Saturday, June 11, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की बत्तीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३२



मित्रता की सदानीरा - ११

1976 की गर्मियों में मैं एक बार फिर जबलपुर होता हुआ नीचे की तरफ उतरा और इस बार बम्बई, पूना, कर्नाटक और आन्ध्र होते हुए इलाहाबाद लौटा। इसी दौरे में मेरी मुलाकात हैदराबाद में तेज राजेन्द्र सिंह, एम. टी. खान और कुछ और साथी-कवियों से हुई। जहां तक मुझे याद पड़ता है विरसम -- विप्लवी रचयितालु संगमम -- की स्थापना हो चुकी थी। तीसरी धारा के वामपन्थी साहित्यकारों का यह पहला संगठन था और इसके दो संस्थापक कवियों -- निखिलेश्वर और ज्वालामुखी -- से मुझे एम. टी. खान ही ने मिलवाया था।

तेज बहुत प्रतिभाशाली कवि था और उसके बारे में मुझे वेणु ने बताया था, लेकिन जो बात नहीं बतायी थी, वह यह कि तेज धीरे-धीरे शराब के ज़रिये उस रास्ते पर चल पड़ा था, जो अन्ततः उसे उस मंजिल पर पहुंचाने वाला था, जहां से कोई वापसी नहीं होती। एम. टी. खान पुराने कामरेड थे -- उन दिनों आपातकाल से उपजे हालात और पुरानी कम्यूनिस्ट पार्टियों के विभाजन के बाद सी.पी.एम. से रिश्ता तोड़ कर तीसरी धारा में शामिल हो गये थे, या उसका मन बना रहे थे। तेज से तो फिर भेंट नहीं हुई, हालांकि उसने अन्तार्कतिका के शीर्षक से जो कविता-पोस्टर निकाले थे वे आज भी मुझे उसकी याद दिलाते हैं। ये कविता-पोस्टर इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि शायद हिन्दी में वे पहले-पहले कविता-पोस्टर थे। आगे चल कर कविता-पोस्टरों ने जो रफ्तार पकड़ी और ‘इसलिए’ ‘अन्ततः’, ‘पहल’, ‘जन संस्कृति मंच’ और दूसरी पत्रिकाओं-सांस्कृतिक संगठनों ने जो कविता-पोस्टर छापे/प्रकाशित किये, उनके पीछे ‘अन्तार्तिका’ की प्रेरणा रही हो या न रही हो, मगर शुरूआती प्रयास तेज राजेन्द्र सिंह ही का था।

एम. टी. खान से अलबत्ता बाद में मुलाकातें हुईं। एक लम्बे अंतराल के बाद 1985 में ‘जन संस्कृति मंच’ के स्थापना सम्मेलन के अवसर पर दिल्ली में और दूसरी बार जब मैं ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के अधिवेशन में भाग लेने हैदराबाद गया और मेरे मित्र सत्य प्रकाश ने, जो ‘सम्मेलन’ का साहित्य मन्त्री था, मुझे यह काम सौंपा कि मैं एम. टी. खान को वह सम्मान लेने के लिए राजी करूं, जो ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ उनकी हिन्दी सेवाओं के लिए उन्हें देना चाहता था। एम. टी. खान तब वरवर राव के साथ आन्ध्र में सरकार और नक्सलवादियों के बीच एक सम्मानजनक युद्ध-विराम के प्रयत्नों में शामिल थे। अपने स्वाभाविक विनय से पहले तो उन्हांने यह सम्मान लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन जब मैंने उन्हें जा कर कायल किया था कि इससे उनकी राजनैतिक छवि को कोई आंच नहीं आयेगी; कि ‘सम्मेलन’ ने उनके बारे में जान-समझ कर यह फैसला किया है; कि हमारे पुराने साथी वेणु गोपाल को भी सम्मानित किया जा रहा है तो वे राजी हो गये थे। एम. टी. खान इस बात की मिसाल हैं कि कैसे संघर्ष और उग्र राजनैतिक विचारधारा किसी व्यक्ति में शान्ति और दृढ़ता का एक साथ संचार कर सकती है, अगर यह विचारधारा जनोन्मुखी हो, जनवादी हो।

1976 की इस यात्रा के बाद मध्यप्रदेश - खासकर भोपाल - तो कई बार जाना हुआ, लेकिन जबलपुर दोबारा मैं 2001 ही में जा पाया जब मैं महात्मा गान्धी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की एक शोध परियोजना के सिलसिले में वहाँ गया। ज्ञान तब तक 763, अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड से 101, रामनगर, आधारताल के अपने मकान में आ गया था और इस अरसे में हमारे बीच एक खासा बीहड़ और उत्तेजक मतभेद हो चुका था। मगर उसकी चर्चा बाद में। इस समय तो इतना ही कि 1976 के बाद अगले चार वर्ष के दौरान, जब तक मैं 1980 में बी.बी.सी. में नियुक्त हो कर लन्दन नहीं चला गया, ज्ञान से मुलाकातें पहले ही की तरह अनियमित-सी, कुछ गरम, कुछ ठण्डी चलती रहीं।

1976 में जब मैं भोपाल गया तो मंगलेश डबराल दिल्ली से वहाँ पहुंचा हुआ था। बात यह थी कि 1972 में सीधी से भोपाल पहुंचने पर अशोक वाजपेयी ने आनन-फानन कला-परिषद को अपने हाथ में ले लिया था। अशोक वाजपेयी हिन्दी की उस नयी धारा के अगुआ थे जो ‘परिमल’ के अवसान के बाद प्रगतिशील और वामपन्थी साहित्य-धारा के विरोध में पनपी थी। आज तो गुजरात की 2002 की घटनाओं के बाद कभी-कभार अशोक वाजपेयी में समाज नाम की चीज़ कुछ-कुछ महसूस भी होती है, लेकिन उन दिनों कला या कहा जाये कलावाद उनका अलम था।

‘कल्पना’ के बन्द हो जाने और नामवरजी के सम्पादकत्व में 1967 से ‘अलोचना’ के पुनर्प्रकाशन के बाद इस खेमे को एक पत्रिका की जरूरत महसूस हो रही थी। 1973-74 में अशोक वाजपेयी ने ‘पूर्वग्रह’ के नाम से एक पत्रिका निकाली और प्रगतिशीलों पर हमले शुरू किये। मुझे याद है ‘पूर्वग्रह’ में छपे श्रीकान्त वर्मा के एक लेख ‘कविता के साथ शारीरिक सलूक’ को ले कर बड़ा हंगामा हुआ था, जिसमें चुन-चुन कर उन कवियों पर हमले किये गये थे, जो मुखर रूप से वाम-समर्थक और कांग्रेस विरोधी थे। चूंकि अशोक वाजपेयी शासन में थे और हिन्दी में आगे अफसर-कवियों-कथाकारों-लेखकों की जो परम्परा बहार पर आनेवाली थी उसके पायोनियर थे, इसलिए उनमें संगठन-क्षमता भी थी। जल्द ही उन्होंने भोपाल में अच्छा-खासा अशोक-मण्डल बना लिया था। इस पहले दौर में राजेश और उनके साथियों, दुष्यन्त कुमार और शरद जोशी से उनका शीत युद्ध चला। फिर 1975 में आपातकाल के दौरान और फिर उसके बाद भाजपा के सत्ता में आने पर जहां और लोग सांसत में पड़े, अशोक वाजपेयी हर तरह के जल में तैरने वाली मछली की तरह भले-चंगे रहे।

चूंकि जार्ज फरनान्डिस की पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’, जिसके सम्पादक कमलेश थे और उनके सहायकों में गिरिधर राठी और मंगलेश दबराल थे, आपातकाल में बन्द हो गयी तो अशोक जी ने मंगलेश को ‘पूर्वग्रह’ में सहायक के तौर पर कला-परिषद में बुला लिया था। भोपाल भवन की विराट योजना बनने में अभी काफी समय बाकी था और 1970 के बाद सत्ता के बदलते समीकरणों की परछाई साहित्य और कला के समीकरणों पर भी पड़ने लगी थी, जो आपातकाल के आते-आते और गहरी हो गयी।

पहले की परस्पर विरोधी धाराओं में प्रगतिशील लेखक संघ और ‘परिमलवादी’ -- ये दो धड़े थे। ‘परिमल’ के लोग मार्क्सवाद और कम्यूनिस्ट विचारधारा के विरोधी तो थे, लेकिन उनमें से बहुत-से लोहिया समर्थक थे और जो अज्ञेय की तरह कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम से जुड़े थे, वे भी राज्याश्रय विरोधी थे। 1970 के बाद जैसे-जैसे एक ओर लोहिया का आन्दोलन कमजोर पड़ा और नक्सलबाड़ी के प्रभाव में वामपंथ तीखा हुआ, सत्ताधारी वर्गों को अपने अलबमरदारों की ज़रूरत पड़ी। पहले दौर में श्रीकांत वर्मा और दूसरे दौर में 1974 के आस-पास कादम्बिनी सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी जैसे साहित्यकारों ने मोर्चा संभाला। लेकिन ये दोनों कांग्रेस समर्थक थे। सत्ताधारी वर्गों को ऐसे साहित्यकारों की जरूरत थी जो शासक वर्गों के पूरे स्पेक्ट्रम में (कान्ग्रेस से ले कर भा.ज.पा. तक) आसानी से घुल-मिल सकें और वाम-विरोध जारी रख सकें।

अफसर-साहित्यकारों के साथ यह बड़ी सुविधा थी। वे नौकरशाही की सारी खूबियों से लैस हो कर बड़ी आसानी से शासक वर्ग की संस्कृति की हिमायत करते रह सकते थे और जाहिरा तौर पर खुद को राजनीति से अलग-थलग और कला के पक्ष में पेश करते हुए ऐसे तमाम लोगों को गोलबन्द कर सकते थे, जो घोषित वाम राजनीति से किनारा करते थे। मंगलेश ‘जनयुग’ और ‘पेट्रियाट’ में काम करने के बाद उस दौर में ‘प्रतिपक्ष’ और जार्ज फरनान्डिस के धड़े की तरफ खिसक गया था, क्योंकि ‘पेट्रियाट’ ने विशेष रूप से संजय गांधी और आपातकाल के विरोध का झण्डा उठा रखा था, चाहे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ‘आपातकाल और हमारे कर्तव्य’ जैसी इन्दिरा समर्थक पुस्तिका छाप रही थी। अशोक वाजपेयी को भी यह अनुकूल लगता था कि मंगलेश को ‘पूर्वग्रह’ में बुला लिया जाय। सो, मंगलेश भोपाल में था।

चूंकि जैसा मैंने कहा उन दिनों भोपाल में अशोक वाजपेयी से राजेश जोशी, नरेन्द्र जैन, राजेन्द्र शर्मा जैसे नये कवियों और शरद जोशी जैसे पुराने साहित्यकारों की खटी हुई थी, इसलिए मंगलेश को दोस्ती निभाने और नौकरी बजाने में फूंक-फूंक कर कदम रखने पड़ रहे थे। यूं भी मंगलेश हमेशा ताकतवर लोगों के दायें ही रहने में अपनी खैर समझता रहा है। ‘प्रतिपक्ष’ के बन्द होने के बाद और ‘पूर्वग्रह’ में आने से पहले उसने कुछ समय तक ‘नई दुनिया’ जैसे वाम-विरोधी अख़बार की उपज, दक्षिणपन्थी विचारों के सम्पादक प्रभाष जोशी के साथ ‘आस-पास’ में काम किया था और ‘पूर्वग्रह’ के बाद कुछ वर्ष ‘अमृत प्रभात’ में बिता कर वह फिर प्रभाष जोशी के साथ ‘जनसत्ता’ में आ गया और वहाँ एक लम्बी पारी खेल कर ‘सहारा समय’ होता हुआ इन दिनों झारखण्ड के एक खदान-निगम की पत्रिका ‘पब्लिक एजेण्डा’ में है।

वैसे, एक बार जब मैं आलोक धन्वा के साथ सर्वेश्वर जी पर बात कर रहा था तो यह राय बनी थी कि कौन, कहां काम करता है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि वह वहां क्या भूमिका अदा करता है, इसकी अहमियत है। इसलिए मंगलेश से शिकायत इस बात की नहीं थी कि वह ‘पूर्वग्रह’ या कला-परिषद में था, बल्कि यह कि वह लगातार इस बात को तरजीह देता था कि अगर किसी व्यक्ति से उसकी मित्रता के कारण उसके पेशेवर सम्बन्धों पर कुछ आंच आने की सम्भावना हो तो वह दोस्ती को तर्क कर दे। इसकी एक मिसाल ‘इसलिए’ का प्रकाशन थी। मैं भोपाल में आम तौर पर मारवाड़ी रोड पर राजेश के घर ठहरता था। नरेन्द्र जैन और राजेन्द्र शर्मा का रोज़ का उठना-बैठना राजेश के साथ था। इन तीन तिलंगों के साथ मेरी खूब छनती। दूसरी तरफ अशोक वाजपेयी और उनके साथी-संगाती थे -- सोमदत्त, भगवत रावत, ध्रुव शुक्ल, आदि। मदन सोनी को आने में अभी देर थी। एक तीसरा मोर्चा -- या कहा जाय छोटे-छोटे मोर्चों का समूह -- शरद जोशी, शानी और दुष्यन्त कुमार का था। उन्हीं दिनों किसी समय त्रिलोचन जी मध्यप्रदेश ग्रन्थ अकादमी में आ गये थे। सो, भोपाल में खूब गहमा-गहमी थी।

लेकिन मंगलेश वहाँ कभी सुख-चैन का अनुभव नहीं कर पाया। हम उसे लाख समझाते कि देखो शानी मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद से निकलने वाली पत्रिका ‘साक्षात्कार’ के समपादक हैं और पूर्ण चन्द्र रथ उनका सह-सम्पादक। शानी वैसे तो बड़े ठीक-ठाक आदमी हैं, लेकिन बौस तो, मुहावरे में, चून कर भी बुरा होता है। तो भी रथ कभी उनके आतंक में नहीं जीता। बाहर तो कई बार वह शानी की आलोचना भी कर देता है। तुम अशोक वाजपेयी से क्यों दबे-दबे रहते हो? एक बार तो जब मैं और राजेश टहलते हुए दोपहर बाद कला-परिषद पहुंचे तो मंगलेश के साथ काफी तीखी बातें भी हुईं। लेकिन मंगलेश को हमारी बातें कभी समझ में न आतीं। कुछ तो उसकी फितरत ही ऐसी थी, दूसरे उन दिनों वह एक रूमानी चक्कर में भी मुब्तिला था, जो उसके दफ्तर के कर्ता-धर्ताओं को बहुत रास नहीं आ रहा था और अन्ततः उसे अशोक वाजपेयी के विरोध की तरफ ले गया। मेरा अपना मानना है कि अगर यह रूमानी चक्कर न होता और इस चक्कर के चलते अशोक वाजपेयी से खुली कलह न होती तो वह ‘पूर्वग्रह’, कला परिषद और भोपाल न छोड़ता।
(जारी)

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