नीलाभ के लम्बे संस्मरण की इकतालीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - ४१
मित्रता की सदानीरा - २०
जर्मनी से लौट कर फिर वही क्रम चलने लगा। लेकिन फर्क इतना था कि मैं एक-एक दिन करके हिन्दुस्तान वापसी की तरफ सरक रहा था।
इन्हीं अन्तिम हफ्तों में एक दिन राज बिसारिया - जो तब तक आकाशवाणी के उपकेन्द्र निदेशक के पद को छोड़ कर बी.बी.सी. के कार्यक्रम सहायक बन कर आ गये थे -- और इतने वरिष्ठ होते हुए भी बी.बी.सी. के तर्क से वहाँ के कनिष्ठतम कार्यक्रम सहायक के भी नीचे थे -- मेरे पास आये और उन्होंने कहा कि मैं उनके लिए कुछ कविताएं रिकार्ड करा दूं। राज बिसारिया उन दिनों ‘सांस्कृतिक चर्चा’ प्रोड्यूस करते थे -- वही कार्यक्रम जिसकी बागडोर ‘आल इण्डिया रेडियो की सुनहरी आवाज़’ के खिताबयाफ्ता, जाने-माने प्रसारक आले हसन से 1980 में मैंने संभाली थी और दो साल तक प्रोड्यूस करने के बाद जिसे रमा पाण्डे को सौंपा गया था और फिर उसके बाद राज बिसारिया को।
राज बिसारिया गीत भी लिखा करते थे, जो उनके प्रसारणों जैसे ही मामूली और कोई प्रभाव न छोड़ने वाले थे। लम्बे अर्से तक आकाशवाणी की सरकारी नौकरी ने उन्हें काहिल बना दिया था और अगर शुरू में उनके भीतर कोई चिनगारी रही भी होगी तो बुझा दी थी। यों बड़े प्रेम से मिलते थे और बी.बी.सी. की ऊपरी बिरदराना भंगिमा के नीचे ईष्र्या-द्वेष की जो अन्तर्धारा बहती थी, उससे सर्वथा मुक्त थे।
मैं उनसे तो नहीं पर ‘सांस्कृतिक चर्चा’ को ले कर कैलाश से जरूर नाराज़ था। आले भाई के बाद जब मैंने उस कार्यक्रम को नये रूप में ढाला और वह पहले से ज़्यादा सुना जाने लगा तो एक दिन मुझे प्यारे शिवपुरी ने कहा कि वह कार्यक्रम मुझसे ले लिया जाने वाला है। मुझे हैरत भी हुई थी और बुरा भी लगा था। हैरत तो स्वाभाविक थी क्योंकि इसका कोई संकेत हवाओं नहीं था। बुरा इसलिए लगा था कि यह बात कैलाश को सबसे पहले मुझसे कहनी चाहिए थी। ऐसा न करके कैलाश ने वह बात किसी और से कही होगी और वहाँ से प्यारे तक पहुंची होगी।
प्यारे शिवपुरी, जिन्होंने देवानन्द की फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ से ले कर बी.बी.सी. के प्रसारक और ‘गार्डियन’ के फोटोग्राफर-पत्रकार तक कई पापड़ बेले थे, बी.बी.सी. के हलकों में पसन्द नहीं किये जाते थे। अक्सर लोग दबे स्वर में बड़े रहस्यमय ढंग से कुछ ड्रग-स्मगलिंग से उनके लिप्त होने की भी चर्चा करते। लेकिन चूंकि वे लिखते बहुत अच्छा थे और प्रसारक भी उम्दा थे, इसलिए मैंने उन्हें कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था। मेरी यह खुदमुख्तारी भी बी.बी.सी. के उन लोगों को पसन्द नहीं थी, जो अफसर को, सत्ता को, सदा दायें रखने में यकीन रखते थे।
दूसरा कारण यह था कि कुछ ऐसे लोगों से जिन्होंने बी.बी.सी. हिन्दी प्रसारण सेवाओं को वृन्दावन का विधवाश्रम समझ रखा था मैंने एकबारगी किनारा कर लिया था। बात यह थी कि रिटायर होने से पहले के आखिरी दो-चार वर्षों में आले भाई की शराबनोशी बहुत बढ़ गयी थी। खबरें तो वे जैसे-तैसे पढ़ देते, लेकिन ‘सांस्कृतिक चर्चा’ पर ढंग से सोच कर उसे नित नया करने की जहमत से कतराने लगे थे। कुछ तय-शुदा लोग थे, जिनसे वे साहित्य और चित्रकला आदि पर लिखवाते, कुछ पंक्तियों की भूमिका और लिंक लिखते और स्टूडियो में बियर की बोतल लिये पहुंच जाते। मैंने शुरू के छह महीनों तक -- जब तक कि प्रोग्राम पूरी तरह मुझे नहीं मिला -- आले भाई के साथ काफी बेगार की थी। ‘सांस्कृतिक चर्चा’ में नियमित योगदान करनेवालों में एक पृथ्वीराज नाम के सज्जन थे। पतले-छरहरे, सुन्दर-से कश्मीरी पण्डित, अक्सर नीली जीन्स और डेनिम ही की जैकेट पहने नजर आते, चित्रकला आदि पर लिखते थे, लेकिन एक तो कला-समीक्षा का उनका तरीका पश्चिम से प्रभावित था -- वैसी ही भाषा, अक्सर अनुवाद की गयी टिप्पणियां -- दूसरे उनका तलफ़्फ़ुज़ भी कश्मीरी रंगत लिये हुए था। मैंने धीरे-धीरे उन्हें सिर्फ आपात काल के लिए रख छोड़ा था और वे हालांकि हम अक्सर मिलते और चूंकि हम दोनों फ्लश खेलने के शौकीन थे लिहाजा शाम सात-आठ बजे जुटनेवाली फ्लश की फड़ों में शामिल भी होते, पर वे मुझसे मन-ही-मन खिंच गये थे और उन्होंने भी कैलाश से मेरी शिकायत की थी।
लेकिन मुझे न पृथ्वीराज से गरज थी, न कैलाश से। मैं अपनी नज़र अपने कार्यक्रम पर रखता। और भी कई वजहें थीं, जिनसे मैं कैलाश के अन्दरूनी दायरे में नहीं था।
मगर जो सबसे बड़ी वजह थी, वह थी लन्दन में ‘भारत उत्सव’ का आयोजन। इन्दिरा गांधी ने बड़े पैमाने पर अपनी वापसी के बाद अपनी छवि सुधारने के लिए इन उत्सवों की योजना बनायी थी और यह महज़ सांस्कृतिक कार्यक्रम ही नहीं था, इसका राजनयिक राजनैतिक महत्व और मकसद भी था। जाहिर है, ऐसे मौके पर बी.बी.सी. और ‘सांस्कृतिक चर्चा’ की एक अहमियत थी। पुपुल जयकर इस उत्सव को सफल बनाने के लिए लन्दन में खेमा गाड़े हुए थीं और मैंने इस उत्सव में साहित्य और साहित्यकारों की अनुपस्थिति पर अपने दफ्तर में आलोचना भी की थी और भारतीय उच्चायोग की एक पार्टी में पुपुल जयकर से अपनी शिकायत भी दर्ज की थी जिसे उन्होंने अपनी मरी हुई मछलियों सरीखी बड़ी-बड़ी भावहीन आंखें मुझ पर गड़ाये हुए सुना था। कैलाश का इरादा ‘भारत उत्सव’ को ज़्यादा-से-ज़्यादा अनुकूल तवज्जो दे कर अपना जनसम्पर्क दुरुस्त करना था और इस काम में प्रकट ही मेरे जैसा आदमी सहायक न हो सकता था। तब उसने यह कार्यक्रम मुझसे ले कर रमा पाण्डे को देने का फैसला किया, जो इला अरुण की बहन थी पर इला की सहोदरा होने के बावजूद उसमें इला की-सी प्रतिभा न थी। उलटे वह इला की होड़ में जरूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी थी। तलफ़्फ़ुज़ उसका ऐसा था कि वह "शासन" को "साशन" कहती थी। गुण बस एक था कि दिल की अच्छी थी, झगड़ा हो जाने पर अचला की तरह बिस घोलने की बजाय तुरन्त आ कर सम्बन्ध सुधार लेती। परनिन्दा प्रवीण थी, रसीली बातें करती और थोड़ी-थोड़ी मुँहफट भी थी। अकसर लोकगीत सुनाती जिनमें से एक मुझे आज तक याद है :
सांझ भई दिन अथवन लागा
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार
रात भई चन्दा चमकानो
राजा छतिया लगायें चुमकार चुमकार
भोर भई चिड़ियां चहचानीं
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार
जाहिर है, कैलाश की महत्वाकांक्षाओं के लिए रमा की महत्वाकांक्षाएं पूरक ही सिद्ध होतीं, सो मेरे हिन्दुस्तान से लौटने के बाद ‘सांस्कृतिक चर्चा’ अचानक मुझसे ले कर उसे दे दिया गया और मुझे सबसे मुश्किल कार्यक्रम ‘आजकल’ के साथ सबसे महत्वहीन माना जाने वाला कार्यक्रम ‘बाल संघ’ थमा दिया गया। उसके बाद मैंने ‘सांस्कृतिक चर्चा’ में कभी हिस्सा नहीं लिया और रमा ने भी होशियारी बरतते हुए मुझे उससे दूर-दूर ही रखा। यही हाल राज बिसारिया का भी रहा।
अब चूंकि मैं विदा हो रहा था, चुनांचे सबका प्रेम अचानक जाग उठा था। मैंने राज बिसारिया से कहा कि बी.बी.सी. से मुझे कविता के लिए पैसे नहीं मिलते, जिस काम के लिए मिलते हैं, वह करता हूं। और यूं भी मेरा उसूल है कि मैं यथासंभव अपनी रचनाएं बी.बी.सी. से प्रसारित न करूं। जब राज बिसारिया ने बहुत इसरार किया तो मैंने कहा कि मैं दो शर्तों पर अपनी कविताएं रिकार्ड कराऊंगा। पहली यह कि कार्यक्रम की रूपरेखा वे नहीं, मैं तय करूंगा। दूसरे यह कि कविताएं मेरे जाने के बाद ही प्रसारित की जायें। बिसारिया जी मान गये और मैंने छोटे-छोटे वक्तव्य देते हुए आध घण्टे का कार्यक्रम रिकार्ड करा दिया। लेकिन बिसारिया जी को कहां सबर! उन्होंने दस मिनट का टुकड़ा अगले ही सप्ताह प्रसारित कर दिया और मेरे पूछने पर खीसें निपोर दीं।
बी.बी.सी. के प्रशासनिक अंग में एक प्रभाग श्रोताओं के पत्रों का भी था, जिनसे कार्यक्रमों के बारे में लोगों की राय का पता चलता रहता था। तीन हफ्ते बाद उस प्रभाग की सुधा अग्रवाल ने मुझे चालीस-पैंतालीस चिट्ठियों का एक पुलिन्दा दिया जो उस प्रसारण की प्रतिक्रिया में लोगों ने भेजी थीं। वाचस्पति उपाध्याय को छोड़कर जो मेरे पुराने मित्र और कवि-आलोचक थे, शेष सभी पत्र आम श्रोताओं के थे। उनकी प्रतिक्रियाएं पढ़कर मेरा विश्वास और भी पक्का हो गया कि मैंने लौटने का फैसला करके कोई गलती नहीं की है कि मुझे अपना ध्यान अपने लिखने में लगाना चाहिए।
बाकी बचे, डेढ़ेक महीने में और कोई यादगार घटना नहीं हुई और मार्च 1984 में मैं लन्दन की चार साल की जलावतनी के बाद हिन्दुस्तान लौट आया जहां कुछ नयी समस्याएं और पुराने मित्र मेरा इन्तज़ार कर रहे थे।
(जारी)
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