नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सैंतीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - ३७
मित्रता की सदानीरा - १६
बहरहाल, इस इम्तहान में बैठने के बाद मेरे दिन दिल्ली और इलाहाबाद के बीच बीतने लगे। समय की भी ऐसी कैफियत होती है कि दो-ढाई महीने बीतते ज़्यादा वक्त नहीं लगा, या कहा जाय कि वक्त तो उतना ही लगा, मगर महसूस नहीं हुआ और एक दिन मुझे खबर मिली कि मैं बी.बी.सी. में चुन लिया गया हूं, साथ में मनोज भी। अब पासपोर्ट और दूसरे कागजात बनवाने, शारीरिक जांच कराने और अन्य औपचारिकताओं के पूरा करने की दौड़ शुरू हुई। पासपोर्ट मेरे पास था, पर उसकी मीयाद ख़त्म हो चुकी थी। भला हो, शास्त्री भवन के उस अधिकारी का, जिसने 50 रुपए के शुल्क पर हफ्ते भर में पासपोर्ट ताजा करवा दिया। ब्रिटिश उच्चायोग में उन दिनों ब्रूस क्लेगहार्न नाम के अटाशी होते थे, जो केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर मैक्ग्रेगर के शिष्य थे और मेरे पिता के नाम से परिचित थे। उन्होंने सब कुछ बड़ी आसानी से सम्पन्न करा दिया और एक दिन मैंने पाया कि मैं बमय साजो सामान पालम हवाई अड्डे पर लन्दन की उड़ान भरने के लिए खड़ा हूं। चूंकि शुरू के छह महीने प्रोबेशन की अवधि थी, इसलिए सुलक्षणा और बच्चों को छह महीने बाद ही लन्दन आना था। मैं और मनोज एक ही उड़ान पर साथ-साथ जा रहे थे और मेरी जि़न्दगी का एक नया वर्क पलट रहा था।
चार साल तक बी.बी.सी. में काम करने और लन्दन में रहने के तजरूबे एक बिलकुल ही अलग कहानी थे, जो अपने आप में एक अलग किताब का विषय है। इन चार वर्षों के दौरान अपनी पुरानी जि़न्दगी से मेरा सम्पर्क लगभग कट-सा गया था। घर-परिवार से नियमित खतो-किताबत होती थी, गाहे-बगाहे फोन पर बात भी हो जाती, लेकिन तब तक फोन-व्यवस्था आज जैसी नहीं बन पायी थी कि हाथ-के-हाथ सम्पर्क हो जाय। अक्सर काफी पहले से नम्बर बुक कराके इन्तज़ार करना पड़ता। वीरेन, ज्ञान, मंगलेश वगैरा का भी कभी-कभार कोई पत्र आ जाता या मैं उन्हें लिखता।
बीच में ढाई-तीन साल बाद एक बार जब मैं छुट्टियों पर हिन्दुस्तान आया तो फिर एक बार पहले जैसी गहमा-गहमी महसूस हुई। इस बीच ‘अमृत प्रभात’ ने लखनऊ से भी एक संस्करण निकालना शुरू कर दिया था और मंगलेश को कमलेश बिहारी माथुर के साथ वहाँ भेज दिया गया था। उसी अख़बार ने जिसने मुझे सात सौ रुपए महीने पर उप-सम्पादक रखने से इनकार कर दिया था, इससे कहीं अधिक वेतन पर बहुत-सी नयी भरतियां की थीं। मेरे पुराने मित्र अजय सिंह अब शुरूआती उछल-कूद के बाद लखनऊ आ कर ‘अमृत प्रभात’ के सम्पादकीय विभाग की शोभा बढ़ा रहे थे। कथाकार मोहन थपलियाल उर्फ ‘अंकल’ भी ‘अमृत प्रभात’ के रत्नों में शामिल थे। इनके अलावा एक और नाम जो मुझे याद आता है, वह शैलेश का है, जो लखनऊ में पत्रकारिता में कदम रख चुका था और अपनी तेज-तर्रार रिपोर्टिंग के बल पर लोगों के आकर्षण का केंद्र था। बाद में वह चौरासी के दंगों की अद्भुत जनवादी रिपोर्टिंग के बल पर नाम पा कर, पहले ‘रविवार’ में और बाद में उसके यशस्वी सम्पादक एस.पी. सिंह के साथ ‘आज तक’ में बतौर टीवी पत्रकार चमकने वाला था और फिर जैसा कि बहुत-सी उल्का-नुमा प्रतिभाओं के सिलसिले में मैंने देखा है, दिल्ली के मीडिया जंगल में खो जाने वाला था। आलोक तोमर और अलका सक्सेना और मधुकर उपाध्याय जैसे नये पत्रकारों के उभरने और फिर मन्द पड़ जाने में अभी दो-तीन बरस की देर थी।
मैं छह हफ्ते की छुट्टी पर हिन्दुस्तान आया था और अपने घर इलाहाबाद कुछ समय बिताने के बाद लखनऊ और दिल्ली के लिए चल दिया था, जहां सबसे बड़ा काम तो दोस्तों से मिलना था और दूसरा काम दिल्ली में अपनी वापसी की उड़ान का बन्दोबस्त करना क्योंकि जिस हवाई सेवा -- अफगान एयरलाइन्स -- पर मैं आया था, उसने वहाँ हो रही उथल-पुथल के चलते अपनी उड़ानें मुल्तवी कर दी थीं और यह जिम्मा अमरीकी हवाई सेवा के हवाले किया था।
लखनऊ महानगर तो पहले से था जो बात कि वहाँ महानगर नाम की एक बड़ी-सी कालोनी भी साबित करती थी, लेकिन तीस बरस पहले का लखनऊ आज जैसा परेशान, बेहाल और उद्विग्न नहीं था। दूरदर्शन की वहाँ अभी आमद नहीं हुई थी। गोमतीनगर और उसके बेशुमार खण्ड नहीं बने थे। रफ्तार भी आज की-सी हरारत-जदा नहीं थी। इलाहाबाद से कुछ ही कम सोया खोया शहर था।
‘अमृत प्रभात’ का दफ्तर अशोक मार्ग पर था, मंगलेश महानगर में रहता था और अजय और शैलेश निशात गंज में। शैलेश की शादी अभी नहीं हुई थी और वह किसी मकान की ऊपरी मंजिल में किराये के एक कमरे में फकीरों की मानिन्द धूनी रमाये था। अजय ह़अरतगंज से निशातगंज की जानिब दायीं तरफ़ भीकमपुर कालोनी में पेपरमिल रोड पर रहता था जिस्के थोड़ा आगे जहां तक मुझे याद पड़ता है, एक पुश्ता-सा था और उसके आगे खुला इलाका। वीरेन अपना शोध पूरा करके, अपने नाम के आगे डाक्टर लगाने का हक, और आगे हिन्दी भाषा और साहित्य के मरीज पैदा करने की हिकमत हासिल करके बरेली चला गया था या शायद जाने के क्रम में इलाहाबाद से मंगलेश के साथ लखनऊ चला आया था। पर था वह लखनऊ ही में। और इस तरह एक चलता-फिरता, वक्ती ‘पेट्रोला’ लखनऊ में आबाद था।
(जारी)
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