Friday, March 6, 2015

जैज़ पर एक लम्बा आलेख


चट्टानी जीवन का संगीत 

अट्ठारहवीं कड़ी


22.

मुझे यह जानने में ज़िन्दगी लग गयी है कि क्या नहीं बजाना है.
-- डिज़ी गिलेस्पी

चालीस के दशक में चार्ली पार्कर ने डिज़ी गिलिस्पी और फिर बाद में माइल्स डेविस के साथ मिल कर एक नया अन्दाज़े-बयाँ विकसित किया था। नयी सोच के साथ जैज़ की दुनिया में दाख़िल होने वाले संगीतकारों में दो नाम और थे -- थेलोनिअस मंक और चार्ल्स मिंगस. चार्ली पार्कर का ज़िक्र हम कर आये हैं, अब औरों की चर्चा करने के सिलसिले में पहले ज़िक्र जौन बर्क्स गिलेस्पी का, जिन्हें लोगों ने शायद इसलिए डिज़ी बुलाना शुरू कर दिया था, क्योंकि उनके वादन में ऐसे पेचो-ख़म होते जो  सुनने वालों को चकरा देने की कैफ़ियत रखते थे.

लिंक http://youtu.be/iUPbs2iHeRg A Night in Tunisia

डिज़ी गिलेस्पी का जीवन ही नहीं, उनका वादन भी परस्पर विरोधी तत्वों से बना था. शायद यही वजह है कि उनका ज़िक्र "आश्चर्य की आवाज़" कह कर किया गया. उनके एकल वादन की ख़ूबी थी ते़ज़ रफ़्तार वाली तानें जिनके बीच में हल्की-हल्की ख़ामोशियां पिरोयी गयी होतीं और फिर लम्बी-लम्बी छलांगें होतीं, ख़ासे ऊंचे सुर आते जिनके बीच ब्लूज़-सरीखे टुकड़े होते. 

http://youtu.be/kOmA8LOw258 (सौल्ट पी नट्स)

डिज़ी गिलेस्पी अपने सुनने वालों को हमेशा अपनी अनोखे तान-पलटों से चकित करते रहते. उनके वादन में कभी कुछ भी पहले से तय न होता, ट्रम्पेट बजाने के दौरान अगर कोई नया ख़याल या सुर आ जाता तो वे उसे अपनी धारा में शामिल कर लेते.

http://youtu.be/cWDxU813wd0 (नो मोर ब्लूज़ भाग 1)


डिज़ी के वादन की इस कैफ़ियत के सिलसिले में मुझे वह क़िस्सा याद आ जाता है, जो प्रसिद्ध नाटककार पु.ल. देशपाण्डे ने कुमार गन्धर्व के बारे में सुनाया था. कुमार गन्धर्व एक बार बम्बई में दादर के एक हाल में राग भूप में एक बन्दिश पेश कर रहे थे. भूप चल रहा था , जैसे हाथी-घोड़ों और छत्र-चंवर के साथ राजा की सवारी निकल रही हो. कोई पौन-एक घण्टे के बाद उस भूप को शुद्ध मद्धम का एक बारीक-सा सुर छू गया. महफ़िल को अच्छा लगा; लेकिन जो जानकार थे, वे कुछ विचलित भी हो उठे. कुमार गन्धर्व ने सुनने वालों की उस हल्की-सी हलचल को भांप लिया, तानपुरे वालों से आवाज़ धीमी करवायी, तबले पर वसन्त आचरेकर की उंगलियां भी नरम हो गयीं. कुमार ने कहा : "भाई, क्या करूं, यह शुद्ध मद्धम बहुत देर से अनुरोध कर रहा था कि मुझे भी अन्दर ले लीजिए, ले लीजियए. भूप के दरबार में उसे प्रवेश की इजाज़त नहीं है. पर बहुत गिड़गिड़ाने लगा तो सोचा -- आने दो बेचारे को थोड़ी देर के लिए, कब तक बाहर रखें, आख़िर अपना दोस्त है."
शायद यह गुण सभी बड़े कलाकारों में होता है. उन कलाओं में जहां परम्परा और शास्त्र ने मिल कर दायरे तय कर दिये हैं वहां भी लीक छोड़ कर कुछ अनोखा कर ले जाने की हुनरमन्दी सचमुच क़ाबिले-तारीफ़ है. डिज़ी भी ऐसे ही बिरले वादक थे. उनकी बिजली की-सी तेज़ प्रतिक्रिया और बेहद सधे हुए कान उनके ख़यालों और उनकी अदायगी का निर्दोष ताल-मेल सम्भव बनाते. मज़े की बात यह थी कि वे किसी भी तरह का जोखिम उठाने से हिचकते नहीं थे और यह जोखिम कभी उन्हें धोखा नहीं देता था. इसका कारण था बचपन में हर इतवार को गिरजे में जा कर बजाना जहां से उनके अनुसार उन्होंने "रूह को मुख़ातिब करना" सीखा.

http://youtu.be/DwIRM9LjKpg (नो मोर ब्लूज़ भाग 2)


अब जैसे यही देखिए कि डिज़ी गिलेस्पी जिस ट्रम्पेट को बजाते थे उसका अगला सिरा बजाय सीधा होने के लगभग पैंतालीस डिग्री के कोण पर ऊपर को उठा रहता. डिज़ी ने बताया था कि यह अनोखापन एक दुर्घटना की वजह से आया था जब दो नाचने वाले न्यू यौर्क में डिज़ी की पत्नी के जन्म दिवस के जलसे में उस मेज़ पर जा गिरे जहां यह ट्रम्पेट रखा हुआ था और इसका अगला सिरा ऊपर को मुड़ गया. इससे वाद्य के सुरों में थोड़ा फ़र्क आ गया और हालांकि डिज़ी ने ट्रम्पेट को सीधा करा लिया, पर वे उन बदले हुए सुरों को भूल नहीं पाये और उन्होंने फिर वाद्य बनाने वाले कारीगर से कह कर वैसे ही मुड़े हुए सिरे वाला ट्रम्पेट बनवाया और अन्त तक उसे ही बजाते रहे. लेकिन उनके जीवनीकार ने किस्सा यों बयान किया है कि डिज़ी को मुड़े हुए सिरे वाले ट्रम्पेट का खयाल इंग्लैण्ड की एक यात्रा के दौरान आया जब वहां उन्होंने एक ऐसा ही ट्रम्पेट देखा और उसे बजाने पर उन्हें नया प्रयोग करने की सूझी. बहरहाल, किस्सा जो भी हो, इतना सच है कि सीधे सिरे वाला हो या मुड़े सिरे वाला, ट्रम्पेट पर डिज़ी को कमाल की महारत हासिल थी और उन्होंने बहुत-से नये वादकों को सिखा कर परवान चढ़ाया.

http://youtu.be/f3jPpYFc4Yo (ब्लूज़ आफ़्टर डार्क) 
  
इस सारी गम्भीर संगीत-साधना के पीछे जो इन्सान था, वह जहां श्रोताओं को अपने मज़ाकिया स्वभाव से हंसा सकता था, वहीं ग़ुस्से में हिंसक भी हो सकता था. एक बार का क़िस्सा उस झगड़े का है जो डिज़ी गिलेस्पी और कैब कैलोवे के बीच हुआ जिनके बैण्ड में डिज़ी शामिल थे. हुआ यह कि संगीत के एक कार्यक्रम में कैब कैलोवे ने डिज़ी पर आरोप लगाया कि उन्होंने खंखार कर बलग़म का लौंदा मंच पर फेंक दिया था. यों भी, कैलोवे डिज़ी के बजाने की शैली से चिढ़े रहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि डिज़ी कुछ ज़्यादा ही नियमों को तोड़ते थे और वैसे भी कैलोवे को डिज़ी का शरारती नटखट अन्दाज़ पसन्द नहीं था. कैलोवे के बैण्ड के एक अन्य सदस्य के अनुसार कैलोवे डिज़ी के बजाने के अन्दाज़ को "चीनी संगीत" कहते थे. बहरहाल, डिज़ी ने बलग़म का लौंदा फेंकने से इनकार किया, मगर कैलोवे नहीं माने और बात इतनी बढ़ी कि कैब कैलोवे ने डिज़ी पर हाथ उठा दिया. डिज़ी कहां पीछे रहने वाले थे. उन्होंने अपनी जेब से चाकू निकाला और कैब को दौड़ा लिया. किसी तरह मण्डली के बाक़ी सदस्यों ने दोनों को अलग किया. छीना-झपटी के दौरान कैब का हाथ कट भी गया. नतीजा वही हुआ जो होना था. कैब कैलोवे और डिज़ी गिलेस्पी अलग हो गये और डिज़ी अर्ल हाइन्ज़ के बैण्ड में जा शामिल हुए.
मगर ग़ुस्से के ये दौरे बहुत विरल थे. बुनियादी तौर पर डिज़ी मौज-मस्ती में यक़ीन रखने वाले आदमी थे. इसकी सबसे बड़ी मिसाल थी 1964 का अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव, जिसमें डिज़ी गिलेस्पी ने ठिठोली के तौर पर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर अपना नामांकन भी कर दिया. अपने घोषणा-पत्र में डिज़ी ने कुछ बहुत ही मज़ेदार क़िस्म के वादे किये. उन्होंने कहा कि अगर वे चुने गये तो राष्ट्रपति भवन का नाम "वाइट हाउस" से बदल कर "द ब्लूज़ हाउस" रख दिया जायेगा और उनके मन्त्रिमण्डल में ड्यूक एलिंग्टन(विदेश मन्त्री), माइल्ज़ डेविस (सी.आई.ए. के निदेशक), लुई आर्मस्ट्रौंग (कृषि मन्त्री), मैक्स रोच (रक्षा मन्त्री), चार्ल्स मिंगस (शान्ति मन्त्री), रे चार्ल्स (संसद के पुस्तकालयाध्यक्ष), थेलोनिअस मंक (घुमन्तू राजदूत), मेरी लू विलियम्स (वैटिकन को राजदूत) और मैल्कम एक्स (ऐटोर्नी जेनरल) शामिल होंगे. इनमें मैल्कम एक्स को छोड़ कर, जो नीग्रो अधिकारों के उग्रतावादी आन्दोलनकारी थे, बाक़ी सब संगीतकार थे. अपने इस कथित मख़ौल को बढ़ाते हुए डिज़ी ने राष्ट्रपति चुनाव के अभियान के बिल्ले भी बंटवाने शुरू कर दिये. ये बिल्ले उनकी प्रचार एजेन्सी ने बरसों पहले "प्रचार के लिए, मज़ाक के तौर पर" बनाये थे. अब उनके बदले चन्दे में आने वाली रक़म नस्ली समता संगठन और मार्टिन लूथर किंग को अनुदान के रूप में जानी थी. ख़ैर, मज़ाक तो मज़ाक था, डिज़ी गिलेस्पी ने उसी भावना के साथ लिया और फिर अपनी असली मुहिम -- संगीत -- की तरफ़ लौट गये. ये बिल्ले बाद के वर्षों में संग्रहणीय बन गये. 1971 में डिज़ी गिलेस्पी ने ऐलान किया कि वे फिर चुनावी अखाड़े में उतरेंगे, लेकिन इस बार उन्होंने कहा कि बहाई पन्थ के अनुयायी होने के कारण वे चुनाव से अपना नाम वापस ले रहे हैं.

बहरहाल, अगर इन क़िस्से कहानियों को छोड़ दें तो डिज़ी गिलेस्पी ने अपने 76 वर्षों के लम्बे जीवन के दौरान बहुत-से उतार-चढ़ाव देखे, ज़िन्दगी में भी और संगीत में भी. कैब कैलोवे के बैण्ड में अपनी शमूलियत के दौरान ही डिज़ी ने बड़े बैण्डों के लिए धुनों और रागों की रचना शुरू कर दी थी. 

http://youtu.be/1aMCviqO95k (लीप फ़्रौग -- चार्ली पार्कर और डिज़ी गिलेस्पी)


जैज़ संगीत भी अपने पिछले दौर से बाहर आ कर लोकप्रिय होने के क्रम में स्विंग म्यूज़िक और बीबौप कहलाने लगा था. अर्ल हाइन्ज़ के बैण्ड में अपने समय के बारे में याद करते हुए डिज़ी ने कहा,"...लोगों का ख़याल है कि जब स्विंग और बीबौप आया तो वह संगीत नया था. ऐसा नहीं था. वह संगीत उसी संगीत से विकसित हुआ था जो उसके पहले था. बुनियादी तौर पर वही संगीत था. फ़्र्क सिर्फ़ इतना था कि आप यहां से वहां कैसे जाते थे...कुदरती तौर पर हर ज़माने का अपना रंग होता है." 
डिज़ी गिलेस्पी जीवन के अन्त तक सक्रिय रहे और 1970 के बाद उन्होंने बहाई धर्म अपना लिया था, जिसने उन्हीं के हवाले से कहें तो उन्हें चाकूबाज़ की अपनी छवि बदल कर एक विश्व नागरिक बनने में और दारू छोड़ कर आत्म-परीक्षण करने में मदद की. 

(जारी)