Monday, August 6, 2012


आज खुशी का दिन है. एक मंजिल हासिल की गयी है, सीमा आज़ाद और विश्वविजय को जमानत मिल गयी है, पर अभी लम्बा रास्ता तय करना बाकी है. न्याय की लड़ाई के बहुत-से मोर्चे हैं, बहुत-से मुकाम. हमारी जानी-मानी साथी और पत्रकार शीरीं ने यह लेख हमें भेजा है. इसे हम यहां दे रहे हैं इसमें अपनी आवाज भी मिलाते हुए

सीमा आज़ाद व विश्वविजय को मिली ज़मानत का निहितार्थ

आखिरकार सीमा आज़ाद और विश्वविजय को इलाहाबाद हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गयी। सीमा और विश्वविजय के शुभचिन्तकों ने राहत की सांस ली। पिछले दो साल छः महीने उनकी जि़न्दगी में एक पीड़ादायी अध्याय के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गए। पर सम्भवतः सीमा और विश्वविजय अन्याय की इस भट्टी में तप कर और इस्पाती बन गए होंगे। उम्मीद है कि आने वाले समय में वे जनता की लड़ाई में और धारदार तरीके से शरीक होंगे।
सीमा और विश्वविजय को जमानत अनायास ही नहीं मिल गयी है। इसके पीछे उस न्यायपसंद जनता की ताकत निहित है जो सीमा और विश्व के लिए उनको उम्रकैद की सज़ा सुनाए जाने के बाद से ही उनकी रिहाई के लिए लड़ रही थी। जिस दिन से निचली अदालत ने सीमा व विश्वविजय को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी थी, उसी दिन से देश भर के तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और ढेर सारी न्यायपसंद जनता इस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलन्द कर रहे थे। तमाम सारे तरक्कीपसंद ब्लागांे ने उनकी रिहाई के लिए एक मुहिम छेड़ रखी थी। सीमा और विश्वविजय के पक्ष में नेट के आभासी संसार पर भी एक मुहिम सी छिड़ी हुयी थी। ऐसे में हाईकोर्ट का यह फैसला इन तमाम लोगों की जीत है। सम्भव है चिदम्बरम की गृहमन्त्रालय से विदाई भी इस रिहाई के लिए जिम्मेदार एक कारक हो।
लेकिन सीमा व विश्वविजय के ज़मानत से न्याय-अन्याय की परिभाषा नहीं बदल जाती। यह लड़ाई यहां आकर समाप्त नहीं हो जाती। लड़ाई अभी बहुत लम्बी है। अभी भी देश के तमाम जेलों में हज़ारों की संख्या में राजनीतिक बन्दी हैं। जो धारा निचली अदालत द्वारा सीमा-विश्वविजय को आजीवन कैद का फैसला सुनाए जाने के बाद से बही थी उसका रुख अब इन तमाम राजनीतिक बन्दियों को छुड़वाने की दिशा में मुड़ जाना चाहिए।
सीमा व विश्वविजय की रिहाई का एक मायने यह भी है कि अब मसला माओवादी होने या न होने का नहीं है। मसला है, सही और गलत का। आज बुद्धिजीवियों और समाज का एक तबका अपना पक्ष तय करने लगा है। सरकार को अगर लगता है कि न्याय के पक्ष में खड़ा होना माओवाद है, हर तरह के अन्याय का प्रतिकार करना माओवाद है, अगर पत्रिका निकालना माओवाद है, अगर इस देश के जल, जंगल, ज़मीन पर जनता के कब्जे की बात करना माओवाद है, अगर हक-हुकूक की बात करना माओवाद है, अगर विस्थापन के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर भूमि के बंटवारे की मांग करना माओवाद है, अगर मंहगाई के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर ग़रीबी के खिलाफ संघर्ष करना माओवाद है, अगर सबको शिक्षा की मांग करना माओवाद है, अगर बेरोजगारी के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर छात्रसंघ की बहाली की मांग करना माओवाद है, अगर किसानों की आत्महत्या के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर मजदूरों के संघर्षों में शामिल होना माओवाद है, अगर कश्मीर, उत्तरपूर्व, बंगाल, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि की संघर्षरत जनता का पक्ष लेना माओवाद है तो ज़रूरी है माओवाद को पब्लिक बहस का एक मुद्दा बनाया जाए और उस पर खुल कर चर्चा की जाए। अगर मसला उपरोक्त सवालों पर केन्द्रित है तो कहीं न कहीं इस देश की 80 प्रतिशत जनता माओवाद की ज़द में आ जाती है।
सरकार अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए माओवाद को देश का नम्बर एक खतरा बताते हुए तमाम संघर्षाें ेमें शिरकत कर रहे लोगों का मुंह बन्द करने की मंशा रखती है। लेकिन इतिहास गवाह है कि जनता की आवाज़ को कभी भी कोई भी सरकार फौजी बूटों से नहीं कुचल पायी है। जनता की ताकत के सामने सरकार हमेशा गश खाती रहती है। उसे हमेशा अपने अपदस्थ होने का खतरा बना रहता है।
ऐसे में सीमा और विश्वविजय की ज़मानत का एक अर्थ यह भी है कि जिस माओवाद से सरकार इतना खौफ खाए हुए है उसे सिर्फ सरकारी नजरिए से और कारपोरेट मीडिया के नजरिए से न देखा जाए। ऐसे में इस आन्दोलन को ज्यादा से ज्यादा समझने, और उस पर चौतरफा बहस करने की ज़रूरत है। सीमा व विश्वविजय की क़ैद और उनको मिली ज़मानत का सम्भवतः यही निहितार्थ है।

शीरीं
6.8.12

Sunday, July 1, 2012

क्या न्याय की लड़ाई का भी वर्गीय पहलू है ?






8 जून को शाम हो चुकी थी जब इलाहाबाद से लेखिका नीलम शंकर ने एस.एम.एस पर वह बुरी ख़बर दी थी कि सीमा आज़ाद और विश्वविजय को इलाहाबाद में निचली अदालत ने उमर क़ैद और जुरमानों की सज़ा सुनाई है. तब से अब तक बाईस-पचीस दिन बीत चुके हैं, मानवाधिकार संस्था पी.यू.सी.एल. और अन्य कई संगठन हरकत में आ चुके हैं. दिल्ली में बैठकें हुई हैं, इलाहाबाद में बैठकें जारी हैं, रणनीति विचारी जा रही है, इरादे खंगाले जा रहे हैं, सलाहों और एकजुटता के संदेसों की झड़ी लगी हुई है, जो लोग अब तक ख़ामोशी से इन्तज़ार कर रहे थे वे आन्दोलित हो चुके हैं, पूरी उम्मीद है कि हम इस बार भी संगठित हो कर राज्य शक्ति का मुक़ाबला करेंगे और सीमा आज़ाद और विश्वविजय को रिहा कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे.

लेकिन दोस्तो, इस मुक़ाम पर जब मैं थोड़ा रुक कर सोचता हूं तो मन में कुछ सवाल उठते हैं. पहला सवाल तो यह है कि क्या सीमा आज़ाद और विश्वविजय की रिहाई के बाद हम अपने संघर्ष कि इति मान लेंगे ? हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भले ही प्रशान्त राही और विनायक सेन जैसे लोग रिहा होने में कामयाब हो गये हों, अभी ढेरों बन्दी कमोबेश उन्हीं धाराओं में क़ैद हैं जो सीमा और विश्वविजय पर लगायी गयी थीं. वे अभी अनाम हैं. क्या हम तब चेतेंगे जब उन्हें भी ऐसी ही कोई सज़ा सुनायी जायेगी जो सीमा आज़ाद और विश्वविजय को सुनायी गयी है.  क्या तभी हमें उनके नामों का भी पता चल पायेगा ? क्या हम उस समय फिर एक बार हलचल से भर उठेंगे और भाषणों, तजवीज़ों, एकजुटता के संदेसों, राज सत्ता के प्रति कोसनों की झड़ी लगायेंगे ?

दूसरा सवाल जो इसी पहले सवाल से जुड़ा है, वह यह है कि क्या न्याय, समता, मानवाधिकारों की लड़ाई, हिन्दुस्तान को दमन और शोषण से मुक्त कराने की लड़ाई, का कोई वर्गीय पहलू भी है ? क्या जब हम सोचते हैं कि कौन-कौन राज सत्ता के निशाने पर है और किस-किस के लिए हमें आवाज़ उठानी चाहिये तो हम अपने समाज की तरह दो हिस्सों में बंट जाते हैं ? एक हिस्सा विनायक सेन और अरुन्धती राय को ले कर आन्दोलित हो उठता है जबकि दूसरे सामान्य वर्ग में आने वाले सीमा आज़ाद और विश्वविजय जैसे लोग तब तक उपेक्षित रहते हैं जब तक कि राज सत्ता उन्हें अपनी ओर से सज़ा सुना कर सारे मानवीय अधिकारों से वंचित न कर दे ? क्या इन सभी लोगों को यह नहीं बताना चाहिये कि वह कौन सी अड़चन थी जिसकी वजह से वे चुप बैठे थे ?

दोस्तो, यह सवाल इधर बहुत शिद्दत से मुझे परेशान करता रहा है. कारण यह है कि 6 फ़रवरी 2010 से ले कर 8 जून 2012 तक -- इन दो बरसों के दौरान हम सभी कमोबेश ख़ामोश और निष्क्रिय बैठे रहे हैं. बीच-बीच में सीमा आज़ाद और विश्वविजय के बारे में और वह भी ख़ासकर हिन्दी दैनिक "जनसत्ता" में कुछ ख़बरें ज़रूर प्रकाशित हुईं; मासिक पत्रिका "समकालीन तीसरी दुनिया" ने भी कुछ लेख-टिप्पणियां प्रकाशित कीं लेकिन बाक़ी जगह सन्नाटा छाया रहा. पी.यू.सी.एल. जो इस मुद्दे पर अपनी ही इलाहाबाद इकाई की संगठन सचिव के पक्ष में एक देश-व्यापी आन्दोलन छेड़ सकता था चुप बैठा रहा या सिर्फ़ क़ानूनी लड़ाई लड़ता रहा. बाक़ी बहुत-से संगठन जो अचानक सक्रिय हो उठे हैं, हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे.

लेकिन आप देखिये कि विनायक सेन वाले मामले पर एक हंगामा बरपा हो गया था. बयानों की झड़ी लग गयी थी. अपर्णा सेन और शर्मिला टैगोर जैसी अभिनेत्रियां ही नहीं, हमारी जुझारू लेखिका अरुन्धती राय भी मैदान में कूद पड़ी थीं. यह बात दीगर है कि छूटने के बाद सबसे पहला काम "सीमा बहन को छुड़ाने" का घोषित करने वाले विनायक सेन सीधे मोनटेक सिंह आहलूवालिया और उनके योजना आयोग से जा जुड़े. सीमा और विश्वविजय जेल में सड़ते रहे और अभी तक सड़ रहे हैं. 

इन पंक्तियों के लेखक ने दो बरस के इस अरसे में कम नहीं लगभग  बारह-पन्द्रह बार अरुन्धती राय से आग्रह किया -- कभी फ़ोन पर और कभी ईमेल द्वारा कि वे सीमा के मामले को उठायें. पर वे देश-विदेश घूमती रहीं, उन्होंने किसी भी  प्रेस सम्मेलन में या टिप्पणी में इस की चर्चा करना गवारा नहीं किया. ज़ाहिर है, उनकी तरफ़ हमारी निगाहें इसलिए उठी थीं क्योंकि उन्होंने -- अगर अपने मित्र अजय सिंह के शब्दों में कहूं तो -- "हमारी अपेक्षाएं जगायी थीं." इसके साथ ही मैंने कम-से-कम पांच-छै बार गौतम नौलखा से भी इस मामले को ले कर बात की. लेकिन वे कश्मीर जाने का वक़्त तो निकाल पाये लेकिन सीमा आज़ाद का ज़िक्र करने का नहीं. यह बात मैं इसलिए ज़ोर दे कर कह रहा हूं क्योंकि अरुन्धती राय अब केवल एक व्यक्ति नहीं रह गयी हैं, वे लगभग एक संगठन का स्वरूप ग्रहण कर चुकी हैं और गौतम नौलखा तो बाज़ाब्ता एक संगठन से जुड़े हैं और जिस तरह की लड़ाई की मांग सीमा का मामला करता था वह संगठित हो कर ही लड़ी जा सकती है.

क्या यह इसलिए होता है कि न्याय, समता और मानवाधिकारों की लड़ाई को वर्गीय नज़रों से देखा जाने लगा है. बड़े लोगों की गिरफ़्तारी और सज़ाएं तत्काल हलचल पैदा करती हैं, जबकि उसी लड़ाई को लड़ने वाले साधनहीन लोग गुमनामी में डूबे रहते हैं ? राजनीति में अगर-मगर का खेल नहीं होता पर मन करता है इस अटकल पर ग़ौर करने को कि पिछले दो वर्षों के दौरान अगर विनायक सेन और अरुन्धती राय जैसे लोगों के मामलों पर आन्दोलित होने के साथ-साथ हम ने सीमा आज़ाद और विश्वविजय के मामले पर भी आवाज़ बुलन्द की होती तो शायद राज सत्ता यह सज़ा देने से पहले दस बार सोचती और हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से सीमा अज़ाद और विश्वविजय की अर्ज़ियां यों लौटायी न जातीं. क्योंकि यह बात अब स्पष्ट है कि यह सज़ा इसलिए दी या ऊपर से दबाव डाल कर दिलवायी गयी है क्योंकि हमारे गृह मन्त्री और गृह मन्त्रालय एक नज़ीर क़ायम करना चाहते हैं, लोगों को बताना चाहते हैं कि राज सत्ता का विरोध करने पर आप के साथ भी क्या या क्या नहीं हो सकता. 

बहरहाल, ख़ुशी की बात है कि हमारी साथी अरुन्धती राय ने अपने अत्यन्त व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर जुलाई के पहले हफ़्ते में यानी इस सज़ा के घोषित होने के महीने भर बाद प्रेस सम्मेलन को सम्बोधित करना स्वीकार कर लिया है और यह भी खबरें हैं कि वे लखनऊ में भी एक प्रेस सम्मेलन को सम्बोधित करेंगी. अगर ऐसा होता है तो यकीनन लड़ाई को बल मिलेगा. अंगेज़ी की कहावत के अनुसार हमें हर छोटे-से-छोटे और हर बड़े-से-बड़े अनुग्रह के लिए शुक्रगुज़ार होना चाहिये.

लेकिन साथ ही अब वक़्त आ गया है कि हम एक बार फिर बैठ कर सोचें कि हमें रुक-रुक कर हरकतज़दा होने की बजाय निरन्तर इस मुहिम को जारी रखना है जब तक कि राज सत्ता का विरोध करने वालों को इस तरह क़ैदें और सज़ाएं दी जाती रहती हैं. और जो वर्ग-भेद धीरे-धीरे हमारी लड़ाई में रेंगता हुआ या रिसता हुआ चला आया है, उसे दूर करें.

१ जुलाई २०१२

Saturday, June 30, 2012

अदालती आतंकवाद


डा. शिवमंगल सिद्धांतकर न सिर्फ़ प्रतिबद्ध कवि हैं बल्कि शब्द को कर्म में रूपान्तरित करने वाले संस्कृतिकर्मी भी. सीमा आज़ाद और विश्वविजय के पक्ष में आवाज़ बुलन्द करने वालों में वे अग्रणी हैं. यहां उनकी ताज़ा टिप्पणी दी जा रही है जो आपातकाल विरोधी दिवस 26 जून को जारी की गयी थी

अदालती आतंकवाद

कोई एक दल या संगठन या व्यक्ति अन्यायपूर्ण सरकार और सत्ता के खिलाफ यदि संघर्ष छेड़ता है तो वह संघर्ष देश और दुनिया भर में चल रहे संघर्षों का एक हिस्सा होता है और जिस दल, संगठन या व्यक्ति ने संघर्ष छेड़ा होता है वह किसी एक दल या संगठन या व्यक्ति का संघर्ष नहीं रह जाता बल्कि इस प्रकार के सभी तत्त्वों का संघर्ष बन जाता है। सत्ता विरोधी किसी दल या संगठन या व्यक्ति को यदि प्रतिबंधित किया जाता है तो वह इस तरह के अन्य तत्त्वों पर भी प्रतिबंध समझ लिया जाता है। ऐसी हालत में प्रतिरोधकारी और विद्रोहकारी एकता जरूरी हो जाती है। इसी आधार पर हमारा यह कार्यभार बन जाता है कि हम सीमा आजाद और विश्व विजय के आजीवन कारावास को खारिज कराने के लिए कानूनी रास्ते तो अपनायंे ही, आन्दोलन के रास्ते पर भी बढंे़, जो स्थानीय राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय धरातल पर संभव किया जा सके।
अंगे्रजी राज से अब तक राज्य विरोधी  क्रांतिकारी शक्तियों की अदालती हत्या का एक लंबा सिलसिला रहा है और आजीवन कारावास से भी क्रांतिकारियों को गुजरना पड़ा है जिसके विस्तार में जाने की बजाय हमारा यह मानना है कि सीमा आजाद और विश्व विजय को आजीवन कारावास दिया जाना अदालती आतंकवाद है। इस अदालती आतंकवाद के खिलाफ राज्य बंदी रिहाई अभियान चलाना जरूरी तो है लेकिन बदले हुए समय में इस रिहाई अभियान में मौजूदा राज्य सत्ता और सरकार के विरोधी राजनीतिक दलों का एकजुट होकर संघर्ष चलाना जरूरी हो गया है; क्योंकि घोषित आपाकाल से मौजूदा अघोषित आपातकाल ज्यादा क्रूर और खतरनाक बनने जा रहा है इसलिए कि साम्राज्यवादी भारत सरकार बकौल प्रधानमंत्राी कड़े फैसले लेने जा रही है; जाहिर है जिससे मेहनतकश, सर्वहारा, नव सर्वहारा, अर्द्ध सर्वहारा को बदहाली झेलने पड़ेगी।
इस अदालती आतंकवाद के खिलाफ स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय धरातल पर अभियान चलाना बहुत जरूरी हो गया है और इसमें सूचना तकनीक के विभिन्न औजारों का इस्तेमाल तो जरूरी है ही; समाज के निचले पायदान से ऊपर के पायदान तक संघर्षशील जनसेवक ईकाइयों का निर्माण भी जरूरी हो गया है जो परिवर्तनकारी नव सर्वहारा औजार से लैस हो न कि नागरिक अधिकार आंदोलन तक ही सीमित रहे; क्योंकि हमारा मानना यह है कि सीमा आजाद और विश्व विजय को आजीवन कारावास की सजा सरकार और सत्ता के खिलाफ युद्ध के ‘अपराध’ में सुनाई गई है। ऐसे हालात में यह सजा राजनीतिक बन जाती है इसलिए इसके खिलाफ संघर्ष भी नई क्रांतिकारी राजनीतिक शक्तियों द्वारा एकताबद्ध होकर चलाना होगा।
भूमाफिया, राजनेता और पुलिस और कौशाम्बी जिले के जन प्रतिनिधियों के खिलाफ भी आंदोलन जरूरी है जहां यह सब हो रहा है। क्रांतिकारियों पर तो सदा आपातकाल रहा है 26 जून 1975 को शासक वर्ग के विरोध पक्ष पर भी आपातकाल लग गया था।
इन्हीं शब्दों के साथ 26 तारीख को आपातकाल विरोधी दिवस मनाये जाने के हम साथ हैं और सीमा आजाद तथा विश्व विजय को सजामुक्त कराने की लड़ाई के लिए हमारे पास भारतीय जनसंसद और दूसरे बहुतेरे जो सांगठनिक औजार हैं उन्हें शामिल करने के लिए तैयार हैं। इस सिलसिले में स्थानीय राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय धरातल पर अपने सांगठनिक औजारों का इस्तेमाल करने का हम साझा संकल्प करते है।
-शिवमंगल सिद्धांतकर
महासचिव: सी. पी. आई. एम. एल. न्यू प्रोलेतारियन
फोन: 011-25269471, 09810400430

तनी हुई मुट्ठी को काट कर प्रतिरोध को खामोश नहीं किया जा सकता!




जिन लोगों ने सीमा आज़ाद द्वारा सम्पादित पत्रिका "दस्तक" के अंक देखे हैं उनके लिए शीरीं कोई नया नाम नहीं है. सीमा ही की तरह शीरीं ने भी दलित शोषित वर्गों के पक्ष में दृढ़ता से आवाज़ बुलन्द की है. यहां हम उनका ताज़ा लेख दे रहे हैं

तनी हुई मुट्ठी को काट कर प्रतिरोध को खामोश नहीं किया जा सकता!
 

सीमा आजाद को दी गयी आजीवन सज़ा की खबर ने सबको सकते में डाल दिया है। लेकिन इसके पहले एक और घटना घटी जिसको राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा जगह नहीं मिली। गत 7 मई को उड़ीसा के जाजनगर की गोबरघाटी की 55 वर्षीय महिला सिनी साय को पुलिस ने माओवादी बता कर गिरफ्तार कर लिया। सिनी साय को पुलिस ने उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह बे्रन मलेरिया का इलाज कराने के लिए एक अस्पताल में भर्ती थी। सिनी एक ऐसी मां है जिसकी आंखों के सामने उसके 25 वर्षीय बेटे भगवान साय को पुलिस ने गोली मार दी थी और उसकी कलाई को काट दिया था।
यह घटना उस समय की है जब सन 2006 में कलिंगनगर में टाटा द्वारा आदिवासियों की जमीन छीनने के खिलाफ और आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ तथा आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के हक के लिए आन्दोलन चल रहा था। उस प्रदर्शन में स्वयं सिनी साय भी शामिल थी। विस्थापन विरोधी उस प्रदर्शन पर पुलिस ने फायरिंग कर दी और उसमें 14 आदिवासी मारे गए। उन 14 मृत लोगों में उनका जवान बेटा भगवान साय भी शामिल था। पुलिस ने उनकी आंखों के सामने न केवल उसे गोली मारी बल्कि उसकी विरोध में तनी हुयी मुट्ठी को भी काट दिया। जाहिर है पुलिस उस वक्त सरकार और टाटा की रक्षा कर रही थी।
सिनी साय दो बार अपने गांव गोबरघाटी की सरपंच रह चुकी हैं। सरपंच के रूप में उन्होंने न केवल अपने गांव का नेतृत्व किया बल्कि वह अपने आदिवासी समूह की हक की लड़ाई में भी शामिल हो गयी। उसी लड़ाई को लड़ते हुए वह एक दिन अपने बेटे की कलाई कटी हुयी लाश लेकर घर लौटीं।
सिनी साय अब एक शहीद की मां भी थीं। उन्हांेने अपने बहते आंसुओं को अपने सीने में ही दफन कर दिया और समाज परिवर्तन की लड़ाई मंे कूद पड़ीं। पुलिस फाइल में वह एक माओवादी के रूप में दर्ज हो गयीं। हमें उन कारणों पर विचार करना होगा जिनके कारण एक मां को 50 साल की उम्र में माओवादी होना पड़ा। उनके दूसरे बेटे के अनुसार सरकार, पत्रकार और मीडिया के लिए वह माओवादी हो सकती हैं। लेकिन उनके लिए वह एक मां हैं। उनके लिए अपने बेटे की हत्या का बदला लेने के लिए इसके अच्छा कोई रास्ता नहीं था।
उनकी गिरफ्तारी के बाद उनसे मिलने गयी एक पत्रकार सारदा लाहंगीर से उन्होंने कहा ‘‘आप जानती हैं कि जमीन की लड़ाई, अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए मेरे बेटे ने अपने सीने पर पुलिस की गोली खाई। मेरे सामने उसे न सिर्फ बेरहमी से मारा गया बल्कि बाद में उसकी लाश के भी टुकड़े कर दिये गए। एक मां यह कैसे बर्दाश्त करती कि जिस बेटे को मैंने नौ महीने अपनी कोख में रखकर जन्म दिया, उसी बेटे को पुलिस वाले बेरहमी से एक लाश में बदल दें।’’(देखें-माओवादी सिनी साय की कहानी-ravivar.com पर )
सीमा और सिनी में एक समानता हैं। दोनो अन्याय के खिलाफ लड़ रही थीं। सिनी की तरह ही सीमा आजाद भी जल-जंगल-जमीन के लिए चल रही लड़ाई की समर्थक है। वह भी विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रही थी। दोनो की उम्र में फरक हो सकता है। लेकिन दोनो के जज्बे में कोई अन्तर नहीं है। दोनो इस समाज को बदलना चाहती हैं।
सीमा कुल 36 वर्ष की हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एमए करने के बाद उन्होंने एक ऐसी राह चुनी जो बहुत ही चुनौती पूर्ण थी। सामन्ती समाज की बेडि़यों को तोड़ कर उन्होंने अपना नाम आज़ाद रखा। इसी क्रम में शायद उन्हें यह समझ में आया कि व्यक्तिगत आजादी का कोई मतलब इस समाज में नहीं है। जब तक पूरा समाज नहीं मुक्त होता, वह अकेले मुक्त नहीं हो सकती। इसी समझदारी के साथ वह समाज की मुक्ति के लिए चल रही लड़ाईयों के साथ जुड़ीं। सामन्ती बेडि़यों से तो वह एक हद तक मुक्त हुयीं लेकिन राज्य की दमनकारी ज़ंजीरों ने उसे कैद कर लिया और उसकी इन्तहां तब हुयी जब लोअर कोर्ट ने उन्हंे आजीवन कारावास की सजा सुना दी।
सीमा और सिनी दोनो आपस मे कभी नहीं मिलीं। दोनो की वर्गीय पृष्ठभूमि में भी अन्तर है। सीमा पढ़ी लिखी और शहर में रहने वाली एक मध्यवर्गीय महिला है और सिनी एक अनपढ़, आदिवासी और गांव की औरत है। पर दोनो का मकसद एक ही है-अन्याय का प्रतिकार करना। एक बात मुझे नहीं समझ आती अगर अन्याय का प्रतिकार करने का अर्थ है माओवादी होना तो माओवादी होने में क्या गुनाह है? लेकिन दिक्कत यह है कि यहां की अदालतें न्याय की वही परिभाषा दोहराती हैं जिसे राज्य ने लिख दिया है। और बचाव पक्ष का वकील पूरे समय यही सिद्ध करने में उलझ के रह जाता है कि अभियुक्त माओवादी नहीं है। कानूनी दांव-पंेच की भूल-भुलैया में यह पक्ष कहीं खो जाता है की वह कौन सी परिस्थितियां थीं जिनमें व्यक्ति माओवादी बनता है।
ऐसे में मुद्दा माओवादी होने या न होने का नहीं है। मुद्दा है अन्याय की वह पृष्ठभूमि जिस पर संघर्ष की कोई भी इबारत दर्ज होती है।
मुझे नहीं पता कि सीमा को आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद सीमा की मां के कलेजे में कितने तूफान उठ रहे होंगे और वह इस तूफान को कौन सी दिशा दें। लेकिन सच्चाई यही है कि राज्य दमन के इस दौर में गोर्की की हजारों-हजार मां जन्म लेंगी। ऐसे समय में हम तटस्थ कैसे रह सकते हैं? इतिहास गवाह है कि तनी हुयी मुट्ठियों को काट कर राज्य कभी भी प्रतिरोध की आवाज को खामोश नहीं करा पाया है।


शीरीं
21.6.12


Monday, June 18, 2012

सीमा आजाद और विश्वविजय की रिहाई के लिए एक अपील


सीमा आजाद और विश्वविजय की रिहाई के लिए एक अपील

प्रिय दोस्तो,
जैसा कि आप जानते हैं, मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की सांगठनिक सचिव और युवा पत्रकार सीमा आजाद को उनके जीवन साथी विश्वविजय के साथ 6 फरवरी 2010 को गिरफ्तार कर लिया गया था। उन पर लगभग उन्ही धाराओं में आरोप लगाया गया है जिन धाराओं में डाक्टर विनायक सेन को आरोपित किया गया था। यानी कम्युनिस्ट पार्टी आफ इन्डिया माओवादी का सदस्य होना और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ना। इसके अलावा कुछ अन्य धाराओं में भी आरोप लगाए गए हैं।

डा. विनायक सेन तो रिहा हो चुके हैं लेकिन सीमा और विश्वविजय को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी है और उनपर जुर्माना भी ठोंक दिया गया है। शायद यह उन बिरले मामलों में से ही होगा जिनमें इन धाराओं के तहत आरोपित व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी है। स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह की सरकार उन सभी से बदला ले रही है जो उनकी नीतियों से सहमत नहीं हैं। यह बात ध्यान देने की है कि ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला है कि सीमा आजाद और विश्वविजय किसी भी समय हथियारों या विस्फोटकों की कार्यवाइयों में लिप्त रहे हों। उनका एकमात्र ‘अपराध’ यही है कि वे अपनी रजिस्टर्ड द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ के माध्यम से सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे थे और ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ और ‘आॅपरेशन ग्रीन हण्ट’ के खिलाफ पुस्तिकाएं निकाल रहे थे।

राज्य सीमा आजाद और विश्वविजय को किसी भी कीमत पर सजा सुनाना चाहता था। नीचे हम राज्य द्वारा उन्हें दोषी सिद्ध करने के उसके प्रयास के विभिन्न अन्तरविरोधों, असंगतियों और मनगढ़न्त बातों का एक तथ्यगत ब्योरा दे रहे हैं-

1- फैसले के पृष्ठ नम्बर 57 पर यह स्पष्ट उल्लिखित है कि रिमाण्ड के दौरान जिस सामग्री की बरामदगी की गयी थी और उसे सीलबन्द किया गया था, उसे पुलिस स्टेशन में बिना कोर्ट की अनुमति के ‘अध्ययन के उद्देश्य से’ पुनः खोला गया। लेकिन दुर्भाग्य से कोर्ट ने इस प्रक्रिया में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया।

2- यह भी उल्लेखनीय है कि रिमाण्ड को दो बार अदालत द्वारा अस्वीकार किया गया और अन्ततः जब रिमाण्ड दिया गया तो यह गैरकानूनी तरीके से हुआ। इसमें उन सभी कानूनों का उल्लंघन हुआ जो किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को रिमाण्ड पर लेने के लिए कानून द्वारा तय हैं। अदालत ने इस स्पष्ट गैर कानूनी काम को क्यों होने दिया। क्या यह इसलिए था कि एफआईआर के बाद पुलिस नेे जिन मनगढ़न्त और झूठे साक्ष्योें का उल्लेख किया था उनको रिमाण्ड के दौरान तथाकथित बरामदगी के रूप में पेश किया जा सके?

3-सीमा के मोबाइल काॅल डिटेल्स को अदालत में पेश किया गया। लेकिन उनमें सिर्फ 5 फरवरी 2010 तक का ही ब्योरा था। उनमें उसकी गिरफ्तारी के दिन यानी 6 फरवरी 2010 की काॅल डिटेल्स का कोई ब्योरा नहीं है। सवाल यह है कि काॅल डिटेल्स को जान-बूझ कर क्यों छिपाया गया। यदि 6 फरवरी की काॅल डिटेल्स को र्ट में प्रस्तुत किया जाता तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती कि सीमा और विश्वविजय को, सीमा के नई दिल्ली से रीवा एक्सप्रेस द्वारा 6 फरवरी को सुबह 11.45 बजे इलाहाबाद उतरते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। यानी 6 फरवरी को दोपहर 2.30 बजे हीरामनि की गिरफ्तारी के बहुत पहले। पुलिस यह कहानी क्यों गढ़ रही है कि हीरामनि द्वारा पुलिस को सीमा और विश्वविजय के बारे में दी गयी सूचना के बाद उन्होंने सीमा और विश्वविजय को 6 फरवरी को रात 9.30 बजे गिरफ्तार किया। पुलिस की क्या मजबूरी थी कि उसने जान-बूझ कर 6 फरवरी 2010 की काॅल डिटेल्स को छिपाया।

4-फैसले के पृष्ठसंख्या 58 पर यह दर्ज है कि गिरफ्तारी की जगह के बारे में पुलिस गवाहों के बयानों में बहुत अन्तरविरोध है। लेकिन फैसले में कहा गया है कि ‘ये छोटे अन्तरविरोध हैं’ और इन्हें नजरअन्दाज किया जा सकता है।

5- अदालत में जब यह पूछा गया कि क्या पुलिस ने सीमा के मोबाइल के काॅल डिटेल्स/ फोन नम्बर / मैसेज में कुछ भी आपत्तिजनक पाया है तो पुलिस का साफ उत्तर था - नहीं। लेकिन फैसले में सीमा के मोबाइल को विभिन्न तिथियों पर विभिन्न जगहों पर दर्शाया गया है। जैसे - लखनऊ, बाराबंकी (30-31.08.09), वाराणसी (4.10.09), कानपुर, फतेहपुर (21-22.11.09) (12-13.01.2010), मिर्जापुर (4.10.09), इटावा, खुर्जा एवं हिमांचल प्रदेश (22-23-24.012010)। (पृष्ठ-55)।  क्या ये जगहें ‘संदेहास्पद जगहें’ हैं? यदि हां तो किस तर्क से?

6-पुलिस ने सीमा के मोबाइल को गिरफ्तारी के वक्त प्रस्तुत क्यों नहीं किया। उन्होंने उसके मोबाइल को रिमाण्ड के बाद (गिरफ्तारी के 5 महीने से ज्यादा वक्त के बाद) क्यों प्रस्तुत किया।

7- ‘26 पेज के पत्र’, ;जिसके बारे में पुलिस दावा करती है कि वह उसने रिमाण्ड की अवधि में यानी गिरफ्तारी के 5 महीने बाद सीमा के कमरे से बरामद किया हैद्ध की बरामदगी पर किसी भी स्वतन्त्र गवाह के हस्ताक्षर क्यों नहीं हैं? सीमा के पड़ोसी और सीमा के पिता रिमाण्ड के दौरान वहां उपस्थित थे। तब इस तथाकथित ‘बरामदगी’ पर उनके हस्ताक्षर क्यों नहीं लिये गये।

8- फरवरी 2012 के पहले सप्ताह में निचली अदालत में अन्तिम गवाह की गवाही हो चुकी थी, फिर केस को अप्रैल के मध्य तक क्यों खींचा गया? जबकि सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश था कि इसमें देरी नहीं होनी चाहिए और केस को दिन-प्रतिदिन के हिसाब से सुना जाना चाहिए। न्यायाधीश अनिल कुमार (जिन्होंने पूरे केस की सुनवाई की) का स्थानान्तरण उनके द्वारा फैसला सुनाए जाने से पहले ही क्यों कर दिया गया? मई में केस को दूसरे न्यायाधीश सुनील कुमार सिंह को दे दिया गया। जिन्होंने अन्ततः आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

9-एक दूसरी बात भी उल्लेखनीय है कि फैसले में इस बात को नोटिस में लिया गया है कि सीमा ने एक पत्र अन्नू अर्थात कंचन को लिखा था। और इसे इस साक्ष्य के रूप में पेश किया गया है कि चूंकि अन्नू अर्थात कंचन अपने पति गोपाल मिश्रा के साथ दिल्ली में समान आरोप में गिरफ्तार हुई थीं, इसलिए सीमा का माओवादियों से सम्बन्ध स्पष्ट है। मजे की बात यह है कि दिल्ली कोर्ट ने कंचन और उनके पति को बेल पर रिहा कर दिया है। जबकि वहीं सीमा और विश्वविजय को बेल देने की बात तो दूर, उन्ही समान आरोपों में सजा सुना दी गयी है।

उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि राज्य ने सभी तरह के विरोधों का गला घोंटने का निर्णय कर लिया है। भारतीय सरकार ने लोकतन्त्र के सभी रूपों से पल्ला छुड़ा लिया है। सीमा आजाद और विश्वविजय के खिलाफ यह क्रूर फैसला इसलिए सुनाया गया है ताकि जनता के सामने इसे एक उदाहरण के रूप में पेश किया जा सके कि जो भी राज्य का विरोध करेगा या उसकी आलोचना करेगा उसे सीमा आजाद और विश्वविजय की तरह ही दण्डित किया जाएगा।

यह हमारा दृढ़ विश्वास और आकलन है कि इस निर्णायक मौके पर यदि हम चुप रहते हैं तो दमनकारियों और हत्यारों के ही हाथ मजबूत होंगे।

हम आप सभी से अपील करना चाहते हैं कि आप जिन-जिन मोर्चों से जुड़े हुए हैं वहां इस मुद्दे को उठायें या किसी अन्य तरीके से भी, जैसा आपको उचित लगे, इस मामले को उठायें। इसके अलावा आप इस अपील को उन सभी के पास फारवर्ड कीजिए जो इस अभियान के दायरे को बढ़ाने और तत्पश्चात सीमा आजाद और विश्वविजय के समर्थन में लोगों को एकजुट करने में मदद करें।


नीलाभ
सीमान्त (सीमा के भाई)  संगीता (सीमा की भाभी)

Sunday, June 17, 2012

AN APPEAL FOR THE RELEASE OF SEEMA AZAD AND VISHWAVIJAYA




AN APPEAL FOR THE RELEASE OF SEEMA AZAD AND VISHWAVIJAYA




Dear Friends,


as you must have come to know, Seema Azad, a young journalist and organising secretary of  the human rights organisation PUCL was arrested along with her husband Vishwavijaya on 6th February 2010 and charged with almost the same sections with which Dr,. Binayak Sen was charged, that is, being a member of the Communist Party of India (Maoist) and waging war against the State, besides some other sections. 


While Dr. Binayak Sen was released, Seema and Vishwavijaya have been awarded a life sentence along with fines. This is probabaly one of the rarest cases where a verdict of life imprisonment has been given to persons charged under these sections. Obviously the Manmohan Singh government is out to wreak vengeance on those who do not agree with their policies. It is to be noted that their is no evidence that Seema Azad and Vishwavijaya at any time indulged in activities involving arms or explosives. Their only supposed "crime" was of opposing the policies of the government through their registered bi-monthly "Dastak" or by publishing booklets against the Ganga Expressway or Operation Greenhunt.    


We are giving below a factual list of the contradictions, anomalies and concoctions by the State in order to convict and sentence Seema Azad and Vishwavijaya at any cost : 


1. It has been clearly mentioned in the judgement (page-57) that the material recovered during the remand and sealed was opened in police station without any court permission for ‘study purpose’. But unfortunately the court did not find anything objectionable in this process !!!


2. This is also worth noting that twice the remand was refused. And when finally the remand was given it was illegal as it contravened all regulations laid rown by law for the remand of an arrested person. Why did the court allow this blatant illegality ? Was it because the tailored or concocted evidence which the police produced after the FIR had been filed could only be submitted after the so called recovery during remand ? 


3. Seema’s mobile call details which were produced in the court are only till 5th Feb, 2010. There was no mention of the calls made or received on 6th Feb, 2010 which was the date of arrest. Now the question is – why call details were tailored intentionally? If call details of 6th Feb would have been provided in the court then it would have supported the fact that Seema & VishwaVijay were arrested immediately after Seema arrived in Allahabad from New Delhi Rewa express at 11.45 am on 6th Feb (much before Heeramani's arrest at 14.30 pm on 6th Feb). Why police is cooking up the story that they arrested Seema & VishwaVijay at 9.30 pm on 6th Feb after Heeramani provided the information about Seema & VishwaVijay to the  police. Also what was the compulsion for the police to intentionally hide the call records of 6th Feb 2010?


4. There were many contradictory statements given by the Police witnesses about the place of arrest in the court which has been mentioned in the judgement also (page-58). Judgement says that these are ‘minor contradictions’ so they can be ignored!!!


5. When asked by the court whether police had found any objectionable call detail/phone number/message in Seema’s mobile, police simply said – ‘No’. But the judgement quotes several locations of Seema’s mobile phone on different dates, such as,  Lucknow , Barabanki (30-31.08.09), Varanasi (4.10.09), Kanpur, Fatehpur (21-22.11.09)(12-13.01.2010), Mirzapur(4.10.09), Itawa, Khurja and Himachal pradesh(22-23-24.01.2010) (page-55). Are these locations ‘suspicious locations’ ? If so by which logic?


6. Why police did not produce Seema’s mobile during the time of arrest? Why did they produce her mobile after remand (after more than 5 months of the arrest).


7. Why there is no signature of the independent witnesses on the ’26 page letter’ which police is claiming to have recovered from Seema’s house during remand (after 5 month of arrest). Seema’s neighbours and Seema’s father were present during the remand then why their signature were not taken on the so called ‘recovery’?


8. The last witness was examined in the lower court in the first week of Feb 2012. Why was the case dragged  till mid April inspite of the Supreme Court instruction not to delay the case and hear it on a day-to-day basis ? Why was Justice Anil Kumar (who had heard the entire proceedings of the case) transferred before he could deliver a verdict? In May, the case was transferred to another judge (Sunil Kumar Singh) who finally delivered the verdict of life imprisonment!!!


9. Another thing worth noting. The verdicy has taken into account a letter written to Annu alias Kanchan as evidence of Seema's involvement with the Maoists because Annu alias Kanchan along with her husband Gopal Mishra was arrested on the same charges in Delhi. Strangely the Delhi Courts have allowed the bail of Kanchan and her husband, while Seema and Vishwavijaya were not only not allowed any bail, but they were convicted of the same offence. 


It is clear from the above facts that the State has decided to stifle all forms of protest. The Indian Government has done away with all norms of democracy and the draconian verdict against Seema Azad and Vishwavijay has been given to set an example before the people that whosoever will criticise or protest against the State will have to suffer the same fate as has been meted out to Seema Azad and Vishwavijaya.


It is our firm belief and understanding that keeping silent at this juncture will only strengthen the hands of executioners and oppressors.


We would like to appeal to all of you to raise this matter in all the forums with which you are associated and also by any other suitable means which you can think of. And also forward this appeal to all those who in your view can help us widen the scope and effect of this campaign to rally support for Seema Azad and Vishwavijaya.




Neelabh                     Seemant            Sangita
(Brother and sister-in-law of Seema)



Monday, June 11, 2012

सीमा आजाद के बहाने विरोध की आवाज को कुचलने की साजिश

सीमा आजाद के बहाने विरोध की आवाज को कुचलने की साजिश






नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्व विजय को देशद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप मंे गैर कानूनी गतिविधि निवारण कानून (यूएपीए) के विभिन्न प्रावधानों के तहत इलाहाबाद की एक निचली अदालत ने उम्रकैद की सजा देकर एक बार फिर इस बात की पुष्टि की है कि यह व्यवस्था जनतांत्रिक विरोध की हर आवाज को कुचलने पर आमादा है। आठ जून को उम्रकैद की सजा का आदेश जारी करते हुए इन दोनों लोगों पर 70 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है। इन पर आरोप है कि ये दोनों भूतपूर्व छात्र नेता और सामाजिक कार्यकर्ता भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सदस्य हैं और ‘गैर कानूनी गतिविधियों’ में शामिल है।


सीमा आजाद और विश्व विजय को 6 फरवरी 2010 को उत्तर प्रदेश में स्पेशल टास्क फोर्स ने इलाहाबाद में उस समय गिरफ्तार किया जब ये लोग दिल्ली से विश्व पुस्तक मेला देखने के बाद लौट रहे थे। एसटीएफ का दावा था कि इनके पास से माओवादी साहित्य बरामद किया गया है और ये दोनों प्रतिबंधित माओवादी पार्टी से संबद्ध हैं। एसटीएफ ने इस मामले को उत्तर प्रदेश के आतंकवाद विरोधी स्क्वैड को हस्तांरित कर दिया।


सीमा आजाद द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ की संपादक तथा पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) उत्तर प्रदेश के संगठन सचिव के बतौर नागरिक अधिकार आंदोलनों से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनके पति विश्व विजय छात्र आंदोलन और इंकलाबी छात्र मोर्चा के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। सीमा आजाद ने अपने लेखन व पत्रकारिता के जरिए और विश्व विजय ने अपनी राजनीतिक सक्रियता के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों पर हो रहे दमन के खिलाफ लगातार आवाज उठायी। इन दोनों का कार्य क्षेत्र इलाहाबाद व कौशाम्बी जिले का कछारी क्षेत्र रहा है जहां माफिया, राजनेता व पुलिस की मिलीभगत से अवैध तरीके से बालू का खनन किया जा रहा है और इस प्रक्रिया में काले धन की कमाई के साथ-साथ मजदूरों का भीषण दमन और शोषण जारी है। इन दोनों राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने पुलिस-माफिया-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ आवाज उठायी जिससे वे सत्ता की आंख की किरकिरी बन गए थे। ये दोनों युवा जिन गतिविधियों और क्रियाकलाप में लगे थे उन्हें न तो किसी भी तरीके से गैर कानूनी कहा जा सकता है और न उन्होंने कभी कोई ऐसा काम किया जो भारतीय संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिए गए अधिकारों के दायरे से बाहर हो। सीमा आजाद की पत्रिका ‘दस्तक’ ने उस गंगा एक्सप्रेस-वे योजना पर एक विस्तृत जांच की थी जिससे हजारों किसानों के उजड़ने का खतरा था। इसने आजमगढ़ के मुस्लिम युवकों की अंधाधंुध गिरफ्तारी और उत्पीड़न पर एक लंबी रपट प्रकाशित की थी। इन दोनों राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और अभी का फैसला पूरी तरह दुर्भावना से प्रेरित है और उन लोगों को सबक सिखाने के लिए है जो सरकारी तंत्र की मनमानी के खिलाफ आवाज उठाते हैं और उत्पीड़ित लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं।


हम इस फैसले की घोर निंदा करते हैं और आम जनता से अपील करते हैं कि वह मामले की तह तक जाय और सरकार के इस जनविरोधी चेहरे को बेनकाब करे। हम अंग्रेजों द्वारा बनाए गए उस कानून को समाप्त करने की भी मांग करते हैं जिसके तहत आए दिन सामाजिक कार्यकर्ताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और सालों-साल बगैर मुकदमा चलाए जेलों में रखा जाता है। यही स्थिति विनायक सेन, प्रशांत राही और अरुण पेरेरा की हुई। ऐसी ही हालत में भारत की जेलों में सैकड़ों हजारों युवकांे को ‘देशद्रोही’ करार देते हुए बंद रखा गया है। सीमा आजाद और विश्व विजय का मामला सभी जनतंत्रप्रेमी लोगों के लिए एक चुनौती है जिसका मुकाबला डट कर किया जाना चाहिए।

Thursday, February 2, 2012

जयपुर साहित्योत्सव : पैसे का खेल

प्यारे मित्रो,
एक लम्बी ख़ामोशी के बाद एक बार फिर मैं आपकी महफ़िल में हाज़िर हूं. इधर बीच कई तरह की उलझनें रहीं, 28 दिसम्बर को मज़े की मोटर साइकिल दुर्घटना हो गयी. शायद पीड़ा का कोटा अभी पूरा नहीं हुआ था या शायद सेवा कराने का. जो भी हो, नये साल का पहला पखवाड़ा काफ़ी कष्ट में बीता. पर जैसा कि संगीतकार-विचारक कुमार गन्धर्व कहते थे, दुख हाथी की चाल आता है और चींटी की चाल जाता है, पर जाता ज़रूर है. सो, दुख-भरे दिन लगभग बीत चुके हैं. ज़माने ने एक करवट ली है, आज ही सुप्रसिद्ध ब्लोग "जानकी पुल डाट काम" संचालित करने वाले मेरे मित्र और हिन्दी के कथाकार प्रभात रंजन ने याद दिलाया कि मुझे डुबकी मारे बहुत दिन हो गये, लिहाज़ा मैं भी पिछला खाता साफ़ करके नयी बही के साथ उपस्थित हूं. नवम्बर से कलकत्ता के एक नये अख़बार "प्रभात वार्ता" के लिए एक स्तम्भ लिखना शुरू किया है. उसकी एक बानगी अपको इस बार मिलती रहेगी, मगर सबसे पहले जयपुर में हाल ही में सम्पन्न हुए साहित्योत्सव की चर्चा. तो लीजिये पेश है --


जयपुर साहित्योत्सव : पैसे का खेल

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन-सा दयार है, हद-ए-निगाह तक जहां ग़ुबार-ही-ग़ुबार है.

हालांकि घर से चलने से पहले ही कुछ-कुछ अन्दाज़ा था कि इस बार का जयपुर साहित्योत्सव पहले से काफ़ी अलग साबित होने वाला है, मगर वह इस क़दर अजीबो-ग़रीब होगा इसका अनुमान किसी को नहीं था, यहां तक आयोजकों को भी नहीं. बेसाख़्ता मेरे दिमाग़ में "उमराव जान" की ये पंक्तियां कौंध उठीं.
अभी आयोजन में कई दिन बाक़ी थे कि भारत में जन्मे अंग्रेज़ी के लेखक सलमान रुशदी अचानक ही उस समय चर्चा में आ गये जब देवबन्द के उलूम की ओर से इस आयोजन में उनकी शिरकत पर विरोध किया गया. ज़ाहिर है, इस विरोध के पीछे उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव थे, क्योंकि रुशदी की किताब "शैतानी आयतें" पर उठे विवाद और उनके खिलाफ़ जारी किये गये फ़तवे तो कभी के दब-दबा गये थे. ख़ुद सलमान रुश्दी भी इधर कुछ ख़ास चर्चा में नहीं थे. देवबन्दियों का विरोध भी जनता के एक हिस्से की जनतान्त्रिक कार्रवाई ही थी. यही नहीं, भारत सरकार ने भी यह साफ़ कर दिया था कि रुशदी को बिना रोक-टोक हिन्दुस्तान आने का अधिकार है और वे कई बार यहां आ भी चुके हैं. लेकिन चूंकि रुशदी की भारत यात्रा पर विरोध देवबन्दियों की तरफ़ से हुआ था, इसलिए मामले ने कुछ और ही रंगत अख़्तियार कर ली और ऊपर से रुशदी ने यह कह कर उसे और भी उलझा दिया कि उन्हें विश्वस्त सूत्रों ने बताया है कि मुम्बई के किसी डौन ने उन्हें मारने की सुपारी दी है. हालांकि बाद में यह ख़बर रुशदी ही की उड़ायी हुई जान पड़ी, लेकिन इसका प्रकाशित-प्रसारित होना था कि सुरक्षा-व्यवस्था हरकत में आ गयी और इस आयोजन के शुरू होने से पहले ही सबसे बड़ा सवाल यह बन गया कि सलमान रुशदी उत्सव में भाग लेंगे कि नहीं. उद्घाटन वाले रोज़ तक कभी यह घोषणा होती कि वे आ रहे हैं, कभी यह कि वे पहले नहीं दूसरे दिन आयेंगे. आख़िरकार जब यह पता चल गया कि वे नहीं आ रहे तब भी उनकी छाया समारोह पर मंडराती रही क्योंकि उद्घाटन की शाम को चार लेखकों ने, जो रुश्दी ही की तरह अंग्रेज़ी में लिखते हैं और जिनमें से दो अमरीका में रहते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्ष में और रुशदी को न आने देने के विरोध में "शैतानी आयतों" के कुछ अंश सार्वजनिक रूप से पढ़ कर सुनाये. ज़ाहिर है, किताब पर अभी तक पाबन्दी लगी हुई है और लेखकों के इस क़दम ने न केवल उनके लिए, बल्कि आयोजकों के लिए भी ख़ासी परेशानी पैदा कर दी और उत्सव की एक निदेशक हड़बड़ा कर क़रीब ढाई सौ लेखकों को यह ईमेल भेजने पर मजबूर हुईं कि वे जो भी करें संविधान और क़ानून की हद में रह कर करें. विरोध प्रकट करने वाले चारों लेखकों को तुरत-फुरत जयपुर से रवाना करना पड़ा सो अलग. उत्सव के अन्तिम दिन आयोजकों ने रुश्दी की विडियो कौनफ़रेन्स कराने का जो बन्दोबस्त किया था, वह कुछ मुस्लिम संगठनों के विरोध के चलते रद्द करना पड़ा. एक औसत-से लेखक को मीडिया और राजनीति किस तरह हीरो बना सकती है, रुश्दी इसकी ताज़ा मिसाल हैं, क्योंकि वे पहले भी जयपुर साहित्योत्सव में आ चुके हैं और किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी. दिलचस्प बात यह भी है कि तमाम तरह की स्वाधीनताओं की वकालत करने और पश्चिमी इशरत-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीने वाले सलमान रुश्दी ने कभी दमन और उत्पीड़न के शिकार लोगों के पक्ष में आवाज़ बुलन्द नहीं की. न तो कश्मीरियों के पक्ष में, न पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों और आदिवासियों के पक्ष में. ऐसी हालत में हमेशा की तरह इस बार भी आख़िरी बाज़ी रुशदी के हाथ रही -- फिर से चर्चित होने का सुख और किताबों की बिक्री में आयी उछाल से बढ़ी हुई आमदनी.
बहरहाल, इस शुरुआती हंगामे को अलग करके देखें तो पांच दिन और 136 सत्रों में फैले इस आयोजन की प्रकृति, स्वरूप और प्रभाव के बारे में कई सवाल उठते हैं. पहला सवाल तो यही है कि इस आयोजन को कौन करा रहा है और किस उद्देश्य से. अगर आयोजकों के बयानों पर जायें तो सन 2006 में शुरू हुआ यह आयोजन प्रमुख रूप से कला, संगीत और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था, ख़ास तौर पर साहित्य को. लेकिन जो देखने में आया वह ऐसा मंज़र था जिसमें गम्भीर साहित्यकार हाशिये पर थे और गुलज़ार, जावेद अख्तर, कपिल सिब्बल, अनुपम खेर, शशि थरूर, स्वामी अग्निवेश, चेतन भगत, बरखा दत्त, कबीर बेदी, अमरीकी मीडिया शख्सियत ओप्रा विन्फ़्रे, कवि सम्मेलनों में समां बांधने वाले कवि अशोक चक्रधर, फ़िल्मी गीतकार प्रसून जोशी और नये गुरु दीपक चोपड़ा जैसी सेलेब्रिटियां केन्द्र में. ऐसा लगता था कि यह साहित्य और संस्कृति का पेज थ्री है. चूंकि जानी-मानी शख्सियतों के प्रति लोगों का सहज आकर्षण होता है, इसलिए उत्सव में शामिल होने वाले श्रोताओं की एक बड़ी संख्या तो इसी से खिंच कर चली आयी थी. लेकिन इससे भी बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो महज़ शनिवार-इतवार को थोड़ा रौनक़-अफ़रोज़ करने की ख़ातिर इस मेले में चले आये थे. एक समय तो समारोह में उमड़ी चली आ रही भीड़ ने बाहर सड़क पर आम आवा-जाही को भी बाधित कर दिया था. इन लोगों को न तो कला-संस्कृति से कुछ लेना-देना था, न वहां चल रहे कार्यक्रमों से. वे यहां-वहां मंडराते हुए तितलियों की तरह कभी इस सत्र पर पल भर रुकते, कभी उस कार्यक्रम में झांकते, शहर के इस पंच सितारा विरासती होटल डिग्गी पैलेस के परिसर में महंगी कौफ़ी-चाय और पेस्ट्री से ले कर इडली-दोसे और सैण्ड्विच उड़ाते हुए, सर्दियों की गुनगुनी धूप का मज़ा ले रहे थे. इतवार को तो ऐसा नज़ारा था कि बी.बी.सी. की पूर्व पत्रकार-प्रसारक रमा पाण्डे को कहना पड़ा कि यह उत्सव अब उत्सव नहीं रहा, भीड़ बन गया है.
इस बार के आयोजन की थीम भक्ति और हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं थी, मगर उन पर भी ज़्यादातर चर्चा अंग्रेज़ी में हो रही थी. कहा जाये कि अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत का बोलबाला था. वैसे भी, जो लेखक और प्रतिभागी बुलाये गये थे, वे उन्हीं लोगों में से थे जिनसे ईमेल और मोबाइल से सम्पर्क किया जा सकता था. इसलिए अगर उत्सव में घूमते समय कानों में उच्चाकांक्षी मध्यवर्ग द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अंग्रेज़ी के टुकड़े पड़ रहे थे तो इसमें आश्चर्य कैसा. सारा आयोजन ही अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत में रंगा हुआ था -- प्रचार सामग्री से ले कर संचालन और दूसरी आयोजकीय कार्रवाइयों तक. ऐसे में बेचारे हिन्दी और देसी भाषाओं के लेखकों की क्या बिसात. वे तो जैसे प्रतीक स्वरूप वहां बुला लिये गये थे.
इसके अलावा एक ही समय में चल रहे चार-चार कार्यक्रमों ने भी इस साहित्य समारोह को तमाशे में बदल दिया था. यह ठीक है जिन लोगों की किसी ख़ास कार्यक्रम में दिलचस्पी थी, वे तो उसी कार्यक्रम में आदि से अन्त तक मौजूद रहते, मगर जो भारी भीड़ उमड़ आयी थी उसका भी एक हिस्सा इन सत्रों में जगह छेंक लेता और फिर बीच ही में गम्भीर श्रोताओं में खीज पैदा करता हुआ बाहर निकल आता, बिना यह सोचे कि अपनी इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत से उन्होंने कुछ लोगों को कार्यक्रम से वंचित कर दिया है.
यों, अगर कार्यक्रमों पर नज़र डालें तो उनमें से कुछ बहुत मौज़ूं थे. सम्पादक-पत्रकार विनोद मेहता, पाकिस्तान से आये कवि मुहम्मद हनीफ़, सूफ़ी कवि-गायक मदन गोपाल सिंह, तेलुगू की दलित लेखिका गोगू श्यामला और पंजाबी कवि नवतेज भारती को सुनना ताज़गी-भरा अनुभव था. यहां तक कि दुख दरिद्रता के सरल उपाय बताने वाली अमरीकी मीडिया शख्सियत ओप्रा विन्फ़्रे ने भी कुछ समझदारी की बातें कहीं. भाषा, समाज और साहित्य के सवालों के इर्द-गिर्द बुने गये इन कार्यक्रमों को अगर सूझ-बूझ के साथ सजाया गया होता तो उनका प्रभाव पड़ सकता था. लेकिन अपने कुल स्वरूप में यह आयोजन बिखरा-बिखरा बन कर रह गया. हां, प्रतिनिधियों के तौर पर आये जिन लोगों की दिलचस्पी उस भव्य भोजन और विदेशी मदिरा पर थी जो नदी की तरह वहां बह रही थी या बहायी जा रही थी, उनके लिये आयोजकों ने सटीक इन्तज़ाम कर रखा था. पांच सितारा होटलों में ठहराने से ले कर लाने-ले जाने और महंगे उपहारों समेत दूसरी सभी सुविधाओं का बन्दोबस्त करने तक.
इसी को देख कर बारम्बार मन में सवाल उठता था कि जिस देश में भुखमरी और कुपोषण का दौर-दौरा है, विषमता ने महामारी की-सी सूरत अख़्तियार कर ली है, वहां ऐसा भव्य-दिव्य आयोजन किस तुफ़ैल में हो रहा है और इसके लिए पैसा किसने जुटाया है. और यही इस आयोजन का सबसे अंधेरा पक्ष कहा जा सकता है. शीर्ष पर तो बड़ी-बड़ी निर्माण परियोजनाओं के ठेके लेने वाली डी.एस. कंस्ट्रक्शन कम्पनी है, जिसने पिछले साल से दक्षिण एशियाई साहित्य के लिए 50 हज़ार डालर का पुरस्कार भी घोषित कर रखा है जो इस साल, श्रीलंकाई तमिल लेखक शेहन करुणातिलक को उनके पहले उपन्यास "चाइनामैन" पर दिया गया. 1979 में स्थापित डी.एस. कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने पिछले सात वर्षों में अभूतपूर्व प्रगति की है और कौमनवेल्थ खेलों के घोटाले में भी बड़ी हद तक लिप्त है. लेकिन इस कम्पनी के अलावा इस आयोजन के पीछे रियो टिण्टो और शेल जैसे बहुराष्ट्रीय निगम भी हैं जिन्होंने खदान और तेल उत्खनन के क्षेत्र में लगातार मानवाधिकारों का हनन किया है.
शेल पर तो नाइजीरिया के फ़ौजी शासकों द्वारा वहां के अत्यन्त प्रतिष्ठित साहित्यकार, प्रसारक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा को फांसी की सज़ा दे कर मार डालने का भी आरोप है जो ओगोनीलैण्ड में पर्यावरण की क़ीमत शेल की निर्मम मुनाफ़ाखोरी का विरोध कर रहे थे. रियो टिण्टो ब्रिटिश-औस्ट्रेलियाई कम्पनी है, जो तीसरी दुनिया के देशों की खनिज सम्पदा को हासिल करने की फ़िराक़ में रहती है और अब उसकी नज़र हिन्दुस्तान पर है. यही वजह है कि उत्सव में आये विदेशियों में अंग्रेज़ और औस्ट्रेलियाई बहुतायत में थे. रही कोकाकोला कम्पनी तो उसका कच्चा-चिट्ठा सब जानते ही हैं. इन चौधरियों के नीचे छोटे-बड़े, देसी-विदेशी ढेरों कार्पोरेट घरानों के नाम हैं -- टाटा स्टील और आर.पी.-संजीव गोयनका समूह से ले कर बैंक औफ़ अमरीका और ग्लेनलिवेट शराब बनाने वाली कम्पनी तक.
कहना न होगा कि यह उस भूमण्डलीय अर्थ-व्यवस्था और लुटेरी पूंजी का सांस्कृतिक मुखौटा है, हमारे देश में जिसकी शुरुआत उदारीकरण के युग में नयी आर्थिक नीतियों से हुई थी और जो अब साहित्य-संस्कृति के माध्यम से अवाम में नहीं, तो कम-से-कम उस ख़ास वर्ग में स्वीकृति चाहता है जो उसकी चालों को समझने की क्षमता भी रखता है, और उससे लाभान्वित भी होता है. इसी वर्ग को अपने पाले में लाने और रखने की एक कोशिश यह उत्सव है. अकारण नहीं था कि एक ओर "अनकही कहानियां : माओवादी गुरिल्ले और भारतीय गणतन्त्र" वाले सत्र में बढ़ती हुई हिंसा-प्रतिहिंसा की छान-बीन थी, दूसरी ओर स्टीवन पिंकर यह साबित करने पर जुटे थे कि कैसे "हिंसा का ग्राफ़ लगातार नीचे गिरता चला गया है." ओसामा से ओबामा तक, इस्रायल से फिलिस्तीन तक और अफ़्रीका से ले कर लातीनी अमरीका तक -- चर्चा के केन्द्र में सिर्फ़ साहित्य ही नहीं, राजनीति भी थी.
यह भी एक विडम्बना ही कही जायेगी कि इस बार के समारोह का उद्घाटन भूटान की राजमाता आशी दोरजी वांग्मो वांग्चुक ने किया जो देश कि अपने यहां जनतन्त्र की मांग करने वालों को सख़्ती से कुचलने और राज शाही को बनाये रखने के लिए हर हर्बा आज़माने के लिए कुख्यात है.
लेकिन सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने बताया कि मूल रूप में यह आयोजन जयपुर विरासत फ़ाउण्डेशन द्वारा शुरू किया गया था जो राजस्थानी दस्तकारी को बढ़ावा देने लिए श्रीमती फ़ेथ सिंह ने स्थापित की थी. दस्तकारी के ख़रीदारों को इस प्रान्त और देश का परिचय देने के लिए एक छोटा-मोटा सांस्कृतिक आयोजन किया जाता था. उसी आयोजन को हथिया कर नयी व्यावसायिक सूझ-बूझ के साथ जयपुर साहित्य समारोह नींव रखी गयी और धीरे-धीरे जयपुर विरासत फ़ाउण्डेशन तो महज़ एक स्टाल में सिमट गयी, जबकि डिग्गी पैलेस पर नवधनाड्य सांस्कृतिक आयोजकों का क़ब्ज़ा हो गया. हैरत नहीं कि इस पंच सितारा साहित्योत्सव के बारे में एक प्रतिनिधि की टिप्पणी थी कि यह आयोजन पैसे का खेल, साहित्य और बाज़ार का मेल और सेलेब्रिटियों की रेलमपेल ही है.

२३-१-२०१२