Thursday, June 9, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की इकतीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३१



मित्रता की सदानीरा - १०


उज्जैन से मैं इन्दौर पहुंचा था। 1975-76 के इन्दौर पर बम्बई की छाप साफ-साफ महसूस होती थी। बाद में कवि सरोजकुमार ने बताया था कि इन्दौर को आम तौर पर ‘मिनी बाम्बे’ कहा भी जाता था। भोपाल में अगर पुराने नवाबी ठाठ और आलस के अवशेष थे, तो उज्जैन में धार्मिकता और संकीर्ण विचारों की अन्तर्धारा; इन दोनों के विपरीत इन्दौर में आधुनिकता थी। सतारा और कोल्हापुर का पुराना मराठीपन नहीं, बल्कि बम्बई और पूना का चुस्त लक़दक़पन।

सरोज कुमार उन दिनों राजवाड़ा में रहते थे जो अब ढा दिया गया है। उनका घर भी ऊपरी मंजिल पर था, एक पुरानी इमारत में, बड़े-बड़े कमरों वाला। घर में उनके पिताजी थे, बस। जहां तक मुझे याद पड़ता है, पूछने पर उन्होंने हल्के से संकेत किया था कि अपनी पत्नी से वे अलग थे। भरे शरीर और लम्बे क़द के, चौड़े चेहरे पर पतली-पतली मूंछों वाले व्यक्ति थे, बाल उनके पुराने शायरों की तरह लम्बे थे और चूंकि उनमें जरा भी घूंघर या ख़म नहीं था, वे उनके चेहरे के दोनों तरफ सीधे नीचे को लटके रहते। सरोज कुमार भी बड़ी गर्मजोशी से मिले थे, उनमें स्वभाविक गर्मजोशी और साफगोई के साथ हलका-सा रख-रखाव भी था। खुली खरी बात कहने से गुरेज न करते, लेकिन इस बात का खयाल रखते कि दूसरे का दिल न दुखे, ऐसे जरा-से अन्देशे पर खेद प्रकट कर देते। उन दिनों वे कालेज में पढ़ाते थे और बड़ी अनोखी किस्म की छन्दोबद्ध कविताएं लिखते थे। नीरज और कवि सम्मेलनों के मुरीद थे और बच्चन जी की "आयरी अंगना" पर मोहित। स्थानीय दैनिक "नई दुनिया" से उनका घना सम्बन्ध था और वे उसमें शायद रोजाना या हफ्तावार कविता का कालम भी लिखते थे। उन्हीं दिनों उनकी एक स्मारिका जैसी कविता-पुस्तिका छपी थी, जो उन्होंने मुझे दी थी। चित्रकला में भी सरोज जी की गहरी दिलचस्पी थी और उनकी कविता पुस्तक उनके मित्र जडि़या के चित्र भी छपे थे।

उन दिनों सरोज जी के पास एक स्कूटर हुआ करता था। उस पर उन्होंने मुझे इन्दौर घुमाया था, रेजिडेन्सी की सैर करायी थी और एक दिन अपने कालेज भी ले गये थे, जहां छात्रों से मुझे परिचित कराके मेरी कविताएं भी सुनी थीं।
चूंकि मुझे इन्दौर से बम्बई जाना था और तब इन्दौर से सीधे कोई गाड़ी इन्दौर नहीं जाती थी, इसलिए सरोज जी ने यह तजवीज़ की कि वे मुझे ‘नई दुनिया’ की उस वैन पर सवार करा देंगे, जो रात को अख़बार का पहला संस्करण ले कर खंडवा जाती थी। खंडवा से बम्बई जानेवाली बहुत-सी गाडि़यां मिलती थीं, सो मुझे बम्बई पहुंचने में आसानी हो जायेगी। यह तय करके सरोज जी ने मुझे रात के ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे उस वैन में बैठा दिया था और चालक को मुनासिब हिदायतें भी दे दी थीं।

यह शायद उसी यात्रा की बात है या शायद अगली यात्रा की कि सरोज जी ने एक दिन आ कर मुझसे पूछा कि मुझे किसी धार्मिक कर्मकाण्ड में भाग लेने से परहेज तो नहीं है। मैं कुछ समझा नहीं तो उन्होंने बताया कि उनके एक मित्र मिश्रा जी हैं, जो वास्तु शिल्पी हैं और एक नयी कालोनी में सरोज जी का नया मकान बनवा रहे हैं। मिश्रा जी श्राद्ध के मौके पर कुछ लोगों को खाना खिलाना चाहते हैं, सरोज जी को उन्होंने आमन्त्रित किया है, मुझे वहाँ जा कर भोजन करने में कोई ऐतराज तो नहीं? अगर हो तो फिर चूंकि वे वहाँ जा रहे थे वे मेरे लिए कोई बन्दोबस्त कर जायेंगे। मैंने सरोज जी से कहा कि धरम-करम में मेरा रत्ती भर विश्वास नहीं है, लेकिन मुझे उनके मित्र के यहाँ दोपहर का भोजन करने में कोई ऐतराज नहीं।

सो, हम अगले दिन मिश्रा जी के यहाँ पहुंचे। परम्परागत भोजन था पूरी-सब्जी-रायता, वगैरा। अन्त में मीठे के तौर पर खीर आयी। कढ़-कढ़ कर गुलाबी बने दूध की, मेवों-मसालों वाली खुशबूदार खीर। लेकिन मैं जाने क्यों तब तक खीर नहीं खाता था। सूजी का हलवा ज्ञान के यहाँ और सेवई की खीर अपनी बचपन की दोस्त रोली नारायण के यहाँ मैंने इतनी बार खायी थी कि इन दोनों नेमतों से अरुचि हो गयी थी। मगर खीर से अरुचि तो उसे खाये बिना ही हो गयी थी। इसके पीदे कोई तर्क, कोई पिछला अनुभव नहीं था। बस, खीर नहीं खाना था तो नहीं खाना था। सो, जब मिश्रा जी की पत्नी ने खीर ला कर रखी तो मैंने कटोरी सरका दी। लेकिन जब उन्होंने एकाध बार इसरार किया तो मैंने कहा जब इतने तजरूबे कर रहे हैं तो लाओ, एक बार खीर खा कर भी देखते हैं।

यों भी मेरे बुनियादी उसूलों में एक है कि हर चीज़ एक बार आज़मा कर देखो; तो मैंने कटोरी उठा ली थी। और सच कहूं कि वह खीर इतनी स्वाद थी कि उसके बाद से खीर को ले कर मेरी सारी हिचक दूर हो गयी। फिर मैंने कई बार खीर खायी और अब भी खाता हूं, लेकिन वह खीर जो मैंने सरोज जी के मित्र मिश्राजी के यहाँ खायी थी, वैसी खीर फिर मैंने कभी नहीं खायी। जब मैंने श्रीमती मिश्रा से पूछा कि इतनी स्वाद खीर उन्होंने कैसे बनायी तो उन्होंने बताया था कि बाकी चीजों के अलावा उन्होंने उसमें बेडेकर का खीर मसाला भी डाला था। आज तो हम लोग टेलिविजन पर एवरेस्ट की मम्मी के गालों के गड्ढे या फिर महाशय दी हट्टी यानी एम.डी.एच. मसालों वाले महाशय जी की मूंछें और मुसकान देखते हुए डिब्बाबंद मसालों की दुनिया से वाकिफ हो चुके हैं। पर 1975-76 में जब टीवी और टीवी पर आनेवाले विज्ञापनों का कहीं अता-पता न था, बेडेकर के मसाले शायद उन पहले-पहले उपक्रमों में से थे, जिन्होंने इस दुनिया की दहलीज पर कदम रखे थे। मैं तब तक यही जानता था कि मसाले घर पर बना कर ही इस्तेमाल किये जाते थे। बने-बनाये, तैयार-शुदा मसालों का इस्तेमाल और मार्केटिंग मेरे लिए नयी बात थी। इस सफर में मैं नृतत्वशास्त्र और भारतीय मूर्तिकला के बारे में ही नहीं, बल्कि और बहुत-सी बातों के बारे में जान रहा था।

मध्य प्रदेश की इस पहली यात्रा के दौरान ही ज्ञान को मैंने ‘माच्चू चिप्पू के शिखर’ के बारे में बताया था और उसने ‘पहल पुस्तिकाओं’ की योजना बना कर फैसला किया था कि पहली पुस्तिका के रूप में वह ‘माच्चू पिच्चू के शिखर’ को प्रकाशित करेगा और चूंकि इसके बाद से ‘पहल’ की छपाई उसने मेरे जिम्मे कर दी थी, सो पुस्तिका छपी और इसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। कुछ हलकों से, जो या तो कमलेश के पक्षधर थे या मेरे विरोधी, या दोनों के, आलोचना और मीन-मेख के स्वर सुनायी दिये, पर आम पाठकों और साहित्य प्रेमियों ने उसे हाथों-हाथ लिया था।
(जारी)

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