Friday, July 31, 2015

अपने आप से लम्बी बहुत लम्बी बातचीत



#

अपने आप से एक लम्बी 
बहुत लम्बी बातचीत करने के लिए 
तुम ढूँढते रहे हो
इस शहर के सम्पूर्ण विस्तार में
कोई एक निजी और बेहद अकेली जगह
जो कहीं भी तुम्हें अपने आप से अलग नहीं होने देगी
2.
सारे का सारा दिन
एक डूबता हुआ जहाज़ है।
अर्से से डूबता हुआ।
सारी शक्ति से समुद्र के गहरे अँधेरे को
अपना शरीर समर्पित करता हुआ।

जहाज़। धूप में। डूबता हुआ।
अर्से से डूबता हुआ।
असफल। नाकामयाब...
...और रात। रात नहीं,
चारों ओर फैला वहीं अटल और आदिम कारागार है -
अपने अन्धकार के साथ इस धरती की उर्वरता पर छाया हुआ

परती पर उगा कारागार
जिसके पार
अब कोई आवाज़ - कोई आवाज़ नहीं आती
सच्ची बात कह देने के बाद
कोई चीख़ नहीं... कोई पुकार नहीं....
कोई फ़रियाद नहीं... याद नहीं...
तुम्हारा अकेलापन इस कारागार का वह यातना-गृह है,
जहाँ अब बन्दियों के सिवा कोई नहीं।
कोई नहीं, चीख़ता हुआ और फ़रियाद करता हुआ और उदास...
उदास और फ़तहयाब...
सच्ची बात कह देने के बाद
3.
सच्ची बात कह देने के बाद 
चुप हो कर तुम सहते रहोगे इसी तरह
उस सभी ‘ज़िम्मेदार और सही’ लोगों के अपमान।

नफ़रत करते हुए और जलते हुए और कुढ़ते हुए।

क्योंकि तुम्हें लगता है,
चालू और घिसे-पिटे मुहावरों के बिना 
जी नहीं सकता
तुम्हारा यह दिन-दिन परिवर्तित होता हुआ देश।

सच्ची बात कह देने के बाद तुम पाते हो,
तुमने दूसरों को ही नहीं,
अपनों को भी कहीं-न-कहीं
ढा दिया है
और तुम चुपचाप और शान्त
अपने साथियों की शंका-भरी नज़रें देखते हुए टूट जाते हो।

इसी तरह टूटता रहता है हर आदमी निरन्तर
शंका और भय और अपमान से घिरा हुआ -
सच्ची बात कह देने के बाद
लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता
नफ़रत करते, जलते और कुढ़ते रहने की आग से
गुज़रते रहने के बावजूद - सहता हुआ।
4.
मैं एक अर्से के बाद अपने शहर वापस आया हूँ
और मुझे नहीं लगता, इस बीच 
कहीं भी कोई अन्तर आया है

कोई अन्तर नहीं:
मोमजामे की तरह सिर पर छाये आकाश में,
जाल की तरह बिछी हुई सड़कों, अँधेरी उदास गलियों 
और मीलों से आती हुई,
गन्दे नालों और अगरबत्ती की मिली-जुली बास में

कोई अन्तर नहीं:
लोगों के निर्विकार भावहीन चेहरों में
उनकी घृणा में, द्वेष में

कोई अन्तर नहीं:
शहर के दमघोंटू, 
नफ़रत और पराजय-भरे परिवेश में
सिर्फ़ शहर में जगह-जगह उग आये हैं
कुकुरमुत्तों की तरह
कुछ खोखले, रहस्यमय और खँडहरों जैसे टूटते हुए मकान

क्या इस अन्तर में उतनी ही सच्चाई है
जितनी नींद से सहसा जागने पर
स्वप्न की सच्चाई होती है ? 
नहीं। यह स्वप्न नहीं है।
एक लम्बे अर्से से टूटता हुआ ताल-मेल है।

जिसके अन्दर ज़हरीली लपटें छोड़ते 
वही सदियों पुराने विषधर हैं
वही दलदल है
अन्दर और बाहर फैलता हुआ लगातार
वही दलदल। वही रेत। वही अँधेरी गलियाँ।
बाँझ विष-भरी बेल
विरासत में मिला हुआ वही घातक खेल
जिसमें हारे जा कर भी लोग
अपना भविष्य
ख़ाली आसमान की तरह ढोते हैं

स्वप्न नहीं है यह। ताल-मेल है।
टूटता हुआ। लम्बे अर्से से।
5.
तुम पूछते हो, मैं क्यों हूँ ?
इस भ्रष्ट और टूटते हुए माहौल में रहने के लिए
घृणा और द्वेष सहने के लिए
मुझे किसने विवश किया है ?
क्यों मैं इस विषधर-हवा में रह कर लगातार
अन्दर और बाहर कटुता सँजोता हूँ ?

किसी भी चीज़ पर इलज़ाम लगाना बहुत आसान है
सहना - बहुत मुश्किल

भाषा पर नाकाफ़ी होने का इलज़ाम
दोस्त पर ग़द्दार होने का इलज़ाम
सबसे आसान है: चीज़ों के, हालात के
अपने ख़िलाफ़ होने का इल्ज़ाम 

जबकि मैं जानता हूँ: एक सही इल्ज़ाम भी होता है
अकर्मण्यता का
जिसका दाग़ तुम्हारे माथे पर हो सकता है

सुन पाते हो तुम अब अपनी ही आवाज़
देख पाते हो अब तुम
सिर्फ़ अपना ही सूखा और उमर-खाया चेहरा 
पढ़ते हो अब सिर्फ़ अपनी शादी पर लिखा गया सेहरा
(जिसमें कुछ भी सच नहीं, सिवाय नामों के)

तुम भूल गये हो बाक़ी नाम
भूल गये हो बाक़ी चेहरे
अपने हमशक्ल गिरोह में खो गये हो
ज़िन्दगी के लम्बे मैदान को बेचैनी से पार करते हुए

नहीं। अब हम एक-दूसरे की चीख़ों में से
नहीं गुज़र सकते - लावे की तरह

अब सह नहीं सकते हम
वह भय और आतंक और घृणा
और शंका और अपमान। सब कुछ।

क्योंकि नफ़रत आख़िर क्या है ?
क्या वह धीरे-धीरे अपने अन्दर
निरन्तर नष्ट  होते रहना नहीं है ?
नष्ट होते रहना। लगातार।
6.
मैं जानता हूँ,
अपने संसार से कलह
तुम्हारा शौक़ नहीं मजबूरी है
तुम्हारी ज़बान पर रखी गयी भाषा
और तुम्हारे मन्तव्य के बीच
 एक अलंघ्य दूरी है
जिससे भाषा अपने अर्थ को खो कर भी
   जीवित रहती है
और रोज़ नये तानाशाहों के कील-जड़े बूट
अपने सीने पर सहती है
और तुम अपनी ओर तनी पाते हो
अपने साथियों की आरोप-भरी उँगलियाँ।

टूटे हुए हाथों में थामे हुए, 
अपना जलता और सुलगता दिमाग़
अब कहो
क्या तुम कोई नया और कारगर झूठ रच सकते हो ?
इस दलदल में डूबने से कैसे बच सकते हो ?
7.
इसीलिए मैंने अपने रंग-बिरंगे वस्त्रों को
अजानी यात्राओं पर निकले हुए
काफ़िलों के हाथ बेच दिया
और इस अन्धे कुएँ में चला आया।

यहाँ इतना सन्नाटा है कि सुनाई देता है
और गहराती साँझ में चमकता हुआ शुक्र
कभी-कभी आँखों में
बर्छी की चमकती हुई नोक-सा धँसता चला जाता है।
तुम मुझे इस अन्धे कुएँ के
बाहर निकालने के लिए हाथ बढ़ाते हो
जब कि मैं जानता हूँ,
इस कुएँ से बाहर निकलना
एक और भी ज़्यादा अँधेरे मैदान में
  ख़ूँख़ार सुनसान में
खो जाना है

जहाँ आदमी नहीं जानता
कि वे राहें कहाँ जाती हैं
जो इस तरह बिछी हुई हैं
उसके अन्दर और बाहर
और आँखें उठाने पर पाता है
पुतलियों के सामने
गहरे रंगों से पुते हुए अन्तहीन अँधियारे क्षितिज।
और किसी भी समय अपने आपको अलग कर सकता है
अपने एहसास से। दरकते विश्वास से।
स्पर्श की माँग को झुठला कर।

इसी तरह मैंने अपने चारों ओर देखा और जाना
मैंने इसी तरह इस संसार को परखा
और इसके घातक सौन्दर्य को पहचाना

यही वह पहचान है। बहुत गहरी पहचान।
आँखों की पथरायी पुतलियों से हो कर
जलते हुए दिमाग़ के स्तब्ध आकाश तक

मैंने तुम्हारे ताल-मेल को बदलना छोड़ दिया है
आख़िरकार।
और अब मुझे अपने गूँगेपन के इस अन्धकार में
बहुत ज़्यादा - बहुत ज़्यादा आराम है।
8.
मुझे नहीं लगता, हमारे बीच
किसी तरह का सम्वाद अब सम्भव है।
मेरे साथ अब तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है
जब से मैंने अपने लिए चुन लिया है देश
   दमन और आतंक, घृणा और अपमान और द्वेष
तुम्हें सिर्फ़ एक आशंका है
मैं किसी भी दिन तुम्हारे कुछ भेद खोल सकता हूँ
सरे आम।
और मुझे मालूम है,
इसे रोकने के लिए तुम कुछ भी कर सकते हो।
लेकिन मैं अभी तक निराश नहीं हुआ
मैं अब भी तुम्हारे पास खड़ा रहता हूँ, शायद कभी
जब तुम याद करने की मनःस्थिति में हो या फिर उदास
मैं तुम्हें उस घर की झाँकी दिखा सकूं
जिसे छोड़ कर तुम
अन्धकार में उगे हुए इस कारागार में चले आये थे
और तुमने उसे ढूँढ लिया था आख़िरकार
वह जो तुम्हारे अन्दर बैठा हुआ
लगातार तुम्हें सब कुछ सहने के लिए
विवश करता रहता था
जो अपनी तेज़ और तीख़ी आवाज़ में
तुमसे पूछता रहता था:
”कौन-सा रास्ता इस नरक के बाहर जाता है ?“

निश्चय ही एक बहुत बड़ी आस
मुझे तुम्हारे पास
खड़े रहने पर विवश करती है
और तुम्हारी ख़ामोशी की तराश को चुपचाप सहती है
एक समय था, जब तुमने निरन्तर
मेरा अपमान करने की कोशिश की थी
पर मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है
आख़िरकार
और मन पर पड़े धब्बों को
आईने की तरह साफ़ कर दिया है।
9.
तुमसे कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है
मैंने अपने ऊपर ओढ़ लिया है आकाश
और हरी घास की इस विशाल चरागाह पर
पाप की तरह फैल गया हूँ
मुझे ख़ुद कभी-कभी आश्चर्य होता है। बहुत आश्चर्य 
मैं तुम्हारे साथ क्यों हूँ ?
जबकि तुम्हारे चारों ओर घिरा हुआ
तुम्हारा परिवेश है
दमन है। आतंक है। नफ़रत, अपमान और द्वेष है
क्या तुम्हें कभी इस पर विश्वास होगा
मुझे सचमुच तुमसे कोई आकांक्षा नहीं है
तुम अब भी लौट सकते हो
बड़े आराम से। धूप में पसरी हुई उन्हीं चरागाहों में
जहाँ तुमने एक-एक करके छोड़ दिये थे
अपने सारे आकाश।
नहीं। मुझे यह कभी नहीं महसूस हुआ -
अपने और तुम्हारे सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए
मुझे किसी व्याख्या की ज़रूरत है।
मैं - जो तुम्हारी उस घातक सक्रियता का आखेट हूँ
आज लौट जाना चाहता हूँ। वापस
यात्रारम्भ के उसी स्थान पर
जहाँ पाँसों के खेल से नियन्त्रित होता है
द्रव्य के एक गाढ़े घोल में
पूरा-का-पूरा वंश-वृक्ष
10.
तुम्हें इसका ज़रा भी आभास नहीं है पिता
कि तुम कभी-कभी मुझे कितना उदास कर जाते हो।

वह जो मुझसे बार-बार उप न कर बहता रहा
वह जिसे सहा मैंने लगातार
वह जिसकी प्रखर धूप मुझे झुलसाती रही
वह जिसकी आभ मुझे निराभ कर जाती रही
वही रस। लपटों के बीच से वही रस
मुझे पुकारता है। जो मेरा शरीर है

रौंदी हुई घास पर पैरों के निशान
सीने पर महसूस करते हुए
मैं आम पर फूटते बौर को देखता
और दहकते पलाश को याद करता
जब एक तेज़ चाकू की तरह काम करता था वसन्त
और रंग हवा के साथ मिल कर एक ऐसी साज़िश रचते
जिससे धूप ख़ून में उबलती हुई महसूस होती।

बहुत-से दिन मैंने इसी तरह बिताये हैं।
बहुत-सी रातें
निरर्थक प्रतीक्षा की तरह लम्बे, बहुत लम्बे दिन
जिनकी सुनहली धूप मेरी याददाश्त पर पसरी हुई है
मेरे चाहने या न चाहने के बावजूद
जबकि दिमाग़ आजकल बिलकुल सुन्न हो गया है
तुम्हें इसका ज़रा भी आभास नहीं है पिता
कि तुम कभी-कभी मुझे कितना उदास कर जाते हो

तुमने मुझे मेरे बचपन की चित्रावलियों के काट कर
वयस्कता के कैसे घृणा-भरे नरक में धकेल दिया है
जहाँ सहसा और अनायास।
मैं अपंग हो गया हूँ - और असहाय

तुम्हें मालूम है, मैं किस तरह चुपचाप नगर में
बिलकुल अकेला चला जाता
और अपनी देह बार-बार खो आता

अगले दिन मेरे मित्रों को आश्चर्य होता
जब वे पाते मेरे चेहरे पर 
अजाने वृक्षों की घनी, गहरी चितकबरी छाया।

मेरे सामने से रात के पिछले पहरों में एक जुलूस गुज़रता
असमर्थ और अशक्त हिलती हुई भुजाओं का। पैरों का।
शराबी क़हक़हे सड़क से चाँदनी पर तैरते हुए आते।
और मुझे सौंप जाते: उनींदी रातें। जलती हुई आँखें।
अपने ही टूटे हुए संसार का अकेलापन।

कभी-कभी चाँदनी मेरे कमरे में घुस आती
निर्विरोध और चुपचाप
और उसे पकड़ने के लिए बढ़ते हुए मेरे हाथ, मेरी बाँहें
लहर लेते विषधरों में बदल जातीं
मैं इसी तरह निःशब्द
अपने कमरे के बाहर फैले कारागार में देखता रहता
और धीरे-धीरे किसी सुनसान प्रहर में
सामने बाग़ में लगे कचनार के पेड़
चाँदनी में ख़ाम¨श
एक-दूसरे में
घुल-मिल जाते

कभी-कभी मैं भोर मैं
किसी लता को अपने चारों ओर लिपटी पाता
और नींद के हलके झँकोरे से अचानक जाग पड़ता

लेकिन वह। मेरी देह। जिसकी मुझे तलाश थी।
कहीं उस चाँदनी में। शराबी क़हक़हों में।
आपस में गुत्थम-गुत्था पेड़ों में।
भुजाओं के जुलूस में। अपने चारों ओर लिपटी लता में।
या अपने मकान के जहाज़-नुमा खँडहर में
खोयी रह जाती।
11.
मैं समझता था -
इस खँडहर के अन्दर से 
एक विशाल इमारत खड़ी हो जायेगी
रात के अन्तिम पहरों में।
चाँदनी में निःशब्द घुलती हुई। अदृश्य

कभी-कभी मैं प्रतीक्षा करता रह जाता।
कुछ होगा। कुछ होगा,
मैं सोचता,
कुछ ऐसा होगा
जो सब कुछ बदल देगा।

जो बदल देगा उनींदी रातें। जलती हुई आँखें।
परती पर उठे हुए अन्तहीन कारागार।
मेरी शाखों को खाते हुए धुँधुआते अन्धकार।

ओर। दोनों शिखरों के बीच एक गहरी घाटी उग आयेगी
जिसकी सुनहरी शान्ति में
अपनी सारी शक्ति के साथ
मैं दौड़ता हुआ निकला जाउँगा
फिर कभी इस धुँधुआते अँधेरे में वापस नहीं आऊँगा।
12.
तभी एक दिन।
एक दिन अचानक,
अनजाने ही। पिता
तुमने मुझे खिलौनों की जगह दे दिये थे - शब्द
जलते हुए और चीख़ते हुए और उदास।

यह तुम्हारी अन्तिम और सबसे कामयाब साज़िश थी।

तुमने मुझे मेरे बचपन से
या मेरे बचपन को मुझसे
काट कर अलग कर दिया था
और अपनी नसों में उबलते हुए लावे को
बरदाश्त करता हुआ
मैं बहुत जल्द ही ज़िन्दगी के प्रति कटु हो गया था।

मैंने तब भी तुमसे कुछ नहीं कहा था।
मैं तो एक ऐसी स्पष्टता चाहता था
जिससे अपने बचपन को अच्छी तरह देख सकूं ।

क्या तुम खड़े रहोगे। इसी तरह। हमेशा-हमेशा के लिए।
घर की एक मात्र खिड़की के सामने। बाहर से आती हुई
सुनहरी रोशनी को झेलते हुए। रोकते हुए।
घर को अपनी विशाल परछाईं में
डूब जाने के लिए विवश करते हुए।

और वह सब जो बाहर है और मोहक है,
उसका एहसास मुझे
तुम्हारी इस चितकबरी परछाईं पर हिलते हुए प्रकाश-धब्बों
या टूट कर विलीन होती आकृतियों ही से होगा।
13.
तभी मैंने तय कर लिया था,
दिन में अपना समय काटने के लिए
मैं रात में दबे पाँव जा कर चुरा लाऊँगा
दूसरों के अन्तहीन दुःस्वप्न। उनींदी रातें।
दुरूह और उलझे हुए विचार। परेशान घातें।

मैं सोचता, मैं चुरा लाऊँगा
दूसरों की खिड़कियों के अन्दर आने वाला
अवरोधहीन प्रकाश

और इस सब में डूब कर
अपनी उस देह की तलाश करूंगा
जिसे मैं बहुत पहले
घर के बाहर लगे कचनार के
उन गुत्थम-गुत्था पेड़ों के पास
कहीं खो आया था।
लेकिन फ़िलहाल। फ़िलहाल तो मैं ही रह गया हूँ
अब असमाप्त। निरुद्देश्य।
बेचैनी के रंग को पहचानने के बाद।
14.
हवा के रुख़ को जानने के बाद
काले आकाश पर छाये हुए बादलों के जहाज़
अकस्मात बह निकलते हैं -
एक अन्तहीन और निरुद्देश्य यात्रा को
जहाँ हमें सभी रास्तों के अन्त में
मिलती है वही एक निर्वासित मूर्ति
और कहीं भी वह पहचान नहीं रह जाती।

मैं पाता हूँ अपनी स्मृति इसी मूर्ति के ख़ून से रँगी हुई -
एक रक्ताभ और अविस्मरणीय यात्रा -
अस्त होते सूर्य से फीके क्षितिज की निराभ छाया में
15
तुम ढूँढते रहे हो निरन्तर
इस शहर के सम्पूर्ण विस्तार में
अन्तर के सुलगते अन्धकार में
अपने आप से एक लम्बी
बातचीत करने के लिए
कोई एक निजी और अकेला स्थान
जो तुम्हें कहीं भी अपने आप से अलग नहीं होने देगा।
16.
तुम्हारी आँखों से होता हुआ
तुम्हारे अन्तर में उग आया है
एक उदास अनमना बियाबान


जिसे कुतरते रहते हैं बारी-बारी से
रात और दिन। निःस्तब्धता और कुहराम
नफ़रत। प्रेम। पाप। प्रतिकार। प्रतिशोध।

एक उदास अनमना बियाबान
तुम्हारे अन्तर में। तुम्हारी आँखों से

सब कुछ उन्हें दे देने के बाद भी
तुम्हारे अन्तर में झरता हुआ
वही एक अछूता संगीत
जिसमें सारे-का-सारा दिन एक डूबता हुआ जहाज़ है
अर्से से डूबता हुआ
जिसकी धूप से रँगे हुए मँडराते विचार
नीली नदियों की तरह
तुम्हारे दिमाग़ के रेतीले कछार में विलीन होते रहते हैं

और रात...
... रात और एक विचित्र संसार
अन्तर्मुखी विचित्र संसार

दबे पाँव तुम्हारे सपनों पर
तुम्हारे मस्तिष्क के तरल फैलाव पर
किसी डरावनी छाया की तरह उतरता हुआ
17.
तुमने क्यों सौंप दिया है अपने आप को
उनींदी रातों के इस ज़हरीले संसार के हाथों
जबकि तुम्हारे अन्तर के गहन अन्धकार में से हो कर
अब भी गुज़रता है
आवाज़ों का वह अन्तहीन जुलूस।

बार-बार वही-वही चेहरे बेनक़ाब 
वही अजीबो-ग़रीब सूरतें
चीख़ती हुईं और फ़रियाद करती हुईं और उदास...
और फ़तहयाब...

आख़िर तुम्हें कब तक
उन्हीं चेहरों का सामना करते रहना पड़ेगा
जो रात में अपने मुखोश उतार कर
तुम्हारी आँखों के सामने नाचने लगते हैं।

उन्होंने मुझे सौंप दिया है
उनींदी रातों का यह अन्तहीन अन्धकार
बंजरता से फूट कर निकलता हुआ
नफ़रत और द्वेष और अपमान की दीवारों से बना
वह अन्तर्मुखी निःस्तब्ध कारागार।
इतने सारे दिवंगत और तुम्हारे चारों ओर - ख़ालीपन
और अधिक - और अधिक घिरता हुआ ।
तुम्हें क्यों महसूस होता है,
तुम्हारे अन्दर और बाहर
क़ब्रों का एक लगातार सिलसिला उग आया है
और तुम्हारे पीछे वही ख़ून-सनी डोलती छाया है
तुमने क्यों अपनी सारी याददाश्त को
अपने जलते हुए दिमाग़ से काट कर
अलग कर दिया है
जबकि तुम सिर्फ़ एक ऐसी स्पष्टता चाहते थे
जिससे अपने बचपन को अच्छी तरह देख सको।

18.
अक्सर तुम इस मकान के बाहर चले आये हो
अक्सर तुम इस जलते धुँधुआते सुनसान के बाहर
चले आये हो
जो तुम्हारा घर है या शहर या देश

अब तुम चुपचाप घूमते रहते हो
शहर की नीम-अँधेरी गलियों में

अब तुम चुपचाप और सतर्क
देखते रहते हो बाज़ारों में उमड़ती हुई
उस जगमगाती भीड़ को
जिसे तुम बहुत पहले, बहुत पहले ही
अस्वीकृत कर चुके हो

शायद तुम कहीं-न-कहीं उन लोगों से शंकित थे
जो तुम्हें इस जलते धुँधुआते अन्धकार से जुड़े हुए देख कर
तुम पर छिड़क देते अपने अन्दर का
वही कलुष-भरा मटमैला रंग।
अपने अन्तर की सारी नफ़रत से, भय से, शंका से
तुमने अपने आप को इस भीड़ से अलग कर दिया है
अलग कर लिया है तुमने आपने आप को
उन सभी दमकते हुए चेहरों से

और अब अगर सचमुच तुम अपनी स्मृति को
किराये पर उठाना चाहो
तो कौन देगा तुम्हें इस यन्त्रणा के बदले में
सुविधाओं से भरा हुआ, शान्त और सुखी,
(और ऊब-भरा) अनुर्वर जीवन

क्या सचमुच तुम उस जलते हुए नरक में लौट जाओगे ?
क्या सचमुच तुम फिर कभी वापस नहीं आओगे ?
19.
तुम समझ गये थे, यह सब तुम्हें गूँगा बनाने की
वही घृणा-भरी साज़िश है
तुम समझ गये थे,
इस सब के बावजूद
उस कोहरे के पार कहीं एक रास्ता निकलता है

लेकिन तुम एक लम्बे अर्से से नफ़रत करते रहे हो
नफ़रत करते रहे हो। और प्यार।
और इसीलिए तुम इतने दिनों तक ख़ामोश रह कर
अपने ही तरीक़े से उन्हें पराजित करते रहे हो

तब तुम्हारे लिए बहुत ज़रूरी था कुछ-न-कुछ करना
बहुत ज़रूरी था अपने आप को लगातार
इसी तरह - इसी तरह छलना

मुझे याद है। तुमने मुझसे कहा था:
‘वक़्त बीत चुका है कहने का
चुपचाप नफ़रत और शंका और अपमान
सहने का वक़्त बीत चुका है।
आओ, हम इस मौन में शामिल हो जायँ
आओ, अब हम इस लगातार और निष्फल मौन में डूब जायँ
यह हमें कहीं-न-कहीं तो ले ही जायेगा -
अन्दर या बाहर - अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।’


और अब तुम्हें कितनी मोहक लगती हैं
वे सारी-की-सारी साज़िशें
जिनसे तुम्हारा कोई भी वास्ता नही रह गया है
20.
उस जलते हुए ज़हर से गुज़र कर
तुम्हें विश्वास हो गया है:
जो तुम जानते हो
उससे कहीं ज़्यादा तुम्हारे लिए उसका महत्व है
जो तुम महसूस करते हो
आग की सुर्ख़ सलाख़ों की तरह
बर्फ़ की सर्द शाख़ों की तरह

तुम्हें मालूम है: जब कभी तुम्हारा सच
उनकी नफ़रत और शंका
और अपमान से टकराता है -
टूट जाता है

इसी तरह टूट जाता है हर आदमी निरन्तर
भय और आतंक, अपमान और द्वेष में रहता हुआ

सच्ची बात कह देने के बाद
अपने ही लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता
सहता हुआ।
और अब तुम थके कदमों से
अपने घर की तरफ़ लौटते हो
और जानते हो कि
तुम्हारे जलते हुए और असहाय चेहरे पर कोई पहचान नहीं।
अब तुम लौटते हो। अपने घर की तरफ़। थके कदमों से।
अकेले...और उदास...और नाकामयाब...
21.
लेकिन वह ख़ून से सना हुआ डोलता कबन्ध
तुम कहीं भी जाओ
तुम्हारे साथ-साथ जायेगा

दूर, दूर, दूर
उसे ढूँढने के लिए
तुम्हें कहीं भी दूर नहीं जाना पड़ेगा
वह ख़ून से सना हुआ डोलता कबन्ध
तुम कहीं भी जाओ - तुम्हारे साथ-साथ जायेगा

वही जिसे तुम लगातार-लगातार काट कर
अपने से अलग करते रहते हो
वही जिसे तुम अपने ही अलग-अलग रूप¨ं में
        गढ़ते रहते हो
अपने अन्तर की सारी घृणा से, भय से
शंका और अपमान और पराजय से

वह लेकिन इसी तरह डोलता रहता है। निरन्तर।
ख़ून से सना हुआ। तुम्हारे अन्दर और बाहर।

तुम कहीं से भी शुरू करो: हाथों से। पैरों से।
उसके दीर्घकाय शरीर की गठी हुई माँस-पेशियों से
या उसकी रक्त-रंजित खाल पर गुदे हुए चिन्हों से
तुम्हें उसे पहचानने में ज़रा भी दिक्कत नहीं होगी

दूर, दूर, दूर
तुम कहीं भी जाओ। तुम देखोगे:
तुम्हारे अन्तर की सारी नफ़रत और शंका,
अपमान और द्वेष झेल कर
जो छाया तुमसे पीछे और विमुख
ख़ून-सनी ज़मीन पर पड़ रही है -
उसी कबन्ध की है
उसी रक्त-रंजित डोलते कबन्ध की
अन्दर और बाहर। चुपचाप। निःशब्द। निर्विकार।
22.
मैं एक लम्बे अर्से से तलाश कर रहा हूँ
अपनी जड़ों की। इस यात्रा पर
मैं जानता हूँ: सिर्फ़ मुझे ही जाना है
सभी सम्बन्धों से कट कर
धरती और चट्टान के अँधेरे में
इस बार सिर्फ़ मुझे ही ढूँढना है वह स्रोत
अपने दिमाग़ के सन्तुलन के लिए
हाथों और शब्दों की मुनासिब कार्रवाई के लिए

कौन-सी वह धारा थी
जिस पर तिरती हुई यह नाव
इतनी दूर तक चली आयी
कौन-सी हवा इस पतंग को
यहाँ तक खींच लायी
जब-जब मेरे कदम बढ़े
मेरे अन्दर से आवाज़ आयी
रुक जाओ। रुक जाओ।
पहले अपने चारों ओर फैली इस दुनिया को देखो और जानो

अकसर मैंने ख़ुद से सवाल किया है
कहाँ से ? क्यों ? किस ओर ?
मेरे दिमाग़ में गूँजता रहा है यह शोर। निरन्तर

इसीलिए मैं लौटा हूँ। बार-बार
पत्तियों से टहनियों और शाख़ों से जड़ों की ओर

और मेरा दिमाग़ अपने इस निजी संसार को
बदल डालने की तेज़ और आशा-रहित इच्छा से
लगातार ज़ख़्मी होता रहा है

सोचो, क्या यह बहुत दिनों तक चल सकता है -
सर्द बारिश में खड़े रह कर
इतनी उपेक्षा को सह कर
अपने अन्दर की आग को समिधा देना

जब किसी भी चीज़ की सही पहचान
आँखों के लिए तकलीफ़ बन जाय
जब अन्तर का लहलहाता वन
सुख्र्¤ा लपटों में डूब जाय
जब एक ओर समय
और दूसरी ओर उसका सबक़ रह जाय

कितना मुश्किल है
अन्तर की लहलहाती धूप की जगह
जलते हुए अँधेरे को दाख़िल होते हुए देखना
आँखों के नष्ट हो जाने के बाद।

बहुत-से दिन मैंने इसी तरह बिताये हैं।
बहुत-सी रातें।
निरर्थक प्रतीक्षा की तरह लम्बे बहुत लम्बे दिन
जिनकी सुनहली धूप -
मेरी याददाश्त पर पसरी हुई है।
मेरे चाहने या न चाहने के बावजूद
जब कि दिमाग़ आजकल लपटों में खो गया है
कितना मुश्किल है
इस तरह ख़ामोश रहना और प्रतीक्षा करना
जब कि सारी सम्भावनाएँ
आग और लोहे की
एक अन्तहीन हलचल में खुलती हैं
23.
मैंने अपने शब्दों को ख़ुद अपने निकट -
अपने और अधिक निकट होने के लिए रचा है
सच्ची बात कह देने के बाद

और मुझे महसूस होता है -
कोई भी मेरे शब्दों से हो कर
मेरे पास नहीं आ सकेगा
उस इन्तज़ार और सपने के टूट जाने पर
अपने अन्दर की पहचान को ज़िन्दा रख कर
सारी-की-सारी शंका और घृणा और अपमान झेल कर

क्योंकि ये शब्द आख़िर क्या हैं ?

इस दलाल सभ्यता के ख़िलाफ़ एक चीख़
एक ऐसा शोक-गीत
जिसकी भूमिका शोक की नहीं
ख़ुद अपने क़रीब जाने के उल्लास की है

क्या मैं ये शब्द लिख कर कहीं उस गहरी -
बहुत गहरी और अन्तरंग विवशता की
चिरपरिचित पहचान को झुठला नहीं देता ?
आँखों की पथरायी पुतलियों से हो कर
जलते हुए दिमाग़ के स्तब्ध आकाश तक निरन्तर
उस सारी-की-सारी नफ़रत और शंका
भय और अपमान को सहता हुआ
टूटता हुआ और सिमटता हुआ और बिखरता हुआ 

नहीं। नहीं। अपने हृदय की गहराई से
दोनों हाथ भर-भर कर
मैं उलीचता रहा हूँ एहसास

इसीलिए मैं चाहता हूँ
जो भी मेरे शब्दों को पढ़े और जाने
जैसे आदमी अपनी पत्नी को
निरन्तर उसके साथ रह कर जानता है
सच्ची बात कह देने के बाद लोगों का अविश्वास सह कर
जैसे आदमी कटुता को
पहचानता है
वह लगातार अपने ही लोगों के 
और अधिक निकट हो।
निकट हो। उल्लसित हो। और संगीतमय।
24.
नहीं। मैं अँधेरे में डूबती हुई शाम नहीं हूँ
वह जो कुछ भी मैं हूँ - गुमनाम नहीं हूँ

अब भी कहीं भीतर से आती हुई वह पुकार। वह एक पुकार
मुझे कहीं-न-कहीं आश्वस्त करती रहती है

और मैंने अक्सर सोचा है
एक समय आयेगा, जब मुझे तुमसे पूछना ही पड़ेगा
तुम्हारी इन सभी मुद्राओं का अर्थ
जब। जब एक लम्बे अन्तराल के बाद
आख़िरकार
शुरू होगा - दर्शक-दीर्घा की ओर से
नाटक का वह अन्तिम अंक।

मुझे अब धीरे-धीरे यह एहसास होने लगा है:
तुम तक मेरी बात पहुँच नहीं सकती।
मैंने अकसर अपने भय और आतंक
नफ़रत और अपमान और द्वेष के
उस अँधेरे कारागार से लौट कर
तुम्हें अपने अन्तर की उस गहरी विवशता के बारे में
     बताने की कोशिश की है
और हर बार ग़लत समझा गया हूँ।

अपने अन्दर किसी एक नंगे,
बहुत नंगे सच का सामना करते हुए
मुझे हमेशा यह एहसास हुआ है कि
तुमने मुझे अपने से काट कर
किस क़दर
असहाय और निराश और बन्दी बना दिया है

और जैसा कि तुम मुझसे हमेशा कहते रहे हो:
‘जो हम महसूस करते हैं, वह हमारे लिए
उस सब से कहीं ज़्यादा सच होता है
जिसे हम जानते हैं।’

तभी एक बार। सिर्फ़ एक बार मेरे मन में
तुम्हारे प्रति सन्देह हुआ था।

मुझे लगा था, कहीं कुछ बहुत ज़्यादा -
बहुत ज़्यादा ग़लत हो गया है। प्रारम्भ
या फिर उस कहानी में न अट सकने वाला
पहले से तय कर लिया गया अन्त।

और मैं सोचता: ऐसा ही होगा -
क्या सचमुच ऐसा ही होगा अन्त -
असहाय और बंजर और अशक्त बना कर छोड़ता हुआ ?
क्या मैं इसी तरह अपनी सारी शक्ति के साथ
टूट कर गिरता हुआ बिखर जाऊँगा -
अकेला और उदास और नाकामयाब ?

नहीं। जब भी वह बियाबान
जब भी वह उदास अनमना बियाबान
इसी तरह मृत्यु-सा निःशब्द
मेरे चारों ओर फैल जायेगा

तब मैं जाऊँगा नहीं नगर-पिताओं के पास
अपने सपनों के अर्थ पूछता हुआ
कमींगाह में छिपे क़ातिलों से
हताहत मित्रों के नाम पूछता हुआ

मैं सिर्फ़ अपना जलता हुआ एहसास
आँखों की अथाह गहराई में सँजो कर
सौंप जाऊँगा
अपने हाथों और शब्दों के उत्तराधिकारियों को

फिर मैं लौट जाऊँगा
उसी धुँधुआते अन्धकार में
दमन और आतंक और नफ़रत के
उसी जलते हुए नरक में

जहाँ आग और लोहे की कारगर कोशिश से
टूटते हुए कारागार के खँडहरों पर
फैल रहा होगा
एक नयी भोर का सुर्ख़ उजाला।
1967-70

Saturday, July 4, 2015

सोहबते-ग़ालिब

पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या

आगरे से आ कर दिल्ली को मुस्तकिल तौर पर अपना घर बना लेने वाले हमारे महबूब शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब (१७९७-१८६९) का ज़िक्र इतनी मर्तबा हो चुका है कि एक और तज़्किरा करने से पहले ठिठक जाना पड़ता है. मगर फिर ख़याल आता है कि ग़ालिब की प्रिय शै -- इश्क़ -- का ज़िक्र भी तो बेइन्तहा मर्तबा हो चुका है और उसमें कोई ठहराव आता नज़र नहीं आता. फ़ेसबुक की क़सम या फ़ेसबुकियों की, जिसे देखिये इश्क़ की किसी-न-किसी सूरत, किसी-न-किसी सीरत पर फ़िदा हुआ पड़ा है. मरने-मारने को तैयार है. तो साहेब, इश्क़ की तरह ग़ालिब के लिखे को भी चाहे जितनी बार उलटिये-पलटिये-बरतिये, हर बार नया लुत्फ़ मिलता है, नये मानी खुलते हैं, खयाल नयी दिशाओं की तरफ़ जाते महसूस होते हैं, ज़िन्दगी के -- और उसे देखने के ढंग के -- नये पहलू उजागर होते हैं.
चुनांचे यही सब सोच कर हमने अपनी इब्तेदाई हिचक पर क़ाबू पाते हुए यह फ़ैसला किया कि कुछ दिन अपने इस महबूब शायर की सोहबत में गुज़ारेंगे. अगर हमारे इल्म में कोई इज़ाफ़ा न भी हुआ तो क्या, उनकी सोहबत में यह वक़्त गुज़ारने की लज़्ज़त से तो हमें कोई महरूम न कर सकेगा. अलबत्ता, हमारी अक़ीदत को हमारी पाबन्दी से आंकना शायद हम पर कुछ ज़्यादती होगी. कोशिश तो हमारी यही रहेगी कि हम पाबन्द रहें, मगर ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता इस पाबन्दी में कोई ख़लल पैदा हुआ तो बहुत करके उसकी वजह वही होगी जो ग़ालिब ने ही अपने एक शेर में बयान करते हुए बतायी थी कि 
गो मैं रहा रहीन-ओ-सितमहा-ए-रोज़गार 
फिर भी तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

तो दोस्तो, इस छोटी-सी भूमिका के बाद हम ग़ालिब का ज़िक्र अपने टेढ़े-बैंगे अन्दाज़ में उनके एक ख़त का एक छोटा-सा अंश और उनका एक असंकलित शेर उद्धृत करते हुए शुरू कर रहे हैं.
१६ फ़रवरी १८६२ को, यानी १८५७ की उथल-पुथल के तक़रीबन पांच साल के बाद, ग़ालिब ने अपने अज़ीज़ मिर्ज़ा अलाउद्दीन अहमद ख़ां अलाई को लिखा--
"ऐ मेरी जान, ये वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुम पैदा हुए हो; वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुमने इल्म तहसील किया है; वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुम शाबान बेग की हवेली में मुझसे पढ़ने आते थे; वो दिल्ली नहीं है जिसमें मैं सात बरस की उम्र से आता-जाता हूं; वो दिल्ली नहीं है जिसमें इक्यावन बरस से मुक़ीम हूं. एक कैम्प है -- मुसलमान, अहले हर्फ़ा या हुक्काम के शागिर्द पेशा, बाक़ी सरासर हनूद."
दिलचस्प बात है कि डेढ़ सौ साल के अर्से में दिल्ली की यह कैफ़ियत काफ़ी हद तक वैसी-की-वैसी है. बरबादी के जिन निशानात ने ग़ालिब के वक़्त में इस शहर को नाक़ाबिल-ए-रिहाइश बना दिया था, वे मिट गये हैं. दिल्ली फिर चाक-चौबन्द हो गयी है, पर उसका बुनियादी रंग-ढंग पुराना है. ढहने ही का ज़िक्र करना हो तो आज ही की ख़बर है कि दिल्ली की हृदय-स्थली, गुरुद्वारा शीशगंज के पास फ़व्वारे के नज़दीक "घण्टेवाला" के नाम से मिठाई की जो दुकान पिछले २२५ बरस से मौजूद थी उसने अपने दरवाज़े हमेशा के लिए मुक़फ़्फ़ल कर लिये. अलबत्ता, इज़ाफ़ा हुआ है तो बाहर से आने वाले उन लोगों का जो ग़ालिब द्वारा गिनायी गयी कोटियों में से बीच की कोटि में आते हैं -- अहले हर्फ़ा या हुक्काम के शागिर्द पेशा. तो जनाब, इसी दिल्ली में जिसमें मैं भी सात बरस की उम्र से आता-जाता हूं और पिछले आठ बरस से मुक़ीम हूं, हम ग़ालिब को याद कर रहे हैं.
इस मौज़ूं को बन्द करने से पहले तीन बातें. पहली यह कि यह ज़िक्र ग़ालिब का है, चुनांचे इसमें उनकी शायरी तो आयेगी ही, उनके ख़ुतूत का भी अच्छा-ख़ासा दख़ल रहेगा, क्योंकि वे भी उनके अशआर और कलाम के साथ एक अलग ही अहमियत रखते हैं. दूसरे, दिल्ली का भी उल्लेख ग़ालिब ने अपने कलाम ही में नहीं, बल्कि ख़तों में भी बार-बार किया है. हम उस तरफ़ भी बीच-बीच में पलटेंगे. तीसरी बात यह कि हम कोई आलोचना की पुस्तक नहीं लिख रहे, अपने महबूब शायर की सोहबत कर रहे हैं तो इस का क्रम भी किसी तन्क़ीदी मज़मून की तरह आदि, मध्य और अन्त की शक्ल में नहीं होगा. उसकी अपनी गति और अपनी रविश रहेगी.माशूक़ की महफ़िल में रखी शमा से उठते धुएं के पेच-ओ-ख़म की मानिन्द.
आज यहीं तक. कल उस असंकलित शेर के हवाले से अपनी बात शुरू करेंगे जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर आये हैं.