नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पच्चीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - २५
मित्रता की सदानीरा - ४
धीरे-धीरे हुआ यह कि इलाहाबाद आने पर ज्ञान का ज़्यादातर समय ‘इलाहाबाद प्रेस’ में गुज़रने लगा। चूंकि उस समय तक रवि ने राजनीति को साहित्य पर तरजीह नहीं दी थी और अमेठी के संजय सिंह से उसकी कथित ‘दोस्ती’ नहीं हुई थी जो अन्ततः उसे संजय गांधी के दरबार में ले गयी, इसलिए उसके यहाँ अभी छुटभैये नेताओं, कांग्रेसी चमचों, बदनाम इंजीनियरों और लुटेरे डाक्टरों की बजाय (जिन्हें आगे चल कर उसके दरबार के "रत्नों" में शामिल होने का शर्फ हासिल होने वाला था) साहित्यकार ही ज़्यादा उठते-बैठते थे। जाहिर है, मैं भी अक्सर वहाँ जाता था, इसलिए जब तक मैंने कालिया के यहाँ जाना बन्द नहीं किया, तब तक मुझे आभास ही नहीं हुआ कि ज्ञान अब इलाहाबाद आने पर काफी हाउस या मुरारी स्वीट होम या ऐसे ही दूसरे अड्डों पर नहीं पाया जाता। उसकी पुरानी फक्कड़, गैर-साहित्यिक मित्र-मण्डली भी पीछे छूट गयी थी।
लेकिन जल्द ही रवि के यहाँ भी ज्ञान से मिलना-जुलना बन्द हो गया। अपनी तमामतर समझदारी और चतुराई के बावजूद रवि यह नहीं जानता था कि कला की राहें कठिन भले ही हों, पर उसकी लज़्ज़तें बेमिसाल हैं। कला अपने चारों तरफ के समाज से रिश्ता कायम करने, उसके सुख-दुख और संघर्ष में हिस्सेदारी करने और खुद अपने अन्दरूनी संसर से ताल-मेल बैठाने का काम है, बाहरी संघर्ष के साथ-साथ आत्म-संघर्ष उसकी ज़रूरी शर्त है। उसकी मंजि़लें साजि़श करने और जुगाड़बाज़ी से नहीं हासिल की जा सकतीं। इसीलिए रवि लगातार इसको उठाने, उसको गिराने के गुन्ताड़े भिड़ाया करता था।
नयी कहानी का आन्दोलन धीरे-धीरे मन्द पड़ गया था, उससे जुड़े कहानीकार अभी मैदान में थे, लेकिन मोहन राकेश नाटकों की ओर मुड़ गये थे, राजेन्द्र यादव ने अपने लघु उपन्यास ‘मन्त्रबिद्ध’ की विफलता के बाद लिखना लगभग न के बराबर कर दिया था। मार्कण्डेय भी ‘हंसा वाई अकेला’ और ‘गुलरा के बाबा’ से शुरू करके ‘माही’ और ‘सूर्या’ तक आ कर दिशा-भ्रमित थे। रहे अमरकान्त, तो वे पहले भी आहिस्ता-आहिस्ता ही चलते थे। सिर्फ कमलेश्वर थे, जिन्होंने कहानी का दामन थाम रखा था। लेकिन नयी कहानी की जमात के बाद पूरी-की-पूरी एक-डेढ़ पीढ़ी मैदान में आ चुकी थी। साठोत्तरी कहानीकारों ने नये कथ्य और अन्दाज़े-बयां के बल पर पहले के कहानीकारों के सामने जबरदस्त चुनौतियां खड़ी कर दी थीं।
लिहाजा, कमलेश्वर ने ‘समान्तर सिनेमा’ की तर्ज पर ‘समान्तर कहानी’ के आन्दोलन का झण्डा बुलन्द कर दिया। हालांकि यह योजना रमेश उपाध्याय, इब्राहीम शरीफ, मधुकर सिंह और विश्वेश्वर जैसे कहानीकारों ने बनायी थी और ऐन मुमकिन है कि अगर कमलेश्वर ने उन्हें साठोत्तरी कथाकारों के मुकाबिल न ला खड़ा किया होता तो एक साझा मंच बन सकता था, वैसा ही जैसा रमेश बक्षी और उनके साथियों ने साठोत्तरी कहानीकारों के साथ बना लिया था। लेकिन कमलेश्वर ने खलीफा बन कर दोनों अखाड़ों के लड़वा दिया। जगह-जगह समान्तर कहानी सम्मेलन होने लगे, घोषणापत्र और बयान जारी किये जाने लगे।
इस सारे माहौल में ज्ञान और दूधनाथ तो अपनी कला के बल पर डटे हुए थे और काशीनाथ सिंह को अपने भाई डा. नामवर सिंह का आसरा था। चारों में कालिया ही ‘सबसे कमजोर कड़ी’ था। चुनांचे वह अपने प्रेस में बैठा दूसरों का सफाया करने या उन्हें लीक से भटकाने की चालें सोचा करता। जिसे नापसन्द करता, उसे किसी-न-किसी ढंग से अपमानित करने-कराने की कोशिश करता, और कई बार उसे ऐसी हरकतें अपनी छत के नीचे करने-कराने में भी संकोच न होता। ज्ञान और काशीनाथ जैसे दोस्त रोज तो इलाहाबाद आते न थे, इसलिए वे रवि की फाइरिंग लाइन में आने से बचे रहते। लेकिन हम लोग जो इलाहाबाद ही में रहते थे और कालिया के चेले-चपाटों और मुसाहिबों में शामिल नहीं थे, कालिया के स्वभाव के इस पहलू से बड़ी अस्वस्ति का अनुभव करते। धीरे-धीरे मेरा कालिया के यहाँ जाना कम-से-कमतर होता गया और मेरा खयाल है, कालिया को भी छुटकारे का एहसास हुआ होगा। तभी दो घटनाएं ऐसी हुईं कि मुझे कालिया के यहाँ जाना बिलकुल बन्द करना पड़ा।
दोनों घटनाओं के बीच फासला ज़्यादा नहीं था। ग़ालिबन, 1972 के शरद की बात है, गाजियाबाद से कहानीकार से. रा. यात्री इलाहाबाद आये। वे आम तौर पर गर्मियों में कुछ दिनों के लिए आते थे और हमारे ही यहाँ ठहरते थे। मस्त-मौला, फक्कड़ आदमी थे। साल भर पहले ‘रचना प्रकाशन’ से उनके कहानी-संग्रह ‘दूसरे चेहरे’ के प्रकाशन की बात थी, लेकिन चूंकि वे कमलेश्वर के काफी करीब थे, इसलिए कालिया ने उनके संग्रह के प्रकाशन में बीस रोड़े अटका दिये थे। यात्री जी का संग्रह ‘रचना प्रकाशन’ से प्रकाशित हो, इसके लिए अश्कजी ने जीत मामा से कहा था और चूंकि वे कालिया, दूधनाथ, काशी, ज्ञान, महेन्द्र भल्ला के संग्रह छाप चुके थे, इसलिए राजी हो गये थे। कालिया इस मामले में सीधे तो दबाव डाल नहीं सकता था, उसने भीतरघात से काम लिया। अन्त में, जब जीत मामा ने भी हाथ खड़े कर दिये तो पापाजी ने उनसे वह संग्रह ले कर मुझे दे दिया कि उसे प्रकाशित कर दिया जाय। चूंकि यात्री जी का अकेला संग्रह प्रकाशित करने में कोई मज़ा नहीं था, इसलिए मैंने एक सीरीज की योजना बनायी और अपने मित्रों -- रमेश बक्षी, सुदर्शन चोपड़ा, अचला शर्मा और मणिका मोहिनी -- के संग्रहों के साथ उसे बड़े सुरूचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया। रवि इस बात पर भी मुझसे खुन्दक खाये बैठा था और यात्री जी से भी। लेकिन यात्री जी की सेहत पर कालिया के खुन्दक खाये होने का कोई असर नहीं पड़ा था। हम लोग भले ही कालिया की इस चोर-चाल पर नाखुश थे, लेकिन यात्री जी इलाहाबाद आते तो कालिया के यहाँ ज़रूर जाते।
इस बार भी जब वे आये तो ढैया छू आने पर आमादा थे। उन दिनों यात्री जी का चेला सुदर्शन महाजन इलाहाबाद ही में था, शायद यूनियन या युनाइटेड बैंक में। एक दिन यात्री जी उसे और सतीश जमाली को लिये-दिये सिविल लाइन्ज़ में मेरे दफ्तर में आ पहुंचे और आते ही बोले, ‘चलो उठो, कालिया के यहाँ चलते हैं, वहां केसर कस्तूरी पीते हैं। वह राजस्थान से लाया है और इस दारू की बहुत बड़ाइयां कर रहा था।’
मुझे कतई अन्दाज़ा नहीं था कि यह जानकारी यात्री जी को किससे मिली। हो सकता है सतीश ने ही अपनी आदत के मुताबिक नमक-मिर्च लगा कर इसका जिक्र किया हो। बहरहाल, मैंने यात्री जी को लाख समझाने की कोशिश की कि इन कोयलों की दलाली में मुँह काला होने के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा, लेकिन यात्री जी नहीं माने। सो, हम चारों -- यात्री जी, सतीश जमाली, सुदर्शन महाजन और मैं रानी मण्डी में कालिया के प्रेस पहुंचे।
कालिया वहीं था। चूकि वह प्रेस के ऊपर ही रहता था, सो जाते ही यात्री जी ने बड़ी बेतकल्लुफी से केसर कस्तूरी पिलाने की अपनी फरमाइश दुहरायी। अब कालिया ने इस फरमाइश को टालने के लिए क्या कुछ कहा, यह इतने साल बाद मुझे याद नहीं, पर अन्त में कालिया अन्दर गया और उसने ला कर केसर कस्तूरी की एक छोटी-सी बोतल...नहीं, उसे बोतल कहना बोतल का अपमान होगा.... शीशी मेज़ पर रख दी -- वैसी ही जैसी हवाई जहाजों में स्मरण-चिन्ह के रूप में यात्रियों को दी जाती है, घर ले जाकर रखने के लिए और जिसमें एक या दो पेग द्रव्य आता है। कहने की बात नहीं कि तबियत बड़ी झन्त हुई।
ख़ैर, हम लोग बड़े बेआबरू हो कर कालिया के कूचे से निकले, बाहर आ कर दारू खरीदी और घर को चले। तब मैंने यात्री जी से कहा कि मैंने तो पहले ही उन्हें चेता दिया था और अब कालिया के यहाँ जाने का धरम नहीं बनता। अरे, साली केसर कस्तूरी नहीं थी या वह उसके मंहगी होने के सबब से पिलाना नहीं चाहता था तो आम व्हिस्की या रम ही पिला देता। उन दिनों कालिया के बारे में प्रसिद्ध था कि उसके घर पर किसी छोटे-मोटे बूटलेगर से ज़्यादा दारू हरदम मौजूद रहती है। इसकी तसदीक खुद कालिया ने अपनी किताब ‘गालिब छुटी शराब’ में की है। इसलिए मामला तो यात्री जी और हम सबको हमारी औक़ात बताने का था.
(जारी)
No comments:
Post a Comment