Sunday, June 12, 2011



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की तैंतीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३३



मित्रता की सदानीरा - १२

बहरहाल, तभी, यानी 1976 में, राजेश ने ‘इसलिए’ के नाम से एक पत्रिका की योजना बनायी और मार्क्स के जन्मदिन 5 मई, 1976 को उसका विमोचन करना तय किया। मैं उन दिनों वहीं था और राजेश के साथ इस पूरे आयोजन में शामिल था। मंगलेश से भी लगभग रोज ही कला-परिषद में हमारी मुलाकात होती थी और उसे भी हमने इस आयोजन में शामिल होने के लिए कह रखा था। लेकिन मंगलेश तो मंगलेश था, पूर्ण चन्द्र रथ नहीं। उसने शायद ‘पूर्वग्रह’ के या प्रेस के किसी काम के बहाने ठीक 5 मई को ही इन्दौर जाने का कार्यक्रम बना लिया। उस शाम जब ‘इसलिए’ का विमोचन हुआ तो मंगलेश नदारद था। विमोचन के बाद जब हम सब टी.टी. नगर वाले काफी हाउस पहुंचे तो अशोक वाजपेयी वहाँ अपने कुछ साथियों के संग मौजूद थे और अपने सारे प्रच्छन्न विरोध और मनमुटाव को दबा कर उन्होंने राजेश को बधाई दी। लेकिन मंगलेश दूर-दूर ही रहा।
साल भर के ही अन्दर मंगलेश के लिए भोपाल शूलों की सेज बन गया। इलाहाबाद आने से पहले आखिरी दिनों में वह नरेन्द्र जैन के साथ जवाहर चौक के नये-बनते, मगर तब उजाड़-उजाड़ से इलाके में एक फ्लैट में चला आया, जो नरेन्द्र ने सेंट्रल बैंक ही के अपने एक सहकर्मी के साथ मिल कर लिया हुआ था। फ्लैट मजे का बड़ा था। नरेन्द्र का सहकर्मी किसी समय कानपुर में महीप सिंह का सहचर रह चुका था, बुलवर्कर से नियमित कसरत करता था और इन दो कवियाए प्राणियों को चिडि़याघर की कोई नायाब प्रजाति समझता था। 1977 की गर्मियों में जब मैंने भोपाल-प्रवास के दौरान एक रात नरेन्द्र के साथ गुजारी थी तो ‘पवित्र विचार’ के दौरान नरेन्द्र के सहकर्मी ने हम सबके सामने यह प्रस्ताव रखा था कि अगर हम लोग सुरा के साथ शाम को किसी सुन्दरी के साहचर्य से और रंगीन बनाना चाहते हों तो वह इसका भी बन्दोबस्त करने की क्षमता रखता था। उसने इशारा किया था कि इस नयी बनती-बसती आबादी में बाहर से आयी मज़दूरिनें बख़ूबी तैयार हो जायेंगी। प्रकट ही वह अनुभव से ऐसा कह रहा था।

मंगलेश ने इस पेशकश को, जो यकीनन बड़ी फूहड़ थी, सुन कर बहुत खराब-सा मुँह बनाया था और प्रेम पर एक भाव-भरा भाषण झाड़ दिया था। बिना प्रेम के किसी के साथ सम्बन्ध बनाना उसकी नजर में निहायत नावाजिब बात थी, जो कि ठीक भी है। नरेन्द्र ने जिसकी तब तक शादी नहीं हुई थी बड़ी शाइस्तर्गी से इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था और वे सज्जन जैसे कुछ हुआ ही न हो के भाव से पूर्ववत सुरा तक सीमित हो गये थे। मुझे यह नहीं मालूम कि वे हज़रत जो नरेन्द्र के सहकर्मी थे शादीशुदा थे या नहीं, पर नरेन्द्र की शादी नहीं हुई थी और उन्हीं दिनों उसने अरनेस्तो कार्देनाल की ढेरों प्रेम कविताओं का अनुवाद लंदन मैगजीन से किया था -- क्लाडिया के नाम गीत। जाहिर है उस मनःस्थिति में उसे अपने सहकर्मी का प्रस्ताव काफी नागवार लगा होगा। मंगलेश हालांकि शादी-शुदा था, लेकिन अभी वह और संयुक्ता साथ नहीं रहने लगे थे, परिस्थितियां उसे उखाड़ कर भोपाल ले आयी थी जहां वह अजीब-सी घुटन महसूस करता था और ढेर सारी कला के बीच कुछ इस तरह मौजूद था मानो प्यासा समन्दर के बीचों-बीच। ऊपर से जैसा मैंने कहा वह एक युवा महिला चित्रकार के उद्धार में भी जुटा हुआ था, जिसे वह सम्भावित शोषण से बचाना चाहता था। इस चक्कर में वह खुद उसके आकर्षण में फंसता जा रहा था और 1977 के आते-आते एक प्रवाद भी फैलने लगा था।

तभी कई घटनाएं एक साथ हुईं। इलाहाबाद के पुराने समाचार-पत्र समूह ‘नार्दर्न इण्डिया पत्रिका’ ने ‘अमृत प्रभात’ के नाम से हिन्दी अख़बार निकालने का फैसला किया। उन्हीं दिनों विश्वमोहन बडोला जो दिल्ली में अपने अभिनय से काफी धाक जमा चुके थे ‘नार्दर्न इण्डिया पत्रिका’ के समाचार-सम्पादक हो कर इलाहाबाद आये और लूकरगंज फील्ड के थोड़ा आगे, बायें हाथ की एक गली में बनी छोटी-सी बंगलिया में जम गये। बडोला जी की पूरी कोशिश थी कि मंगलेश ‘अमृत प्रभात’ में रविवासरीय परिशिष्ट का प्रभारी बन कर सह-सम्पादक की हैसियत से आ जाय। तीसरी घटना यह हुई कि वीरेन डंगवाल, जो 1971 में बरेली कालेज में जा कर पढ़ाने लगा था, किन्हीं शैक्षणिक और ऐकेडेमिक अनिवार्यताओं को पूरा करने के लिए पी.एच.डी. करने के उद्देश्य से इलाहाबाद आ गया। इस बीच वीरेन की शादी इलाहाबाद ही के भट्ट परिवार की लड़की रीता से हो चुकी थी, एक छोटा-सा बेटा भी था, जिसे सब तुर्की कहते थे। उसे मकान की तलाश थी।

एक बार फिर मुझे वीरेन के साथ इलाहाबाद के तूल अर्ज को मोटरसाइकिल पर नापना पड़ा ताकि वीरेन के लिए मुनासिब जगह खोजी जा सके, जैसे एक बार पहले भी मैं रवीन्द्र कालिया के साथ कर चुका था। चूंकि इन्हीं दिनों मंगलेश के भी इलाहाबाद आने की खबर गर्म थी इसलिए मन के किसी कोने में यह खयाल भी था कि ऐसा फ्लैट या मकान खोजा जाय, जिसे ये दोनों साझे में इस्तेमाल कर लें। इधर मैं वीरेन के साथ मकान ढूंढ रहा था, उधर मंगलेश अपने आने की तारीख़ को (जाहिर है भोपाल के उसी चक्कर में) टाले जा रहा था। बहरहाल, हमारी परेशानी को देख कर मेरे छोटे भतीजे ने एक दिन कहा कि वीरेन चाचा को पीछे गुप्ता जी वाला फ्लैट दिला दीजिए वह अभी खाली हुआ है और वे किराये पर उठाना चाहते हैं।

गुप्ताजी गालिबन पी. डब्ल्यू. डी. में ओवरसियर थे और उन्होंने ऊपर से काफी पैसे बनाये थे, जिनसे उन्होंने हमारे बंगले के बायें हाथ पीछे वाली ज़मीन खरीद कर उस पर दोमंजि़ला मकान बनाया था, जिसमें चार फ्लैट थे। सामने के ऊपर वाले फ्लैट में गुप्ता जी अपनी पत्नी तीन बेटियों और दो बेटों के साथ रहते थे, नीचे के फ्लैट में उनके बड़े भाई जिनकी खुल्दाबाद बाजार में घी-तेल की दुकान थी; पीछे के नीचे वाले फ्लैट में कानूनी किताबों के एक प्रकाशक का डेरा था और ऊपर का फ्लैट हाल ही में खाली हुआ था। किराये पर चढ़ा कर कुछ अतिरिक्त आमदनी हासिल करने के मकसद से बनवाये जाने के बावजूद फ्लैट अच्छे थे, खुले और हवादार, खास तौर पर ऊपर के फ्लैट। नीचे के फ्लैट चारों तरफ से घिरे होने की वजह से कुएं का-सा आभास देते।

वीरेन को यह फ्लैट पसन्द आ गया। तीन कमरे थे। एक को वीरेन ने अपना सोने का कमरा बना लिया, एक को मंगलेश के लिए छोड़ दिया और तीसरे को साझी बैठक के तौर पर और बाहर से किसी आये-गये के ठहरने के लिए सजा दिया। सबसे पहले वहाँ वीरेन आया और आते ही उसने फौरन वहाँ लगभग वैसी ही अव्यवस्था फैला दी जैसी गंगानाथ झा छात्रावास में रमेन्द्र के साथ एक ही कमरे में रहते हुए उसने फैलायी हुई थी।

रहा मंगलेश तो उसे जुलाई-अगस्त 1977 तक इलाहाबाद आ जाना था। लेकिन वह उसी रूमानी चक्कर के चलते इलाहाबाद आना नवम्बर तक टालता रहा। लेकिन अन्ततः उस रूमानी चक्कर को उसके अंजाम तक पहुंचाने के जोखिम को न उठा पाने के कारण सारी हीला-हवाली के बाद मंगलेश भी आ पहुंचा और उसने अपने कमरे में चटाई बिछा कर सोने का इंतजाम किया। ताक में कागज बिछाकर होम्योपैथी की गाइड से ले कर कविता-पुस्तकों तक सब कुछ बेहद करीने से लगा लिया।

अगले तीन साल तक जब तक मैं बी.बी.सी. की नौकरी पर लंदन नहीं चला गया, उस फ्लैट में बेतरतीबी और करीने का यही दुराज दिखता रहा। मुझे याद है अभी मंगलेश पहुंचा ही था कि अजय ने दिल्ली से एक पोस्टकार्ड लिख कर पूछा था कि ‘भोपाली पंछी’ वहाँ पहुंचा कि नहीं। भोपाल का लासा छुड़ाने में मंगलेश की टालमटोल की खबरें दिल्ली पहुंच चुकी थीं। इस पत्र के आने पर मंगलेश काफी खफा हो गया था, क्योंकि हम उसे लगातार ‘भोपाली पंछी’ कह कर छेड़ते रहे थे।

जब वीरेन और मंगलेश वहाँ पहुंचे तब शायद बरसात का मौसम ख़त्म हो रहा था। उनके फ्लैट का फैसला करने के बाद और वीरेन के बरेली से आने के बीच के तीन-चार महीनों में मैं एक बार भोपाल का चक्कर लगा आया था और वापसी पर इटारसी पहुंचकर संक्रमण का शिकार हो कर इलाहाबाद आते ही तेज बुखार में पड़ गया जो तीन-चार बार टूट कर फिर चढ़ने के बाद टायफायड निकला था और जब वीरेन-मंगलेश अपने फ्लैट में आये तो मैं उस लम्बी बीमारी से उठा ही था। दोनों मकान इतना सटे हुए थे कि अपनी छत से हाथ बढ़ा कर मैं उनकी बालकनी से चाय का प्याला या तश्तरी ले-दे सकता था। जाहिर है, हर सुबह-शाम मैं इधर से और मंगलेश-वीरेन उधर से महफिल जमाते और दिन भर का कार्यक्रम तय करते। इन दोनों के वहाँ आ जाने से मेरा वह अकेलापन जो ज्ञान के जबलपुर जाने के बाद मुझ पर तारी हो गया था और पहले 1971 में वीरेन के बरेली जाने और 1974 में रमेन्द्र के एस.डी.एम. बन कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में पोस्टिंग पर चले जाने से गहरा हो गया था, और जिसे दूर करने के लिए मैं कभी पटना जाता, कभी दिल्ली और कभी भोपाल, एकबारगी छंट गया।

बडोला जी वहाँ थे ही। सो, महफिलों का दौर फिर शुरू हो गया। सत्यप्रकाश भी बाहर से घूम-घाम कर इलाहाबाद आ गया था और इलाहाबाद डिग्री कालेज में अध्यापन करने लगा था। कभी बैठकी हमारे यहाँ होती, कभी बडोला जी के यहाँ और कभी वीरेन-मंगलेश के फ्लैट में। बीच-बीच में ज्ञान भी आ जाता और हालांकि उसने रवि के यहाँ की बैठकी छोड़ी नहीं, पर वह अक्सर इधर भी पाया जाता। चूंकि उसका घर लूकरगंज में ही था, सो मिलने-मिलाने के लिए उसे तरद्दुद न करना पड़ता।
1977 से 1980 तक के ढाई-तीन साल मेरे लिए फिर से, कहा जाय कि, नवोत्थान के वर्ष थे। यह बात दीगर है कि इसी अवधि में मैंने हिन्दी फिल्मों के बदलते स्वरूप की तरह दोस्तियों के बदलते रूप को भी देखा।
(जारी)

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