। राजेश तो मेजबान होने के नाते था ही।
मुझे इतने बरस बाद अब याद नहीं है कि यह पार्टी उसके नये घर पर हुई थी, जिसका नाम उसने ‘घर’ ही रखा हुआ था और बड़े मन से बनवाया और सुरूचि से सजाया था, या फिर उस मकान पर जहां वह इस मकान को बनवाने से पहले किराये पर रहता था। बहरहाल, एक बड़ा-सा कमरा था, जो सामने सोफे रखकर बैठक बना लिया गया था और पीछे की तरफ रखी खाने की मेज-कुर्सियों की वजह से खाने के कमरे के काम आता था। राजेश की दो बेटियां थीं, जो अपनी मां के साथ खाने-पीने के इन्तजामात कर रही थीं, पीछे शास्त्रीय संगीत बज रहा था, जिस पर वीरेन बीच-बीच में कुछ टिप्पणी कर बैठता। हम लोग बैठक वाले हिस्से में इत्मीनान से बैठे दारू की चुस्कियां ले रहे थे। लेकिन ऐसे खुशनुमा माहौल को यादगार बनाने के लिए जैसे उसका खुशनुमा होना ही काफी न हो, इत्तफाक ने कुछ और सरंजाम भी कर रखा था।
अभी महफिल शबाब पर आना चाहती थी कि बाहर अचानक किसी मोटरकार के तेजी से आ कर रूकने की आवाज आयी और कुछ पल बाद दरवाजे पर दस्तक हुई। राजेश ने दरवाजा खोला तो रवीन्द्र कालिया (जाने यह नाम धूमकेतु की तरह कब तक मेरे फलक पर बार-बार गर्दिश करता रहेगा और अपने पीछे छोड़े गये धुएं और गर्दो-गुबार से माहौल को धुंधलाता रहेगा - ‘आधार’ वाले प्रसंग से ले कर अन्यान्य प्रसंगों तक), उसका जालन्धर के दिनों का दोस्त प्रवीण शर्मा (जो उन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार में कोई बड़ा प्रशासनिक अधिकारी था) और विभूति नारायण राय (जो शायद तब एस.पी. थे, या एस.एस.पी. बन चुके थे) अन्दर दाखिल हुए। पी तो उन तीनों ने ही रखी थी, लेकिन कालिया "जाने भी दो यारो" का ओम पुरी बना हुआ था। टुन्न और ह्विस्की के घोड़े पर सवार। अन्दर आते ही उसने कहा, ‘यार मंगलेश, तुम यहाँ बैठे हो और हम सारा शहर तुम्हारी तलाश में छानते रहे हैं।’
जाहिर था कि कालिया को मंगलेश की वैसी खोज नहीं थी। वह सत्ता के जिन गलियारों और गलियों की सैयाही कर रहा था, वहाँ किन्हीं और किस्म के लोगों की संगत वह किया करता था। चूंकि कालिया कभी अपनी छोटे शहर की मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है, इसलिए पद के लिए -- वह सरकारी हो तो और भी -- उसके मन में बहुत जगह है। उस वक्त भी एक सचिव स्तर का प्रशासनिक अधिकारी और ऊंचे दर्जे का पुलिस अफसर उसके साथ था। जाहिर है कि प्रतिबिम्बित महिमा से कालिया ही मण्डित हो रहा था और प्रेमचन्द की कहानी ‘नशा’ की-सी कैफियत उस पर तारी थी।
चुनांचे उसने एक-एक करके हम सबसे चुटकियां लेनी शुरू कीं। अपवाद सिर्फ शैलेश और अजय थे। शैलेश को वह ज़्यादा जानता नहीं था और अजय से उसका कोई वैसा खुला रिश्ता नहीं था। वह जानता था कि अजय सख्ती से उसे डपट सकता है। बाकी सबसे वह खुला-खिला था। इस बीच प्रवीण शर्मा लगातार एक ही वाक्य दोहराता रहा -- ‘कालिया यू आर ड्रंक’। और विभूति भी ‘कालिया जी, आइए चलिए, आपने बहुत पी ली है।’ कह कर कालिया को वहाँ से हटा ले जाने की दुर्बल-सी कोशिश करते रहे। तभी कालिया की नजर पंकज सिंह पर गयी और वह चहक उठा।
क्षेपक के तौर पर इतना ही कि पंकज सिंह तब तक दो बार पैरिस के चक्कर लगा कर लौट आया था, फिरोजशाह रोड पर भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद के पीछे किन्हीं लव साहब के सरकारी मकान में उनका किरायेदार बन कर एक कमरे में रहता था, पास ही रह रहे कैप्टन वर्मा के (जो भगवतीबाबू के सुपुत्र थे) परिवार में आता-जाता था और पहले से भी ज़्यादा बेढब और बोहीमियन जि़न्दगी गुज़ार रहा था। जाहिर है, उन सभी लोगों में जो वहाँ मौजूद थे, पंकज ही कालिया के लिए सबसे आसान ‘टार्गेट’ था।
‘अरे पंकज, यार तुम भी यहाँ जमे हो,’ कालिया चहका। ‘और सुनाओ तुम्हारी उस फ्रान्सीसी प्रेमिका का क्या हाल है, जिसे तुम ले कर हमारे यहाँ रानी मण्डी आये थे और जब वह सीढि़यां चढ़ रही थी तो मैंने उसके चूतड़ पर चुटकी काट ली थी?’
कालिया का यह कहना था कि महफिल पर सकता छा गया। उस सन्नाटे में बस प्रवीण शर्मा और विभूति नारायण राय की आवाजें ही सुनायी दीं -- प्रवीण शर्मा की, ‘कालिया यू आर ड्रंक,’ और विभूति की, ‘कालिया जी, आइए चलिए, आपने बहुत पी ली है।’
फिर जैसे एक बम-सा फट पड़ा। सब कालिया पर बरसने लगे। अब तो प्रवीण शर्मा और विभूति नारायण राव ने शब्दों को छोड़ कर हरकतों का सहारा लिया और कालिया को पकड़ कर बाहर ले गये। पीछे-पीछे हम सभी बाहर निकल आये। सबसे ऊंचा स्वर शैलेश का था, जो उन्हें तब तक गालियां देता रहा जब तक कि वे मोटर पर सवार हो कर वहाँ से सिर पर पैर रख कर भाग नहीं गये।
कुछ देर माहौल गड़बड़ाया रहा, लेकिन जल्दी ही फिर जमावड़ा अपनी पुरानी रफ्तार और मौज में आ गया।
कितनी अजीब बात है कि ‘गालिब छुटी शराब’ में अपनी और दूसरों की शराबनोशी के दसियों प्रसंग अंकित करते हुए कालिया ऐसे प्रसंगों से कतरा कर निकल गया है, जिनमें उसने दारू पी कर अभद्रताएं की हैं।
(जारी)
ओह...यह राय-कालिया गठजोड इतना पुराना है :)
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