Thursday, June 30, 2011

देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उनचासवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४९



मित्रता की सदानीरा - २८


खैर, अब जबकि मैंने पहल की छपाई वगैरा से खुद को अलग करने का फैसला कर लिया था तो रकम का देर से आना भी कोई मानी नहीं रखता था। जब मित्रता ही में बाल आ गया तो रकम की क्या हैसियत। उसके बाद ज्ञान ने फिर शायद शिव कुमार सहाय से कोई बन्दोबस्त कर लिया था, क्योंकि पहल 30 और 31 के अंक सहाय जी के परिचित प्रेस से छपे थे और पहल 31 में तो प्रकाशन सहयोग के तौर पर बालकृष्ण पाण्डे, शिवकुमार सहाय और अशोक त्रिपाठी के नाम गये थे।
मन उन दिनों इतना खट्टा हो गया था कि अगले दो साल तक ज्ञान से पत्र-व्यवहार बिलकुल बन्द रहा। अलबत्ता ज्ञान का दूसरा पत्र आने के बाद मैंने वास्तविक स्थिति जानने के लिए एक दिन अपने दफ्तर में अशोक भौमिक और विनोद कुमार शुक्ल को एक-दूसरे के सामने करा दिया था। गरमा-गरमी इतनी बढ़ गयी थी कि लगा हाथापाई न हो जाये। इससे मुझे एक बात पता चल गयी थी कि इयागो की भूमिका विनोद कुमार शुक्ल ही ने निभायी थी। अशोक बस इतने भर के गुनहगार थे कि जब वे विवेचना वाले कार्यक्रम में जबलपुर या जाने कहां गये थे और मैंने उनसे यह ताकीद की थी कि वे ज्ञान से दो टूक बात करके आयें तो वे महज लीपा-पोती करके चले आये थे, जो उनकी फ़ितरत थी और आज भी है।

चूंकि मन उचट गया था इसलिए मैंने उसे दूसरी तरफ लगाना शुरू किया। बहुत देर अवसाद में ऊभ-चूभ करते रहना मेरी फितरत में वैसे ही नहीं था। सितम्बर अन्त 1986 में जसम का पहला राज्य सम्मेलन इलाहाबाद में होने वाला था और उसकी तैयारी का काम शुरू हो चुका था। मैंने ज्ञान वाले प्रसंग को पीछे धकेल कर आगे की तरफ देखना शुरू किया।

इसके बाद लिखने को बहुत नहीं है। अगले दो वर्ष तक ज्ञान से सम्पर्क लगभग टूटा रहा। बीच-बीच में उसके पत्र आते, जिनमें कवियों द्वारा एक-दूसरे के संग्रहों पर लिखने और साथ में कवियों की दो-दो कविताओं को प्रकाशित करने की बातें होतीं। लेकिन यही वह दौर था जब हिन्दी प्रयोजनमूलक युग में प्रवेश कर रही थी, कविगण आत्म-विभोर, यश लोलुप और उच्चाकांक्षी हो रहे थे। उस विद्वेष के बीज बोये जा रहे थे, जो आज हिन्दी के साहित्यिक क्षेत्र में जगह-जगह व्याप्त है। ज्ञान की इन योजनाओं का कुछ बना हो, इसका मुझे कोई इल्म नहीं है। मुझे इतना मालूम है कि ‘पहल’ के समूचे दौर में जो 1973 से लेकर 2009-10 तक फैला हुआ है, मेरे किसी संग्रह की चर्चा नहीं हुई। कविताएं भी मेरी शायद कविता विशेषांकों ही में छपीं।

फिर पहले कवितांक के दस वर्ष बाद ‘पहल’ के दूसरे कवितांक की योजना बनी। अब तक ‘पहल’ के चार संयुक्त प्रकाशन सहयोगी हो चुके थे। बालकृष्ण उपाध्याय, सहायजी, अशोक त्रिपाठी के साथ राधारमण अग्रवाल का नाम भी जुड़ गया था। जब ज्ञान का पत्र कविताओं के लिए आया तो पहले मेरा मन ही नहीं हुआ कविता भेजने के लिए। लेकिन फिर यह सोच कर कि व्यर्थ के विवाद से क्या फायदा, मैंने कविताएं भेज दी थीं। दिलचस्प बात यह है कि मुझसे छपाई और प्रूफ की अशुद्धियों की शिकायत करने वाले ज्ञानरंजन की नजर इस कवितांक की छपाई और प्रूफ की भयंकर अशुद्धियों पर नहीं पड़ी थी। खैर, इसके बाद पत्र-व्यवहार का क्रम बहुत विरल हो गया था। सन् 1989 से 2006 के बीच ज्ञान के सिर्फ पांच-छह पत्र हैं और शायद इतनी ही मुलाकातें। याद रहने लायक सिर्फ तीन हैं। पहली तो जब अचानक 1996 के पुस्तक मेले में ज्ञान से भेंट हो गयी। यह अकेले-अकेले वाली मुलाकात नहीं थी। बहुत-से लोग थे। मुझे हरजीत की याद है और घास के मैदान में सबके साथ गोला बना कर बैठना भी। उस मुलाकात में भी कुछ पर्देदारी रही होगी, क्योंकि उसके बाद ज्ञान का एक बहुत अच्छा पत्र आया था, जिसमें पहले का-सा खुलूस था।

दूसरी मुलाकात गालिबन 2001 में हुई थी जब मैं अपने सहयोगी इरफान के साथ महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की एक परियोजना के सिलसिले में लेखकों के इण्टरव्यू रिकार्ड करता हुआ उत्तर भारत के अन्य शहरों के साथ-साथ जबलपुर भी गया था। काम-काजी दौरा था और मुलाकात मुख्तसर थी।

लेकिन तीसरी मुलाकात दिलचस्प ही नहीं थी, बल्कि उसमें हास्य से ले कर विद्रूप तक नाना प्रकार के रस और भाव थे.
(अगली किस्त में समाप्य)

Wednesday, June 29, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अड़तालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४८


मित्रता की सदानीरा - २७

बात यह थी कि उसी दोरान विनोद कुमार शुक्ल नाम के एक रेलवे कर्मचारी प्रकाशन की दुनिया में दाखिल हुए। वे विभूति नारायण राय के मुसाहिबों में से थे और उन्होंने अनामिका प्रकाशन के नाम से विभूति नारायण राय की कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की थीं। विभूति के जरिये पुलिस के महकमे में उनकी अच्छी रसाई हो गयी थी। यों समझिये कि वे एक छोटे-मोटे ठेकेदार थे, जो साइड-बिजनेस के तौर पर प्रकाशन करते-करते बड़े प्रकाशक बनना चाहते थे। उन दिनों के विभूति नारायण राय के यहाँ लगभग निजी सचिव की तरह आते-जाते और शायद ‘वर्तमान साहित्य’ का भी काम-धाम देखते थे। उन्हें ज्ञान के साथ मेरे बन्दोबस्त का इल्म तो था नहीं, वे गालिबन यही सोचते थे कि मुझे ‘पहल’ की छपाई से कुछ फायदा होता है और उनकी इच्छा थी कि उन्हें ‘पहल’ और ‘पहल पुस्तिका’ की छपाई आदि का काम मिल जाये जिसके सहारे वे अपने सम्पर्क-सूत्रों का विस्तार कर सकें और घेलुए में कुछ कमाई कर लें। दिलचस्प बात यह थी कि ‘किशोर प्रिंटर्स’ उनके साले या बहनोई का ही था, वे भी अगर छपाई का काम पा जाते तो ‘किशोर प्रिंटर्स’ ही से छपाते। अलबत्ता, बाकी खर्चे-पानी से वे जरूर कुछ बचा लेते। उनकी और ‘किशोर प्रिंटर्स’ वालों की बातों से मुझे उनके मंसूबों की सुन-गुन थी, लेकिन मैं मन की बात जाहिर किये बिना अन्दर-ही-अन्दर मजा लेता था।

इसमें कोई शक नहीं है कि ‘पहल’ के कहानी विशेषांक के छपने में विलम्ब हुआ था। इसका एक कारण तो यह था कि उसकी पाण्डुलिपि हमें टुकड़ों-टुकड़ों में मिलती रही थी, जिसकी वजह से क्रम लगातार बदलता रहता था। आज तो लेजर कम्पोजिंग में कम्पोज की हुई सामग्री बेहद आसानी से आगे-पीछे की जा सकती है, पंक्तियां काटी या जोड़ी जा सकती हैं, मगर हैण्ड कम्पोजिंग के युग में ऐसा सम्भव न था। फिर ‘किशोर प्रिंटर्स’ ‘पहल’ के पुराने मुद्रक "स्टार प्रिंटर्स" के अमीन साहब जितने साधन-सम्पन्न और अनुभवी नहीं थे। चूंकि छपाई के लिए दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता था, इसलिए भी विलम्ब हुआ था। तीसरा कारण विनोद कुमार शुक्ल की खुड़-पेंचिया फितरत का कोई कारनामा हो सकता था, क्योंकि वे तुले बैठे थे कि मुझे अपदस्थ करके ‘पहल’ का काम अपने हाथ में ले लें। ज्ञान से उन्होंने सम्पर्क साध लिया था और ज्ञान ने उन्हें धीरे-धीरे छोटे-मोटे काम सौंपने शुरू कर दिये थे, मसलन, इलाहाबाद के लेखकों को ‘पहल’ की प्रतियां पहुंचाना, वगैरा, वगैरा।

इस सबका नतीजा यह हुआ कि ‘पहल’ का कहानी विशेषांक देर से ही नहीं छपा, बल्कि इसी अंक के साथ जारी पुस्तिका जितना सुन्दर छपा भी नहीं लगा।

कहानी विशेषांक में हुई देर की भरपाई करने के लिए यह तय किया गया कि पहल-29 जल्दी से छाप दी जाय। लेकिन तय करना एक बात है, उसे अंजाम देना दूसरी। थोड़ी देर इस बार भी हुई, लेकिन आखिरकार मार्च 86 के तीसरे हफ्ते तक पहल-29 छाप कर जबलपुर भेज दी गयी और 25 मार्च को ज्ञान का पत्र आया कि अंक मिल गया है, छपाई बहुत अच्छी है, लेकिन बकाया पैसों का इंतजाम वह 15 अप्रैल तक ही कर सकेगा। मैं तब तक पुस्तिका की छपाई को छोड़ कर सारा हिसाब चुकता कर चुका था, इसलिए मुझे पैसों की सख्त जरूरत थी। पर मैंने सोचा पन्द्रह-बीस दिन की बात है, पैसे आ ही जायेंगे।

तभी जब मैं ज्ञान से बकाया पैसों की उम्मीद लगाये हुए था, उसका 13 अप्रैल का पत्र आया। पत्र क्या था, पत्र-बम था। उसमें ज्ञान ने एक के बाद एक मुझ पर तीन आरोप ठोंक दिये थे और तीनों का ताल्लुक मेरी ईमानदारी से था। पहली बात जो ज्ञान ने लिखी वह अशोक भौमिक के बारे में थी - ‘अभी मुझे यह जानकारी मिली है कि अशोक भौमिक को शायद पारिश्रमिक की राशि नहीं मिली है। जबकि हम लगातार दे रहे हैं। यह बात सही है या गलत मैं नहीं जानता।’

दूसरी बात पहल के कहानी अंक की बिक्री के बारे में थी - ‘पहल के कहानी अंक को तुमने कितने में बेचा है। पुस्तक मेले में यह लोगों को 17 में मिला है।’

तीसरी बात यूं लिखी गयी थी मानो चलते-चलाते याद आने पर लिख दी गयी हो - ‘हां पहल-29 में लगा न्यूज प्रिंट काफी महंगा लग रहा है।’

पत्र पढ़ने के बाद कुछ देर के लिए मैं स्तब्ध रह गया था। आज का जमाना होता तो तत्काल मोबाइल पर तय-तस्फिया कर लेता। पर तब फोन से ट्रंककाल बुक कराके सम्पर्क में भी घण्टों लग जाते थे और छह मिनट से ज़्यादा बात नहीं हो पाती थी। लिहाजा मैं अन्दर-ही-अन्दर खौलता रह गया था।

मुझे सबसे ज़्यादा आपत्ति ज्ञान के लहजे और सुनी-सुनायी बात पर मुझसे कैफियत तलब करने को ले कर थी। मैं जानता था कि यह आग किसने लगायी थी। लेकिन ज्ञान कान का इतना कच्चा निकलेगा, मैंने कभी कल्पना भी न की थी। अव्वल तो उसे पहले अशोक भौमिक से पूछना चाहिए था कि उन्हें पैसे मिले या नहीं मिले और तब मुझे लिखना चाहिए था। दूसरे ‘अभी मुझे जानकारी मिली है’ से अविश्वास की जो सड़ांध उठ रही थी, उसने ज्ञान और पहल के साथ मेरे लम्बे सम्बन्ध को विषाक्त करके रख दिया था। चूंकि ज्ञान ने अपने कान के कच्चेपन में अशोक भौमिक वाली बात मान ली थी, इसलिए ‘पहल’ की बिक्री और न्यूजप्रिंट की कीमत भी शक के घेरे में आ गयी थी। वरना तय यह हुआ था कि पहल का अंक दस रुपये में और पुस्तिका सात रुपये में बेची जायेगी, फिर यह पूछना कि ‘पुस्तक मेले में लोगों को यह 17 में मिला है’, बेमानी था। न्यूज प्रिंट के सिलसिले में ज्ञान को मैंने बता दिया था कि वह आधिकारिक तौर पर रसीद पर्चे के साथ नहीं मिलता है, जब जैसी खेप आती है, वैसी कीमत देनी पड़ती है, क्योंकि इसे अख़बार चोरी-छिपे बेच देते हैं।

मुझे हैरत इस बात पर भी हुई कि ज्ञान ने इस बात का भी ध्यान नहीं रखा था कि ‘पहल’ की छपाई के सिलसिले में लगातार मैं अपने पास से पैसे लगाया करता था और ज्ञान अपनी सुविधा से उन्हें चुकाता था और मैंने कभी शिकायत नहीं की थी। 1980 में भी जब मैं लन्दन गया था तो पहल की तरफ 1500 से ऊपर की राशि निकलती थी, जिसमें से ज्ञान ने सिर्फ 500/- दिये थे। चार साल बाद जब मैं लौट कर आया था तब भी यह रकम वैसी-की-वैसी पड़ी हुई थी, जबकि मेरे बड़े भाई ने ज्ञान को बार-बार याद कराया था। ज्ञान ने तब भी यह हिसाब चुकता नहीं किया था, जब मेरे पीछे मेरे बड़े भाई बहुत बीमार हो गये थे। 1980 में 1100/- की राशि कुछ मानी रखती थी। लेकिन मैंने ज्ञान को कोई उलाहना दिये बगैर फिर से ‘पहल’ की छपाई को हाथ में ले लिया था।

जाहिर है, मन की जो हालत थी, उसमें मुझे ज्ञान के इस अविश्वास-भरे रवैये से सख्त चोट पहुंची थी। मैंने तत्काल उसे एक तीखा पत्र लिखा था। ज्ञान ने पलट कर जवाब दिया था और चूंकि विनोद कुमार शुक्ल वाली मेरी बात सही थी, इसलिए उसने उसे और अशोक भौमिक वाली बात को किनारे करके कुछ और नये आरोप मुझ पर लगा दिये थे। 26 अप्रैल के इस पत्र का जवाब मैंने दिया या नहीं, या दिया तो क्या दिया मुझे मालूम नहीं। बहुत-से पत्रों की प्रतिलिपियों मैं रखता नहीं था। वैसे भी मन इतना खिन्न और मुँह का स्वाद इतना बदमजा हो गया था कि मैंने फैसला कर लिया था अब ज्ञान के साथ ज़्यादा सम्बन्ध नहीं रखना है और ‘पहल’ के सिलसिले को यहीं तोड़ देना है। 26 अप्रैल के पत्र के बाद मेरे पास ज्ञान का सिर्फ 1/7 का एक कार्ड इस प्रसंग से सम्बन्धित मौजूद है, जिसमें उसने अपने पत्र के उत्तर न मिलने की बात लिखी है और जल्द-से-जल्द रकम भिजवाने की भी। 15 अप्रैल खिसक कर जुलाई के आगे तक टल गया था।

मैंने ज्ञान के इस 1 जुलाई के पत्र का जवाब दिया या नहीं दिया, यह लगभग चौथाई सदी बीत जाने पर मुझे याद नहीं । बस इतना याद है कि मैं उस पूरे अर्से में बार-बार मैत्री नाम की शै के बारे में सोचता. ज्ञान को जो पहला तीखा पत्र मैंने लिखा था वह मैंने अशोक भौमिक को दिखा दिया था। उन्होंने पूछा भी था कि मैं इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकता था कि इस पूरे प्रसंग के पीछे अनामिका प्रकाशन वाले विनोद कुमार शुक्ल ही का हाथ था। तब मैंने उन्हें विनोद कुमार शुक्ल के सम्बन्धी "लिशोर प्रिंटर्स" से मिली सुन-गुन के बारे में बताया था, पर उन्हें तब भी यक़ीन नहीं हो रहा था। वह तो जब ज्ञान का जवाब आया तब जा कर उन्हें यक़ीन हुआ। लेकिन मेरी दिमाग़ी हालत का इल्म होते हुए भी अशोक भौमिक ने अपनी तरफ़ से इस ग़लतफ़हमी को दूर करने-करवाने में कोई क़दम नहीं उठाया था, जबकि वे कहा जाये इस पूरे झगड़े में एक पार्टी थे। लेकिन जो नहीं है जैसे कि वफ़ादारी उसका ग़म क्या, वह नहीं है।
(जारी)

Tuesday, June 28, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सैंतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४७



मित्रता की सदानीरा - २६


उन दिनों जनसत्ता और नवभारत टाइम्स के दफ्तर, आईटीओ के पास बहादुर शाह जफर मार्ग पर थे। मंगलेश जनसत्ता में था और रब्बी और विष्णु नागर वगैरा नभाटा में। दिन भर वहाँ लोगों जमघट लगा रहता और अशोक वाजपेयी के खिलाफ बयान की तैयारियां चलतीं। रघुवीर सहाय भी इन तैयारियों में शामिल थे। जाहिर है, अनेक कवि अतीत में अशोक वाजपेयी द्वारा उपकृत हो चुके थे, कला परिषद और भारत भवन जा चुके थे, बहुत-से कवि मिजाजन मरंजामरंज थे, इसलिए सारी कोशिश बयान की धार को गोठिल होने से बचाने की थी। अन्तिम प्रारूप को रघुवीर सहाय ने काफी डाइल्यूट करके पास कर दिया और अब इन्तजार सिर्फ नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के हस्ताक्षरों का था। ये दोनों तब जे.एन.यू. में थे और लगातार टालमटोल कर रहे थे। अन्त में उन्होंने बयान पर हस्ताक्षर नहीं ही किये थे और वह उनके नामों के बिना जारी हुआ था।

इस बीच इस सारी ढीलापोली से खीझ कर मैंने एक टिप्पणी ‘उत्सव या तेरही’ के शीर्षक से जनसत्ता में प्रकाशित करा दी। अगले दिन जब रघुवीर सहाय मिले तो उन्होंने शिकायत के-से अन्दाज़ में कहा था कि आपने तो टिप्पणी में सब कुछ लिख ही दिया है। मानो मैंने कोई सेंध लगा दी थी। मैंने उनसे कहा था कि अव्वल तो मेरी टिप्पणी आपके बयान से कहीं अधिक तुर्श है, दूसरे वह इस मामले में कुछ ऐसे पक्षों पर भी चर्चा करती है जो आपके बयान के दायरे के बाहर छूट गये है। और तीसरे यह कि आप लोगों के ढुलमुल रवैये से मेरा मन उकता चुका था। जहां इतने सारे लेखक हस्ताक्षर कर रहे थे, वहाँ नाहक नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के हस्ताक्षर करने की बाट जोहते रहना उन सारे लेखकों के अपमान-सरीखा है, जिन्होंने बिला चूं-चरा के बयान पर हस्ताक्षर कर दिये थे। सहाय जी दुखी हो कर चले गये थे और वह बयान बाद में वैसे ही जारी हुआ था। इस बीच मेरी टिप्पणी को ‘शव पर बैठ कर बहूभात खाना’ का शीर्षक दे कर नव भारत टाइम्ज़ और अमर उजाला ने उद्धृत किया था।

दिल्ली से मैं वापस इलाहाबाद चला गया था और बाकी काम-काज के साथ पहल के अंक और उनके साथ जाने वाली पुस्तिकाएं छपवाने में जुट गया था। ज्ञान उन दिनों मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ में बहुत सक्रिय था, कमला प्रसाद पाण्डे भी उसके साथ थे और संघ के सम्मेलन और बैठकें जगह-जगह हो रही थीं। मैं खुद 25, 26, 27 अक्तूटर 1985 को होने वाले जन संस्कृति मंच के स्थापना सम्मेलन की तैयारियों में व्यस्त था। ऐसी हालत में ज्ञान से भेंट-मुलाकात कम और खतो-किताबत ज़्यादा होती चली गयी थी और वह भी बड़ी कारोबारी क़िस्म की।

उस जमाने में किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को छपाने के लिए आज जैसी सुविधाएं नहीं थीं। दिल्ली जैसी कुछ जगहों में फोटो-कम्पोजिंग की तकनीक आ गयी थी, लेकिन उसका भी इस्तेमाल इक्का-दुक्का साधन-सम्पन्न लोग ही कर पाते थे। हाथ से कम्पोजिंग होती थी और चूंकि बड़े-से-बड़े प्रेस में भी असीमित टाइप नहीं होता था, इसलिए अमूमन दो-चार फर्मे ही एक बार में कम्पोज हो पाते। इनके भी दो-दो बार प्रूफ पढ़ कर गलतियां सुधारने और फिर उन्हें छाप कर आगे की सामग्री को कम्पोज करने के लिए टाइप खाली करने में समय लगता था। इसलिए देर-सबेर होती ही रहती और ज्ञान की सारी शिकायतें ‘पहल’ या ‘पहल पुस्तिका’ के छपने में हुए विलम्ब से सम्बन्धित होतीं और दूसरे खतों में दीगर किस्म के व्यावहारिक ब्यौरे होते। पुराने दिनों में ज्ञान के पत्रों में जो मस्ती, बेफिक्री और ताजगी होती थी, वह कहीं बहुत नीचे दब गयी थी।

तभी ज्ञान ने ‘पहल’ के एक महत्वाकांक्षी अंक की योजना बनायी। 1978-79 में ‘पहल’ का एक कवितांक मंगलेश, वीरेन और मेरे सहयोग से वह प्रकाशित कर चुका था। फिर उसने ‘पहल’ का ‘मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र विशेषांक’ निकाला था। 1985 के अन्त में उसने ‘पहल’ का कहानी विशेषांक प्रकाशित करने का फैसला किया। सामग्री इकट्ठा होने लगी।

इसी बीच हुआ यह कि हमारे पुराने प्रेस वाले अमीन साहब ने, जिनकी टाइप फाउण्डरी भी थी और जो अपने ‘स्टार प्रिंटर्स’ नाम के प्रेस में ‘पहल’ छापते थे, अचानक अपना प्रेस बन्द कर दिया। अमीन साहब के यहाँ ‘पहल’ ही नहीं, हमारे प्रकाशन का भी बहुत काम होता था। वे बहुत भले और लिहाजदार आदमी थे, उधार वगैरा में मुख्वत से काम लेते, जिसकी वजह से ज्ञान को भी राहत रहती। खैर, जब उन्होंने ऐसे वक्त, जब हमें पहले से सधे हुए प्रेस की सबसे ज़्यादा जरूरत थी, अपना प्रेस बन्द करने का फैसला किया तो मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल नया प्रेस खोजने का था।

मैंने ढूंढ-ढांढ कर ‘किशोर प्रिंटर्स’ के नाम से एक प्रेस तय कर लिया, जिनके यहाँ महज कम्पोजिंग की सुविधा थी, छपाई वे बाहर के किसी प्रेस में कराते थे। मैंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रेस में छपाई की व्यवस्था करा दी। चूंकि अंक धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा था और मैं ज्ञान के फैसलों पर निर्भर था, इसलिए मैंने छपाई का आम कागज लगाने की बजाय अच्छे न्यूज प्रिंट पर अंक को छापने का फैसला किया। उन दिनों विदेश से चिकना न्यूज प्रिंट आता था और उस पर छपाई बहुत अच्छी होती थी। लेकिन वह पुस्तकों के प्रकाशकों में लोकप्रिय नहीं था, अख़बारों के अलावा वह पत्र-पत्रिकाओं में इस्तेमाल होता था। प्रूफ वगैरा चूंकि ज़्यादातर मैं खुद ही पढ़ता था और आवरण अशोक भौमिक बनाने थे।

आज तो अशोक भौमिक ख़ासे बड़े चित्रकार हो गये हैं, उनमें चित्रकला की सूझ-बूझ के साथ उन गुणों की भी कोई कमी नहीं है जिनसे प्रसिद्ध हुआ जाता है, वे एक ही वक्त पर शेर और बकरी से दोस्ती निभाने में माहिर हैं, लेकिन जब की बात मैं कर रहा हूं उन दिनों वे दो-तीन साल पहले ही आज़मगढ़ से इलाहाबाद आये थे, ईस्ट इन्डिया फार्मास्यूटिकल्स में विक्रय प्रतिनिधि थे और कला और साहित्य को एक साथ साधने की कोशिश कर रहे थे। उनके अनुरोध पर मैंने ज्ञान से कह कर आवरण के खाते में एक मानदेय की व्यवस्था करा दी थी। यों मैंने अशोक जी से कहा था कि मित्र, मैं तो ज्ञान से इस सारी भाग-दौड़ वगैरा के खाते कुछ लेता नहीं, मोटर साइकिल का पेट्रोल भी अपने पास से डलाता हूं, जो प्रूफ खुद पढ़ता हूं, उनके पैसे नहीं लेता, यहाँ तक कि अगर ‘पहल’ में नीलाभ प्रकाशन का विज्ञापन छपता है तो उसके भी पैसे देता हूं, लेकिन आपकी मांग उचित है, उसूलन तो हमें ‘पहल’ के लेखकों को भी पारिश्रमिक देना चाहिए जो हम नहीं दे पाते, तो भी आपके लिए मैं प्रबंध कर दूंगा।

तब मुझे क्या मालूम था कि आगे चल कर इस सबका सिला मुझे किस सूरत में मिलने वाला है।
(जारी)

Monday, June 27, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छियालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४६



मित्रता की सदानीरा - २५


आज सोचता हूं तो लगता है कि 1980 के दशक ही से साहित्यिक जगत में वह तब्दीली आनी शुरू हो गयी थी, जो आज अपने उरूज पर है - या तो परस्पर पीठ-खुजाऊ, अहो-अहो मार्का गिरोह हैं या फिर भयंकर वैमनस्य और हर स्तर पर उन साथी रचनाकारों को नीचा दिखाने की कोशिश, जिनसे हमारे कारूरे नहीं मिलते। छोटे-छोटे क्षत्रपों की तरह के दरबार हैं। पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ और समझौते हैं। लेखन जनता की आकांक्षाएं व्यक्त करके उनके संघर्षों में हाथ बटाने का उपक्रम नहीं, बल्कि सत्ता के और निकट जाने यहाँ तक कि बज़ाते-खुद सत्ता बन जाने का साधन है। कब कौन कहां टूट कर चला जायेगा कोई हिसाब ही नहीं है। ढेरों लोग अब जिस्म नहीं सिर्फ़ दाहिना हाथ बनने की फ़िक्र में ग़लतान रहते हैं, ताकि आराम से बदलते हुए लोगों में फ़िट हो जायें। एक बन्दा जाये तो ख़दशा न रहे कि बाबू अब अपना क्या होगा। दाहिने हाथ की तलाश दूसरी तरफ़ को भी होती है। ऐसी अजीबोगरीब हमबिस्तरियां हैं कि दिमाग चकरा जाता है। पूरा प्रयोजन मूलक हिन्दी का युग है - प्रयोजन है तो मित्रता और संग-साथ है, अन्यथा जै राम जी की।

बहरहाल, उस यात्रा की दूसरी बात जो मुझे याद रह गयी है वह ज्ञानरंजन के साथ राजेश जोशी का तीखा पत्र-व्यवहार था जो हाल ही में हुआ था। राजेश का कहना था कि भोपाल गैस काण्ड और सिखों के नरसंहार के बाद प्रगतिशील लेखक संघ को -- जिसका वह सदस्य था और ज्ञानरंजन महासचिव और परसाई जी अध्यक्ष -- कुछ बयान देने चाहिएं थे, जनता के साथ खड़ा होना चाहिए था। बकौल राजेश, उसने आवाहन किया था कि प्रलेस के जितने लोग उच्चस्तरीय समितियों में थे, उन्हें विरोध में बाहर आ जाना चाहिए। जबकि प्रगतिशील लेखक संघ इससे कतरा रहा था। यह देख कर राजेश ने इस्तीफा दे दिया था। दिलचस्प बात यह थी कि प्रलेस भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ी हुई थी (जैसे जलेस मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी से और जसम सीपीआई माले लिबरेशन से) और सभी कम्यूनिस्ट पार्टियों की तरह विरोध में किसी का इस्तीफा नहीं स्वीकारा करती थी। राजेश के इस्तीफे के दो महीने बाद उसे प्रलेस से निकाल बाहर किया गया और इसकी सूचना सबको दे दी गयी। राजेश पुराना यूनियनबाज़ था जबकि न तो ज्ञान को, न परसाई जी को यूनियनबाजी हथकण्डों का इल्म था। राजेश ने जवाबी सर्कुलर जारी करके यह सवाल उठाया था कि जब वह पहले ही इस्तीफा दे चुका था तब उसे दो महीने बाद निकालने का सर्कुलर जारी करने का क्या तुक था। और इस जवाबी सर्कुलर में राजेश ने संगठन पर और भी आरोप लगाते हुए रायता फैला दिया था।

उधर ज्ञानरंजन के एक आरोपों में से यह था कि राजेश पहले से संगठन विरोधी कार्रवाइयां कर रहा था। इस आरोप में कुछ सच्चाई भी थी, क्योंकि माकपा और जलेस से भी राजेश का कुछ टांका भिड़ा हुआ था। यह बात इसलिए कह रहा हूं कि उसी समय राजेश ने मुझे रमेश उपाध्याय का वह अन्तर्देशीय भी दिखाया था, जिसमें रमेश ने और बातों के अलावा अन्त में राजेश के सर्कुलर का हवाला देते हुए बड़े मानीखेज़ ढंग से पूछा था कि अब उसका क्या करने का इरादा है। शब्द मुझे इतने वर्षों बाद याद नहीं रह गये हैं, पर उनमें निहित न्योता पंक्तियों के बीच साफ पढ़ा जा सकता था।

राजेश के रवैये के बारे में ज्ञान को जो एतराज़ थे, वे इतने बेबुनियाद नहीं थे; इसका कुछ-कुछ मुझे भी अन्दाज़ा रहा था। कारण यह कि जब मैं 1975 में राजेश से मिला था तब उसने अशोक वाजपेयी और उनकी पत्रिका "पूर्वग्रह" के खि़लाफ़ जो सैद्धान्तिक लड़ाई छेड़ रखी थी, वह उसने बहुत जल्दी ताक पर धर दी थी, इसलिए नहीं कि अशोक वाजपेयी का अपना रुख़ बदल गया था, बल्कि इसलिए कि राजेश को अपने भर्तृहरि के अनुवाद "पूर्वग्रह पुस्तिका" के तौर पर छपवाने थे। "पहल" की ओर से प्रकाशित की जा रही पुस्तिकाओं में पहली पुस्तिका -- माच्चू पिच्चू के शिखर -- के मेरे अनुवाद बाद दूसरी पुस्तिका राजेश की लम्बी कविता "समर गाथा" थी। इधर का मोर्चा सर कर लेने के बाद राजेश ने प्रकट ही "उधर" के मोर्चे को भी सर करने की ठानी होगी।

वैसे भी राजेश के लिए प्रतिबद्धता महज़ अपने प्रति जुड़ाव का नाम है, उसका सिद्धान्तों से कुछ लेना-देना नहीं है। कभी श्रीकान्त वर्मा के ख़िलाफ़ हो गये कभी श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार ले लिया; कभी महाश्वेता देवी के लिए आवाज़ बुलन्द की और फिर दूसरे ही दिन गोपीचन्द नारंग से पुरस्कार ले लिया, जो घोषित तो हो ही चुका था और घर भी भेजा जा सकता था। दर असल, यही वह बीज था जो आज अपने सब से ज़हरीले रूप में प्रकट हुआ है जब हमारे साथी, जो जनता की पक्षधरता का दावा करते नहीं थकते, कुख्यात पुलिस अफ़सरों की पुस्तकों के लोकार्पण में बेशर्मी से मुस्कराते हुए उनके साथ फ़ोटो खिंचवाते हैं और नाना प्रकार से उपकृत होते हैं।

आज तो प्रलेस और जलेस से जुड़े लेखक जसम से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ मिल-जुलकर कार्यक्रम करने से नहीं हिचकते और यही हाल भाकपा, माकपा और भाकपा माले लिबरेशन का है, जिन्होंने अपनी-अपनी गलत राहों पर चलते हुए हाल ही में बिहार के प्रान्तीप चुनावों में मुँह की खायी है और कहा जाय मैदान भगवा भेडि़यों के लिए खुला छोड़ दिया है, लेकिन उन दिनों भाकपा और प्रलेस के लोग जिन्होंने आपातकाल में इन्दिरा निरंकुशता का समर्थन किया था और भाकपा तथा जलेस के लोग जिन्होंने आगे चल कर वी.पी. सिंह की सरकार की बैसाखी बनने में भाजपा का साथ दिया था और बंगाल में पार्टी की तानाशाही कायम कर दी थी, भाकपा माले लिबरेशन से वैसे ही कन्नी काटते थे जैसे भद्रजन मुहल्ले के गुण्डे से और इस पार्टी पर सी.आई.ए. के एजेण्ट होने का और विदेशी पैसे से चलने का आरोप लगाते थे। ये वही लोग थे, जिन्होंने अपने समय में सोवियत संघ से अकूत पैसे इस या उस तरीके से हासिल किये थे।

चूंकि मैं तब तक जसम के स्थापना सम्मेलन की तैयारियों में जुटा हुआ था। इसलिए राजेश ने थोड़ी-बहुत छींटाकशी मुझ पर की थी, लेकिन एक तो वह मुझे बहुत पहले से जानता था, दूसरे मेरे अलावा वेणु भी तीसरी धारा का समर्थक था और वह भी राजेश के मित्रों में था इसलिए यह छींटाकशी हंसी-मजाक के दायरे से बाहर नहीं हुई थी।

पाला बदलने को लेकर मेरे मन में हमेशा एक शंका रही है, इसलिए राजेश के सर्कुलर से मुझे अफसोस हुआ था। ज्ञान रंजन और परसाई जी में कमियां रही होंगी, इससे मुझे एतराज नहीं। परसाई जी तो अर्से से भाजपा का विरोध और इन्दिरा गान्धी और उनकी कांग्रेस पार्टी का समर्थन करते रहे थे, लेकिन ज्ञान ने "पहल" में सभी धाराओं के वामपन्थियों को प्रकाशित किया था। राजेश का इस्तीफा देना तो मेरी समझ में आता था, पर आनन-फानन जलेस में जा जुड़ना नहीं। शायद मैं थोड़ा पुराने ढंग से चीजों को देख रहा था, जहां संस्कृति और राजनीति में आपसी सम्बन्ध होता था और विचारधारा इस सम्बन्ध को सुनिश्चित और परिभाषित करने का काम करती थी। चूंकि विचारधारा के स्तर पर हमारा यानी नक्सलवादी धारा की वामपन्थी पार्टियों और नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चों का मतभेद भाकपा और माकपा और उनके लेखक संगठनों से था इसलिए हम जसम बनाने की ओर बढ़ रहे थे। राजेश का मतभेद विचारधारा के स्तर पर नहीं, बल्कि कार्यशैली के स्तर पर था। बाद में भाकपा और जलेस भी कांग्रेस समर्थन के थान पर जा खड़े हुए और एक लम्बे समय तक कांग्रेस और भाजपा दोनों का विरोध करने वाली पार्टी भाकपा माले लिबरेशन अन्ततः चुनावी समझौतों की जिन दलदल में जा फंसी वह अब शीशे की तरह साफ हो चुका है।

लेकिन तब इस नौबत को आने में देर थी और मेरा ध्यान ज्ञानरंजन-राजेश जोशी-परसाई-प्रलेस विवाद से कहीं ज़्यादा जसम की तैयारियों में लगा हुआ था। तो भी चूंकि भोपाल गैस त्रासदी के बावजूद अशोक वाजपेयी भोपाल में विश्व कविता उत्सव करने पर आमादा थे, इसलिए मैं इस सम्वेदनहीनता के खिलाफ राजेश के साथ था। बीच की कथा यह थी कि उस समय श्रीकान्त वर्मा संस्कृति सचिव नाज़रेथ की मदद से विश्व कविता उत्सव दिल्ली में करना चाहते थे। उधर अशोक वाजपेयी इसे भोपाल में करने के लिए इतने व्यग्र थे कि उन्होंने विश्व कविता उत्सव को भोपाल में पहले से तयशुदा तिथियों में करने के औचित्य को ‘मुर्दों के साथ कोई मर नहीं जाता’ जैसा हृदयहीन वक्तव्य दे कर साबित करने की चेष्टा की थी। उनके इस बयान की तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और जब मैं भोपाल से दिल्ली पहुंचा तो वहाँ कविगण -- खास तौर पर जो अशोक वाजपेयी के खेमे में नहीं थे -- नाराज़ मधुमक्खियों की तरह भनभना रहे थे।
(जारी)

Saturday, June 25, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पैंतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४५



मित्रता की सदानीरा - २४

इटारसी से भोपाल तक का रास्ता उन दिनों कार से भी लगभग डेढ़ेक घण्टे का था, लेकिन हमें कोई जल्दी तो थी नहीं, सो डा. जेकब औसत रफ़्तार से ही आयी थीं। कर के अन्दर भी माहौल चूंकि बहुत बोझिल हो गया था इसलिए मुझे रास्ते में देखी गयी दृश्यावली की कुछ याद नहीं है, गो उस इलाके का एक अपना ही सौन्दर्य है। मेरा सारा ध्यान भोपाल पहुंचने की तरफ़ लगा हुआ था।

1984 तक राजेश जोशी शादी कर चुका था और मारवाड़ी रोड पर ताज स्टूडियो के ऊपर वाला मकान छोड़ कर जवाहर चौक पर बनी एक बहुमंजि़ला इमारत के फ्लैट में आ गया था। उन दिनों हालांकि टी.टी. नगर और जवाहर चौक में बसावट घनी होनी शुरू हो गयी थी, पर उसकी रफ्तार आज की-सी या नब्बे के भी दशक की-सी हरारत-जदा नहीं थी। राजेश का फ्लैट जिस इमारत में था, वह मुख्य सड़क भदभदा रोड से थोड़ा पीछे हट कर थी, सामने दुकानों की कतार अभी नहीं बनी थी और घूम कर जाने की बजाय सड़क पर उतर कर सामने की खाली जगह पार करते हुए सीधे राजेश के फ्लैट तक पहुंचा जा सकता था।

डा. जेकब ने अपनी फिएट सड़क पर ही रोक दी थी और फीकी-सी मुस्कान के साथ, जो देर तक मेरा पीछा करती रही, मुझे विदा दी थी। सामान के नाम पर मेरे पास एक अटैचीनुमा बैग था। मैं उसे उठा कर राजेश के फ्लैट की तरफ बढ़ गया था।

अर्से बाद राजेश से मुलाकात ने पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी थीं, जब वह मारवाड़ी रोड पर रहता था और मैं आ कर उसके पास ठहरा करता था। नरेन्द्र का तबादला चूंकि होशंगाबाद हो गया था, इसलिए उस बार राजेश के अलावा शायद राजेन्द्र शर्मा से ही भेंट-मुलाकात हुई थी या फिर रामप्रकाश त्रिपाठी से। भोपाल का नक्शा भी पहले की बनिस्बत बदला हुआ नज़र आ रहा था। 1977-78 का सुस्तरौ, मस्त-मलंग भोपाल धीरे-धीरे उस तब्दीली की राह पर कदम बढ़ा चुका था जो 1980 और 90 के दशकों में उसकी काया पलट देने वाली थी। चूंकि यह पहला सफर सिर्फ पुराने सम्बन्धों को ताजा करने की खातिर किया गया था, इसलिए पुराने दोस्तों से मिलता-मिलाता मैं दिल्ली चला आया और फिर इलाहाबाद।

इलाहाबाद पहुंच कर मैं कुछ ही दिन बाद पटना चला गया था और पटना से मुजफ्फरपुर के रास्ते पर था, जब हमें श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या का समाचार मिला।

हालांकि मुजफ्फरपुर में सिखों के खिलाफ वैसे दंगे नहीं भड़के थे, जैसे दिल्ली और दूसरे कुछ शहरों में, तो भी हो-हल्ले और उपद्रव की आशंका को देखते हुए प्रशासन ने आंशिक रूप से कफ्र्यू लगा दिया था। जितने दिन हम मुजफ्फरपुर रहे, मेरा समय विजयकान्त, राजेन्द्र प्रसाद सिंह और पद्माशा के साथ बीता। तीन-चार दिन बाद हालात कुछ सामान्य होने पर मैं इलाहाबाद आ गया था, जहां ज्ञान का पत्र मेरा इन्तज़ार कर रहा था।

‘पहल’ की छपाई हाथ में लेने के साथ ही चूंकि मैं ज्ञान से अपनी लम्बी कविता ‘उत्तराधिकार’ को ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में छापने का आश्वासन ले आया था, जैसे कि पहले भी नेरूदा की कविता ‘माच्चू पिच्चू के शिखर’ का मेरा अनुवाद छपा था या राजेश की लम्बी कविता ‘समर गाथा’ या फिर मयाकोवस्की की कविता ‘लेनिन’ का अजय कुमार द्वारा किया गया अनुवाद, इसलिए मेरी व्यस्तता बढ़ गयी थी। अलावा इसके मैं ‘जनसत्ता’ के लिए नियमित रूप से लेख-टिप्पणियां और समीक्षाएं लिखने लगा था।

इस बीच गालिबन ज्ञान एकाध बार आया था, लेकिन इलाहाबाद में उसके साथ ‘पहल’ के काम को समझने-समझाने के अलावा पहले की तरह घूमने-फिरने और अड्डेबाजी करने के अवसरों की स्मृति नहीं है। वह कालिया के ‘इलाहाबाद प्रेस’ जरूर जाता और चूंकि कालिया के यहाँ मैंने न जाने की ठानी हुई थी, इसलिए यह एक अजीब-सी विभाजित दोस्ती थी। मंगलेश, वीरेन और बड़ोला साहब इलाहाबाद से विदा हो चुके थे। उनके साथ ज्ञान की दोस्ती को साझा करना तो मुझे गवारा था, पर कालिया के साथ नहीं, क्योंकि कालिया की जैसी आदत है, वह कोई टुच्ची बात करने से खुद को रोक न पाता था और मेरी प्रकृति ऐसे व्यवहार को तरह दे जाने की नहीं थी और मैं ज्ञान को किसी अस्वस्तिकारक स्थिति में नहीं डालना चाहता था।

मेरे पिता कहते भी थे कि दोस्तियां और प्रेम-सम्बन्ध जरूरी नहीं कि दुतरफा हों; अक्सर वे इकतरफा होते हैं। लिहाजा, चूंकि मैं ज्ञान को बहुत पसन्द करता था, इसलिए उससे ठेस पहुंचने के बाद भी मैंने दिल को समझा लिया था कि दोस्ती नामक इस नदी से जितना जल तुम्हें मिलता है, ले लो; वह दूसरों को भी सींचती है, कई बार तुम्हारे तट को सूखा रख कर उनके किनारों को हरा-भरा बनाये रखती है तो इस पर कुढ़ो मत।

वैसे भी उन वर्षों में मेरा समय और ध्यान बहुत सारी दूसरी बातों में लगा हुआ था। लन्दन से आने के बाद सीपीआई माले लिबरेशन के मेरे पुराने साथियों ने मुझे प्रस्तावित सांस्कृतिक संगठन "जन संस्कृति मंच" की तैयारियों में शामिल कर लिया था। गोरख पाण्डे उन दिनों शहर-दर-शहर इस सिलसिले में दौरा कर रहे थे और अक्सर इलाहाबाद आते।

मेरा इरादा दिसम्बर 1984 में फिर भोपाल की तरफ जाने का था और सोचा था कि जबलपुर भी जाऊंगा, लेकिन चूंकि दिसम्बर में भोपाल गैस काण्ड हो गया, इसलिए वहाँ जाने का इरादा मुल्तवी हो गया था और मैंने इस बीच लखनऊ का एक चक्कर लगाया था। वहाँ अजय सिंह और अनिल सिन्हा से मुलाकात हुई थी और शायद अजय के घर पर ही मैंने "उत्तराधिकार" का पाठ किया था। वहाँ अजय और अनिल के अलावा एक नये साथी सुप्रिय लखनपाल भी मौजूद थे, जिन्होंने कुछ अच्छे सुझाव दिये थे।

चूंकि मार्च 1984 में मेरे लन्दन आने के बाद से अक्तूबर 1984 में ‘जन-संस्कृति मंच’ के स्थापना सम्मेलन तक वक्त इस कदर हलचल और सरगर्मियों से भरा था कि भोपाल, दिल्ली, लखनऊ, पटना और जबलपुर की यात्राओं को एकदम बाकायदगी से सिलसिलेवार सजाना मुमकिन नहीं है। थोड़ी-बहुत मदद पत्रों से या ‘जनसत्ता’ और ‘नवभारत टाइम्स’ में छपी रचनाओं की कतरनों से मिल सकती है और मैंने उन्हीं के आधार पर घटनाओं को बयान करने की कोशिश की है। ऐन मुमकिन है कोई वाकया -- खास तौर पर बोलना-बतियाना -- एक यात्रा से हट कर दूसरी यात्रा में नत्थी हो गया हो पर इससे ज़्यादा उसमें फेर-फार नहीं हुआ है।

चूंकि ज्ञान के 28 अक्तूबर, 1984 के पत्र में साडि़यों के पसन्द आने के बारे में दरियाफ्त की गयी है, इसलिए मेरी पहली जबलपुर और भोपाल यात्रा उससे पहले ही हुई होगी। अक्तूबर अन्त से 4-5 नवंबर, 1984 में मैं पटना-मुजफ्फरपुर में था। उसके बाद भोपाल मैं गालिबन फरवरी में गया था। बीच में लखनऊ और दिल्ली के चक्कर लगे थे, क्योंकि ‘उत्तराधिकार’ के छपने से पहले उसे लखनऊ में सुप्रिय लखनपाल तथा अन्य मित्रों को सुनाने की मुझे याद है और दिसम्बर में असगर वजाहत की फिल्म ‘गजल की कहानी’ को देख कर नवभारत टाइम्स में उसकी समीक्षा करने की भी। चूंकि उदय प्रकाश के दूसरे कविता संग्रह ‘अबूतर कबूतर’ की समीक्षा ‘जनसत्ता’ में 3 फरवरी, 1984 को छपी और इसी के बाद भोपाल जाने पर वहाँ मित्रों ने टीका-टिप्पणी की थी (जिसका ब्योरा आगे आयेगा) और भोपाल से दिल्ली आने पर मार्च में मैंने भोपाल गैस त्रासदी की पृष्ठभूमि में ‘विश्व कविता उत्सव’ मनाने पर तीखी टिप्पणी जनसत्ता के लिए लिखी थी, इसलिए मेरी भोपाल यात्रा मध्य फरवरी में ही किसी समय हुई होगी। ये ब्यौरे मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि अक्सर स्मृतिलेखाकारों पर झूठी-सच्ची और मनघड़न्त बातें लिखने के आरोप लगाये जाते रहे हैं।

फरवरी 1985 में जब मैं भोपाल गया तो हस्बमामूल राजेश के यहाँ ही ठहरा। शशांक उन दिनों वहीं था, जबकि नरेन्द्र तबादले के बाद गालिबन होशंगाबाद से विदिशा चला गया था और विजयबहादुर सिंह के साथ संगत कर रहा था। सबसे पहले तो मुझे राजेश ने आड़े हाथों लिया कि मैंने उदय प्रकाश के कविता-संग्रह ‘अबूतर कबूतर’ की समीक्षा क्यों की और अगर की तो तारीफ क्यों की। मुझे आज तक राजेश के शब्द याद हैं। उसने कहा था, ‘साल भर से वह संग्रह इग्नोर्ड पड़ा हुआ था, तुम्हीं रह गये थे उस पर लिखने के लिए।’ शशांक ने इस ताईद में टिप्पणी की थी और उदय को नवगीतकार बताया था। शशांक को तो खैर मैंने डपट दिया था, लेकिन राजेश को समझाया था कि अव्वल तो हमें अपनी साथी रचनाकारों के प्रति विद्वेष से काम नहीं लेना चाहिए, उनसे मतभेद हों, झगड़ा हो, मनमुटाव हो, पर लड़ाई को रचना के स्तर पर नहीं ले जाना चाहिए। ठीक है, अगर किसी का लिखा हमें पसन्द नहीं आता तो इसका यह मतलब नहीं कि हम उसके चुप हो जाने की कामना करें या इसके लिए प्रयत्नशील हों। दूसरे यह कि मुझे वह संग्रह पढ़ कर जैसा लगा वैसा मैंने लिखा, राजेश को मेरी निष्ठा पर शक करने का कोई हक नहीं है। मैं नामवर जी नहीं हूं कि वक्त के मुताबिक अपनी राय जाहिर करूं या बयान बदलूं।

राजेश ने आगे कुछ नहीं कहा था और बात वहीं ख़त्म हो गयी थी, लेकिन मुझे बड़ा अजीब लगा था। कारण यह कि इस समीक्षा के प्रकाशित होने के बाद दिल्ली में पंकज सिंह मुझसे कह चुका था - क्या तुम आशीर्वादीलाल हो गये हो।

यह भी उस बड़ी तब्दीली के छोटे-छोटे संकेत थे जो अस्सी के दशक में साहित्य और साहित्यकारों के जगत में आती जा रही थी, पुरानी क़दरों, सम्बन्धों, मूल्यों को तहस-नहस करती।
(जारी)

Friday, June 24, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चवालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४४



मित्रता की सदानीरा - २३


दिल्ली को अगर न गिनूं तो लन्दन से लौटने के बाद पहला सफर भोपाल बरास्ता जबलपुर और इटारसी था और यहीं से ज्ञानरंजन के साथ सम्पर्क का तार फिर से जुड़ गया था। यूं मेरे लन्दन प्रवास के दौरान ज्ञान के दो-एक पत्र आये थे और मैंने भी उसे लिखे थे, लेकिन इतनी दूर से खतो-किताबत कायम रखना थोड़ा मुश्किल था। वापस आ कर जब मुझे पता चला था कि मेरे इलाहाबाद पहुंचने की तारीख़ों में ज्ञान इलाहाबाद ही में था तो मुझे थोड़ा अजीब लगा था और मैंने उसे पत्र लिख कर शिकायत भी की थी। यह गालिबन इलाहाबाद की फौरी मुसीबतों से निपटने की योजना बनाने और सिविल लाइन्ज़ वाला दफ्तर खोलने के बाद मई-जून की बात है।

ज्ञान ने चिट्ठी का फौरन जवाब दिया था और जबलपुर आने का न्योता भी। उस तरफ जाने का इरादा मैंने पहले से बना रखा था, क्योंकि लन्दन से रवाना होने से कुछ महीने पहले मुझे इटारसी से एक महिला का व्यक्तिगत पत्र मिला था जो उन्होंने मेरे प्रसारण सुन कर लिखा था। डा. ज्योत्सना जेकब - कि यही उनका नाम था - पेशे से डाक्टर थीं और जैसा कि नाम से ज़ाहिर होता था, धर्मान्तरित ईसाई थीं। उनके पत्र से जहानत और सुरुचि झलकती थी और यह भी अन्दाजा होता था कि वे साहित्य में अच्छी पैठ रखती होंगी। मैंने उस पत्र का जवाब दे दिया था और हमारे बीच चिट्ठी-पत्री का एक सिलसिला शुरू हो गया था। चूंकि उस समय तक सीधी भोपाल जाने वाली रेलगाडि़यां अभी शुरू नहीं हुई थीं, इसलिए इलाहाबाद से भोपाल का रास्ता इटारसी हो कर ही जाता था। लिहाज़ा मैंने सोचा कि ज्ञान से मिल कर इटारसी होता हुआ भोपाल जाऊंगा, रास्ते में डा. ज्योत्सना जेकब से भी मिल लूंगा।

अब इतने बरस बाद मुझे महीना तो याद नहीं, पर ज्ञान के 28 अक्तूबर के पत्र से यह अनुमान होता है कि सितम्बर या अक्तूबर 1984 का महीना रहा होगा। जबलपुर पहुंच कर ज्ञान से मिलने पर यह एहसास बिलकुल नहीं हुआ कि मैं उससे चार-पांच साल के वक्फे के बाद मिल रहा था। उसकी वही पुरानी स्वभाविक गर्मजोशी थी और मुहब्बत जो अक्सर दोस्तियों में सिमेंट का काम करती है। बातें भी तकरीबन वैसी ही हुईं जो काफी दिनों बाद मिल रहे मित्रों में होती हैं। अलबत्ता, इस बार ज्ञान ने मुझसे कहा कि अब जब मैं आ गया हूं तो पहले की तरह ‘पहल’ की छपाई वगैरा का काम मैं संभाल लूं। उन दिनों शिवकुमार सहाय उसकी व्यवस्था करते थे और अकेले होने की वजह से खुद अपने प्रकाशन के काम से उन्हें मुनासिब वक्त और मोहलत नहीं मिलती थी।

ठीक-ठीक यह तो याद नहीं कि किस अंक से मैंने दूसरी बार पहल की छपाई का काम संभाला था, लेकिन फाइल में रखे ‘पहल-25’ के आवरण चित्र की डमी से अन्दाजा होता है कि गालिबन इसी अंक से सिलसिला दोबारा शुरू हुआ था। इस यात्रा की एक याद रखने वाली बात ज्ञान के साथ सदर जा कर कोसा की साडि़यां खरीदना था। मैंने एक दिन सुनयना को कोसा की साड़ी पहने देखा था और उसकी तारीफ की थी, तब ज्ञान ने मुझसे कहा था कि वहाँ कोसा की बहुत अच्छी साडि़यां मिलती हैं और मैं सुलक्षणा के लिए ले जाऊं। एक शाम हम सदर गये थे और चूंकि मैं सफर में था इसलिए साडि़यों के पैसे ज्ञान ही ने दिये थे और कहा था कि हिसाब बाद में हो जायेगा।

ज्ञान से मिलने के बाद मैं जबलपुर से इटारसी के लिए रवाना हुआ। पांच-छै घण्टे का सफ़र था, रात ढल चुकी थी जब रिक्शा मुझे स्टेशन से ले कर मालवीय नगर में डा. ज्योत्सना जेकब के बंगले ’आनन्द भवन’ पर पहुंचा। शायद साढ़े सात-आठ का वक्त था। आनन्द भवन इलाहाबाद के हमारे बंगले जैसा ही बंगला था। चौड़े बरामदे, बड़े-बड़े कमरे और खपरैल की छत वाला -- औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों के बनवाये बंगलों का-सा स्थापत्य था उसका और चारों तरफ बड़ा-सा खुला अहाता। मैंने सामान उतरवा कर दस्तक दी तो अन्दर से एक बूढ़ी महिला ने दरवाजा खोला और बताया कि डा. जेकब टहलने गयी हैं, मैं चाहूं तो बरामदे में इन्तज़ार करूं।

उन दिनों सेलफोन वगैरा नहीं थे। ज्ञान के यहाँ टेलिफोन था और डा. जेकब के यहाँ भी, पर उसके माध्यम से सम्पर्क अनिश्चित था और समय लेने वाला। सो मैंने एकाध दिन पहले पोस्टकार्ड डाल दिया था। वैसे भी, मुझे डा. ज्योत्सना जेकब के बारे में नहीं के बराबर जानकारी थी। न मेरे पास उनका कोई फोटो था। ऊपर से या तो इटारसी की बिजली सप्लाई कम्पनी ढीली-ढाली थी या डा. जेकब की घरेलू व्यवस्था ही ऐसी थी, सारा बंगला अजीब तरीके से अन्धकार में डूबा लगता था। एक अजीब रहस्यमयता-सी पूरी फिजा पर तारी थी।

अब मुझे यह याद नहीं है कि डा. जेकब के आने से पहले या बाद में -- मेरे खयाल में पहले ही, क्योंकि बाद में तो मुझे सोने से पहले अकेला नहीं छोड़ा गया था -- एक सज्जन बरामदे में नमूदार हुए और मेरे पास आ कर बैठ गये थे और इस परिचय के साथ कि वे डा. जेकब के भाई हैं, मुझसे तरह-तरह के सवाल पूछते हुए जिरह-सी करते रहे -- मैं कौन था? कहां से आया था? दा. जेकब को कैसे जानता था ? उनसे मुझे क्या काम था ? डा. जेकब के संरक्षक-नुमा बड़े (या छोटे) भाई से अधिक वे मुझे एक सनकी किस्म के आदमी लगे।

मैंने इलाहाबाद के पुराने ऐंग्लो इण्डियन और इण्डियन क्रिश्चियन परिवारों में इसी तरह के कुछ लोग देखे थे जो 1947 के बाद खुद को चारों तरफ के बदलते माहौल में मिसफिट पा कर सनकी-से हो गये थे। उनकी जड़ें देसी धरती में थीं, जो एक बार फिर फिरंगी प्लावन से मुक्त हो कर खुली हवा में दिखायी देने लगी थी और वह निजाम जिसमें उनका प्रत्यारोपण हुआ था, सूख गया था। वे अधर में थे। कुछ अंग्रेजों के साथ इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया निकल भागे थे, बहुतों ने खुद को नयी परिस्थितियों में ढाल लिया था। कुछ ऐसे थे जो खोये-खोये, न तो पूरी तरह हिन्दुस्तानी थे, न पूरी तरह अंग्रेज। उनकी मरण थी।

बहरहाल, अपनी ‘जिज्ञासाएं’ शान्त करके वे तो चले गये, मैं लगातार एक अस्वस्ति का अनुभव करता हुआ बरामदे में बैठा रहा। मुझे एकाध बार यह भी लगा कि यह मैं किस चक्कर में पड़ गया हूं, क्योंकि ज्योत्सना जेकब के पत्रों से किसी किस्म की रहस्यमयता, या असामान्यता नहीं झलकती थी। दिन का वक़्त होता तो सम्भव है मैं ने अपना सामान उठाया होता और वहां से भग खड़ा होता। पर अब आठ से ऊपर हो चले थे और न तो मुझे रास्तों का कुछ अता-पता था, न गाड़ियों का। डा. जेकब के भाई ने एक पत्र-मित्र से सम्भावित मुलाकात को जान के वबाल में तब्दील कर दिया था। बहरहाल।

थोड़ी देर बाद किसी के आने की पदचाप सुनायी दी। बरामदे के बाहर घिरे अंधेरे से सूती साड़ी में मलबूस, सांवले रंग और देसी नख-शिख की एक नारी आकृति धीरे-धीरे रोशनी में नमूदार हुई। बरामदे की सीढि़यां चढ़ कर वह महिला, जो ग़ालिबन 35-36 बरस की रही होगी, मेरे पास आ पहुंची। मैं तब तक उठ कर खड़ा हो गया था। मैंने अपना परिचय दिया तो उस महिला ने कहा कि डा. जेकब तो बाहर गयी हैं, वे उनकी बहन हैं। उनके चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था कि मुझे लगा कि वे मेरे साथ खिलवाड़ कर रही हैं। मैंने क्या जवाब दिया, मुझे याद नहीं, पर इतना तय है कि उस सारी रहस्यमयता, जिरह और चुहलबाजी से मेरे चेहरे पर खीझ जरूर झलकी होगी, क्योंकि जल्दी ही उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए यह जाहिर कर दिया कि वे ही डा. जेकब हैं। फिर वे मुझे अन्दर के कमरे में ले गयीं, जहां उन्होंने मेरे ठहरने का इन्तज़ाम कर रखा था।

मैं थोड़ा सहज जरूर हो गया था, लेकिन भीतर मुझे वह निश्चिन्तता और सुकून नहीं था, जिसकी मैं उम्मीद करता था। यह तो मुझे अन्दाजा था कि डा. जेकब अविवाहित हैं और पास ही के शायद ईसाई मिशनरियों के ‘निर्मला हस्पताल’ में डाक्टर हैं; उनका बंगला भी उनके पुरखों के ईसाई सम्पर्कों की देन था। पर उनके घर में कुछ अजीब-सा अघरेलूपन था। एक भुतहापन-सा। मुक्तिबोधियन।

बहरहाल, उन्होंने बाथरूम दिखाया जो बंगले के दूसरे खण्ड में पीछे को था, हाथ-मुँह धोने की व्यवस्था की और फिर मेज़ पर खाना लगवाने से पहले मुझे बियर भी पेश की। लेकिन बातें उखड़ी-उखड़ी-सी ही होती रहीं, उनके पत्रों में जो गर्मजोशी झलकती थी, वह कहीं नहीं थी। इसके उलट वह एक पीडि़त, अकेली, उन्मन नारी का वार्तालाप था। बाद की किसी मुलाकात में शायद इतना अजीब और तबियत को उचटाने वाला न लगता, पर पहली ही भेंट में मुझे बेचैन और बेकल कर गया था। अगर साधन और सुविधा होती तो मैं खाना खाने के बाद ही भाग निकलता। ज्योत्सना ने अपने भाई के बारे में भी शिकायत की थी। ऐसा मुझे आभास हुआ था कि वह कुछ करता-धरता नहीं था और घर ज्योत्सना ही चलाती थी। तिस पर भी उस घर में घर जैसी कोई बात नहीं थी। कुछ द्वीप थे जो अपने अकेलेपन में उस बड़े-से बंगले की नीम-अंधेरी रहस्यमयता में खोये हुए थे। पूरा अंधेरा होता तो भी कुछ बचत थी, इस नीम-अंधेरे ने तो उस अमंगल-से, सिनिस्टर तिलिस्म को और गहरा कर दिया था।

खैर, खाना-वाना निपटा और आखिरकार मैं सोने चला गया। सोते वक्त ही मैंने तय कर लिया था कि सुबह होते ही मैं वहाँ से चल दूंगा। सुबह हुई तो मैं सामान बांध कर तैयार हो गया। जाहिर है डा. जेकब को यह उम्मीद नहीं थी कि मैं इस तरह तत्काल वहाँ से रवाना होने पर आमादा हो जाऊंगा। उन्होंने बहुत इसरार किया कि मैं दो-एक दिन ठहर कर जाऊं, वे मुझे आस-पास के इलाके में घुमाने ले चलेंगी, कि उनके पास कार है कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन मैं हठ बांधे था। तब एक और अचरज प्रकट हुआ। डा. जेकब ने दो-तीन कमीजों और दो-तीन पतलूनों के कपड़े मुझे ला कर दिये कि उन्हें वे मेरे लिए लायी थीं। मैंने उनसे कहा कि अभी तो मैं तुरन्त भोपाल जाना चाहूंगा, इन कपड़ों को वे रखें, अगली बार मैं आऊंगा तो ले लूंगा।
हारे हुए स्वर में उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं हड़बड़ी न करूं, वे मुझे कार पर भोपाल छोड़ आयेंगी, लेकिन वे कपड़े वे बड़े प्रेम से भेंट-स्वरूप लायी थीं, उन्हें मैं रख लूं। तब इसे समझौते का एक रास्ता बूझ कर मैंने कपड़े अपने बक्से में रख लिये।

नाश्ता करके तकरीबन दस बजे डा. जेकब ने कार निकाली और मुझे बिठा कर भोपाल की लिए चलीं। सफर एक-डेढ़ घण्टे का था और सारा रास्ता वे मुझे उलाहने देती आयीं कि उन्होंने क्या कुछ सोच रखा था, मैंने उनके सारे कार्यक्रम को उलट-पलट दियाजाहिर है डा. जेकब को यह उम्मीद नहीं थी कि मैं इस तरह तत्काल वहाँ से रवाना होने पर आमादा हो जाऊंगा। उन्होंने बहुत इसरार किया कि मैं दो-एक दिन ठहर कर जाऊं, वे मुझे आस-पास के इलाके में घुमाने ले चलेंगी, कि उनके पास कार है कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन मैं हठ बांधे था। बीच-बीच में वे रोती भी रहीं।

आज सोचता हूं कि अगर मैं दिन के वक्त इटारसी पहुंचा होता और मैंने कुछ और समय डा. जेकब के साथ बिताया होता तो शायद ऐसी अप्रिय स्थिति न पैदा हुई होती। लेकिन तब ऐसी विचित्र परिस्थितियों से निपटने की सलाहियत मुझमें नहीं थी। बाद में एक बार जब वे इलाहाबाद आयीं और मुझसे मिलने मेरे घर आयीं तो हम बेहतर ढंग से मिले थे। तब परिवार संयुक्त था, मेरे माता-पिता जीवित थे, सुलक्षणा भी वहीं थी और सबने उनका स्वागत किया था। इसी तरह एक बार मेरे हैदराबाद जाते समय वे मुझसे स्टेशन पर मिलने आयी थीं और साथ में सैंडविच और काफी लायी थीं। गाड़ी कुछ देर इटारसी पर रूकती थी और हमने वहीं बेंच पर बैठ कर बातें की थीं। लेकिन उनसे पहली मुलाकात की स्मृति इतनी गहरी थी कि बाद की सहजता भी उसे धूमिल नहीं कर पायी थी। धीरे-धीरे पत्रों का आना-जाना बन्द हो गया था और बाद में ख़ुद मेरी ज़िन्दगी जिस तरह के तूफ़ानों में घिर गयी थी और मुझे किसी तरह अपने औसान क़ायम करने के लिए जो तगो-दौ करनी पड़ी थी, उसमें ज्योत्सना की खोज-खबर लेना सम्भव ही नहीं रहा था। वे भी यक़ीनन मुझ जैसे अनगढ़ मित्र से निराश ही हुई होंगी, इस में मुझे कोई शक नहीं है। किसी बहिया में बहे जा रहे दो तिनकों की तरह हम अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि लहरों के निर्णय से एक-दूसरे के करीब आये थे और लहरों के ही चलते अलग-अलग हो कर जाने कहां से कहां जा निकले थे।
(जारी)

Wednesday, June 22, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की तैंतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४३



मित्रता की सदानीरा - २२

जैसे-जैसे लोगों का पता चलने लगा कि मैं लौट आया हूं, सिविल लाइन्ज वाले हमारे दफ्तर पर मित्र-परिचितों की भीड़ जुटने लगी।

लन्दन जाने से पहले तीसरी धारा की भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से मेरा नजदीकी सम्बन्ध रहा था। पार्टी तब भूमिगत थी और कभी-कभार कुछ कामरेड, जो छद्म नामों से काम करते थे, आ कर मुझसे या वीरेन-मंगलेश से मिला करते थे। मेरे लन्दन प्रवास के दौरान पार्टी ने एक खुला संगठन ‘इण्डियन पीपल्स फ्रण्ट’ गठित कर लिया था। इसके साथ ही भूमिगत पार्टी को धीरे-धीरे खुले में लाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। पार्टी के महासचिव विनोद मिश्र और बहुत-से वरिष्ठ नेता भूमिगत थे, नागभूषण पटनायक पर मुकदमा चल रहा था। इस सबको और गतिशील बनाने के लिए एक सांस्कृतिक संगठन बनाने की प्रक्रिया भी तेज कर दी गयी थी।

आपातकाल के दौरान और बाद में प्रतिबन्ध के दौर में नक्सलवादी विचारधारा से जुड़े सांस्कृतिकर्मियों ने जो नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चे बनाये थे, खास तौर पर बिहार में उन्हें एकजुट करके एक बड़ा सांस्कृतिक संगठन बनाने की योजना को सामने रख कर 1983 में इलाहाबाद में एक बड़ा सम्मेलन हो चुका था। इरादा यह था कि जहां "प्रगतिशील लेखक संघ" और "जनवादी लेखक संघ" मुख्य रूप से लेखक संगठन थे, प्रस्तावित "जन संस्कृति मंच" सांस्कृतिक गतिविधि को उसकी समग्रता में ले कर चलेगा। इसी सिलसिले में दिल्ली, पटना, लखनऊ, इलाहाबाद, कलकत्ता और दूसरे बड़े-छोटे शहरों में बैठकों और विचार-विमर्श का क्रम शुरू हो चुका था और गोरख पाण्डे, जो संयोजक थे, अक्सर इलाहाबाद आते थे।

इन चार वर्षों के दौरान इलाहाबाद में रचनाकारों की एक नयी खेप तैयार हो गयी थी; देवी प्रसाद मिश्र, बद्री नारायण, अखिलेश वगैरा, फिर चित्रकार अशोक भौमिक और रंगकर्मी अनिल भौमिक आजमगढ़ से इलाहाबाद आ गये थे। शहर में बड़ी गहमा-गहमी थी। सो, जल्द ही मैं भी इस गहमा-गहमी का हिस्सा बन गया, पहले की तरह।

इलाहाबाद की गहमा-गहमी का हिस्सा बनने के बावजूद मुझे चार साल लन्दन से लौट कर इलाहाबाद में पूरी तरह रमने में दिक्कतें पेश आ रही थीं। चार साल तक मैं प्रकाशन की दुनिया से दूर रहा था, बल्कि कहा जाय कि पांच साल तक क्योंकि लन्दन जाने से साल भर पहले से दिल्ली में मकान बनवाने के सिलसिले में अक्सर वहाँ जाना होता था। दूसरी बात थी कि अपनी बीमारी और अपने स्वभाव -- दोनों के चलते मेरे बड़े भाई ने प्रकाशन के काम में बेहद बेतरतीबी पैदा कर दी थी, जिसे मुझे तिनका-तिनका ठीक करना और उसी नीरस काम में सिर खपाना पड़ रहा था, जिससे भाग कर मैं लन्दन गया था।

तीसरा कारण यह था कि हालांकि पूरे घर भर ने मुझे लन्दन पत्र लिख कर यह आश्वासन दिया था कि जिन कारणों से मैंने लन्दन जाने का फैसला किया था, वे दोबारा मेरे आड़े नहीं आयेंगे, पर धीरे-धीरे मुझे पता चलने लगा कि मेरे भाई-भाभी-भतीजों के ये आश्वासन झूठे थे और सिर्फ मेरे पिता के जोर देने पर दिये गये थे। जैसे ही शुरूआती दौर ख़त्म हुआ और मैं प्रकाशन को फिर ढर्रे पर ले आया, उन्होंने फिर वही रवैया अख्तियार कर लिया था और धीरे-धीरे हमारे संयुक्त परिवार में दरारें पड़ने लगी थीं, जिनकी चोट मुझे सहनी पड़ रही थीं। मेरे भाई-भाभी उस बड़े संयुक्त परिवार के अन्दर अपना एक छोटा-सा संयुक्त परिवार बनाने के मंसूबे बना चुके थे और इन्हें अमल में लाने की दबी-छिपी कोशिशें कर रहे थे।

जाहिर है कि इन सब कारणों से सुलक्षणा और बच्चे, जो न चाहते हुए भी मेरी ही वजह से हिन्दुस्तान लौटे थे, तकलीफ पा रहे थे। सुलक्षणा से यूं भी मेरा एक तनाव-भरा रिश्ता रहा था। वह एक बेहद काबिल, गुणी और समर्थ औरत थी, लेकिन संयोग से उसकी शादी मुझसे हो गयी थी। हम दोनों जिन दुनियाओं से आते थे, वे बिलकुल अलग थीं। फिर चूंकि वह बहुत-सी बातों में मुझसे सहमत नहीं थी, इसलिए अगर मेरी वजह से उसे चोट पहुचंती तो भी दुख मुझे ही होता था और अगर मेरे परिवार की वजह से पहुंचती तब भी। इन सारी वजहों से मेरा दिल उचटा-उचटा रहता था और मैं कभी लखनऊ, कभी दिल्ली, कभी भोपाल और कभी किसी दूसरी जगह भागा फिरता था।
(जारी)

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की बयालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४२


मित्रता की सदानीरा - २१

चार साल बाद सब कुछ समेट कर इलाहाबाद वापस आ कर बसना आसान काम नहीं था और जो परेशानियां मेरा इन्तजार कर रही थीं, उनका अन्दाजा हवाई अड्डे पर उतरते ही हो गया था, लेकिन जैसा कि अंग्रेजी में कहते हैं, ‘पांसा फेंका जा चुका था’।
मुझे लेने मेरे बड़े भाई आये हुए थे। तब तक उनका और उनके परिवार को रूख मेरे प्रतिकूल, कहा जाय कि वैसा वैमनस्य-भरा, नहीं हुआ था जैसा कि बाद में उत्तरोत्तर होता चला गया। मेरे लन्दन प्रवास के दौरान वे काफी बीमार रहे थे, जिसका साफ-साफ अन्दाजा मुझे हवाई अड्डे पर उनसे मिलते ही हो गया।

हमने सामान उतरवाया था और हौज़ खास पहुंचे थे जहां सुलक्षणा के भाई रहते थे। अलग से मेरा जो सामान आ रहा था, वह एकाध दिन में पहुंचने वाला था और हम उसे ले कर ही इलाहाबाद जाना चाहते थे। मुझे अपनी मां की भी चिंता सता रही थी, जिन्हें कुछ महीने पहले फालिज का हलका-सा दौरा पड़ा था।


तभी मेरे बड़े भतीजे का फोन आया कि हममें से एक फौरन इलाहाबाद चला आये। बात यह थी कि जिस बंगले में हम रहते थे और जिसे मेरे पिता ने खरीद लिया था, उसके पीछे एक छोटी-सी बंगलिया और दसेक कोठरियां और अहाता था, जो पहले इसी बंगले का हिस्सा था, लेकिन मकान मालिक ने उसे पीछे के विश्वकर्मा बन्धुओं को बेच दिया था। यह वही बंगलिया थी, जिसमें हम लोग 1948-49 में आ कर टिके थे, जहां से मेरी मां ने प्रकाशन शुरू किया था, जहां मेरा बचपन और किशोरावस्था के दिन गुज़रे थे। 1962 में जब हम सामने के बड़े बंगले में चले गये थे तो इसे हमने गोदामों की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था।

आगे चल कर जब विश्वकर्मा बन्धुओं की माली हालत बिगड़ गयी, उनका बसों का धन्धा चौपट हो गया तो उन्होंने अपने मकान में भी तरह-तरह के किरायेदार बसा लिये और उनसे कर्ज भी लेने लगे। इन्हीं में से एक ऋणदाता शहर के एक कुख्यात भूमाफिया का लठैत था। उसकी एक रखैल पीछे विश्वर्मा बन्धुओं की किरायेदार थी और उसकी हसरत उस बंगलिया में रहने की थी। यों, उस भूमाफिया की नजर उस बंगलिया पर पड़ी और चूंकि उसके मालिक आर्थिक रूप से टूटे हुए थे, उसने वह बंगलिया हासिल करने की ठानी। पहले कुछ सन्देसे आये, फिर कुछ धमकियां दी गयीं और अन्त में जब मैं दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतर रहा था, दसेक लोग मकान को जबरदस्ती खाली कराने के लिए चढ़ आये।

मेरे पिता यों तो पतले-छरहरे आदमी थे, उमर भी उनकी उस समय चौहत्तर की थी, लेकिन वे किसी धौंस-धमकी से डरने वाले नहीं थे। जाहिर है, भूमाफिया के उन गुर्गों ने जवाबी साहस की उम्मीद न की थी। वे धमकियां देते हुए चले गये। और अगले तीन-चार वर्षों तक चलने वाला मुक्खल महाराज प्रकरण अश्क जी के जीवन में शुरू हो गया।

खैर, मैंने अपने भतीजे से कहा कि वह घबराये नहीं, एकाध दिन की बात है, हम सामान ले कर पहुंचते हैं।

इलाहाबाद पहुंचने पर एक और मुसीबत सामने थी। किसी जमाने में बगल के मकान में, जो हमारे पास किराये पर था और जिसमें हमारा दफ्तरीखाना और गोदाम था, हमने एक आदमी को उसकी देख-रेख के लिए रखा था। वह बाद में पुलिस का मुखबिर निकला। कुछ समय तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा, फिर उसने भी पर निकालने शुरू कर दिये। यहाँ तक कि मुख्य फाटक से आने-जाने में बाधा डालने लगा। पुलिस का मुखबिर था, सो पुलिस कुछ करती नहीं थी, मुकदमा वह हार गया था तो भी टिका हुआ था।

मेरे इलाहाबाद पहुंचने पर पता चला कि हाईकोर्ट से भी उसकी अपील खारिज हो गयी है। तिस पर भी वह उस जगह को खाली नहीं कर रहा।

जहां तक भूमाफिया वाले प्रसंग का सवाल था, मैंने अश्क जी से कहा कि उससे उसी के तरीकों से लड़ने का न तो हमारे पास समय है, न साधन। या तो हम भी वैसे ही बन जायें, जो सम्भव नहीं है या फिर दूसरे उपाय अपनायें। मैंने उन्हें सलाह दी कि वे अपनी प्रसिद्धि का फायदा उठायें और मुख्यमन्त्री और प्रधानमन्त्री को पत्र लिखें।

रही बात उस चौकीदार की तो वह हाईकोर्ट से अपने मुकदमे के खारिज हो जाने के बाद ढीला पड़ा हुआ था। ऊपर से मेरे वापस आ जाने के बाद वह समझ गया था कि अब वह ज़्यादा दिन अपनी हरकतें जारी नहीं रख पायेगा। मेरे भाई झगड़ों-झंझटों से बच कर चलते थे जबकि मुझे न तो अन्याय करना पसन्द था, न अन्याय सहना। उस चौकीदार ने भी अगर मेरे लन्दन जाने का फायदा उठा कर मेरे परिवार को तंग न किया होता और पहले की तरह अपने बीवी-बच्चों के साथ आराम से रहा होता तो मैं उसे निकाल बाहर करने पर जोर न देता। तो भी मैंने अपने पिता से कहा कि मुकदमा हार कर वह ढीला पड़ा हुआ है, उसे कुछ पैसे दे कर रफा-दफा कीजिये।

इस झंझट से मुक्त होने के बाद हमने उस दूसरी बड़ी परेशानी की तरफ ध्यान दिया। तब तक चिट्ठियों का असर दिखने लगा था। वे लोग जो पिस्तौलें ले कर चढ़ दौड़े थे, दुबक गये; अब वार्ताओं का दौर शुरू हुआ। ऊपर से अख़बारों में इस मामले के उछलने से उस भूमाफिया को भी लगा कि आम बल प्रयोग वाला तरीका कारगर साबित नहीं होगा तो भी, चूंकि उसने चार बंगले छोड़ कर एक बंगले पर कब्जा कर रखा था, वह रोज अपनी फौज-फाटा ले कर सड़क से गुजरता, कई महीनों तक शहर के चार बड़े अफसर -- शहर कोतवाल, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, जिलाधिकारी और उपजिलाधिकारी -- हर शाम हमारे घर मौजूद होते। धीरे-धीरे सबको समझ में आ गया कि यह मामला अब बातचीत ही से तय होगा और इसमें लम्बा वक्त लगेगा।

इन दो फौरी समस्याओं से निपट कर मैंने उस बड़ी समस्या को हाथ में लेने की सोची, जिसके लिए दरअसल मैं घर लौटा था। भाई की बीमारी की वजह से हमारा दफ्तर सिविल लाइन्ज़ वाली दुकान से हटकर घर आ गया था। सारा हिसाब-किताब बेतरतीबी के आलम में था, नयी किताबों का प्रकाशन रूक गया था, ऊपर से कर्ज चढ़ गया था।

मैंने मई के पहले हफ्ते में सिविलाइन्स वाले दफ्तर के दो दफ्तरियों की मदद से खुद साफ किया, घर से सब वहाँ ले जा कर सही जगह सजाया और दफ्तर में बैठना शुरू कर दिया।
(जारी)

Tuesday, June 21, 2011

देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की इकतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४१



मित्रता की सदानीरा - २०

जर्मनी से लौट कर फिर वही क्रम चलने लगा। लेकिन फर्क इतना था कि मैं एक-एक दिन करके हिन्दुस्तान वापसी की तरफ सरक रहा था।

इन्हीं अन्तिम हफ्तों में एक दिन राज बिसारिया - जो तब तक आकाशवाणी के उपकेन्द्र निदेशक के पद को छोड़ कर बी.बी.सी. के कार्यक्रम सहायक बन कर आ गये थे -- और इतने वरिष्ठ होते हुए भी बी.बी.सी. के तर्क से वहाँ के कनिष्ठतम कार्यक्रम सहायक के भी नीचे थे -- मेरे पास आये और उन्होंने कहा कि मैं उनके लिए कुछ कविताएं रिकार्ड करा दूं। राज बिसारिया उन दिनों ‘सांस्कृतिक चर्चा’ प्रोड्यूस करते थे -- वही कार्यक्रम जिसकी बागडोर ‘आल इण्डिया रेडियो की सुनहरी आवाज़’ के खिताबयाफ्ता, जाने-माने प्रसारक आले हसन से 1980 में मैंने संभाली थी और दो साल तक प्रोड्यूस करने के बाद जिसे रमा पाण्डे को सौंपा गया था और फिर उसके बाद राज बिसारिया को।

राज बिसारिया गीत भी लिखा करते थे, जो उनके प्रसारणों जैसे ही मामूली और कोई प्रभाव न छोड़ने वाले थे। लम्बे अर्से तक आकाशवाणी की सरकारी नौकरी ने उन्हें काहिल बना दिया था और अगर शुरू में उनके भीतर कोई चिनगारी रही भी होगी तो बुझा दी थी। यों बड़े प्रेम से मिलते थे और बी.बी.सी. की ऊपरी बिरदराना भंगिमा के नीचे ईष्र्या-द्वेष की जो अन्तर्धारा बहती थी, उससे सर्वथा मुक्त थे।

मैं उनसे तो नहीं पर ‘सांस्कृतिक चर्चा’ को ले कर कैलाश से जरूर नाराज़ था। आले भाई के बाद जब मैंने उस कार्यक्रम को नये रूप में ढाला और वह पहले से ज़्यादा सुना जाने लगा तो एक दिन मुझे प्यारे शिवपुरी ने कहा कि वह कार्यक्रम मुझसे ले लिया जाने वाला है। मुझे हैरत भी हुई थी और बुरा भी लगा था। हैरत तो स्वाभाविक थी क्योंकि इसका कोई संकेत हवाओं नहीं था। बुरा इसलिए लगा था कि यह बात कैलाश को सबसे पहले मुझसे कहनी चाहिए थी। ऐसा न करके कैलाश ने वह बात किसी और से कही होगी और वहाँ से प्यारे तक पहुंची होगी।

प्यारे शिवपुरी, जिन्होंने देवानन्द की फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ से ले कर बी.बी.सी. के प्रसारक और ‘गार्डियन’ के फोटोग्राफर-पत्रकार तक कई पापड़ बेले थे, बी.बी.सी. के हलकों में पसन्द नहीं किये जाते थे। अक्सर लोग दबे स्वर में बड़े रहस्यमय ढंग से कुछ ड्रग-स्मगलिंग से उनके लिप्त होने की भी चर्चा करते। लेकिन चूंकि वे लिखते बहुत अच्छा थे और प्रसारक भी उम्दा थे, इसलिए मैंने उन्हें कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था। मेरी यह खुदमुख्तारी भी बी.बी.सी. के उन लोगों को पसन्द नहीं थी, जो अफसर को, सत्ता को, सदा दायें रखने में यकीन रखते थे।

दूसरा कारण यह था कि कुछ ऐसे लोगों से जिन्होंने बी.बी.सी. हिन्दी प्रसारण सेवाओं को वृन्दावन का विधवाश्रम समझ रखा था मैंने एकबारगी किनारा कर लिया था। बात यह थी कि रिटायर होने से पहले के आखिरी दो-चार वर्षों में आले भाई की शराबनोशी बहुत बढ़ गयी थी। खबरें तो वे जैसे-तैसे पढ़ देते, लेकिन ‘सांस्कृतिक चर्चा’ पर ढंग से सोच कर उसे नित नया करने की जहमत से कतराने लगे थे। कुछ तय-शुदा लोग थे, जिनसे वे साहित्य और चित्रकला आदि पर लिखवाते, कुछ पंक्तियों की भूमिका और लिंक लिखते और स्टूडियो में बियर की बोतल लिये पहुंच जाते। मैंने शुरू के छह महीनों तक -- जब तक कि प्रोग्राम पूरी तरह मुझे नहीं मिला -- आले भाई के साथ काफी बेगार की थी। ‘सांस्कृतिक चर्चा’ में नियमित योगदान करनेवालों में एक पृथ्वीराज नाम के सज्जन थे। पतले-छरहरे, सुन्दर-से कश्मीरी पण्डित, अक्सर नीली जीन्स और डेनिम ही की जैकेट पहने नजर आते, चित्रकला आदि पर लिखते थे, लेकिन एक तो कला-समीक्षा का उनका तरीका पश्चिम से प्रभावित था -- वैसी ही भाषा, अक्सर अनुवाद की गयी टिप्पणियां -- दूसरे उनका तलफ़्फ़ुज़ भी कश्मीरी रंगत लिये हुए था। मैंने धीरे-धीरे उन्हें सिर्फ आपात काल के लिए रख छोड़ा था और वे हालांकि हम अक्सर मिलते और चूंकि हम दोनों फ्लश खेलने के शौकीन थे लिहाजा शाम सात-आठ बजे जुटनेवाली फ्लश की फड़ों में शामिल भी होते, पर वे मुझसे मन-ही-मन खिंच गये थे और उन्होंने भी कैलाश से मेरी शिकायत की थी।

लेकिन मुझे न पृथ्वीराज से गरज थी, न कैलाश से। मैं अपनी नज़र अपने कार्यक्रम पर रखता। और भी कई वजहें थीं, जिनसे मैं कैलाश के अन्दरूनी दायरे में नहीं था।

मगर जो सबसे बड़ी वजह थी, वह थी लन्दन में ‘भारत उत्सव’ का आयोजन। इन्दिरा गांधी ने बड़े पैमाने पर अपनी वापसी के बाद अपनी छवि सुधारने के लिए इन उत्सवों की योजना बनायी थी और यह महज़ सांस्कृतिक कार्यक्रम ही नहीं था, इसका राजनयिक राजनैतिक महत्व और मकसद भी था। जाहिर है, ऐसे मौके पर बी.बी.सी. और ‘सांस्कृतिक चर्चा’ की एक अहमियत थी। पुपुल जयकर इस उत्सव को सफल बनाने के लिए लन्दन में खेमा गाड़े हुए थीं और मैंने इस उत्सव में साहित्य और साहित्यकारों की अनुपस्थिति पर अपने दफ्तर में आलोचना भी की थी और भारतीय उच्चायोग की एक पार्टी में पुपुल जयकर से अपनी शिकायत भी दर्ज की थी जिसे उन्होंने अपनी मरी हुई मछलियों सरीखी बड़ी-बड़ी भावहीन आंखें मुझ पर गड़ाये हुए सुना था। कैलाश का इरादा ‘भारत उत्सव’ को ज़्यादा-से-ज़्यादा अनुकूल तवज्जो दे कर अपना जनसम्पर्क दुरुस्त करना था और इस काम में प्रकट ही मेरे जैसा आदमी सहायक न हो सकता था। तब उसने यह कार्यक्रम मुझसे ले कर रमा पाण्डे को देने का फैसला किया, जो इला अरुण की बहन थी पर इला की सहोदरा होने के बावजूद उसमें इला की-सी प्रतिभा न थी। उलटे वह इला की होड़ में जरूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी थी। तलफ़्फ़ुज़ उसका ऐसा था कि वह "शासन" को "साशन" कहती थी। गुण बस एक था कि दिल की अच्छी थी, झगड़ा हो जाने पर अचला की तरह बिस घोलने की बजाय तुरन्त आ कर सम्बन्ध सुधार लेती। परनिन्दा प्रवीण थी, रसीली बातें करती और थोड़ी-थोड़ी मुँहफट भी थी। अकसर लोकगीत सुनाती जिनमें से एक मुझे आज तक याद है :
सांझ भई दिन अथवन लागा
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार
रात भई चन्दा चमकानो
राजा छतिया लगायें चुमकार चुमकार
भोर भई चिड़ियां चहचानीं
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार

जाहिर है, कैलाश की महत्वाकांक्षाओं के लिए रमा की महत्वाकांक्षाएं पूरक ही सिद्ध होतीं, सो मेरे हिन्दुस्तान से लौटने के बाद ‘सांस्कृतिक चर्चा’ अचानक मुझसे ले कर उसे दे दिया गया और मुझे सबसे मुश्किल कार्यक्रम ‘आजकल’ के साथ सबसे महत्वहीन माना जाने वाला कार्यक्रम ‘बाल संघ’ थमा दिया गया। उसके बाद मैंने ‘सांस्कृतिक चर्चा’ में कभी हिस्सा नहीं लिया और रमा ने भी होशियारी बरतते हुए मुझे उससे दूर-दूर ही रखा। यही हाल राज बिसारिया का भी रहा।

अब चूंकि मैं विदा हो रहा था, चुनांचे सबका प्रेम अचानक जाग उठा था। मैंने राज बिसारिया से कहा कि बी.बी.सी. से मुझे कविता के लिए पैसे नहीं मिलते, जिस काम के लिए मिलते हैं, वह करता हूं। और यूं भी मेरा उसूल है कि मैं यथासंभव अपनी रचनाएं बी.बी.सी. से प्रसारित न करूं। जब राज बिसारिया ने बहुत इसरार किया तो मैंने कहा कि मैं दो शर्तों पर अपनी कविताएं रिकार्ड कराऊंगा। पहली यह कि कार्यक्रम की रूपरेखा वे नहीं, मैं तय करूंगा। दूसरे यह कि कविताएं मेरे जाने के बाद ही प्रसारित की जायें। बिसारिया जी मान गये और मैंने छोटे-छोटे वक्तव्य देते हुए आध घण्टे का कार्यक्रम रिकार्ड करा दिया। लेकिन बिसारिया जी को कहां सबर! उन्होंने दस मिनट का टुकड़ा अगले ही सप्ताह प्रसारित कर दिया और मेरे पूछने पर खीसें निपोर दीं।

बी.बी.सी. के प्रशासनिक अंग में एक प्रभाग श्रोताओं के पत्रों का भी था, जिनसे कार्यक्रमों के बारे में लोगों की राय का पता चलता रहता था। तीन हफ्ते बाद उस प्रभाग की सुधा अग्रवाल ने मुझे चालीस-पैंतालीस चिट्ठियों का एक पुलिन्दा दिया जो उस प्रसारण की प्रतिक्रिया में लोगों ने भेजी थीं। वाचस्पति उपाध्याय को छोड़कर जो मेरे पुराने मित्र और कवि-आलोचक थे, शेष सभी पत्र आम श्रोताओं के थे। उनकी प्रतिक्रियाएं पढ़कर मेरा विश्वास और भी पक्का हो गया कि मैंने लौटने का फैसला करके कोई गलती नहीं की है कि मुझे अपना ध्यान अपने लिखने में लगाना चाहिए।

बाकी बचे, डेढ़ेक महीने में और कोई यादगार घटना नहीं हुई और मार्च 1984 में मैं लन्दन की चार साल की जलावतनी के बाद हिन्दुस्तान लौट आया जहां कुछ नयी समस्याएं और पुराने मित्र मेरा इन्तज़ार कर रहे थे।
(जारी)

Monday, June 20, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४०



मित्रता की सदानीरा - १९


तभी एक दिन कैलाश ने मुझे बुला कर कहा कि ओंकार हिन्दुस्तान जा रहे हैं, कुछ और लोग भी छुट्टी पर हैं, क्या मेरे लिए एक महीना और रूकना सम्भव होगा। मुझे बड़ा मजा आया। कैलाश बहुत कुशल प्रशासक थे और उनका दावा था कि वे एक कार्यक्रम सहायक के साथ पूरा सेक्शन चला सकते हैं और अगर कोई कल वापस जाना चाहता है तो वह चाहे तो आज ही चला जाये। यह बी.बी.सी. के चार वर्षों में मेरी अन्तिम सफलता थी। मैंने कैलाश से कहा, ठीक है, आप कहते हैं तो मैं रूक जाता हूं, लेकिन फिर आप ऐसा करें कि मुझे हफ्ते भर की छुट्टी अभी दे दें, ओंकार के हिन्दुस्तान जाने से पहले मैं अपनी एक मित्र से मिलने जर्मनी जाना चाहता हूं। कैलाश राजी हो गये और मैं कारीन ज्वेकर से मिलने वीसबाडन चला गया।

कारीन से मेरा परिचय कुछ साल पहले गालिबन 1977-78 में हुआ था। उन दिनों मेरे मित्र विजय सोनी जो चित्रकार थे और ग्रोटोवस्की के सिद्धान्तों पर नाटक खेलते थे, मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का एक नाट्य रूपान्तर ले कर इलाहाबाद आये हुए थे। हमने दौड़-भाग करके उत्तरी रेलवे के मनोरंजन क्लब के हाल में प्रदर्शन का इंतज़ाम कर दिया था। मंगलेश और वीरेन उन दिनों इलाहाबाद ही में थे। तभी जिस रोज नाटक का पहला प्रदर्शन था अचानक एक खूबसूरत-सी लम्बी-तगड़ी विदेशी लड़की मेरे दफ्तर में दाखिल हुई। उसने लहंगा पहन रखा था और काफी कुछ जिप्सियों जैसी धज बना रखी थी। उसने अपना नाम बताया और कहा कि वह अश्क जी के नाटकों पर जर्मनी में शोध कर रही है और उनसे मिलना चाहती है। यह कारीन ज्वेकर थी। मैं उसे घर ले गया। जब वह मेरे पिता से बातचीत कर चुकी तो मैंने उससे पूछा कि क्या वह ‘अंधेरे में’ का नाट्य-रूपान्तर देखना चाहेगी? वह तैयार हो गयी। मैं उसे फिर दफ्तर ले आया जहां मंगलेश और वीरेन आनेवाले थे। शाम को हमने नाटक देखा और फिर स्टेशन पर एक ढाबे में खाना खाया। दो-एक दिन ठहर कर कारीन वापस जर्मनी चली गयी।
फिर उसकी चिट्ठी-पत्री आती रही और जब मैं लन्दन गया तो मैंने उसे पत्र लिख कर सूचना दी। फिर उसका पत्र आया और गाहे-बगाहे फोन पर बात होती रही। उसने कई बार वीसबाडेन आने का न्यौता भी दिया, पर जि़न्दगी कुछ ऐसी रही कि मैं चाह कर भी उससे मिलने जा नहीं पाया।

अब जब यह एक हफ्ता अचानक मेरी झोली में आ गिरा तो मैं झटपट कारीन को फोन किया, सारे इन्तजामात किये और वीसबाडन के लिए रवाना हो गया। जर्मनी के उस प्रवास की बड़ी सुखद स्मृतियां मेरे मन में हैं।

कारीन का मकान शायद उसके नाना का था, जिसके पांच कमरे उसने किराये पर चढ़ा रखे थे और बाकी में अपने एक पुरुष मित्र के साथ रहती थी। लन्दन की बनिस्बत वीसबाडन बहुत व्यवस्थित, खुला-खुला और सम्पन्न था। व्यवस्थाप्रियता एक जर्मन विशेषता है शायद, क्योंकि वह हर जगह नजर आती थी। अंग्रेजों के विपरीत जर्मन लोग कुछ खुले और मुखर स्वभाव के थे, लेकिन व्यवस्था-प्रेमी। जिस तरह की फक्कड़ बेतरतीबी मैंने आपने कुछ अंग्रेज परिचितों में, खास कर युवक-युवतियों में और कारीन जैसी ही परिस्थितियों में रहने वालों में, देखी थी, वह यहाँ नदारद थी।

कारीन ने पहले ही दिन मुझे उस रिहाइशगाह का ढंग-ढर्रा समझा दिया था। फोन पर समय बताने का यन्त्र लगा था और पास ही में कापी रखी थी। जो भी फोन करता वह अपना नाम और समय लिख देता। बाद में बिल आने पर सब अपने-अपने उपयोग के हिसाब से पैसे दे देते। यही हाल बिजली-पानी का था। नहाने का क्रम बंधा हुआ था। रसोई घर में सबका सामान अलग रखा रहता। सब कुछ मेरी मां की कहावत -- हिसाब मां-बेटी का बक्शीश लाख टके की -- सरीखा था। मैं कारीन के लिए कुछ उपहारों के साथ शिवाज रीगल ह्विस्की की एक लीटर की बोतल ले गया था। वह उसने सबके साथ बांट कर पी। बल्कि उसी दौरान उसके कुछ मित्र मिलने आये तो उन्हें भी पिलायी।

मुझे अब ठीक-ठीक याद नहीं कि मैं कारीन के साथ कितने दिन रहा था। शायद एक हफ्ता, जिस दौरान वह मुझे अपने माता-पिता से मिलाने लिम्बुर्ग भी ले गयी थी और एक पूरा दिन हमने फ्रैंकफर्ट में हिन्दी विद्वान इन्दु प्रकाश पाण्डे और उनकी पत्नी हाइडी के साथ भी बिताया था। बाकी वक्त कारीन मुझे वीसबाडन घुमाती रही थी।

वीसबाडन पुराना शहर था। ऐसा शहर जिसे ‘स्पा’ कहा जाता था -- अपनी आबे-हवा के सबब से सेहत के लिए मुफीद। बहुत-से रूसी, फ्रान्सीसी लेखक यहाँ आ कर रहे थे और ‘स्पा’ होने के नाते यहाँ जुए के अड्डे और मनोरंजन और सांस्कृतिक दिलचस्पी के साधन भी विकसित हो गये थे। कारीन ने मुझे शहर के बीचों-बीच एक पुराना थिएटर हाल भी दिखाया था, जो दूसरे महायुद्ध के दौरान बहुत क्षतिग्रस्त हो गया था। नगर पालिका ने हर ईंट पर नम्बर लिख कर पुराने नक्शे के मुताबिक उसे हू-ब-हू पहले जैसा बना दिया था।

हिटलर के शासन और उसके बाद दूसरी महायुद्ध में हुई तबाही के बाद ध्वस्त इलाकों को फिर पहले जैसा बनाने का खयाल सिर्फ प्रसिद्ध इमारतों तक सीमित नहीं था। कारीन ने मुझे बीसबाडन में जस्टिशिया चौक भी दिखाया था -- छोटा-सा चौक जिसके चारों तरफ रिहाइशी मकान थे। उसने बताया था कि यह चौक भी पूरी तरह नष्ट हो गया था, लेकिन इसे भी फिर पहले जैसा ही बना कर खड़ा कर दिया गया था।

कुछ दिन बाद फ्रैंकफर्ट में इन्दु प्रकाश पाण्डे के साथ टहलते हुए मैंने इस बात का जिक्र करते हुए उन्हें बताया कि हमारे घर के पास जी.टी. रोड पर शहर की पुरानी फसील पर बने दो मुगलकालीन दरवाजों में से एक जब ढह गया था तो किसी ने उसे दोबारा बनाने की नहीं सोची थी, बल्कि लोग उसके पत्थर उठा ले गये थे, जबकि जर्मनी में इसका उलट देखने को आया था। तब पाण्डे जी ने इसका जो कारण बताया उसने आगे चल कर मुझे इतिहास के बारे में अपना दृष्टिकोण निर्मित करने में बड़ी मदद दी। उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान में समय की अवधारणा चक्राकार रही है, घटनाएं बार-बार होती हैं, युगों का क्रम बार-बार सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग के फेरे लगाता है। इसलिए संरक्षण पर बल नहीं है। पश्चिम में समय रेखीय है, इसलिए जो घटित हुआ है, उसका अभिलेख महत्वपूर्ण है, उसे संजोया जाना चाहिए।

मैं जो बुनियादी तौर पर अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा-लिखा और इतिहास के बारे में उसी पश्चिमी दृष्टिकोण से परिचित था, पहली बार एक नयी विचार सरणि के रू-ब-रू हुआ। फिर मैंने खोज-खोज कर इस बारे में और भी मालूमात हासिल की, कौसाम्बी और रोमिला थापर को दोबारा पढ़ा। बहरहाल, वह एक अलग ही कहानी है।

वीसबाडन ही में टहलते हुए एक दिन मुझे कारीन ने एक दुकान दिखायी, जिसमें बिकनेवाला सारा सामान फेंकी गयी चीजों को दोबारा में इस्तेमाल करके बनाया गया था। यह शायद जर्मन लोगों की एक और विशेषता थी, क्योंकि इसके लिए एक पारिभाषिक शब्द भी था -- बैसलिंग। यानी टूटी-फूटी, बेकार और फेंकनेवाली चीजों को दस्तकारी के माध्यम से, और जाहिर है रचनात्मक कौशल से, नयी चीजों में ढाल देना।

पांच-छह दिन देखते-देखते बीत गये और मैं वापस लन्दन के लिए चल दिया। इस बार मैंने रास्ते में थोड़ा परिवर्तन किया और पश्चिमी जर्मनी (जर्मनी तब तक एक नहीं हुआ था) की राजधानी बान हो कर लौटा, जहां जर्मन प्रसारण सेवा में बी.बी.सी. के मेरे पुराने सहकर्मी सुभाष वोहरा थे और कवि विष्णु नागर।

दोनों के साथ मैंने दिन भर गुजारा, डोएचे वेले में बिरादराना भाव से जर्मनी यात्रा पर एक वार्ता रिकार्ड की, कुछ खरीदारी की बान से सटे कोलोन शहर का सुप्रसिद्ध गिरजाघर देखा, जिसका एक छोटा-सा हिस्सा बमबारी में विक्षत हो गया था, पर उसे फिर से पूर्ववत बनाने की बजाय शायद युद्ध के विनाशकारी प्रभाव के स्मृति के तौर पर मामूली ईंटों और अनगढ़ ढंग से मरम्मत करके छोड़ दिया गया था। वहाँ गिरजे के पास ही सुभाष के कहने पर मैंने कोलोनेर वासर -- कोलोन का पानी -- की बोतलों का छोटा-सा डिब्बा लिया। यह वही इत्र था, जिसे हम हिन्दुस्तान में ओ डि कोलोन के नाम से जानते थे और मेरी मां इस्तेमाल किया करती थी।

कोलोन से मैं फिर समुद्र तट की ओर रेलगाड़ी में रवाना हो गया, जहां से चैनल पार कर मुझे डोवर पहुंचना था। रास्ते में इत्तेफाक से मेरी बगल की सीट पर एक जर्मन युवती आ बैठी। सफर कई घण्टों का था, इसलिए उससे बातें शुरू हो गयीं। जब मैंने वीसबाण्डन के थिएटर और जस्टिशिया चौक के पुनर्निर्माण का जिक्र करते हुए प्रशंसा-भरा विस्मय प्रकट किया तो उसकी प्रतिक्रिया बिलकुल अनोखी थी।

क्या आपको नहीं लगता -- उसने सवालिया अन्दाज़ में कहा था -- कि हम जर्मन लोग हिटलर के निजाम, नात्सीवाद, यहूदियों के नरसंहार, दूसरे महायुद्ध, इस सब को ले कर एक भयंकर अपराध-भाव से भरे हुए हैं; जिसकी वजह से हम उन सारी घटनाओं को जैसे सायास भुला देना चाहते हैं। मानो न तो कोई हिटलर हुआ था और न 1932 से 1947 तक की भयंकर घटनाएं। इससे तो अच्छा था उस सबको और अपनी भयावह भूलों को तस्लीम करके उनसे सबक लेना और यों अपने मानस को सच्चे प्रायश्चित से साफ कर लेना। अब तो यह सब पर्दा डालने के प्रयास जैसा लगता है।

कुछ ही वर्ष बाद जब मैंने फ्रांस और जर्मनी में नव नात्सीवाद के उभार और अलजीरियाई तथा दूसरे प्रवासियों के प्रति फ्रांसीसियों और जर्मन नवनात्सी युवकों की नस्ली घृणा की खबरें पढ़ीं तो मुझे बेसाख्ता उस जर्मन युवती की याद हो आयी, जिसकी वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि मुझे बहुत कुछ सिखा गयी थी।
(जारी)

Saturday, June 18, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उनतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३९



मित्रता की सदानीरा - १८

लखनऊ से मैं दिल्ली चला गया था, जहां पंकज सिंह, जैसा कि मैंने कहा, अजीब-से फकीरी अन्दाज़ में दिन गुजार रहा था। अभी सविता से उसकी भेंट नहीं हुई थी, वह तारीक अनवर और उनकी ‘युवक धारा’ से जुड़ा नहीं था। उसका बहुत-सा वक्त भगवती बाबू के छोटे बेटे कैप्टन वर्मा के परिवार के साथ बीतता था। कैप्टन वर्मा विमान चालक थे, उनकी पत्नी कत्थक नृत्यांगना थीं, बेटी सोना और बेटा पढ़ रहे थे। कैप्टन वर्मा और उनके परिवार में एक सहज स्वभाविक गर्मजोशी थी। पंकज से (और उसके मिस उसके दोस्तों से) वे सहज ही स्नेह करते थे। कभी-कभी वे सब 35 फिरोजशाह रोड पर श्री लव के फ्लैट में पंकज के कमरे पर आ धमकते और हम सबको अपने साथ ले जाते। कभी कुबेर दत्त अपने स्कूटर पर वहाँ आ जाता। कभी हम लोग कनाट प्लेस के चक्कर लगाने चले जाते।

देखते-देखते वह छह हफ्ते का समय भी बीत गया और मैं वापस लन्दन चला गया। चूंकि मन के किसी कोने में यह बात बैठी हुई थी कि मुझे अन्ततः हिन्दुस्तान लौटना है, लन्दन में ही नहीं रहना, इसलिए एक सोची-समझी योजना के तहत मैंने अपने अनुबन्ध के बढ़ाये जाने पर हामी भर दी थी ताकि मुझे बी.बी.सी. के खर्च पर हिन्दुस्तान की एक यात्रा का अवसर मिल जाय। इसके बाद अगर इरादा यह बनेगा कि दूसरा अनुबन्ध पूरा किये बिना ही वापस आना है तो साल भर बाद जब जी चाहेगा एक महीने की सूचना पर बोरिया-बिस्तर समेट लिया जायेगा। इसके अलावा मुझे बी.बी.सी. की ही अपनी सहकर्मी श्रीमती रजनी कौल को सात सौ पाउण्ड लौटाने थे जो उन्होंने बड़ी सहृदयतापूर्वक मुझे उस समय दिये थे, जब मैंने किस्तों पर अपना मकान खरीदा था और कहा था, ‘तुम इन पैसों को सुविधा से लौटाना। मुझे मालूम है शुरू-शुरू में कैसी दिक्कतें होती हैं।’ इसीलिए मैंने छुट्टियों में घर जा कर वापस आने के लिए सबसे सस्ती हवाई सेवा से टिकट लिये थे ताकि बचे हुए पैसों से उधार चुका सकूं।

और इस तरह मैं लन्दन लौट आया था। इस यात्रा से कुछ बातें बहुत साफ हो गयी थीं। एक तो यह कि मैं अपने घर-परिवार, परिवेश और शहर से कैसे अदृश्य लेकिन अटूट धागों से बंधा हुआ था। यह ठीक है कि लन्दन में मुझे किसी किस्म की दिक्कत नहीं थी। वैसी भी नहीं, जो आम आप्रवासियों को होती है। और मैं आम हिन्दुस्तानियों के विपरीत, जो सिर्फ अपने ही लोगों के बीच विचरते थे, अंग्रेजों और वेस्ट इण्डियन लोगों से भी मिलता-मिलाता और उठता-बैठता था। तो भी इतना मुझे मालूम था कि अगर मुझे सचमुच हिन्दी में लिखना जारी रखना है तो मुझे हिन्दुस्तान वापस जाना ही होगा। अगर मैं अंग्रेजी में लिखता होता जैसे सलमान रश्दी या मेरा मित्र फारूख ढोंढी तो फिर बात दूसरी होती।

फिर यह सच्चाई भी पेश-पेश थी कि मैं 34 की उमर में वहाँ गया था और जितना ही अधिक वहाँ रहता, उतना ही मेरे लिए लौटना मुश्किल होता जाता, क्योंकि मेरे बच्चे भी बड़े हो रहे थे और ऐसी दहलीज पर आ खड़े हुए थे, जिसे पार करने के बाद उनके लिए लौटना नामुमकिन हो जाता। आखिरी बात यह थी कि बी.बी.सी. से जो मुझे सीखना और हासिल करना था, और वह कम नहीं था, मैं कर चुका था; सामान्य ‘इन्द्रधनुष’, ‘झंकार’, ‘सांस्कृतिक चर्चा’ और ‘बाल सभा’ जैसे अचार-चटनी मार्का कार्यक्रमों से ले कर, ‘आपका पत्र मिला’ और मुख्य भोजन वाले ‘विश्व भारती’ और ‘आजकल’ जैसे कार्यक्रम सफलता से कर चुका था। उसके बाद दुहराव का अन्तहीन सिलसिला था, जो काम के सन्तोष से ज़्यादा भौतिक सुख-सुविधा का जीवन जी पाने के अवसर ही जुटा सकता था।

लिहाजा जब 1983 की गर्मियों में मैंने अपने पिता को पांच महीने के लिए अपने पास बुलाया तो उनसे काफी विचार-विमर्श करके यह फैसला किया कि मुझे अब इस्तीफा दे कर घर चले जाना चाहिए। फिर चाहे मैं प्रकाशन देखूं या लिखूं या जो करूं। सुलक्षणा इंग्लैण्ड में बहुत रमी हुई थी। चलने से पहले उसे एक पुस्तकालय से नौकरी का प्रस्ताव भी आ गया था, जिसे स्वीकार करने पर हमारी स्थिति और बेहतर हो जाती। ओंकार भाई की पत्नी प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री कीर्ति चौधरी पुस्तकालय ही में काम करती थीं ओर उन्होंने उसकी सुविधाओं के बारे में सुलक्षणा को बता रखा था। इसलिए सुलक्षणा वापस इलाहाबाद के उसी माहौल में लौटने की बहुत इच्छुक न थी, जहां संयुक्त परिवार की बन्दिशें थीं; सास ही नहीं, जेठानी का भी आधिपत्य था। बच्चों को बहुत फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि दोनों वहाँ की जि़न्दगी में रच-बस गये थे। इस सबके बावजूद मैंने फायदों और नुकसानों को तोला तो लौटना ही ज़्यादा लाभकर लगा।

मगर इस्तीफा देने की बात कहना एक बात है, इस्तीफा देना दूसरी; क्योंकि इस्तीफा देते ही उसके मंजूर हो जाने की संभावना नहीं थी। साथ ही मकान को बेचने से ले कर सारा सामान समेट-समाट कर वापस जाने का बन्दोबस्त करने तक बीसियों झंझट थे। मेरी शंका को साबित करते हुए कैलाश बुधवार ने पहले तो जबानी तौर पर मुझे समझाया, कहा कि ऐसी नौकरी आसानी से नहीं मिलती, कि मैं अनुबन्ध पूरा करूं तो वे मुझे स्थायी रूप से नियुक्त करने के लिए सिफारिश करेंगे; उनके समझाने के बावजूद मैं अपने फैसले पर कायम रहा तो उन्होंने कहा, ‘ठीक है, जैसा तुम चाहो।’ और यह कह कर उन्होंने अपनी निजी सचिव से कहा, ‘कैरोल, नीलाभ विशेज टू रिजाइन। प्लीज टेक डाउन हिज़ रेविगनेशन लेटर।’ जब मैंने इस्तीफा लिखाकर दस्तखत कर दिये तो कैलाश ने उसे अपने पास रख लिया और कहा, ‘मेरा खयाल है, तुम अभी कुछ दिन और सोच लो। इस्तीफा तो लिखा ही गया है, लेकिन मैं इसे अभी आगे की कार्रवाई के लिए नहीं भेजूंगा।’

मेरे पिता उन दिनों मेरे पास आये हुए थे और उन्होंने जिद बांधी हुई थी कि मुझे वादे के मुताबिक वापस चलना चाहिए। जो मुझे शिकायतें हैं वे सब दूर कर दी जायेंगी। उनके हठ और माता-पिता के प्रति अपने जुड़ाव के चलते मेरा सारा प्रतिरोध ढह गया था। चूंकि अश्क जी कैलाश बुधवार से बहुत पहले से परिचित थे, लिहाजा उन्होंने कैलाश पर जोर दिया कि वे मुझे मुक्त कर दें। कैलाश ने उन्हें भी समझाने की कोशिश की, पर वे माने नहीं और उन्होंने विस्तार से कैलाश को सारी परिस्थिति से अवगत कराया। अन्त में कैलाश ने मेरा इस्तीफा मंजूर करके आगे की कार्रवाई के लिए भेज दिया। बतौर नोटिस मैं अनुबन्ध के बढ़ाये जाने के बाद एक साल बाद ही मुक्त हो सकता था, जिसका मतलब था कि मैं जून 1984 में जा कर मुक्त होता। लेकिन मेरी लगभग तीन-चार महीने की छुट्टियां बाकी थीं, मैंने उन्हें नोटिस की अवधि में समायोजित करा दिया और इस तरह अपनी रवानगी की तारीख़ को फरवरी तक खींच लाया।

इस्तीफे के स्वीकार हो जाने के बाद सबसे ज़रूरी काम था मकान को बेचना। लेकिन जिस समय मैंने लन्दन से वापसी की सोची थी, मकानों की कीमतें और पाडण्ड का मूल्य, दोनों ही गिरे हुए थे। लेकिन मैंने जि़न्दगी में अहम फैसले करते समय पैसों की परवाह कभी नहीं की। यहाँ तक कि जब ओंकार ने कहा कि अगर मैं महज तीन महीने बाद मई के अंत में जाऊं तो मुझे इंग्लैण्ड में स्थायी निवास का अधिकार मिल जायेगा और मैं भविष्य में जब चाहूंगा लौट सकूंगा तब मैंने उनसे कहा था कि अव्वल तो दोबारा इंग्लैण्ड आ कर रहने की नौबत ही नहीं आयेगी। और अगर आयी तो तब की तब देखी जायेगी।

पिता भी मेरे इस्तीफे के स्वीकार हो जाने से आश्वस्त हो गये थे और जब सितम्बर में खबर आयी कि मेरी मां को हल्का-सा स्ट्रोक हुआ है तो उन्होंने लौटने का फैसला किया। देखते-ही-देखते मकान का सौदा हो गया और मैंने दिसंबर में सुलक्षणा और बच्चों को मय साजो-सामान इलाहाबाद के लिए रवाना कर दिया। सामान ले जाने का खर्च मुझे बी.बी.सी. से मिलना था और चूंकि मैं निवास का स्थानान्तरण कर रहा था इसलिए जो चाहता, बिना महसूल अदा किये वहाँ से ला सकता था। कुछ लोगों ने कहा भी कि यह ले जाओ, वह ले जाओ, लेकिन मैं सिवा अकाई के एक उम्दा म्यूजिक सिस्टम के, वहाँ से और कुछ अतिरिक्त नहीं लाया। यूं मेरे पास पैनासानिक का एक म्यूजिक सिस्टम था, जो मैंने अपनी पुरानी मित्र और बी.बी.सी. की सहकर्मी अचला शर्मा के म्यूज़िक सिस्टम को देख कर लिया था; लेकिन अकाई का यह सिस्टम उससे कहीं बेहतर था और मेरे बड़े बेटे को भी पसन्द था। सो वही एक चीज़ मैंने फाजिल ली।

सुलक्षणा को वापस भेजकर मैं फिर बेज़वाटर के उसी इलाके में चला गया, जहां बी.बी.सी. का हास्टल था और जहां मैं चार साल पहले तीन महीने रहा था। लेकिन हास्टल में जगह नहीं थी, चुनांचे एक ऐसे मकान में जो अब किराये पर कमरे उठाने के काम ही आता था, मैंने एक कमरा ले लिया। फरवरी में मुझे चल देना था। ज़्यादातर सामान मैं हिन्दुस्तान भेज ही चुका था। सिर्फ अकाई का म्यूजिक सिस्टम था, सो मुझे कोई वैसी चिन्ता नहीं थी।
(जारी)

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अड़तीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३८



मित्रता की सदानीरा - १७


लखनऊ ही में मेरे पुराने मित्र राजेश शर्मा भी थे, जो सूचना विभाग में थे जहां लीलाधर जगूडी भी उन दिनों था या कुछ ही अर्से बाद आया। राजेश जिसने बाद में ओसीआर बिल्डिंग से कूद कर आत्महत्या कर ली और बहुत-से लोगों को दुखी कर दिया, बहुत प्यारा इन्सान था।

राजेश शायद मूलतः गोरखपुर की तरफ का था या शायद उसका कुछ समय गोरखपुर गुजरा था और वह मदन वात्स्यायन के मित्रों में से था। आज तो खैर मदन वात्स्यायन की किसी को याद नहीं, पर एक समय उनकी कविताएं बहुत शान से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती थीं और हम नये-नये लिखने वालों पर उनका बड़ा रोब और रूतबा था। लखनऊ आने से पहले राजेश का बहुत वक्त इलाहाबाद में गुजरा था, जहां वह पवन मन्ध्यान के नाम के एक सिन्धी युवक (जो बाद में वकील बना) और जगदीश सरदाना नाम के एक शख्स के साथ छोटे-से ‘एक्सक्लूसिव’ गुट का सदस्य था।

हालांकि मैं उन दिनों प्रभात और काफी हाउस में शाम को अड्डा जमाने वालों में बैठता था, लेकिन चूंकि मेरे प्रकाशन का कार्यालय काफी हाउस वाली इमारत में था इसलिए राजेश वगैरा, जिनकी नियमित बैठकी तीन-चार बजे के करीब होती, मुझे भी कृपा करके शामिल कर लिया करते।

तीनों नकचढ़े लोग थे और बड़ी ऊंचाई से कला-साहित्य वगैरा पर बात करते। जगदीश उधर कहीं कल्याणी देवी या मीरापुर की तरफ रहता था और मेरे पिता से सिफारिशी पत्र ले कर पूना के फिल्म संस्थान जाने, वहाँ की शुरूआती खेप में प्रशिक्षण लेने, लगभग तत्काल ही राजेन्द्र सिंह बेदी का प्रिय पात्र बन कर ‘दस्तक’ के सहायक निर्देशक का अवसर पाने से पहले, इलाहाबाद में पढ़ाई पूरी करने के बाद पर तोल रहा था। बाद में उसने पद्मा खन्ना से शादी कर ली थी और अनेक प्रतिभाओं की तरह जो उल्का की तरह उभर कर गायब हो जाती हैं, वह भी अचानक गायब हो गया था। कुछ साल तक उसकी खैर-खबर मिलती रही, फिर वह भी बन्द हो गयी। अभी दो-तीन साल पहले अमरीका बस गयी एक युवती से, जो जाने किसका पता पूछती भटक कर हमारे इलाहाबाद वाले बंगले में चली आयी थी, पता चला कि पद्मा खन्ना, जो डांस करते-करते ‘सौदागर’ में अमिताभ और नूतन के साथ बराबरी की भूमिका निभाने तक की मंजिलें तय कर आयी थी, अब लास ऐन्जिलीज या वहीं-कहीं कैलिफोर्निया के धूप-धुले इलाके में नृत्य का विद्यालय चला रही है, जिसका बन्दोबस्त ’जगदीश सर’ के हाथों में है।

खैर, बात राजेश शर्मा की हो रही थी। राजेश मुझे शुरू ही से एक बेचैन आत्मा लगता था। अक्सर वह मुझसे बात करते-करते, एक उड़ान-सी भरते हुए मेरे पिता से अपनी मुलाकातों का जिक्र छेड़ देता। ज़ाहिर है, जिस ऊंचाई पर वह विचरता था, वहाँ से उसे उपेन्द्रनाथ अश्क भी अदना-से नजर आते रहे हों तो कोई हैरत की बात नहीं। मैं चूंकि ऐसी ही फितरत वाले हिन्दी के बहुत से लेखकों की अदाओं से वाकिफ हूं, इसलिए मुझे राजेश से खीझ नहीं होती थी। यूं बेहद प्यारा आदमी था, नयी कविता के जमाने की कविताई करता था, जो शादी-ब्याह, बच्चों और नौकरी के बाद प्राथमिकताओं के क्रम में काफी नीचे खिसक गयी थी।

उस लखनऊ प्रवास में रिक्शे पर ‘अमृत प्रभात’ से महानगर मंगलेश के घर जाना, वहाँ मोहित (जो तब शायद साल भर का था) और संयुक्ता से मिलना याद है। एक रात शैलेश के कमरे पर बिताने की भी याद है, लेकिन सबसे गहरी याद उस मजलिस की है, जो राजेश के घर पर हुई थी। मेरी वापसी के मौके पर पंकज सिंह भी दिल्ली से लखनऊ आ गया था, वीरेन भी। अजय वहां था ही, सो एक उत्सवी हलचल हवा में थी।

तभी राजेश ने मुझसे कहा कि वह मेरी वापसी का जश्न मनाने के लिए अपने घर पर एक पार्टी रख रहा है। पार्टी मतलब ‘पवित्र विचार’। अजय तो पीता नहीं है, लेकिन हम सब कहा जाय कि ‘रिन्दे बलानोश’ किस्म के लोग थे, जो ‘अच्छी पी ली खराब पी ली, जैसी मिली शराब पी ली’ में विश्वास करते थे। सो जहां तक मुझे याद है ‘पवित्र विचार’ की उस सभा में मंगलेश, वीरेन, पंकज, शैलेश, अजय और मैं शामिल थे। राजेश तो मेजबान होने के नाते था ही।

मुझे इतने बरस बाद अब याद नहीं है कि यह पार्टी उसके नये घर पर हुई थी, जिसका नाम उसने ‘घर’ ही रखा हुआ था और बड़े मन से बनवाया और सुरूचि से सजाया था, या फिर उस मकान पर जहां वह इस मकान को बनवाने से पहले किराये पर रहता था। बहरहाल, एक बड़ा-सा कमरा था, जो सामने सोफे रखकर बैठक बना लिया गया था और पीछे की तरफ रखी खाने की मेज-कुर्सियों की वजह से खाने के कमरे के काम आता था। राजेश की दो बेटियां थीं, जो अपनी मां के साथ खाने-पीने के इन्तजामात कर रही थीं, पीछे शास्त्रीय संगीत बज रहा था, जिस पर वीरेन बीच-बीच में कुछ टिप्पणी कर बैठता। हम लोग बैठक वाले हिस्से में इत्मीनान से बैठे दारू की चुस्कियां ले रहे थे। लेकिन ऐसे खुशनुमा माहौल को यादगार बनाने के लिए जैसे उसका खुशनुमा होना ही काफी न हो, इत्तफाक ने कुछ और सरंजाम भी कर रखा था।

अभी महफिल शबाब पर आना चाहती थी कि बाहर अचानक किसी मोटरकार के तेजी से आ कर रूकने की आवाज आयी और कुछ पल बाद दरवाजे पर दस्तक हुई। राजेश ने दरवाजा खोला तो रवीन्द्र कालिया (जाने यह नाम धूमकेतु की तरह कब तक मेरे फलक पर बार-बार गर्दिश करता रहेगा और अपने पीछे छोड़े गये धुएं और गर्दो-गुबार से माहौल को धुंधलाता रहेगा - ‘आधार’ वाले प्रसंग से ले कर अन्यान्य प्रसंगों तक), उसका जालन्धर के दिनों का दोस्त प्रवीण शर्मा (जो उन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार में कोई बड़ा प्रशासनिक अधिकारी था) और विभूति नारायण राय (जो शायद तब एस.पी. थे, या एस.एस.पी. बन चुके थे) अन्दर दाखिल हुए। पी तो उन तीनों ने ही रखी थी, लेकिन कालिया "जाने भी दो यारो" का ओम पुरी बना हुआ था। टुन्न और ह्विस्की के घोड़े पर सवार। अन्दर आते ही उसने कहा, ‘यार मंगलेश, तुम यहाँ बैठे हो और हम सारा शहर तुम्हारी तलाश में छानते रहे हैं।’

जाहिर था कि कालिया को मंगलेश की वैसी खोज नहीं थी। वह सत्ता के जिन गलियारों और गलियों की सैयाही कर रहा था, वहाँ किन्हीं और किस्म के लोगों की संगत वह किया करता था। चूंकि कालिया कभी अपनी छोटे शहर की मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है, इसलिए पद के लिए -- वह सरकारी हो तो और भी -- उसके मन में बहुत जगह है। उस वक्त भी एक सचिव स्तर का प्रशासनिक अधिकारी और ऊंचे दर्जे का पुलिस अफसर उसके साथ था। जाहिर है कि प्रतिबिम्बित महिमा से कालिया ही मण्डित हो रहा था और प्रेमचन्द की कहानी ‘नशा’ की-सी कैफियत उस पर तारी थी।

चुनांचे उसने एक-एक करके हम सबसे चुटकियां लेनी शुरू कीं। अपवाद सिर्फ शैलेश और अजय थे। शैलेश को वह ज़्यादा जानता नहीं था और अजय से उसका कोई वैसा खुला रिश्ता नहीं था। वह जानता था कि अजय सख्ती से उसे डपट सकता है। बाकी सबसे वह खुला-खिला था। इस बीच प्रवीण शर्मा लगातार एक ही वाक्य दोहराता रहा -- ‘कालिया यू आर ड्रंक’। और विभूति भी ‘कालिया जी, आइए चलिए, आपने बहुत पी ली है।’ कह कर कालिया को वहाँ से हटा ले जाने की दुर्बल-सी कोशिश करते रहे। तभी कालिया की नजर पंकज सिंह पर गयी और वह चहक उठा।

क्षेपक के तौर पर इतना ही कि पंकज सिंह तब तक दो बार पैरिस के चक्कर लगा कर लौट आया था, फिरोजशाह रोड पर भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद के पीछे किन्हीं लव साहब के सरकारी मकान में उनका किरायेदार बन कर एक कमरे में रहता था, पास ही रह रहे कैप्टन वर्मा के (जो भगवतीबाबू के सुपुत्र थे) परिवार में आता-जाता था और पहले से भी ज़्यादा बेढब और बोहीमियन जि़न्दगी गुज़ार रहा था। जाहिर है, उन सभी लोगों में जो वहाँ मौजूद थे, पंकज ही कालिया के लिए सबसे आसान ‘टार्गेट’ था।

‘अरे पंकज, यार तुम भी यहाँ जमे हो,’ कालिया चहका। ‘और सुनाओ तुम्हारी उस फ्रान्सीसी प्रेमिका का क्या हाल है, जिसे तुम ले कर हमारे यहाँ रानी मण्डी आये थे और जब वह सीढि़यां चढ़ रही थी तो मैंने उसके चूतड़ पर चुटकी काट ली थी?’

कालिया का यह कहना था कि महफिल पर सकता छा गया। उस सन्नाटे में बस प्रवीण शर्मा और विभूति नारायण राय की आवाजें ही सुनायी दीं -- प्रवीण शर्मा की, ‘कालिया यू आर ड्रंक,’ और विभूति की, ‘कालिया जी, आइए चलिए, आपने बहुत पी ली है।’

फिर जैसे एक बम-सा फट पड़ा। सब कालिया पर बरसने लगे। अब तो प्रवीण शर्मा और विभूति नारायण राव ने शब्दों को छोड़ कर हरकतों का सहारा लिया और कालिया को पकड़ कर बाहर ले गये। पीछे-पीछे हम सभी बाहर निकल आये। सबसे ऊंचा स्वर शैलेश का था, जो उन्हें तब तक गालियां देता रहा जब तक कि वे मोटर पर सवार हो कर वहाँ से सिर पर पैर रख कर भाग नहीं गये।

कुछ देर माहौल गड़बड़ाया रहा, लेकिन जल्दी ही फिर जमावड़ा अपनी पुरानी रफ्तार और मौज में आ गया।

कितनी अजीब बात है कि ‘गालिब छुटी शराब’ में अपनी और दूसरों की शराबनोशी के दसियों प्रसंग अंकित करते हुए कालिया ऐसे प्रसंगों से कतरा कर निकल गया है, जिनमें उसने दारू पी कर अभद्रताएं की हैं।
(जारी)