Friday, July 1, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की
पचासवीं और अन्तिम क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ५०



मित्रता की सदानीरा - २९


फिर इसके साल भर बाद मैं परियोजना की रिपोर्ट को अन्तिम रूप देने के लिए दिल्ली टिका हुआ था, जब अचानक श्रीराम सेंटर की कैंटीन में ज्ञान से मुलाकात हो गयी।


उन दिनों मैं श्रीराम भारतीय कला केन्द्र के होस्टल में शिक्षकों के एक क्वार्टर में रहता था। यह केन्द्र मण्डी हाउस के इलाके में था और शाम को अक्सर मैं टहलता हुआ श्रीराम सेंटर में किताबों की दुकान तक नयी पत्र-पत्रिकाएं देखने चला जाता था। वहीं एक दिन जब मैं कैंटीन के बाहर उस छोटे-से घिरे हुए इलाके में दाख़िल हुआ जहां मेज़-कुर्सियां खुले में रखी रहती थीं तो अचानक मुझे ज्ञान वहां बैठा दिखायी दिया। मैं उसके पास बैठ गया। वह कुछ रोज के लिए दिल्ली आया हुआ था, करोल बाग में कहीं ठहरा था और लीलाधर मंडलोई और अरविन्द जैन का इन्तज़ार कर रहा था, जिनके साथ उसे विष्णु नागर के यहाँ जाना था। विष्णु नागर का नया संग्रह आया था और वहाँ उसके जश्न में कुछ पीने-पिलाने का कार्यक्रम था। और भी लोग आ रहे थे। ज्ञान ने बड़ी फक्कड़ई से मुझे भी चलने के लिए कहा। मैंने जब कहा कि मुझे तो न्यौता नहीं गया है, तब ज्ञान ने इस आपत्ति को पुराने दिनों की तरह हवा में उड़ा दिया और मुझ पर जोर दिया कि मैं भी चलूं। तभी लीलाधर मंडलोई अरविन्द जैन के साथ आ गया और उन्होंने भी मुझ पर ज़ोर देते हुए यह तय किया कि ज्ञान और मैं साथ-साथ जायें, वे पीछे से आते हैं। जाने उनके पास कार थी या दुपहिया गाड़ी।

बहरहाल, ज्ञान और मैं वहीं मण्डी हाउस से बस पर सवार हुए और नागर के यहाँ जा पहुंचे। पता चला कि वहाँ मजे की तादाद में लोग आने वाले हैं। रब्बी, मंगलेश, ज्ञान, विष्णु नागर, मंडलोई और अरविन्द जैन तो थे ही, पंकज सिंह और सविता भी आ रहे थे। सविता का पहला संग्रह भी कुछ ही दिन पहले आया था और यह एक तरीक़े से डबल जश्न हो गया था। यह बात पहले ही साफ कर दी गयी थी कि खाना नहीं होगा। हां, दारू के साथ चिखना भांति-भांति का था। तभी मुझे खयाल आया कि ठीक सामने के फ्लैट में विष्णु खरे रहता है, उसे भी बुला लेते हैं। मुझे यह नहीं पता था कि दोनों विष्णुओं के बीच सम्बन्ध ऐसे हैं कि वे अपने-अपने फ्लैट का दरवाजा यह सावधानी बरतते हुए खोलते हैं कि भूल से भी आमना-सामना न हो जाये। इसलिए मुझे विष्णु और एकाध अन्य मित्र के चेहरे पर विष्णु खरे के नाम से घिर आये बादल पर हैरत हुई थी।

वैसे विष्णु खरे ‘बुल इन ए चाइना टी शौप’ किस्म का बन्दा है, कब अपने नथुनों से धुंआ उगलता हुआ वह आपको दौड़ा लेगा और अगल-बग़ल के पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं पर भी टूट पड़ेगा, कहा नहीं जा सकता। दूसरे को चुभती हुई बात कहने में उसने पी.एच.डी. कर रखी है और डी.लिट. इस पर कि कैसे हर चीज को गरियाया जा सके। उससे मिलने के पौने दो मिनट के भीतर अगर आपके मन में उसके प्रति चिढ़, खीझ, क्रोध और नफरत का भाव पैदा नहीं होता तो इसे वह अपनी नाकामी और पराजय मानता है और उसे हैरत होती है। यही वजह है कि ऐसे मौके बहुत कम आये है जब उसे हैरतज़दा होने के इत्तफाक से दो-चार होना पड़ा है। मुझे लेकिन विष्णु की अदाएं शुरू से पसन्द हैं, कारण यह कि मैं जानता हूं वह बेहद पढ़ा-लिखा, बाहुनर, पूर्वाग्रहग्रस्त आदमी है, अच्छा कवि है और ऊपर से ‘बुली’ है। अगर आप पलट कर उसी के सिक्कों में उसका भुगतान कर दें तो वह आपसे दोस्ती कर लेगा और सन्तुष्ट बिल्ले की तरह खुर्र-खुर्र करने लगेगा। कुछ साल पहले उसने अश्क निधि के कार्यक्रम में "मैं और मेरा समय" व्याख्यान-माला में अपना व्याख्यान देते हुए नामवरजी, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, नारंग साहब और विद्यानिवास मिश्र के बारे में अपने लेखे भड़काऊ और अभद्रतापूर्ण टिप्पणियां करके समूचे त्रिवेणी सभागार को हिला कर रख दिया था और बहुत-से लोगों का कोप मुझे बहैसियत सचिव और प्रबन्ध न्यासी झेलना पड़ा था।

अभद्रता करने में अगर विष्णु खरे का कोई सानी है तो इसका सेहरा हिन्दी के दो साहित्य अकादमी प्राप्त कवियों के सिर बांधा जा सकता है। फर्क सिर्फ इतना है कि विष्णु बिना पिये भी अभद्रता करता है, पीने से अभद्रता करने की उसकी फितरत पर कोई असर नहीं पड़ता, जबकि वे दोनों साहित्य अकादमी प्राप्त सरस्वती-पुत्र दारू के हर पैग के साथ बढ़ती हुई अभद्रता के नायाब नमूने पेश करते चले जाते हैं और अन्त झगड़े और रुदन में होता है।

बहरहाल, वहाँ उपस्थित सब लोगों के लिहाज में विष्णु नागर ने विष्णु खरे को बुलाने के लिए रज़ामन्दी दे दी। मैंने फोन लगाया तो विष्णु खरे ने बताया कि वह उसी रोज छिंदवाड़ा से आया है, तो भी थोड़ी देर में आता है। थोड़ी देर में खरे आ गया और पीने-पिलाने के दौर ने सहज रफ्तार पकड़ ली। चूंकि यह पहले ही साफ कर दिया गया था कि खाने-वाने का चक्कर नहीं है, इसलिए रब्बी और मंगलेश जैसे रिन्द लोगों को छोड़ कर और उन्हें छोड़ कर जो पास ही में रहते थे, बाकी लोग धीरे-धीरे चले गये। विष्णु नागर अपने ही घर में बैठा हुआ था, सो उसे कोई चिन्ता थी नहीं। मंडलोई, अरविन्द जैन, पंकज और सविता जा चुके थे। अब पीने का असली दौर शुरू हुआ।

चूंकि शाम की बाजी विष्णु खरे के हाथ में थी, इसलिए उसने ज्ञान को बुरा-भला कहना शुरू किया। उसका कुल आशय यह था कि ज्ञान को सम्पादन की समझ नहीं है। काफी देर तक तो मैं चुप हो कर सुनता रहा, फिर मैंने विष्णु से कहा कि ज्ञान ने जैसी शानदार कहानियां लिखी हैं अगर वे न होतीं तो तुम्हारे मध्य प्रदेश के वे महारथी विनोद कुमार शुक्ल, नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में एक खिड़की रहती थी, जैसे उपन्यास न लिख पाते, न अपनी विशिष्ट शैली विकसित कर पाते। रही बात सम्पादन की तो तुम तो तीन अंकों के बाद "वयम" नहीं निकाल पाये थे, जबकि तुम ने प्रवेशांक पर बड़े तमतराक से यह घोषणा कर रखी थी कि अगर "वयम" बन्द हुआ तो उसके पीछे आर्थिक कारण नहीं होंगे; ज्ञान ने तो तीस बरस से "पहल" को हिन्दी की एक महत्वपूर्ण पत्रिका का दर्जा दिलाया हुआ है। इसके बाद विष्णु खरे ने ज्ञान का पीछा छोड़ दिया और वातावरण सामान्य हो गया।

गपशप में किसी को समय का ध्यान नहीं रहा और जब ज्ञान और मैं, रब्बी और मंगलेश के साथ नीचे उतरे तो हमारे सामने दो सवाल थे। खाने का सवाल पहला नहीं था, क्योंकि विष्णु नागर ने इतना चिखना चिखा दिया था कि खाना न भी मिलता तो कोई मुजायका न था। असली सवाल वापस जाने का था। मेरा खयाल था कि ज्ञान करोलबाग लौटेगा तो मैं उसी के साथ चला चलूंगा और रास्ते में मण्डी हाउस पर उतर जाऊंगा। पर ज्ञान ने इसकी कोई चर्चा नहीं की। विष्णु नागर के फ्लैट से उतर कर सब एक दिशा में बढ़ लिये। मैंने एकाध बार खाने और लौटने की बात उठायी भी, पर किसी ने कान न दिया। न किसी ने यह कहा कि छोड़ो जाने की बात, रात हमारे यहाँ रुक जाओ पुराने दिनों की तरह, और सुबह चले जाना।

वे सब ज्ञान को लिये-लिये मयूर विहार में अन्दर की तरफ बढ़ने लगे। मेरे दिमाग में भांय-भांय हो रही थी, बिन बुलाये मुझे किसी के घर जाना और रात काटना मंजूर न था, रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे, मयूर विहार में सन्नाटा था और बढ़ता ही जा रहा था और मेरे मन में यह आशंका गहराती जा रही थी कि और रात हो गयी तो क्या होगा। यह सब सोच कर मैं एक जगह थिर खड़ा हो गया और मैंने कहा कि मैं तो जाऊंगा। तब रब्बी और मंगलेश ने कहा कि कैसे जाओगे। उनके लहजे में हमदर्दी नहीं थी, बल्कि कुछ ऐसा भाव था कि बहुत बनता है यह नीलाभ, देखें यह क्या करता है। तब मैंने कहा कि अगर मुझे जाना होगा तो किसी भी कीमत पर जाऊंगा। यह कह कर मैं नवभारत टाइम्स अपार्टमेण्ट के सामने वाली छोटी सड़क पार करके उस मुख्य मार्ग की तरफ बढ़ा, जो मयूर विहार से नोएडा को और दूसरी तरफ़ जाता था। हिन्दी के ख्यातिलब्ध कवियों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। मानो हम कुछ देर पहले मित्रों की तरह साथ-साथ पी-पिला न रहे थे, अजनबी थे।

अभी मैं कुछ ही कदम बढ़ा हूंगा कि एक आटो रिक्शा आता दिखायी दिया। मैंने उससे पूछा कि क्या वह मण्डी हाउस चलेगा। वह राजी हो गया और मैं उस पर सवार हो कर मण्डी हाउस चला गया।

रास्ते भर ही नहीं, बल्कि आगे भी कई-कई दिनों तक यह घटना मेरे मन में उमड़ती-घुमड़ती रही। कारण यह कि हमारी पीढ़ी के लेखकों-कवियों ने बहुत फक्कड़ाना दिन गुज़ारे थे। अमूमन दिल्ली आने पर हम किसी दोस्त के यहां टिक जाते; छोटा-सा घर होता, उसी में ठंस-ठंसा कर रहते; ख़ूब बहसें होतीं; ज़ाहिर है कि उन दिनों सभी के साधन सीमित थे, लेकिन मिल-बांट कर काम चला लिया जाता। मज़े की बात थी कि बाज़ारवाद और भूमण्डलीकरण का सबसे ज़ियादा सियापा करने वाले सबसे ज़ियादा उस के शिकार हुए। जैसे-जैसे ये सारे लोग अपने-अपने कैरियर की सीढ़ीयां चढ़ते चले गये, दूरियां भी बढ़ती चली गयीं। मकान बड़े हुए, किराये की बजाय अपने हुए, घर कुशादा हुए, मगर उसी अनुपात में दिल छोटे होते चले गये।

लोग इसे महानगर फ़िनौमेना कहते हैं, लेकिन मुफ़स्सिल की तुलना में दिल्ली महानगर तो 60,70 और 80 के दशकों में भी था; तब दिल्ली के साहित्य जगत के समाजशास्त्र का यह बदलाव कैसे-समझा-समझाया जाये? मेरे ख़याल में इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि लेखकों ने दावा भले ही कर रखा हो कि वे आम लोगों के साथ हैं, मगर उनके अन्दर मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों से लड़ने का जो संकल्प साठ के दशक में था वह धीरे-धीरे क्षरित हो गया। उस मदमत्त कएर देने वाले समय में लगता था कि क्रान्ति अगले मोड़ पर या कहा जाये कि "आउटर" पर खड़ी है, बस उसे थाम कर ले आने की देर है।

आपातकाल ने पहला झटका दिया। उसके बाद तो रफ़्तार तेज़-से-तेज़तर होती चली गयी। सोवियत संघ के पतन और डेंग ज़िआओ पेंग के पूंजीवादी रुझान ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। थके-हारे संकल्प ने सोचा क्यों न "उस तरफ़" के फ़ायदे उठा कर देखे जायें। लीजिये साहब क्रान्तिकारी कवियों को सत्ता पुरस्कृत करने लगी और वे भी बड़ी मिस्कीनी और खुलूस से इनाम-अकराम स्वीकार करने लगे। ैसके बाद कवियों-कहानीकारों के राजपत्रित आतंकवादी पुलिस अफ़सरों और साम्प्रदायिक हत्यारों की संगत करने में बस एक क़दम की दूरी थी , सो इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के ख़त्म होते-न होते वह भी पूर दी गयी।

बहरहाल, यह ज्ञान से मेरी आखिरी मुलाकात थी और यह भी बहुत दिनों तक दिमाग में एक कांटे की तरह बिंधी रही। तब से नौ बरस हो गये हैं, मेरी जि़न्दगी में बेशुमार तब्दीलियां हुईं, लेकिन ज्ञान से भेंट-मुलाकात नहीं हुई। वही दिल्ली है, वही इलाहाबाद, ज्ञान जरूर आता होगा, पर उसने कभी मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की। मैंने अपने मन में वह मिसरा दुहरा लिया -- "उसने भी वाह-वाह न की हम भी चुप रहे" -- और अपनी राह चलता रहा।

फिर 2006 में ज्ञान का एक पत्र आया कि मैं पहल सम्मान के अवसर पर बनारस आऊं। लेकिन मैं पुरस्कारों-सम्मानों से दूर-ही-दूर रहा हूं, इसलिए ज्ञान से मिलने की तमन्ना होने पर मैं नहीं गया। लेकिन इस पत्र ने कुछ ‘ट्रिगर’ किया होगा, क्योंकि मैं 2006 के नवम्बर-दिसम्बर में लगातार ज्ञान के साथ बिताये दिनों को याद करता रहा। पहल सम्मान का कार्यक्रम फरवरी 2007 में होना था, बहुत-से लोग बनारस जा रहे थे, हवा में हलचल थी, ज्ञान की याद न आये यह स्वाभाविक नहीं था।

मैं बनारस तो नहीं गया, लेकिन ज्ञान के साथ बिताये दिनों को अंकित करने की कोशिश में मैंने एक संस्मरण-नुमा चीज़ लिखनी शुरू की। उन्हीं दिनों विनोद तिवारी जो मेरे मित्र सत्यप्रकाश के दामाद थे, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय, वर्धा से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आ गये थे, जहां मेरे पुराने मित्र कुमार पंकज ने हिन्दी विभागाध्यक्ष बनते ही कुछ प्रतिभाशाली युवकों को विभाग में शामिल कर लिया था और वहाँ अचानक गहमा-गहमी बढ़ गयी थी। विनोद तिवारी ने फैसला किया कि वे फिर से ‘पक्षधर’ का प्रकाशन करेंगे, जिसका एक अंक आपातकाल के दिनों में दूधनाथ ने निकाला था। उन्हें जब ज्ञानरंजन वाले संस्मरण का पता चला तो वे इसका पहला हिस्सा बड़ी ललक के साथ ले गये और "पक्षधर" में उसे छापते हुए उन्होंने घोषणा की कि यह संस्मरण "पक्षधर" के अगले अंकों में जारी रहेगा। उनका उत्साह देख कर मैं भी इसे बढ़ाने लगा। लेकिन अगली किस्त जब विनोद तिवारी के पास गयी तो उनके हाथ-पांव फूल गये। हवा में सुनगुन थी कि नयी नियुक्तियों को स्थायी करने के लिए नामवर जी आनेवाले हैं और मेरे संस्मरण में नामवर जी पर कुछ तीखी टिप्पणियां थीं। विनोद तिवारी ने जरूर दूधनाथ से भी पूछा होगा और वह ठहरा जमाने का रणछोड़दास श्यामलदास चांचड़, उसने भी मना कर दिया होगा। तब एक गोल-मोल छायवादी-सा पत्र लिख कर विनोद तिवारी ने वह संस्मरण वापस कर दिया था। यह तब जब मैं उसे पहले ही सब कुछ बता चुका था कि मैं क्या लिखने जा रहा हूं। लेकिन वीर बालकों का वीर बालकवाद ऐसा ही होता है।

खैर, वह संस्मरण ‘वचन’ पत्रिका में छपा और काफी पढ़ा गया। इरादा था जल्दी ही उसे पूरा कर दूंगा मगर जि़न्दगी कुछ ऐसी बदली कि संगम तटवासी को उखड़ कर यमुना के तट पर बसे बुराड़ी गांव का बाशिन्दा बनना पड़ा। दो साल से ज़्यादा बीत गये। तब मैंने इसे पूरा करने की सोची, क्योंकि इसे पूरा किये बिना मुझे चैन न पड़ता।

इस बीच ज्ञान से यदा-कदा फोन पर बात होती रही, हालांकि बहुत कुछ अभी हमारे बीच सुलटना-सुलटाना बाकी है, जिसमें ‘पहल’ वाली उस पुरानी घटना के अलावा सुलक्षणा से मेरे सम्बन्ध विच्छेद की घटना भी शामिल है।

मैं वैसे तो शकुन-अपशकुन और दैवी शक्तियों का कायल नहीं, इसलिए इसे संयोग ही कहूंगा कि इस संस्मरण को लिखने के दौरान धीरे-धीरे ज्ञानरंजन से फ़ोने पर सम्पर्क फिर से होने लगा और बढ़ता ही चला गया। फिर हाल ही में उसका फ़ोने आया कि वह 7-8-9 मार्च को दिल्ली रहेगा और हम कुछ समय साथ-साथ बिता सकते हैं। यह भी हुआ और बहुत कुछ जो इकट्ठा हो गया था कफ़ी हद तक कम हो गया, गो अभी जम कर एक मुलाक़ात होनी बाक़ी है।

उम्मीद तो यही है कि हम कभी-न-कभी रू-ब-रू बैठेंगे और यह अधूरा काम भी पूरा कर लिया जायेगा।

(तमामशुद)

फ़रवरी-जुलाई 2011