Thursday, June 2, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चौबीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - २४



मित्रता की सदानीरा - ३


ज़ाहिर है, इन बदली हुई स्थितियों ने ज्ञान के सामने जरूर उलझनें खड़ी की होंगी। इसलिए भी कि वह दूधनाथ, रवीन्द्र कालिया और काशीनाथ की तुलना में उस निहिलिस्ट सामाजिक सरोकार से कहीं अधिक गहराई में जुड़ा हुआ था। वह कोई कुर्ता नहीं था जिसे वह एकबारगी उतार फेंकता और दूसरा पहन लेता। इसीलिए दूधनाथ 1970 के बाद कुछ कहानियाँ लिख कर एक लम्बी ख़ामोशी में चला गया और धीरे-धीरे ख़ुद को सायास बदल कर मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी और जनवादी लेखक संघ में सक्रिय हुआ। इस दौरान दूधनाथ ने लगातार अपनी पहले की कविताओं में फेर-बदल करके उन्हें एक जनवादी रूप देने की भी कोशिश की। यह बुरा न होता अगर यह किसी गहरे आन्तरिक परिवर्तन के अंकुआने के सबब हुआ होता। लेकिन जब लम्बी ख़ामोशी के बाद दूधनाथ बाहर आया तो ‘धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे’ और ‘नमो अन्धकारम’ जैसी कहानियों से उसने यही साबित किया कि सारी मार्क्सवादी उछल-कूछ के बाद वह ‘रीछ’ और ‘सुखान्त’ वाला वही खांटी दूधनाथ हे। और पहले की कविताओं में की गयी फेरबदल के पीछे तात्कालिकता का ही तक़ाज़ा था। रवीन्द्र कालिया कांग्रेस के नज़दीक होता चला गया और ‘काला रजिस्टर’ से पहले की-सी सतही जुमलेबाजी से भरी कहानियाँ लिखने लगा। काशीनाथ सिंह ने ‘अपने लोग’ के बाद हालांकि ‘सुधीर घोषाल’ लिखी, पर नक्सलवाद की लपट उसकी बरदाश्त के बाहर थी, सो वह प्रगतिशील लेखक संघ की तरफ झुका और ऊपरी सामाजिक सरोकार से भरी गुडी-गुडी कहानियाँ लिखने लगा।

यह जगह इन कहानीकारों का -- जो खुद को साढ़े चार यार कहते-कहाते थे -- या उनकी कहानियों का विशद विश्लेषण करने की नहीं है, तो भी इस सबका जिक्र सरसरी तौर पर मैंने इसलिए किया, क्योंकि इसी सन्दर्भ में ज्ञान की रचनाशीलता, उसकी आगामी रचनात्मक गतिविधियों और हमारे आपसी रिश्तों को देखा जा सकता है।

ज्ञान से दोस्ती के तीसरे दौर की सूरत और सीरत तय करने में दूसरा बाहरी कारण वह तब्दीली थी जो धीरे-धीरे प्रकाशन की दुनिया में घटित हो रही थी और आज अपनी बहार पर नज़र आती है।

1968 में मेरी मां के मौसेरे भाई जीतेन्द्र कुमार मल्होत्रा उर्फ जीत जिन्हें मेरी देखा-देखी सभी जीत मामा कहते थे, ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ की नौकरी छोड़ कर इलाहाबाद लौट आये और उन्होंने ‘रचना प्रकाशन’ के नाम से पुस्तकें प्रकाशित करना शुरू कर दिया।

जीत मामा बरसों हिन्दी प्रकाशन जगत की अनोखी और चमत्कारी शख़्सियत, श्री ओंप्रकाश की छत्र-छाया में काम कर चुके थे -- पहले ‘राजकमल प्रकाशन’ में और फिर जब ओंप्रकाश जी ने ‘राजकमल’ से ताल्लुक तोड़ कर ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ खोला तो वहाँ जीत मामा ने बरसों एजेंटी की थी और वे किताबें बेचने की कला में माहिर थे। लेकिन यही वह दौर था जब हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय के पुराने युग का अवसान हो रहा था और एक नया दौर शुरू हो रहा था, जो आगे चल कर इस व्यवसाय को जाने कैसी अंधेरी, कीचड़-भरी गलियों में ले जा कर फंसा देनेवाला था। जीत मामा इस दौर के हिरावल दस्ते के अगुआ थे कहा जाये कि पायोनियरों में थे।

उन्होंने ओंप्रकाश जी के साथ काम करते हुए किताबें बेचने का हुनर जो ज़रूर सीखा था, पर अच्छी-बुरी किताबों में फर्क करने को परखने और उनकी तमीज़ नहीं हासिल की थीं। उनके लिए किताबें सिर्फ ‘माल’ थीं। वे पैसे ले कर शोध-प्रबंध छापते थे और फिर हर तरह के ताल-तिकड़म से उन्हें बेचते थे। यह वही दौर था जब बड़े और प्रतिष्ठित प्रकाशकों के विक्रय-प्रतिनिधि नौकरियां छोड़ कर अपने निजी प्रकाशन खोलने लगे थे। वैसे ही जैसे कुछ बरस बाद सांसदों और विधायकों के बाहुबली खुद सांसद और विधायक बनने लगे। राजनीति के अपराधीकरण की तर्ज पर प्रकाशन व्यवसाय के भी अपराधीकरण की शुरूआत हो रही थी। देखते-ही-देखते ‘रचना प्रकाशन’ चल निकला।

छत्तीसगढ़ उन दिनों मध्य प्रदेश ही का हिस्सा था और मध्य प्रदेश -- राजकमल प्रकाशन के दिनों ही से -- जीत मामा की कर्मभूमि। सो, वहाँ उनकी खासी पैठ हो गयी। हिन्दी फिल्म की लम्बी पटकथा के उप-कथानकों की तरह जीत मामा की कथा के भी दो पहलू थे। पहला यह कि उन्हें अपनी किताबों को छपाने के लिए प्रेस की ज़रूरत थी और चूंकि ‘हिन्दी भवन’ वाले नारंग जी के साथ (जिनके प्रेस को खरीद कर कालिया ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ शुरू किया था) कालिया के सम्बन्धों में खटास आ गयी थी, कालिया को भी ऐसे तेज़-तर्रार प्रकाशक की तलाश थी, जो किताबें छपवाये और उसके कर्ज को पटाने में उसकी सहायता करे।

दूसरा पहलू यह था कि राजनीति से जुड़े सभी अपराधियों के मन में सामाजिक-स्वीकृति के लिए एक ललक स्वाभाविक रूप से मौजूद रहती है। यही हाल एजेंट से प्रकाशक बने लोगों का था। पैसे ले कर शोध-प्रबंध छापने और उन्हें ‘तेल तमा जिसको मिले तुरत नरम हो जाये’ की सूक्ति पर अमल करके बेचने से इन प्रकाशकों को धन भले ही मिल जाता था, लेकिन प्रतिष्ठा तो स्तरीय पुस्तकों की मुहताज थी। सो जीत मामा को एक अदद साहित्यिक सलाहकार की भी जरूरत थी, जो स्तरीय पुस्तकें प्रकाशित करने में उनकी रहनुमाई और मदद करे। वे ‘राजकमल प्रकाशन’ से ओंप्रकाश जी को अपदस्थ करने वाली अज्ञात प्रकाशिका श्रीमती शीला संधू को नामवर जी से मदद लेते देख आये थे और जानते थे कि साहित्यिक सलाहकार कितना मददगार साबित हो सकता है। लिहाजा जीत मामा और रवीन्द्र कालिया की पट गयी। मुद्रक के साथ जीत मामा को एक मुफ्त का साहित्यिक सलाहकार मिल गया और रवीन्द्र कालिया को ऐसा प्रकाशक, जो उसकी किताबें तो छापे ही, उसके मित्र-परिचितों की भी किताबें प्रकाशित करके एक साहित्यिक साम्राज्य जमाने में उसकी सहायता करे।

वैसे भी, जीत मामा और कालिया में एक बात समान थी। दोनों ही अनस्क्रूपलस थे, अपने उद्देश्य को हासिल करने में किसी भी किस्म की नैतिकता से परहेज करने वाले। जीत मामा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि किताब कैसी है, बस पन्ने काले होने चाहिएं, इसी तरह कालिया भी हर तरह की अच्छी-बुरी किताब ‘रचना प्रकाशन’ के लिए जुटाने में किसी तरह के परहेज से काम नहीं लेता था। अपनी और ममता की किताबों के अलावा अपने मित्रों -- ज्ञान, दूधनाथ, काशीनाथ, महेन्द्र भल्ला, सुदर्शन चोपड़ा और गोविन्द मिश्र -- की किताबें तो उसने जीत मामा के लिए जुटायीं ही, साथ ही उसने दिलीप कुमार के दर्जी मदन गौड़ और पंजाबी के दूसरे दर्जे के उपन्यासकार मोटर पार्ट विक्रेता हरनाम दास सहराई के उपन्यास भी प्रकाशित करने के लिए जीत मामा को जुटा दिये। जहां तक मुझे याद है, मदन गौड़ ने अपने उपन्यास को प्रकाशित कराने के लिए पैसे दिये थे तो सहराई ने अनुवाद के लिए। अनुवाद कालिया ने किया। इन्हीं के साथ कापीराइट रहित उर्दू उपन्यासों का भी जुगाड़ किया गया, जिन्हें अनुवाद के लिए कालिया ने सतीश जमाली को पकड़ा।

इस तरह ‘आधार’ के एक अंक का सम्पादन ज्ञान से कराने से जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह ‘रचना प्रकाशन’ से ज्ञान के कहानी-संग्रह को छपाने और मज़बूत हो गया। मोहन राकेश और फिर धर्मवीर भारती की शागिर्दीं से कालिया ने और कुछ सीखा हो या न सीखा हो, गुटबाजी और गिरोहबन्दी के गुर और छल-छन्द के तौर-तरीके ज़रूर सीख लिये थे, जिन्हें उसने इलाहाबाद में आजमाना शुरू कर दिया। ‘इलाहाबाद प्रेस’ उन दिनों एक अड्डा बन गया था, जहां रवीन्द्र कालिया अपना दरबार लगाता था और साहित्यिक मैकियावेली बना, शतरंज की बिसात पर मोहरे बैठाता था।
(जारी)

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