नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पैंतालीसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - ४५
मित्रता की सदानीरा - २४
इटारसी से भोपाल तक का रास्ता उन दिनों कार से भी लगभग डेढ़ेक घण्टे का था, लेकिन हमें कोई जल्दी तो थी नहीं, सो डा. जेकब औसत रफ़्तार से ही आयी थीं। कर के अन्दर भी माहौल चूंकि बहुत बोझिल हो गया था इसलिए मुझे रास्ते में देखी गयी दृश्यावली की कुछ याद नहीं है, गो उस इलाके का एक अपना ही सौन्दर्य है। मेरा सारा ध्यान भोपाल पहुंचने की तरफ़ लगा हुआ था।
1984 तक राजेश जोशी शादी कर चुका था और मारवाड़ी रोड पर ताज स्टूडियो के ऊपर वाला मकान छोड़ कर जवाहर चौक पर बनी एक बहुमंजि़ला इमारत के फ्लैट में आ गया था। उन दिनों हालांकि टी.टी. नगर और जवाहर चौक में बसावट घनी होनी शुरू हो गयी थी, पर उसकी रफ्तार आज की-सी या नब्बे के भी दशक की-सी हरारत-जदा नहीं थी। राजेश का फ्लैट जिस इमारत में था, वह मुख्य सड़क भदभदा रोड से थोड़ा पीछे हट कर थी, सामने दुकानों की कतार अभी नहीं बनी थी और घूम कर जाने की बजाय सड़क पर उतर कर सामने की खाली जगह पार करते हुए सीधे राजेश के फ्लैट तक पहुंचा जा सकता था।
डा. जेकब ने अपनी फिएट सड़क पर ही रोक दी थी और फीकी-सी मुस्कान के साथ, जो देर तक मेरा पीछा करती रही, मुझे विदा दी थी। सामान के नाम पर मेरे पास एक अटैचीनुमा बैग था। मैं उसे उठा कर राजेश के फ्लैट की तरफ बढ़ गया था।
अर्से बाद राजेश से मुलाकात ने पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी थीं, जब वह मारवाड़ी रोड पर रहता था और मैं आ कर उसके पास ठहरा करता था। नरेन्द्र का तबादला चूंकि होशंगाबाद हो गया था, इसलिए उस बार राजेश के अलावा शायद राजेन्द्र शर्मा से ही भेंट-मुलाकात हुई थी या फिर रामप्रकाश त्रिपाठी से। भोपाल का नक्शा भी पहले की बनिस्बत बदला हुआ नज़र आ रहा था। 1977-78 का सुस्तरौ, मस्त-मलंग भोपाल धीरे-धीरे उस तब्दीली की राह पर कदम बढ़ा चुका था जो 1980 और 90 के दशकों में उसकी काया पलट देने वाली थी। चूंकि यह पहला सफर सिर्फ पुराने सम्बन्धों को ताजा करने की खातिर किया गया था, इसलिए पुराने दोस्तों से मिलता-मिलाता मैं दिल्ली चला आया और फिर इलाहाबाद।
इलाहाबाद पहुंच कर मैं कुछ ही दिन बाद पटना चला गया था और पटना से मुजफ्फरपुर के रास्ते पर था, जब हमें श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या का समाचार मिला।
हालांकि मुजफ्फरपुर में सिखों के खिलाफ वैसे दंगे नहीं भड़के थे, जैसे दिल्ली और दूसरे कुछ शहरों में, तो भी हो-हल्ले और उपद्रव की आशंका को देखते हुए प्रशासन ने आंशिक रूप से कफ्र्यू लगा दिया था। जितने दिन हम मुजफ्फरपुर रहे, मेरा समय विजयकान्त, राजेन्द्र प्रसाद सिंह और पद्माशा के साथ बीता। तीन-चार दिन बाद हालात कुछ सामान्य होने पर मैं इलाहाबाद आ गया था, जहां ज्ञान का पत्र मेरा इन्तज़ार कर रहा था।
‘पहल’ की छपाई हाथ में लेने के साथ ही चूंकि मैं ज्ञान से अपनी लम्बी कविता ‘उत्तराधिकार’ को ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में छापने का आश्वासन ले आया था, जैसे कि पहले भी नेरूदा की कविता ‘माच्चू पिच्चू के शिखर’ का मेरा अनुवाद छपा था या राजेश की लम्बी कविता ‘समर गाथा’ या फिर मयाकोवस्की की कविता ‘लेनिन’ का अजय कुमार द्वारा किया गया अनुवाद, इसलिए मेरी व्यस्तता बढ़ गयी थी। अलावा इसके मैं ‘जनसत्ता’ के लिए नियमित रूप से लेख-टिप्पणियां और समीक्षाएं लिखने लगा था।
इस बीच गालिबन ज्ञान एकाध बार आया था, लेकिन इलाहाबाद में उसके साथ ‘पहल’ के काम को समझने-समझाने के अलावा पहले की तरह घूमने-फिरने और अड्डेबाजी करने के अवसरों की स्मृति नहीं है। वह कालिया के ‘इलाहाबाद प्रेस’ जरूर जाता और चूंकि कालिया के यहाँ मैंने न जाने की ठानी हुई थी, इसलिए यह एक अजीब-सी विभाजित दोस्ती थी। मंगलेश, वीरेन और बड़ोला साहब इलाहाबाद से विदा हो चुके थे। उनके साथ ज्ञान की दोस्ती को साझा करना तो मुझे गवारा था, पर कालिया के साथ नहीं, क्योंकि कालिया की जैसी आदत है, वह कोई टुच्ची बात करने से खुद को रोक न पाता था और मेरी प्रकृति ऐसे व्यवहार को तरह दे जाने की नहीं थी और मैं ज्ञान को किसी अस्वस्तिकारक स्थिति में नहीं डालना चाहता था।
मेरे पिता कहते भी थे कि दोस्तियां और प्रेम-सम्बन्ध जरूरी नहीं कि दुतरफा हों; अक्सर वे इकतरफा होते हैं। लिहाजा, चूंकि मैं ज्ञान को बहुत पसन्द करता था, इसलिए उससे ठेस पहुंचने के बाद भी मैंने दिल को समझा लिया था कि दोस्ती नामक इस नदी से जितना जल तुम्हें मिलता है, ले लो; वह दूसरों को भी सींचती है, कई बार तुम्हारे तट को सूखा रख कर उनके किनारों को हरा-भरा बनाये रखती है तो इस पर कुढ़ो मत।
वैसे भी उन वर्षों में मेरा समय और ध्यान बहुत सारी दूसरी बातों में लगा हुआ था। लन्दन से आने के बाद सीपीआई माले लिबरेशन के मेरे पुराने साथियों ने मुझे प्रस्तावित सांस्कृतिक संगठन "जन संस्कृति मंच" की तैयारियों में शामिल कर लिया था। गोरख पाण्डे उन दिनों शहर-दर-शहर इस सिलसिले में दौरा कर रहे थे और अक्सर इलाहाबाद आते।
मेरा इरादा दिसम्बर 1984 में फिर भोपाल की तरफ जाने का था और सोचा था कि जबलपुर भी जाऊंगा, लेकिन चूंकि दिसम्बर में भोपाल गैस काण्ड हो गया, इसलिए वहाँ जाने का इरादा मुल्तवी हो गया था और मैंने इस बीच लखनऊ का एक चक्कर लगाया था। वहाँ अजय सिंह और अनिल सिन्हा से मुलाकात हुई थी और शायद अजय के घर पर ही मैंने "उत्तराधिकार" का पाठ किया था। वहाँ अजय और अनिल के अलावा एक नये साथी सुप्रिय लखनपाल भी मौजूद थे, जिन्होंने कुछ अच्छे सुझाव दिये थे।
चूंकि मार्च 1984 में मेरे लन्दन आने के बाद से अक्तूबर 1984 में ‘जन-संस्कृति मंच’ के स्थापना सम्मेलन तक वक्त इस कदर हलचल और सरगर्मियों से भरा था कि भोपाल, दिल्ली, लखनऊ, पटना और जबलपुर की यात्राओं को एकदम बाकायदगी से सिलसिलेवार सजाना मुमकिन नहीं है। थोड़ी-बहुत मदद पत्रों से या ‘जनसत्ता’ और ‘नवभारत टाइम्स’ में छपी रचनाओं की कतरनों से मिल सकती है और मैंने उन्हीं के आधार पर घटनाओं को बयान करने की कोशिश की है। ऐन मुमकिन है कोई वाकया -- खास तौर पर बोलना-बतियाना -- एक यात्रा से हट कर दूसरी यात्रा में नत्थी हो गया हो पर इससे ज़्यादा उसमें फेर-फार नहीं हुआ है।
चूंकि ज्ञान के 28 अक्तूबर, 1984 के पत्र में साडि़यों के पसन्द आने के बारे में दरियाफ्त की गयी है, इसलिए मेरी पहली जबलपुर और भोपाल यात्रा उससे पहले ही हुई होगी। अक्तूबर अन्त से 4-5 नवंबर, 1984 में मैं पटना-मुजफ्फरपुर में था। उसके बाद भोपाल मैं गालिबन फरवरी में गया था। बीच में लखनऊ और दिल्ली के चक्कर लगे थे, क्योंकि ‘उत्तराधिकार’ के छपने से पहले उसे लखनऊ में सुप्रिय लखनपाल तथा अन्य मित्रों को सुनाने की मुझे याद है और दिसम्बर में असगर वजाहत की फिल्म ‘गजल की कहानी’ को देख कर नवभारत टाइम्स में उसकी समीक्षा करने की भी। चूंकि उदय प्रकाश के दूसरे कविता संग्रह ‘अबूतर कबूतर’ की समीक्षा ‘जनसत्ता’ में 3 फरवरी, 1984 को छपी और इसी के बाद भोपाल जाने पर वहाँ मित्रों ने टीका-टिप्पणी की थी (जिसका ब्योरा आगे आयेगा) और भोपाल से दिल्ली आने पर मार्च में मैंने भोपाल गैस त्रासदी की पृष्ठभूमि में ‘विश्व कविता उत्सव’ मनाने पर तीखी टिप्पणी जनसत्ता के लिए लिखी थी, इसलिए मेरी भोपाल यात्रा मध्य फरवरी में ही किसी समय हुई होगी। ये ब्यौरे मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि अक्सर स्मृतिलेखाकारों पर झूठी-सच्ची और मनघड़न्त बातें लिखने के आरोप लगाये जाते रहे हैं।
फरवरी 1985 में जब मैं भोपाल गया तो हस्बमामूल राजेश के यहाँ ही ठहरा। शशांक उन दिनों वहीं था, जबकि नरेन्द्र तबादले के बाद गालिबन होशंगाबाद से विदिशा चला गया था और विजयबहादुर सिंह के साथ संगत कर रहा था। सबसे पहले तो मुझे राजेश ने आड़े हाथों लिया कि मैंने उदय प्रकाश के कविता-संग्रह ‘अबूतर कबूतर’ की समीक्षा क्यों की और अगर की तो तारीफ क्यों की। मुझे आज तक राजेश के शब्द याद हैं। उसने कहा था, ‘साल भर से वह संग्रह इग्नोर्ड पड़ा हुआ था, तुम्हीं रह गये थे उस पर लिखने के लिए।’ शशांक ने इस ताईद में टिप्पणी की थी और उदय को नवगीतकार बताया था। शशांक को तो खैर मैंने डपट दिया था, लेकिन राजेश को समझाया था कि अव्वल तो हमें अपनी साथी रचनाकारों के प्रति विद्वेष से काम नहीं लेना चाहिए, उनसे मतभेद हों, झगड़ा हो, मनमुटाव हो, पर लड़ाई को रचना के स्तर पर नहीं ले जाना चाहिए। ठीक है, अगर किसी का लिखा हमें पसन्द नहीं आता तो इसका यह मतलब नहीं कि हम उसके चुप हो जाने की कामना करें या इसके लिए प्रयत्नशील हों। दूसरे यह कि मुझे वह संग्रह पढ़ कर जैसा लगा वैसा मैंने लिखा, राजेश को मेरी निष्ठा पर शक करने का कोई हक नहीं है। मैं नामवर जी नहीं हूं कि वक्त के मुताबिक अपनी राय जाहिर करूं या बयान बदलूं।
राजेश ने आगे कुछ नहीं कहा था और बात वहीं ख़त्म हो गयी थी, लेकिन मुझे बड़ा अजीब लगा था। कारण यह कि इस समीक्षा के प्रकाशित होने के बाद दिल्ली में पंकज सिंह मुझसे कह चुका था - क्या तुम आशीर्वादीलाल हो गये हो।
यह भी उस बड़ी तब्दीली के छोटे-छोटे संकेत थे जो अस्सी के दशक में साहित्य और साहित्यकारों के जगत में आती जा रही थी, पुरानी क़दरों, सम्बन्धों, मूल्यों को तहस-नहस करती।
(जारी)
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