Saturday, September 19, 2015

तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा



क़िस्त सोम


हमारे बीबीसी पहुंचने के कुछ ही समय बाद रमा पाण्डे और नरेश कौशिक भी वहां आ शामिल हुए थे. दोनों आख़िरी दौर तक बीबीसी के उम्मीदवारों की सफ़ में हमारे साथ-साथ थे. संयोग की बात कि मनोज भटनागर (जो अब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह कर हमारा साथ छोड़ गये हैं) और मैं पहले चुन लिये गये. ख़ैर, रमा पाण्डे के मिज़ाज का अन्दाज़ा मुझे आवाज़ के टेस्ट और आख़िरी जी.के. के पर्चे के समय ही हो गया था, जब उसने बाहर आ कर हंसते हुए बताया था कि वो जी.के. में कुछ का कुछ लिख आयी है.
रमा प्रसिद्ध गायिका और अभिनेत्री इला अरुण की बहन है, हालांकि ये बात उसने हमें सरे-राहे यों बतायी मानो कह रही हो "नो बिग डील."
(इसी तरह उसने एक बार हंसते हुए बताया कि मंझली बहन होने की वजह से उसे इला से बहुत हसद होती थी और उसने एक बार इला के बहुत-से तमग़े नाली में फेंक दिये थे. तीन चार साल पहले जयपुर साहित्यिक उत्सव में जब रमा और इला से मेरी और रानी की मुलाक़ात हुई तो दोनों बहनों के आपसी लगाव को देख कर मुझे बेसाख़्ता वो क़िस्सा याद आ गया. रमा ने बड़े तपाक से इला से हमारा परिचय कराया था और हमें तो इला भी बिन्दास लगी थी.)
चूंकि हम ख़ुद नामी रिश्तेदारों से ख़ुद को जोड़ने के क़ायल नहीं चुनांचे: हमें रमा की यह फ़ितरत अच्छी लगी थी.. अलावा इसके रमा बहुत बहिर्मुखी है, आगे -आगे रहने की शौक़ीन, हंसने-हंसाने वाली, मन में कीना न रखने वाली, बातूनी, दोस्त-नवाज़ और उस विनोद-वृत्ति से कूट-कूट कर भरी हुई, हिन्दीवालों में जिसका अज़हद अभाव रहता है. चुनांचे: हमारी उस से पट गयी और आज तक पटती है, हालांकि अब मिलने-जुलने के मौक़े बहुत कम हो गये हैं. इला अरुण तो अपने लोकगीतों की अदायगी के लिए मशहूर हैं ही, रमा ने भी इनमें काफ़ी महारत हासिल कर रखी है, गो वह गाती नहीं है. सो, एक दिन बातों-बातों में रमा ने हमें एक दिलचस्प गीत नुमा चीज़ सुनायी --
"सांझ भयी दिन अथवन लागा 
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार, 
रात भयी चन्दा चमकानो, 
राजा छतियां लगावें चुमकार-चुमकार, 
भोर भयी चिड़ियां चहचानीं, 
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार"
बहुत बाद में चल कर हमने अपने एक और दोस्त ज्ञानरंजन के बारे में लिखते हुए अपनी किताब में उसका इस्तेमाल किया. बहरहाल, इससे आप रमा के मिज़ाज का अन्दाज़ा लगा लीजिये.
इसी तरह एक दिन रमा कंजी आंखों वाली एक सुन्दर गुजराती युवती को ले कर हमारे कमरे में आ धमकी और उससे हमारे सामने ही बोली, "देखो, यह आदमी तो बहुत दिलफेंक और गड़बड़ है, पर पूरे हिन्दी सेक्शन में अगर कोई तुम्हें काम सिखा सकता है तो यही वो आदमी है." हमारे लिए हमारी ये तारीफ़ साहित्य अकादेमी पुरस्कार से रत्ती भर कम न थी. वैसे, उन दिनों ख़ुद रमा हमारे एक पाकिस्तानी दोस्त शफ़ी नक़ी जामी को (जो संयोग से छै-सात साल बाद पाकिस्तान जाने पर पता चला कि हमारे मित्र कथाकार-आलोचक आसिफ़ अस्लम फ़र्रुखी का कज़न था) हिन्दी सिखा रही थी. उसने शफ़ी को इतना ताक़ कर दिया कि लौटने के बाद एक दिन नौस्टैल्जिया के मूड़ में जब हमने "खेल और खिलाड़ी" प्रोग्राम लगाया, जो कभी हम किया करते थे, तो शफ़ी के प्रसारण को सुन कर दिल बाग़-बाग़ हो गया था.
अचला तो थोड़ी नहीं, ख़ासी इन्टलेक्चुअल मिज़ाज थी, और है, और हमारी ही तरह "हिसाब-ए-दोस्तां दर दिल" के उसूल पर पर चलने वाली, मगर रमा पाण्डे की ख़सलत बिलकुल अलग क़िस्म की थी. ऐन मुमकिन था कि आप से शदीद झगड़ा हो जाने के घण्टे भर बाद वो आये और खिली-खिली मुस्कान फेंकते और गालों के गड्ढे खिलाते हुए सीधे ही किसी जुमले से लड़ाई को दफ़्न कर दे, जो शायद न मेरे बस की बात है, न अचला के. हिन्दुस्तान लौट आने के बाद रमा से बहुत दिन तक मुलाक़ात नहीं हुई, पर फिर राबिता क़ायम हो गया और अब कभू-कभार मुलाक़ात हो जाती है और देख कर अच्छा लगता है कि सरापा बदल जाने के बावजूद रमा की सीरत नहीं बदली.
तेज़ी से बदलती इस दुनिया में यह क्या कोई कम बात है.
मज़े की बात देखिये, अभी कुछ महीने घर-बदर कर दिये जाने के बाद एक रोज़ जब हम अपने काग़ज़ात उलट-पलट रहे थे तो हमें वो रुक़्क़ा हाथ लगा जिस पर रमा ने अपने डील-डौल से मेल खाते बड़े-बड़े अक्षरों में ऊपर वाला गीत लिख कर दिया था. हमने अचला के कार्ड की तरह उसे भी संभाल कर रखा हुआ है और इसे अपनी ख़ुशनसीबी मानते हैं कि घर-बदर होते हुए तमामतर चीज़ों में से, जो दुनियावी नज़रों में क़ीमती मानी जायेंगी और हमें अज़ीज़ भी थीं, हम इस क़िस्म की अनमोल दौलत बचा लाने में कामयाब रहे.

(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें.
आखिरी क़िस्त अब कल सुबह की सभा में प्रसारित होगी क्योंकि एक दिन में ऐसे क़िस्से की तीन क़िस्तें ही ज़ायद हैं, चार तो यक़ीनन हाज़्मे के लिए नामुनासिब होंगी.)

Tuesday, September 15, 2015

तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा


क़िस्त दोयम

अगर हम वाक़फ़ियत के लिहाज़ से चलें तो सबसे पहले हमारी जान-पहचान अचला शर्मा से हुई, जो हमारे बीबीसी से चले आने के बरसों बाद वहां की कामयाब प्रोग्राम और्गनाइज़र यानी प्रमुख बनीं और काफ़ी मक़बूल साबित हुईं.

अचला को हम पहले से जानते थे, उनका पहला कहानी संग्रह "बर्दाश्त बाहर" शाया करने का शर्फ़ हमें हासिल हुआ था. ये तो महज़ इत्तेफ़ाक़ था कि वे आकाशवाणी से डेप्युटेशन पर बीबीसी तब पहुंचीं, जब हम वहां साल भर गुज़ार चुके थे. हिन्दुस्तान में छूटा हुआ धागा वहां फिर जुड़ गया.
अचला की पहली शादी हमारे दोस्त और अग्रज रमेश बक्षी से हुई थी, जो बहुत अच्छे कथाकार और नाटककार थे और जिनके नाटक "देवयानी का कहना है" को हम एक शानदार नाटक मानते हैं. अचला की उनसे पटी नहीं और वो आकाशवाणी में चली गयी. अचला बेहद ज़हीन थी, ख़ुद भी अच्छी कहानीकार है और माहिर ब्रौडकास्टर, ऊपर से इण्टलेक्चुअल, जो साहित्य और राजनीति पर यकसां दख़ल रखती है. चुटीली फब्तियां कसने में उसका कोई जवाब नहीं और काफ़ी प्रबुद्ध महिला है, जो बिना ढोल-नगाड़े पीटे स्त्री-मुक्ति में यक़ीन रखती है. हमारी-उसकी चपकलश के सैकड़ों क़िस्से हैं, दोस्तो, जिन्हें हम बयान करने बैठें तो रात बीत जाये और क़िस्से का उन्वान बदल कर एक मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिला करना पड़े.यह हम भी नहीं चाहते और यक़ीनन आप भी नहीं चाहते होंगे.तो हम बस एक अदद मद का ज़िक्र करके आगे बढ़ते हैं.
एक दिन हमने अपने पसन्दीद: शाइर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब का शेर पढ़ा "छेड़ ख़ूबां से चली जाये असद / गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही." अचला ने फ़ौरन टोका,"नीलाभ, सही शेर है - यार से छेड़ चली जाये असद." हम अड़ गये. ये वाक़या उस होली का है, जिसकी पार्टी हमारे सीनियर सहकर्मी ओंकार नाथ श्रीवास्तव ने अपने उत्तरी लन्दन वाले आशियाने में दी थी.
अचला ने वही किया जो ऐसे में लोग करते हैं -- दीवान ला कर हमारे मुंह पर दे मारा. हम भी कहां हार मानने वाले थे, बोले -- हम अहल-ए-दीवान नहीं, अहल-ए-ज़बान हैं, हमने इस शेर को इस रूप में भी सुना है, हो सकता है, ग़ालिब के काग़ज़ात में ये वाला दूसरा प्रारूप छुपा हुआ हो, वरना लोग इसे इस रूप में क्यों याद रखते." मुक़ाबला बराबरी पे छूटा, जिसमें दोनों फ़रीक अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए थे.
फिर समय बीता, ख़ाकसार ने बीबीसी से इस्तीफ़ा दे दिया. चलते वक़्त अचला ने विदाई का एक कार्ड दिया, जिसमें लिखा था "यार से छेड़ चली जाये असद...नीलाभ, हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."
बीबीसी से आये 31 बरस बीत चुके हैं, अचला बीबीसी हिन्दी सर्विस की प्रमुख बनने के बाद एक कामयाब पारी खेल कर रिटायर हो चुकी है, पर वो कार्ड आज तक मेरे पास है, और वो सतर, "हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."

(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें)

Sunday, September 13, 2015

तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा



 क़िस्त अव्वल

साहबो,
जब-जब हम फ़ेसबुक पर आते हैं, हमें अपनी अज़ीज़ा गीताश्री का ख़याल हो आता है. ये क़िस्सा उन्हीं के मुतल्लिक़ है. और उनके हवाले से हमारी दो और दोस्तों से.
जिन क़द्रदानों ने हमारे क़िस्सों पर नज़रसानी की है, वे इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ हो गये होंगे कि हमें बात चाहे ज़री-सी कहनी हो, मगर हमारी कोशिश यही रहती है कि वह मुन्नी-सी बात भी एक अदा से कही जाये जिससे हमारे सामयीन का दिल भी बहले और हमें भी कुछ तस्कीन हो कि हमने वक़्त ज़ाया नहीं किया. ये बात दीगर है कि बहुत-से लोग तो यही कहते पाये गये हैं कि हम वक़्त ज़ाया करने के अलावा कुछ करते ही नहीं, कि हमारे पास वक़्त के सिवा और बचा ही क्या है जिसे ज़ाया करें. ख़ैर, जैसा कि देवभाषा में कहते हैं -- "मुण्डे-मुण्डॆ मतिर्भिन्ना." यों बाज़ लोगों का कहना है कि अच्छा क़िस्सागो वही हो सकता है, जो बातूनी हो, लफ़्ज़ और फ़िक़रे जिसकी ज़बान पर रस छोड़ते हों. हमें भी इस बात से पूरा इत्तेफ़ाक़ है. चुनांचे: हमने इन दोनों कलाओं -- क़िस्सागोई और जिसे अंग्रेज़ी में कौन्वरसेशन या स्मौल टौक भी कहते हैं, बड़ी काविश से महारत हासिल की है. गो इसके चलते हमने एकाधिक मित्र खोये हैं, क्योंकि आजकल का मिज़ाज फ़ास्ट का है, ख़्वाह वो फ़ूड हो या फ़न (दोनों हिन्दी-अंग्रेज़ी मानी में).
बहरकैफ़, बात आज के क़िस्से की चल रही थी, जो तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं (ज़रा अनुप्रास की छब और छटा पर ग़ौर करें, मेहरबान) के बारे में है.
अब आप सोच रहे होंगे कि ये किन ख़वातीन का ज़िक्र हुआ चाहता है. तो हम ससपेन्स में कटौती करते हुए आपको शुरू ही में बता दें कि ये तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाएं हैं....दिल थाम कर बैठिये हुज़ूर .... गीता श्री, अचला शर्मा और रमा पाण्डे, जिनमें से दो आख़िरी शख़्सियतें बीबीसी में हमारी सहकर्मी रहीं और पहली मोहतरमा से हमारा परिचय बीबीसी से लौटने के काफ़ी बाद यहां इस शहर शाहजहानाबाद उर्फ़ दिल्ली में हुआ. यह पोस्ट दरअसल गीताश्री के बारे मॆं है, जिनकी याद, जैसा मैंने पहले ही अर्ज़ किया, मुझे फ़ेसबुक पर आते ही हर बार हो आती है.

(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें)

Tuesday, September 8, 2015

एक औलिया की ज़बानदानी



दोस्तो,
इधर कुछ दिनों से हमें ये ख़दशा बुरी तरह सताने लगा है कि रफ़्त:-रफ़्त: हम औलियों की कोटि में पहुंचनेे वाले हैं. बात यों है कि जब लोग हम जैसे सीधे-सादे (अपनी तरफ़ के गांव-जवार की बोली में कहें तो "सोधे") शख़्स से उस के ग़लत गुणों-अवगुणों की वजह से रश्क करने लगें तो मामला कुछ ऐसा ही होता है. यानी दिगरगूं.
अब यही देखिये कि कुछ दिन पहले हमारे एक युवा मित्र ने जो ख़ासे ज़हीन हैं मगर अपनी तमामतर ज़हानत को एक बिल्ली के प्रेम में ज़ाया कर रहे हैं और आये दिन उसकी फोटू चिपकाय-चिपकाय के हम लोगों का सुख-चैन हराम किये रहते हैं, हमें अपनी हसरत-भरी आंखों से देखते हुए ययाति के लक़ब से नवाज़ा दिया.
कल एक और युवा मित्र ने, जो ख़ासे लड़ाके मशहूर हैं और अब नौ हज़ार चूहे खाने के बाद सब त्याग कर योग की शरण चले गये हैं, हमारी उमर के ब्योरे तलब करने के बाद हमारे बुढ़ापे पर तंज़ करते हुए हमारा शुमार "जवानों" में कर डाला.. पिछले दिनों किन्हीं और वजूहात से लोग हमारे बारे में तरह-तरह की चर्चा-कुचर्चा में मुब्तिला रहे ही हैं.
और रही-सही क़सर आख़िरी तिनके की मसल पर अमल करते हुए जब आज हमारी एक सगोतिया युवा और प्रतिभाशाली कवयित्री ने हमारी कविता के नहीं, बल्कि एकाधिक भाषाओं की हमारी जानकारी के सबब हमसे ईर्ष्या का इज़हार करते हुए पूरी कर दी, तो हमको यक़ीन हो गया कि हम चाहें या न चाहें, हमारे ये शुभ-चिन्तक हमें सूली पर देख कर ही ख़ुश होंगे.
बहुत दिन पहले एक कहावत पढ़ी थी कि कुछ तो पैदाइशी औलिया होते हैं, कुछ अपने कर्मोम से औलिया बनते हैं, मगर कुछ ऐसे ख़ुश या बद नसीब होते हैं जिन पर औलियाई थोप दी जाती है.लगता है कि हम इस तीसरी कोटि में प्रवेश किया ही चाहते हैं. लगातार हमें हृत्कम्प होता रहता है कि या रब्ब, अब और क्या हमें देखना बाक़ी है.
बहरहाल यह तो उस कहानी की भूमिका मात्र है जो हम आपके सामने बयान करना चाहते हैं उस आख़िरी टीप के हवाले से जो हमारी ज़बानदानी के सिलसिले में की गयी. मगर उसे हम एक अदद चाय की चुस्की और एक सुट्टा 501 नम्बर गणेश छाप मंगलूर बीड़ी का लगा कर बयान करेंगे. तब तक जिसे रुख़सत होना है वो किसी दूसरे के लिए जगह ख़ाली करके फ़ेसबुक सर्फ़िंग का एक दौर पूरा कर ले. (क़िस्सा जारी है).

लीजिये आपके इन्तज़ार की घड़ियां ख़त्म करते हुए  क़िस्सा पेश है.

हां तो जनाब, अब हम क़िस्से को आगे बढ़ाते हैं, मगर उससे पहले दो बातें. पहली यह कि हर माहिर क़िस्सागो जानता है कि जब तक क़िस्से में पेंच-ओ-ख़म न हों, लज़्ज़त नहीं आती. चुनांचे: हमने एक भूमिका पहले ही लगा दी और अब इस क़िस्से को जो एक बाहुनर, बावक़ार मलियाली शख़्स की सलाह से ताल्लुक़ रखता है, बयान करने से पहले कुछ पुरपेंच गलियों की सय्याही करने की इजाज़त चाहते हैं. दूसरी बात यह है कि हमने बहुत पहले संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था जो अरसिकों से काव्य निवेदन करने से सम्बन्धित है. जाने भर्तृहरि का था या कालिदास का. कुछ यों था --

इतरकर्मफलानि यद्दच्छ्या विलिखितानि सहे चतुरानन |
अरिसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मालिखमालिखमालिख ||
(हे चतुरानन, मेरी ज़िन्दगी के दूसरे प्रसंगों के सिलसिले में तुम मेरे नसीब में चाहे जो लिखना चाहो या गवारा करो, मुझे स्वीकार होगा, मगर अरसिकों के सामने काव्य निवेदन करने का नसीबा मुझे मत देना, मत देना, मत देना.)

तो जिनको इतना पढ़ने के बाद जमुहाई सताने लगे, वे बराये-मेहरबानी तशरीफ़ ले जायें. ताकि हम क़िस्से को आगे बढ़ा सकें.

बात उस समय की है, जब हमारी उमर मुश्किल से 23 बरस की थी. शादी हुए फ़क़त पांच हफ़्ते हुए थे कि हमें अपने बड़े भाई के साथ केरल के दौरे पर जाना पड़ा. आसानी यह थी कि संयुक्त परिवार था और हमें यह फ़िक्र न थी कि हमारी नयी ब्याही बीवी को अकेलेपन का सामना करना पड़ेगा. उन दिनों आज जैसी तेज़-रौ रेलगाड़ियां नहीं थीं, न रिज़र्वेशन की ऐसी सुविधा, न सीधा कनेक्शन. इलाहाबाद से इटारसी, इटारसी से गाड़ी बदल कर मद्रास और मद्रास से फिर लम्बा सफ़र मीटर गेज की गाड़ी पर तय करते हुए तिरुवनन्तपुरम. 

ख़ैर साह्ब, इटारसी से हम जी.टी. पर सवार हो गये. भोर में कोई चार बजे हम नेल्लूर-गुण्टूर के क़रीब आन्ध्र-तमिलनाडु की सीमा पार कर रहे थे कि एक अख़बार वाला आया और बोला कि  अन्नादुरै का देहान्त हो गया है. यह सुनना था कि लोगों ने फटाफट खिड़्कियां बन्द करना शुरू कर दिया. हम चकित. अभी आन्ध्र में थे और लोग भी ज़्यादातर आन्ध्रवासी थे. बोले, देखते चलिये, अभी लोग पत्थर चलाने लगेंगे. हमें और हैरत हुई. हमने कहा यह तो दुख का मौक़ा है, पत्थर चलाने की क्या ज़रूरत. और फिर अन्नादुरै का क़त्ल तो हुआ नहीं है. बोले यहां के लोग ऐसे ही पागल हैं. बहरहाल. कुछ देर बाद सचमुच खिड़कियों से कुछ पत्थर आ टकराये. 

सुबह हुई. हम मद्रास पहुंचे तो पहली बार मैंने टोटल हड़ताल का मंज़र देखा. मैं मान गया कि तमिलनाडु सार्वजनिक हड़तालों के सिलसिले में हिन्दुस्तान का सूबा-ए-सिरमौर है. कुछ नहीं चल रहा था. हम मद्रास सेण्ट्रल पर थे और हमें शाम को वह गाड़ी पकड़नी थी जो एगमोर से तिरुवनन्तपुरम जाती थी. मज़े की बात यह कि खाने को भी कुछ नहीं मिल रहा था. किसी तरह जुगाड़ करके कुछ साम्बर-भात का जुगाड़ किया गया और एक चार पहिये की ठेला गाड़ी पर सामान रखे (बैग, सूटकेस, प्रकाशन की किताबों का ट्रंक, आदि), ठेलेवाले के साथ बराबर का हाथ लगाते हुए हम एगमोर पहुंचे.

(बाद में मुझे राजीव गान्धी की हत्या के बाद हैदराबाद में कुछ इसी क़िस्म का नज़ारा देखने को मिला जब मैं वहां गोलकुण्डा के साउण्ड ऐण्ड लाइट शो की स्क्रिप्ट लिखने के सिलसिले में ठहरा हुआ था और मैंने किसी लोकप्रिय नेता की मौत या गिरफ़्तारी पर हड़ताल और ख़ुदकुशियों की उस प्रवृत्ति को पहचाना जो आन्ध्र और तमिलनाडु में आम है. यह बात अलग है कि तमिलनाडु इसमें अव्वल है और  बाज़ी मार ले जाता है.)

ख़ैर, इस विषयान्तर के बाद, आगे बढ़ें तो रात को हम केरल जाने वाली गाड़ी में जा सवार हुए. रात भर से ज़्यादा की सफ़र था और भीड़ नाम मात्र को थी. हमारे डिब्बे में एक और शख़्स था. उससे बातों का सिलसिला चल निकला. नाम तो उसका अब इतने बरस बाद याद नहीं, पर उसकी सूरत-शक्ल आज भी स्मृति में नक़्श है. आम मलियालियों की तरह सांवला रंग था उसका, गठा हुआ छरहरा लम्बा क़द, तीखे नख-शिख, बदन पर सफ़ेद लुंगी और सफ़ेद ही बुश्शर्ट. बोली में अनुभव के कशिश और ख़ुशबू. पता चला बहुत दिन कराची और उधर फ़्रण्टियर सूबे तक के इलाक़े में कटे हैं उसके. दिलचस्प शख़्सियत का मालिक था.

बातों-बातों में मैंने ज़बानें सीखने के अपने शौक़ का ज़िक्र किया. तब उसने मुस्कराते हुए जो कहा वह मैं आज तक नहीं भूला. बोला, हमारे यहां एक कहावत है कि अगर कोई भाषा सीखनी हो तो उस भाषा-भाषी प्रान्त की लड़की से शादी कर लो. मैंने कहा, इससे तो बहुत मुश्किल पैदा हो जायेगी. कारण यह कि अगर कोई एक से ज़्यादा ज़बानें सीखना चाहे तो.... इस पर वह कुछ नहीं बोला. सिर्फ़ अपनी मानीख़ेज़ मुस्कान बिखेरता रहा. फिर बातें दूसरी तरफ़ मुड़ गयीं.

आज जब रश्मि भारद्वाज ने भाषाओं की मेरी जानकारी की बात उठायी तो बेसाख़्ता मुझे 46 साल पहले की यह घटना, वह मलियाली सज्जन, और वह पहली केरल यात्रा ज़ेहन में कौंध गयी. 

(मेहरबानी करके इससे यह अन्दाज़ा मत लगा लीजियेगा कि अपने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, पंजाबी और बांग्ला ज्ञान के लिए मुझे कोई वैसी हिकमत-अमली आज़मानी पड़ी है, जैसी उन मलियाली सज्जन ने तजवीज़ की थी. यों हमारे कुछ टेढ़ी नज़र वाले दोस्त इस क़िस्से से ये नसीहत निकाल कर पेश कर सकते हैं कि एक पत्नीव्रत लोगों को एक से ज़्यादा भाषा नहीं सीखनी चाहिये, ज़रूरत ही क्या है.)