Tuesday, February 1, 2011

देशान्तर




इलाहाबाद की डायरी-2

अब यहां बाक़ी नहीं सामां कोई बहबूद के

अब यहां है क्या बजुज़ अकबर के अमरूद के

दोस्तो,

अकबर इलाहाबादी तो जाने कब के इलाहाबाद को अपनी शेर--शायरी और अपनी अनोखी शख़्सियत से महरूम करके चले गये और बहबूदी के भी सामां कितने और किसके लिए बचे हैं इसका बहुत सही-सही अन्दाज़ा नहीं होता, लेकिन अमरूद अब भी हैं और इलाहाबाद भी वक़्त की मार सहने के बाद क़ायम है और ऐसा लगता है कि क़ायम रहेगा. इलाहाबाद में हुई और हो रही तब्दीलियों के सिलसिले में कल मैंने आप सब से अपना दर्द बांटा था; वह दर्द अभी कम नहीं हुआ है, लेकिन एक यक़ीन ज़रूर है मन में कि हालात फिर साज़गार होंगे और इलाहाबाद एक बार फिर अपनी पुरानी शान हासिल करने में कामयाब होगा. इस यक़ीन के बंधने की एक वजह भी है. यहां आते ही मेरे मित्र ललित जोशी ने बताया कि लन्दन से यावर अब्बास आये हुए हैं और विश्वविद्यालय में उनकी फ़िल्म "इण्डिया माई इण्डिया" दिखायी जायेगी और उसके अगले दिन उनका एक व्याख्यान होगा और जाने-माने गायक रवि नागर हिन्दी कवियों की कुछ रचनाओं को सुर-संगीत में बांध कर पेश करेंगे.

यावर अब्बास से, जो अब नब्बे साल के हैं, तक़रीबन तीस-इकतीस बरस पहले लन्दन में मुलाक़ात हुई थी जहां मैं चार साल तक बी.बी.सी. में कार्यक्रम सहायक था. वहां उनके साथ बिताये दिनों की याद अब तक थी और उसे ताज़ा करने का मौक़ा यों सहज सुलभ होते देख कर मुझे ख़ुशी हुई. चूंकि ललित जोशी ख़ुद मेरी तरह फ़िल्मों और शहर इलाहाबाद के शैदाई हैं और हम अकसर फ़िल्मों और इलाहाबाद और उनके अपने विषय इतिहास पर चर्चा करते रहते हैं, इसलिए उन्होंने मुझे यावर साहब के बारे में फ़ौरन ख़बर करना मुनासिब समझा. चुनांचे न्योते के बग़ैर भी मैं वहां पहुंच गया और अपने साथ नयी प्रतिभाशाली कवयित्री सन्ध्या नवोदिता को भी खींच ले गया.

फ़िल्म इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नये-नये खुले "नाट्य कला और फ़िल्म विभाग" के सभागार में दिखाई जा रही थी. सब कुछ इतना नया था कि रंग-रोग़न की महक अब तक ताज़ा थी. यावर साहब उसी पुराने ख़ुलूस और मुहब्बत से मिले. हम लगभग 26-27 बरस बाद मिल रहे थे, लेकिन इस मुलाक़ात में वही गर्मजोशी थी जो लन्दन के दिनों की मुलाक़ातों में. मुझे ज़ौक़ का शेर याद आया :

ज़ौक़ किसी दोस्ते-देरीना का मिलना

बेहतर है मुलाक़ाते-मसीहा--ख़िज़र से

यावर साहब 1947 में लन्दन चले गये थे, क्योंकि जैसा उन्हों ने वहां मौजूद लोगों को बताया, वे एक बंटे हुए हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं कर सकते थे, दो राष्ट्रों का सिद्धान्त उन्हें निहायत ग़लत और जनविरोधी लगता था. उनकी फ़िल्म का बुनियादी विषय भी यही था.

फ़िल्म आज से बहुत पहले 1966 में बनी थी जब यावर साहब 17 बरस बाद हिन्दुस्तान लौटे थे और उन्होंने अपनी यात्रा का एक रिकार्ड सेलोलायड पर दर्ज किया था. फ़िल्म रंगीन नहीं थी जो एक अच्छी बात थी और इससे भी अच्छी बात यह थी कि वह कोई वृत्त चित्र यानी डाक्यूमेण्ट्री नहीं थी, बल्कि अपने देस और अपने लोगों से प्यार करने वाले एक इन्सान का निजी बयान था. पुराने दोस्तों से मिलना, नाते-रिश्ते तरो-ताज़ा करना, पुरानी जगहों पर जाना और हिन्दुस्तान के बंटवारे के बाद उसके हालात का जायज़ा लेना और एक दिली ख़्वाहिश, एक ज़ाती उम्मीद व्यक्त करना कि आगे चल कर ये नक़ली दीवारें गिरा दी जायेंगी और देस -- अगर यावर साहब के ही शब्दों में कहें तो -- "भारत के संयुक्त राष्ट्र" जैसी शक्ल में एक हो सकेगा. फ़िल्म, ज़ाहिर है, आसान हालात में और सारे सरंजाम जुटा कर नहीं बनाई गयी थी, इसलिए उसे जांचने का पैमाना भी अलग ही हो सकता था. वह एक मार्मिक और व्यक्तिगत पत्र जैसी थी.

चूंकि बंटवारे को ले कर मेरे भी ख़यालात यावर साहब जैसे ही हैं इसलिए उनकी फ़िल्म और फिर अगले दिन उनकी आत्म-कथा का एक अध्याय -- "मेरा एक सपना है" -- मुझे ख़ास तौर पर अच्छा लगा. इसलिए भी कि यावर साहब चाहे चरखारी के रहने वाले बुन्देलखण्डी हैं उनकी तालीम इलाहाबाद ही में हुई है और वे इस शहर से एक ख़ास लगाव रखते हैं. और मैं, मैं भले कहीं चला जाऊं मेरी रूह इलाहाबाद में ही बसती है. बल्कि मैं तो लोगों के पूछने पर कहता हूं कि दिल्ली तो मगहर है, काशी मेरे लिए अब भी इलाहाबाद ही है. और चूंकि इस बार मैं लगभग सात महीने बाद इलाहाबाद आया था, इसलिए बिछुड़ कर फिर मिलने का एहसास कुछ ज़ियादा ही था.

अगले दिन यानी 30 जनवरी को यावर साहब जब अपनी किताब का एक अध्याय सुना चुके तो रवि नागर ने हार्मोनियम संभाला और वाल्मीकि के एक श्लोक से शुरू करके कबीर, नासिर काज़मी, फ़ैज़ और शमशेर बहादुर सिंह की रचनाओं से होते हुए नागार्जुन और ताज बीबी की रचनाओं की अद्भुत संगीतात्मक प्रस्तुति की. एक कल्पनाशील और बाहुनर संगीतकार हिन्दी की आधुनिक कविताओं को भी कितनी ख़ूबी से अपनी शास्त्रीय परम्परा में सुर-तालबद्ध कर सकता है, इसकी बेहतरीन मिसाल रवि नागर ने पेश की. उनके साथ तबले और औक्टोपैड पर इलाहाबाद के ही विनोद मिश्र और मनोज भटनागर संगत कर रहे थे.

मेरी घर वापसी को उन सारे दोस्तों की खिली हुई मुस्कानों और चमकती हुई आंखों ने और भी मुकम्मल बनाने में मदद दी जिन से इन दो कार्यक्रमों में भेंट हुई, और यह भी इलाहाबाद ही की ख़ुसूसियत है कि आप चाहे कहीं चले जायें चाहे कितने दिनों बाद लौटें इलाहाबाद उसी तरह बांहें फैला कर आपको अंकवार में भर लेगा. मुझे तसल्ली हुई कि बाहरी तब्दीलियां चाहे जैसी हों और वे होंगी ही जो ज़िन्दगी का क़ायदा है उन पर हाय-हाय करने की ज़रूरत नहीं, मित्र और अंग्रेज़ी कवि अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा की तरह नौस्टैल्जिया से, अतीत-मोह से भर कर जाने-कहां-गये-वो-दिन-वो-बंगले कहते हुए आहें भरने की ज़रूरत है, बल्कि बदलते ज़माने को तस्लीम करते हुए पुराना जो अच्छा है उसे संजो कर अगली पीढ़ी को सौंपने की ज़रूरत है. अल्लामा इक़बाल के शब्दों में इलाहाबाद के गुन गाऊं तो यही कहूंगा -- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं तुम्हारी. और मेरे तईं यह हस्ती महज़ रेत-चून और ईंटों से नहीं, बल्कि इलाहाबाद की तासीर से बनती है, जब तक यह तासीर इसकी फ़िज़ा में, इसके निवासियों में बरक़रार है, यह फ़ितरत, यह जज़्बा, यहवलवला, इलाहाबाद इलाहाबाद है, और रहेगा.

इस बार आपसे जो सहज सम्पर्क चल रहा था, वह श्री टाटा के फ़ोटौन प्लस की मेहरबानी से टूट गया, लिहाज़ा फिर बी.एस.एन.एल. की चौड़ी पट्टी वाली सेवा का सहारा लेना पड़ा, जिसमें कुछ वक़्त लग गया. इस रिसाले के साथ ही "अधूरी लड़ाइयों के पार" की अगली किस्त हाज़िर है. और हां, इधर मुझे कुछ चित्रकारी का भी शौक़ जगा है. मेरे मित्र और प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने राय दी है कि बुरुश और रंग खरीदो और जूझ पड़ो. अभी तक रंग-बुरुश नहीं ख़रीद पाया हूं, पर कम्प्यूटर पर एक सीरीज़ ज़रूर बनायी है -- "पदचिह्न" -- ऊपर जो चित्र है वह उसी सीरीज़ का है. आगे इस सीरीज़ के और भी चित्र आयेंगे, हिम्मत अफ़्ज़ाई कीजिएगा.

नीलाभ के लम्बे संस्मरण की नवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा

और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने -

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अधूरी लड़ाइयों के पार-

‘साहित्य और राज्याश्रय’ का प्रश्न कोई नया प्रश्न नहीं था। शायद हर युग में लेखकों को अपने साहित्यिक कर्म के लिए इस प्रश्न को और इसके उत्तर को परिभाषित करना पड़ता रहा है। ‘सन्तन कौ कहा सीकरी सों काम’ की रट लेखक हर युग में लगाते आये हैं। इसलिए ‘साहित्य और राज्याश्रय’ के विषय पर एक परिगोष्ठी आयोजित करना बहुत उपयुक्त हो सकता था। लेकिन जब यह पता चले कि लेखकीय स्वाधीनता का बिगुल फूंकने वालों के पीछे एक ऐसी सत्ता का हाथ है, जो लगातार लेखकीय स्वाधीनता का हनन करती रही है, तब ज़रूर इस तरह के उपक्रम एक ‘सिनिस्टर’ शक्ल अख़्तियार कर लेते हैं।

यहाँ अमरीका में मैकार्थी युग की पाबन्दियों और ख़ुफ़ियागीरी की याद दिलाने की ज़रूरत नहीं, न इस बात की कि दूसरे महायुद्ध के ख़त्म होने के बाद अमरीका में लेखकों और विचारकों के सिलसिले में सन्देह और दबाव का जो वातावरण था, उसी के चलते पॉल रोबसन जैसे नीग्रो गायक को प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ा था और हावर्ड फ़ास्ट के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘स्पार्टाकस’ को कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं हुआ था। नतीजतन फ़ास्ट को यह उपन्यास अपने संसाधनों से प्रकाशित और वितरित करना पड़ा था। अमरीकी सेनेट की ‘हाउस अन-अमेरिकन ऐक्टिविटीज़ कमेटी’ अपने ‘डायन खोजू अभियान’ मे जिस-तिस लेखक या संस्कृतिकर्मी को दाग़ी घोषित करके, उसे मध्ययुगीन धार्मिक न्यायाधिकरणों जैसी पूछ-ताछ का सामना करने पर विवश कर रही थी।

बहरहाल, किस्से को आगे बढ़ायें तोपरिमल’ की इस राष्ट्रीय परिगोष्ठी के बाद उसी वर्ष इलाहाबाद में 15-17 दिसम्बर 1957 कोप्रगतिशील लेखक संघ’ की ओर से एक साहित्यकार सम्मेलन आहूत हुआ। विषय रखा गया ‘स्वाधीन भारत और लेखक।’ चूँकि उन दिनों धड़ेबन्दी ज़ोरों पर थी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘परिमल’ के बीच एक रस्साकशी बराबर चल रही थी, इसलिए ज़ाहिरा तौर पर इस दूसरे साहित्यकार सम्मेलन को ले कर आरोपों-प्रत्यारोपों, अफ़वाहों, अनुमानों और अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया।

कुछ पुराने प्रगतिशील जो धीरे-धीरे इतने पुराने पड़ चुके थे कि ‘परिमल’ के नज़दीक जा पहुँचे थे, इस सम्मेलन को ले कर तरह-तरह की शंकाएँ प्रकट करने लगे। नेमिचन्द्र जैन ने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में नसीहत-भरा एक लेख भी लिखा और अमृत राय ने ‘कहानी’ के नवम्बर 1957 के अंक में उसका एक लम्बा जवाब भी दिया। ‘परिमल’ की परिगोष्ठी की मुख्य चिन्ता अगर लेखक और राज्य का आपसी सम्बन्ध और उसका स्वरूप थी तोप्रगतिशील लेखक संघ’ वाले सम्मेलन का केन्द्र बिन्दु खुद अमृत राय के शब्दों में कुछ इस तरह का था :

"यह सम्मेलन ‘साहित्यकार को अपनी राजनीतिक विचारधारा निश्चित करने के लिए एकत्र होने का आमन्त्रण’ नहीं, युग और समाज और देश और समाज और देश और स्वयं अपने प्रति, अपनी कला के सबल-सुन्दर विकास के प्रति, अपने साहित्यिक, सांस्कृतिक दायित्व की निश्चित करने के लिए एकत्र होने का आमन्त्रण है, जो कि थ¨ड़ा-बहुत हमारे कार्यक्रम से भी परिलक्षित होता है, जिसकी रूपरेखा नीचे दी जाती है:

उद्घाटन और समापन अधिवेशनों के अलावा सम्मेलन में तीन गोष्ठियाँ होंगी, (1) सह-चिन्तन (2) रचना की प्रक्रिया और (3) आलोचना के मान।

‘सह-चिन्तन’ गोष्ठी में चार प्रश्नों पर विचार होगा, स्वाधीनता का अर्थ, राष्ट्र-निर्माण और लेखक, प्रगति और परम्परा (जिसके अन्तर्गत हम मुख्यतः नयी और पुरानी पीढ़ी के लेखकों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के प्रश्न पर विचार करना चाहते हैं) तथा यथार्थवाद की समस्याएँ।

‘रचना की प्रक्रिया’ गोष्ठी में हम रचनाकार की ॰ष्टि से साहित्य की मुख्य विधाओं, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक की रचना से सम्बद्ध सभी प्रश्नों पर विचार करेंगे।

‘आलोचना के मान’ शीर्षक गोष्ठी में विचारणीय विषय होंगे, आलोचना के मान, नये साहित्य के मूल्यांकन की समस्या, सामान्य पाठक व आलोचक तथा कलात्मक अभिरुचि।"

चूँकि इस सम्मेलन पर सवाल खड़े करने वालों में कुछ तत्कालीन और पूर्व प्रगतिशील भी थे, इसलिए अमृत राय को इतना ज़रूर स्वीकार करना पड़ा कि प्रगतिशील लेखकों के ‘आन्दोलन ने एक समय बड़ी संकीर्णतावादी भूलें कीं। उन्हीं भूलों का एक प्रतिफलन था साहित्य में राजनीति का अपच, और सो भी जीवन से निःसृत, जीवन से निसर्गतः सम्पृक्त राजनीति नहीं, ऊपर से थोपी हुई निष्प्राण राजनीति अर्थात विशुद्ध राजनीतिक वाग्जाल।’

किसी बड़ी कथा में पिरोयी गयी उपकथा की तरह इस लम्बे विषयान्तर में एक छोटा विषयान्तर और करते हुए एक और बात की याद दिलाना ज़रूरी है। उन दिनों ज़्यादातर साहित्यकार जब प्रगतिशील साहित्य और वामपन्थी सांस्कृतिक आन्दोलन की चर्चा करते थे तो उनकी मुराद ऐसे साहित्य और ऐसी संस्कृति से होती थी, जिसे कम्यूनिस्ट पार्टी का और यों सोवियत संघ का समर्थन हासिल हो या जो इनसे सम्बद्ध हो, हालाँकि 1949 में चीनी क्रान्ति हो चुकी थी और 1955 में बाण्डुंग सम्मेलन के मंच पर चीन अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा चुका था। मार्क्सवाद और कम्यूनिज़्म पर सिर्फ़ सोवियत संघ का ही एकाधिकार नहीं रह गया था, बल्कि एशिया और अफ़्रीका के अनेक देश मुक्तिकामी विचारों के लिए चीन की ओर भी देखने लगे थे। कहीं-न-कहीं इसका असर भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी पर भी पड़ रहा था और यह अकारण नहीं है कि वह पार्टी जो 1925 में अपनी स्थापना के समय से चार दशकों तक तमाम तरह के दमन, प्रतिबन्ध, अफ़वाहों और आपसी मतभेदों के बावजूद बिखरी नहीं थी, वह अपनी चालीसवीं सालगिरह के आस-पास एक नहीं, दो-दो बार विभाजित हुई और आगे विभाजित होती ही चली गयी।

ज़ाहिर है, इन विभाजनों के बीज इससे पहले के दौर में ही छिपे हुए थे और इनका असर साहित्य पर भी पड़ रहा था। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की आपसी खींचा-तानी का नतीजा यह हुआ कि पहले से चली आ रही प्रगतिवादी धारा धीरे-धीरे मन्द होने लगी। ग़ैर-वामपन्थी साहित्यकारों ने तोप्रगतिशील लेखक संघ’ और कम्यूनिस्ट पार्टी तथा सोवियत संघ के गठजोड़ को स्थायी सम्बन्ध मान ही रखा था, स्वयं प्रगतिशील लेखक भी इस भ्रम के शिकार थे। नतीजे के तौर पर ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ने चीन, क्यूबा, पूर्वी यूरोप और वियतनाम, आदि से नयी प्रेरणा और नया उत्साह ग्रहण करने की बजाय, स्तालिन युग के बाद की वैचारिक दलदल में फंस कर, ग़ैर-प्रगतिशील सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के आगे घुटने टेक दिये। पहले दौर में अगर नयी कहानी और नयी कविता ने प्रगतिवादी धारा को अपदस्थ किया तो दूसरे दौर में अराजकता और मोहभंग एक विचार-शून्य भगदड़ की शक्ल में सामने आयी। अकविता, अकहानी, भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी और इसी तरह के आन्दोलन कुकुरमुत्तों की तरह उगे और फ़िज़ा को धुँधलाते चले गये। नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, राहुल सांकृत्यायन जैसे साहित्यकार इस दौर में विस्मृत या अर्ध-विस्मृत कर दिये गये। साहित्य और संस्कृति के केन्द्रीय सवालों में जहाँ ‘राज्य और लेखक’ और ‘लेखक और स्वाधीनता’ जैसे विषय शामिल रहते थे, वहीं अपने अन्तिम दौर में सवाल ‘साहित्य क्यों’ की बुनियादी चिन्ता पर केन्द्रित हो गया, जैसा कि ‘परिमल’ के रजत पर्व (1970) में देखने को आया। इस समय तक प्रगतिशील आन्दोलन का बण्टाढार तो हो ही चुका था, ‘परिमल’ ने भी अपना रजत पर्व मनाने के बाद दुकान बढ़ा दी।

(जारी)

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