Monday, June 6, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सत्ताईसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - २७



मित्रता की सदानीरा - ६


एम.ए. पास करने के बाद जब मैंने अध्यापन या प्रशासनिक सेवाओं में न जाने का फैसला करते हुए, माता-पिता द्वारा स्थापित प्रकाशन में ही काम करने का तय किया था और पुस्तकों के प्रकाशन को ही पेशे के तौर पर चुना था तो इसलिए कि पुस्तकें प्रकाशित करने में मुझे सुख मिलता था। बिक्री की व्यवस्था मेरे बड़े भाई देखते थे। दफ़्तर का बाकी काम यानी खाता-बही, चिट्ठी-पत्री, बण्डल बँधवाना, भेजना -- यह सब हमारे पुराने प्रबंधक विश्वनाथ झा के हाथों में था, जो सोलह-सत्रह वर्षों से इसे देखते आये थे। लेकिन 1972 में अचानक झा बाबू ने हमारे यहाँ से वोरा एण्ड कम्पनी प्रा.लि. में जाने का फैसला किया जो बम्बई की प्रकाशन संस्था थी, हिन्दी, गुजराती और शायद मराठी में भी किताबों प्रकाशित करती थी और जिसकी एक शाखा इलाहाबाद में भी थी।

वोरा एण्ड कम्पनी के पुराने मैनेजर काशी प्रसाद जैन अचानक दिल के दौरे से जाते रहे थे और कम्पनी के मालिक श्री वोरा ने झा बाबू को ज़्यादा वेतन का लालच दे कर तोड़ लिया। (यह अलग बात है कि झा बाबू बहुत दिन वोरा एण्ड कम्पनी में टिक नहीं पाये, क्योंकि श्री वोरा के मन में शुरू से ही इस इलाहाबाद शाखा को बन्द करने का विचार था। काशी प्रसाद जैन महज उनके मैनेजर ही नहीं, प्रमुख बिक्री अधिकारी भी थे, जबकि झा बाबू सिर्फ दफ्तर संभाल सकते थे और इसीलिए जब तक कम्पनी की पुरानी लेनदारियों और देनदारियों का हिसाब-किताब न हो जाता, वोरा साहब इस शाखा को बन्द करने का खतरा नहीं मोल सकते थे। वक़्ती इन्तज़ाम के तौर पर उन्होंने यह दांव खेला था)।

झा बाबू के चले जाने के बाद उनका सारा काम भी मेरे सिर पर आ गया। सबकुछ के बाद वे कार्यकुशल आदमी थे और उनका स्थानापन्न खोजना आसान न था। धीरे-धीरे जो काम मैंने अपनी खुशी से स्वीकार किया था, वह मुझे सिसिफस की चट्टान सरीखा जान पड़ने लगा। हर रोज़ मैं चट्टान को ढो कर पहाड़ की चोटी पर ले जाता, हर शाम वह लुढ़क कर फिर नीचे आ जाती। ज़ाहिर है, यह दौर मेरे लिए बहुत बेचैनी और उद्विग्नता से भरा था। जब तक मित्र मण्डली थी, तब तक इस नीरस, निरानन्द काम को झेलना किसी कदर सम्भव था, लेकिन वीरेन बरेली जा चुका था, अजय सिंह दिल्ली, रमेन्द्र प्रशासनिक परीक्षा में सफल हो कर प्रशिक्षण पर गोरखपुर; दूधनाथ का ज़्यादा वक़्त अपने बच्चों की देख-रेख और शिक्षा-दीक्षा में जाता था, कालिया से ताल्लुकात लगभग कट गये थे; बस, प्रभात था, जिसके साथ थोड़ा-बहुत उठना-बैठना था, लेकिन वह भी रफ्ता-रफ्ता विक्षिप्तता की तरफ कदम बढ़ा चुका था। लिहाजा मैं था और मेरी तन्हाई थी। या कभी-कभी जब कहीं बाहर जाना होता, दिल्ली या मुजफ्फरपुर या पटना तो थोड़ी तब्दीली हो जाती, पर इसके मौके पर उस दौर में बहुत कम मिले।

1972 में पाब्लो नेरूदा को नोबेल पुरस्कार मिला और उनकी बहुत-सी किताबें नये सिरे से प्रकाशित हो कर बाजार में आईं। एक दिन मैं साउथ मलाका में रूपा एण्ड कम्पनी के दफ्तर गया तो नेरूदा की कई कविता-पुस्तकें खरीद लाया। इनमें नेरूदा की लम्बी कविता-पुस्तक ‘माच्चू पिच्चू के शिखर’ भी थी। कुछ समय बाद ‘आलोचना 21’ में कमलेश द्वारा किया गया इस कविता का अनुवाद छपा। पढ़ते समय ही मुझे अनुवाद अटपटा लगा। कहीं किताबी तो कहीं दुर्बोध। मैंने उसे अंग्रेजी अनुवाद से मिलाया तो मुझे कमलेश के अनुवाद में कई खामियां नज़र आयीं। तब मैंने इस कविता का नया अनुवाद करने की ठानी। ठान तो लिया, पर यह काम कितना कठिन साबित होने वाला था, इसका मुझे कोई अनुमान नहीं था। न सिर्फ मुझे नेरूदा की कविता में गहरे डूबना पड़ा, लातीनी अमरीका, पेरू और इंका साम्राज्य की जानकारी हासिल करनी पड़ी, बल्कि अंग्रेजी-हिन्दी कोशों के साथ-साथ दोनों भाषाओं के पर्यायवाची कोशों से भी जूझना पड़ा और वक्तन-फवक्तन स्पेनी-अंग्रेजी शब्दकोशों की भी छान-बीन करनी पड़ी। कविता का अनुवाद करने और उसके कई प्रारूप तैयार करने के बाद मैंने नेरूदा की कविता पर और उसमें इस कविता के स्थान और महत्व पर बतौर भूमिका एक लम्बी टिप्पणी लिखी। इसके अलावा परिशिष्ट में मैंने अनुवाद की प्रक्रिया और हिन्दी में किये गये अनुवादों का भी एक जायज़ा पेश किया। इस काम में मुझे लगभग दो बरस लग गये।

1975 में किन्हीं पारिवारिक कारणों से मुझे इलाहाबाद से बाहर निकल कर किताबों की बिक्री के सिलसिले में दौरा करने पर मजबूर होना पड़ा। अब तक यह काम पूरी तरह मेरे बड़े भाई देखते थे, लेकिन तभी अचानक मेरी भाभी ने इसी बात को ले कर हल्का-सा ताना मार दिया। उसका खयाल था कि सारा काम तो मेरे भाई करते हैं और मैं इलाहाबाद के इत्मीनान में बैठा साहित्य बघारता हूं। यों जब मैं कभी बाहर जाता था तो थोड़ा-बहुत बिक्री का काम भी देखता था, मगर गाहे-बगाहे दिल्ली, पटना, मुजफ्फरपुर जाना एक बात थी, बाकायदा विक्रय प्रतिनिधि की हैसियत में दौरा करना दूसरी। सो, मैंने रीवा से शुरू करके मध्यप्रदेश, आन्ध्र, मैसूर (तब कर्नाटक प्रदेश मैसूर ही कहलाता था) और महाराष्ट्र का दौरा करने की योजना बनायी। लेकिन यह मैंने पहले ही तय कर लिया था कि जिन शहरों में मेरे मित्र होंगे, वहाँ मैं प्रकाशन का काम निपटाने के बाद भी कुछ दिन रूकूंगा। रीवा के बाद सतना में कमला प्रसाद जी से मिलता हुआ मैं जबलपुर पहुंचा और जैसा कि तय था, गढ़ा रोड पर अग्रवाल कालोनी में ज्ञान के घर पर ठहरा।

पैंतीस-छत्तीस बरस गुजर गये हैं, जीवन के अनवरत प्रवाह में बहुत कुछ विलीन हो चुका है, पर कुछ चीजें अब भी यों दर्ज हैं, जैसे कल घटी हों। ज्ञान का घर दूसरी मंजि़ल पर था और बहुत बड़ा नहीं था। पाशा और बुलबुल दोनों अभी छोटे ही थे। सो, बैठक और अन्दर के शयन-कक्ष के बीच खाने के कमरे में, खिड़की के पास, एक तरफ को मेरे लिए चारपाई डाल कर सोने का जुगाड़ कर दिया गया। रात ही तो काटनी थी, दिन और शाम तो घूमते-फिरते, लोगों से मिलते-मिलाते ही बीतता। मित्र मण्डली ज्ञान ने यहाँ भी बना ली थी। मुझे कालोनी की गली के बाहर बाजार में आने पर पान खाने और गप लगाने की अब भी याद है। उन दिनों मैं बाकायदा तम्बाकू वाला पान खाता था, लेकिन ज्ञान तम्बाकू की बजाय किवाम ही लेता था। सिगरेट अलबत्ता हम दोनों ही पिया करते थे। जबलपुर में ज्ञान की मित्र-मण्डली, इलाहाबाद ही की तरह, दो किस्म की थी। एक साहित्यिक जिसमें परसाई जी, हनुमान वर्मा आदि थे और दूसरी गैर-साहित्यिक। गढ़ा रोड पर पान वगैरह खाने वालों में ज़्यादातर गैर-साहित्यकार बिरादरी ही इकट्ठा होती।

एक रात, जाने कितने बजे थे, अचानक मेरी नींद खुली, तो मैंने आधी नींद में देखा कि ज्ञान मसहरी हटा कर मुझे चादर ओढ़ा रहा है; फिर उसने एहतियात से मसहरी बिस्तर के नीचे खोंसी और बिना आवाज़ किये चला गया। अगली सुबह उठने पर मैं बहुत देर तक इस घटना के बारे में सोचता रहा। ऐसी स्नेह-भरी देख-रेख तो मुझे सिर्फ मां से मिली थी। दिलचस्प बात यह थी कि मैं कोई बच्चा नहीं था, शादी करके एक अदद बच्चे का बाप भी बन चुका था।...इसी तरह एक दिन ज्ञान ने आस-पास के बहुत से बच्चों को इकट्ठा किया और ‘पहल’ के पैकेटों पर उनसे डाक-टिकट सटवाने लगा। मगर यह काम उसने उन बच्चों से ऐसे करवाया मानो वह कोई काम नहीं, बल्कि खेल हो।

इसी जबलपुर प्रवास की एक और घटना की याद है मुझे। एक सुबह कहीं पास ही से अजीब-सी थप-थप और हों-हों की आवाज़ आनी शुरू हुई। पूछने पर ज्ञान ने बताया कि बाहर को जानेवाली गली में एक तरफ को जो पीपल का (या शायद बड़ का) पेड़ है, वह देवी का थान है और जरूर किसी पर देवी आयी होगी, जिसे उतरवाने के लिए उसे वहाँ लाया गया होगा। उत्सुकतावश मैं ज्ञान को ले कर उसे देखने गया। वहाँ गांव से आया कोई आदमी जमीन पर दोनों घुटने टेके, झुक कर दोनों हाथों से थापी लगा रहा था और एक विचित्र-सी लयकारी में हुंकार भर रहा था। मैंने पहले कभी किसी पर देवी आते नहीं देखा था, इसलिए मेरे लिए यह एक अनोखा अनुभव था। ज्ञान ने बताया कि ऐसा वहाँ अकसर होता था। छत्तीस बरस बीत गये हैं। जाने वह पीपल का (या बड़ का) पेड़ अब वहाँ है भी या नहीं। जाने वह गली भी अब वहाँ है या शहरों की नित बदलती सूरत में कोई और रूप ले बैठी है, मगर वह दृश्य, वह थप-थप, वह हों-हों आज भी मेरी याद में ताजा है।
(जारी)

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