Wednesday, June 29, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अड़तालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४८


मित्रता की सदानीरा - २७

बात यह थी कि उसी दोरान विनोद कुमार शुक्ल नाम के एक रेलवे कर्मचारी प्रकाशन की दुनिया में दाखिल हुए। वे विभूति नारायण राय के मुसाहिबों में से थे और उन्होंने अनामिका प्रकाशन के नाम से विभूति नारायण राय की कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की थीं। विभूति के जरिये पुलिस के महकमे में उनकी अच्छी रसाई हो गयी थी। यों समझिये कि वे एक छोटे-मोटे ठेकेदार थे, जो साइड-बिजनेस के तौर पर प्रकाशन करते-करते बड़े प्रकाशक बनना चाहते थे। उन दिनों के विभूति नारायण राय के यहाँ लगभग निजी सचिव की तरह आते-जाते और शायद ‘वर्तमान साहित्य’ का भी काम-धाम देखते थे। उन्हें ज्ञान के साथ मेरे बन्दोबस्त का इल्म तो था नहीं, वे गालिबन यही सोचते थे कि मुझे ‘पहल’ की छपाई से कुछ फायदा होता है और उनकी इच्छा थी कि उन्हें ‘पहल’ और ‘पहल पुस्तिका’ की छपाई आदि का काम मिल जाये जिसके सहारे वे अपने सम्पर्क-सूत्रों का विस्तार कर सकें और घेलुए में कुछ कमाई कर लें। दिलचस्प बात यह थी कि ‘किशोर प्रिंटर्स’ उनके साले या बहनोई का ही था, वे भी अगर छपाई का काम पा जाते तो ‘किशोर प्रिंटर्स’ ही से छपाते। अलबत्ता, बाकी खर्चे-पानी से वे जरूर कुछ बचा लेते। उनकी और ‘किशोर प्रिंटर्स’ वालों की बातों से मुझे उनके मंसूबों की सुन-गुन थी, लेकिन मैं मन की बात जाहिर किये बिना अन्दर-ही-अन्दर मजा लेता था।

इसमें कोई शक नहीं है कि ‘पहल’ के कहानी विशेषांक के छपने में विलम्ब हुआ था। इसका एक कारण तो यह था कि उसकी पाण्डुलिपि हमें टुकड़ों-टुकड़ों में मिलती रही थी, जिसकी वजह से क्रम लगातार बदलता रहता था। आज तो लेजर कम्पोजिंग में कम्पोज की हुई सामग्री बेहद आसानी से आगे-पीछे की जा सकती है, पंक्तियां काटी या जोड़ी जा सकती हैं, मगर हैण्ड कम्पोजिंग के युग में ऐसा सम्भव न था। फिर ‘किशोर प्रिंटर्स’ ‘पहल’ के पुराने मुद्रक "स्टार प्रिंटर्स" के अमीन साहब जितने साधन-सम्पन्न और अनुभवी नहीं थे। चूंकि छपाई के लिए दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता था, इसलिए भी विलम्ब हुआ था। तीसरा कारण विनोद कुमार शुक्ल की खुड़-पेंचिया फितरत का कोई कारनामा हो सकता था, क्योंकि वे तुले बैठे थे कि मुझे अपदस्थ करके ‘पहल’ का काम अपने हाथ में ले लें। ज्ञान से उन्होंने सम्पर्क साध लिया था और ज्ञान ने उन्हें धीरे-धीरे छोटे-मोटे काम सौंपने शुरू कर दिये थे, मसलन, इलाहाबाद के लेखकों को ‘पहल’ की प्रतियां पहुंचाना, वगैरा, वगैरा।

इस सबका नतीजा यह हुआ कि ‘पहल’ का कहानी विशेषांक देर से ही नहीं छपा, बल्कि इसी अंक के साथ जारी पुस्तिका जितना सुन्दर छपा भी नहीं लगा।

कहानी विशेषांक में हुई देर की भरपाई करने के लिए यह तय किया गया कि पहल-29 जल्दी से छाप दी जाय। लेकिन तय करना एक बात है, उसे अंजाम देना दूसरी। थोड़ी देर इस बार भी हुई, लेकिन आखिरकार मार्च 86 के तीसरे हफ्ते तक पहल-29 छाप कर जबलपुर भेज दी गयी और 25 मार्च को ज्ञान का पत्र आया कि अंक मिल गया है, छपाई बहुत अच्छी है, लेकिन बकाया पैसों का इंतजाम वह 15 अप्रैल तक ही कर सकेगा। मैं तब तक पुस्तिका की छपाई को छोड़ कर सारा हिसाब चुकता कर चुका था, इसलिए मुझे पैसों की सख्त जरूरत थी। पर मैंने सोचा पन्द्रह-बीस दिन की बात है, पैसे आ ही जायेंगे।

तभी जब मैं ज्ञान से बकाया पैसों की उम्मीद लगाये हुए था, उसका 13 अप्रैल का पत्र आया। पत्र क्या था, पत्र-बम था। उसमें ज्ञान ने एक के बाद एक मुझ पर तीन आरोप ठोंक दिये थे और तीनों का ताल्लुक मेरी ईमानदारी से था। पहली बात जो ज्ञान ने लिखी वह अशोक भौमिक के बारे में थी - ‘अभी मुझे यह जानकारी मिली है कि अशोक भौमिक को शायद पारिश्रमिक की राशि नहीं मिली है। जबकि हम लगातार दे रहे हैं। यह बात सही है या गलत मैं नहीं जानता।’

दूसरी बात पहल के कहानी अंक की बिक्री के बारे में थी - ‘पहल के कहानी अंक को तुमने कितने में बेचा है। पुस्तक मेले में यह लोगों को 17 में मिला है।’

तीसरी बात यूं लिखी गयी थी मानो चलते-चलाते याद आने पर लिख दी गयी हो - ‘हां पहल-29 में लगा न्यूज प्रिंट काफी महंगा लग रहा है।’

पत्र पढ़ने के बाद कुछ देर के लिए मैं स्तब्ध रह गया था। आज का जमाना होता तो तत्काल मोबाइल पर तय-तस्फिया कर लेता। पर तब फोन से ट्रंककाल बुक कराके सम्पर्क में भी घण्टों लग जाते थे और छह मिनट से ज़्यादा बात नहीं हो पाती थी। लिहाजा मैं अन्दर-ही-अन्दर खौलता रह गया था।

मुझे सबसे ज़्यादा आपत्ति ज्ञान के लहजे और सुनी-सुनायी बात पर मुझसे कैफियत तलब करने को ले कर थी। मैं जानता था कि यह आग किसने लगायी थी। लेकिन ज्ञान कान का इतना कच्चा निकलेगा, मैंने कभी कल्पना भी न की थी। अव्वल तो उसे पहले अशोक भौमिक से पूछना चाहिए था कि उन्हें पैसे मिले या नहीं मिले और तब मुझे लिखना चाहिए था। दूसरे ‘अभी मुझे जानकारी मिली है’ से अविश्वास की जो सड़ांध उठ रही थी, उसने ज्ञान और पहल के साथ मेरे लम्बे सम्बन्ध को विषाक्त करके रख दिया था। चूंकि ज्ञान ने अपने कान के कच्चेपन में अशोक भौमिक वाली बात मान ली थी, इसलिए ‘पहल’ की बिक्री और न्यूजप्रिंट की कीमत भी शक के घेरे में आ गयी थी। वरना तय यह हुआ था कि पहल का अंक दस रुपये में और पुस्तिका सात रुपये में बेची जायेगी, फिर यह पूछना कि ‘पुस्तक मेले में लोगों को यह 17 में मिला है’, बेमानी था। न्यूज प्रिंट के सिलसिले में ज्ञान को मैंने बता दिया था कि वह आधिकारिक तौर पर रसीद पर्चे के साथ नहीं मिलता है, जब जैसी खेप आती है, वैसी कीमत देनी पड़ती है, क्योंकि इसे अख़बार चोरी-छिपे बेच देते हैं।

मुझे हैरत इस बात पर भी हुई कि ज्ञान ने इस बात का भी ध्यान नहीं रखा था कि ‘पहल’ की छपाई के सिलसिले में लगातार मैं अपने पास से पैसे लगाया करता था और ज्ञान अपनी सुविधा से उन्हें चुकाता था और मैंने कभी शिकायत नहीं की थी। 1980 में भी जब मैं लन्दन गया था तो पहल की तरफ 1500 से ऊपर की राशि निकलती थी, जिसमें से ज्ञान ने सिर्फ 500/- दिये थे। चार साल बाद जब मैं लौट कर आया था तब भी यह रकम वैसी-की-वैसी पड़ी हुई थी, जबकि मेरे बड़े भाई ने ज्ञान को बार-बार याद कराया था। ज्ञान ने तब भी यह हिसाब चुकता नहीं किया था, जब मेरे पीछे मेरे बड़े भाई बहुत बीमार हो गये थे। 1980 में 1100/- की राशि कुछ मानी रखती थी। लेकिन मैंने ज्ञान को कोई उलाहना दिये बगैर फिर से ‘पहल’ की छपाई को हाथ में ले लिया था।

जाहिर है, मन की जो हालत थी, उसमें मुझे ज्ञान के इस अविश्वास-भरे रवैये से सख्त चोट पहुंची थी। मैंने तत्काल उसे एक तीखा पत्र लिखा था। ज्ञान ने पलट कर जवाब दिया था और चूंकि विनोद कुमार शुक्ल वाली मेरी बात सही थी, इसलिए उसने उसे और अशोक भौमिक वाली बात को किनारे करके कुछ और नये आरोप मुझ पर लगा दिये थे। 26 अप्रैल के इस पत्र का जवाब मैंने दिया या नहीं, या दिया तो क्या दिया मुझे मालूम नहीं। बहुत-से पत्रों की प्रतिलिपियों मैं रखता नहीं था। वैसे भी मन इतना खिन्न और मुँह का स्वाद इतना बदमजा हो गया था कि मैंने फैसला कर लिया था अब ज्ञान के साथ ज़्यादा सम्बन्ध नहीं रखना है और ‘पहल’ के सिलसिले को यहीं तोड़ देना है। 26 अप्रैल के पत्र के बाद मेरे पास ज्ञान का सिर्फ 1/7 का एक कार्ड इस प्रसंग से सम्बन्धित मौजूद है, जिसमें उसने अपने पत्र के उत्तर न मिलने की बात लिखी है और जल्द-से-जल्द रकम भिजवाने की भी। 15 अप्रैल खिसक कर जुलाई के आगे तक टल गया था।

मैंने ज्ञान के इस 1 जुलाई के पत्र का जवाब दिया या नहीं दिया, यह लगभग चौथाई सदी बीत जाने पर मुझे याद नहीं । बस इतना याद है कि मैं उस पूरे अर्से में बार-बार मैत्री नाम की शै के बारे में सोचता. ज्ञान को जो पहला तीखा पत्र मैंने लिखा था वह मैंने अशोक भौमिक को दिखा दिया था। उन्होंने पूछा भी था कि मैं इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकता था कि इस पूरे प्रसंग के पीछे अनामिका प्रकाशन वाले विनोद कुमार शुक्ल ही का हाथ था। तब मैंने उन्हें विनोद कुमार शुक्ल के सम्बन्धी "लिशोर प्रिंटर्स" से मिली सुन-गुन के बारे में बताया था, पर उन्हें तब भी यक़ीन नहीं हो रहा था। वह तो जब ज्ञान का जवाब आया तब जा कर उन्हें यक़ीन हुआ। लेकिन मेरी दिमाग़ी हालत का इल्म होते हुए भी अशोक भौमिक ने अपनी तरफ़ से इस ग़लतफ़हमी को दूर करने-करवाने में कोई क़दम नहीं उठाया था, जबकि वे कहा जाये इस पूरे झगड़े में एक पार्टी थे। लेकिन जो नहीं है जैसे कि वफ़ादारी उसका ग़म क्या, वह नहीं है।
(जारी)

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