Thursday, February 10, 2011

देशान्तर



मुझ को सर्वर ने मारा
दोस्तो, तीन दिन से सर्वर डाउन था, इसलिए सब सम्पर्क बन्द था। आज सर्वर खुला है तो आप से बात हो पा रही है। पिछली बार फ़ोटौन प्लस ने कृपा की थी इस बार एमटीएनएल मेहरबान हो गया. बहरहाल पेश है --

नीलाभ के लम्बे संस्मरण की तेरहवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - १३


अधूरी लड़ाइयों के पार- ६

अब इतने वर्ष बाद यह तो याद नहीं कि कौन-कौन किस डिब्बे में सवार हुआ था, लेकिन इतना ज़रूर याद है कि मैं, वीरेन और रमेन्द्र साथ थे। चूँकि ये दोनों तब तक हॉस्टल में ही रहते थे और हॉस्टल स्टेशन से काफ़ी दूर था, इसलिए यह तय किया गया था कि वे दोनों एक शाम पहले मेरे यहाँ आ जायेंगे, रात वहीं रहेंगे और दूसरी सुबह हम सब लोग साथ ही गाड़ी में बैठ जायेंगे।

वीरेन और रमेन्द्र, जैसा कि मैंने पहले कहा, उन दिनों परम अघोरी ज़िन्दगी बिताते थे। तौलिया और साबुन तो दूर रहा, टूथपेस्ट और ब्रश और अन्तःवस्त्रों की इल्लत भी उन्होंने पाल न रखी थी। सो, सुबह अमरूद की टहनी से दातून करके और काक स्नान जैसा कुछ करके, वे दोनों तैयार हो गये। शायद एक बैग था या झोला जिसमें उनका सामान था। या यह भी सम्भव है कि मेरे ही ट्रंक में उनका भी सामान रख लिया गया था। इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि आज तो सफ़र बहुत हल्के-फुल्के किया जाता है, लेकिन उन दिनों ट्रंक और बिस्तरेबन्द के साथ ही यात्राएँ की जाती थीं। जिन्होंने नरेश सक्सेना को आज भी सफ़र करते देखा है, वे अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि उन दिनों की यात्राएँ कैसे साज़-सामान के साथ होती थीं। बहरहाल, हम लोग स्टेशन पहुँचे और गाड़ी आने पर हमने पाया कि एक डिब्बे से रमेश गौड़ अपनी दाढ़ी हिलाते हुए, सफ़ेद चमकीले दाँत खिलाये, हाथ हिला कर हमें उसी डिब्बे में सवार होने का न्योता दे रहा है।
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रमेश गौड़ से मेरी पुरानी दोस्ती थी। बात यह है कि हमारे लगभग सभी रिश्तेदार दिल्ली में थे, इसलिए मैं अक्सरहा दिल्ली जाया करता था। मुझे याद पड़ता है, मैं एम.ए. में था जब एक बार बलराज पण्डित इलाहाबाद आया। इलाहाबाद में वह सिर्फ़ दूधनाथ को जानता था और दूधनाथ ने उसे हमारे यहाँ ठेल दिया था। एक दिन मैं कहीं बाहर से आया तो मैंने देखा कि एक साँवला, पतला-छरहरा, लम्बूतरे-से चेहरे वाला युवक हमारे यहाँ मौजूद है। उसने अपना परिचय दिया तो मैंने उसे हस्ब-मामूल कॉफ़ी हाउस चलने की दावत दी। जब हम घर के फाटक की तरफ़ जा रहे थे तो उसने कहा - मैं धावक भी हूँ। और आगे स्पष्ट किया कि वह खेल के मैदान का ज़िक्र कर रहा है। मुझे यों उसका बिना प्रसंग यह सूचना देना कुछ समझ में नहीं आया और मैं थोड़ा अचकचाया, पर मैंने इसे कवियों की सनक समझ कर नज़रन्दाज़ कर दिया।

जल्द ही मुझ पर यह राज़ खुल गया कि बलराज एक ‘चीज़’ है। बस, फिर क्या था - ‘एक ही बालो-पर वाले अन्दलीबों’ की तरह हम घुल-मिल गये। बलराज की आवाज़ बहुत अच्छी थी और उसकी अदाएँ नायाब। वह पल-पल अजीबो-ग़रीब मुख-मुद्राएँ बनाता था और हाव-भाव प्रदर्शित करता था और एक अजीब-सी हँसी हँसता था जो किसी कुएँ से आती जान पड़ती थी। उसने हाल ही में एम.ए. पास किया था और वह आगे की सम्भावनाएँ तलाश रहा था। उसके इलाहाबाद प्रवास के दौरान हमारी अच्छी छनने लगी। मैं भी उन दिनों लिखना-लिखाना शुरू कर चुका था। लिहाज़ा अगली बार दिल्ली जाने पर सबसे पहले मैंने बलराज को पकड़ा। उसने अभी नैशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में दाख़िला नहीं लिया था, चुनांचे उसके पास वक्त-ही-वक्त था। बलराज और मैं शुतुर-बेमुहारों की तरह सारा-सारा दिन दिल्ली की ख़ाक छाना करते और ऐब्सर्ड नाटकों, अस्तित्ववाद, और ऐसी ही चीज़ों पर घण्टों बहस किया करते।

आज की दिल्ली को देख कर 1964-65 की दिल्ली की कल्पना करना भी असम्भव है। दिल्ली न तो इस कदर फैली हुई थी, न इतनी हृदयहीन और निर्मम थी। आज की तरह लेखकों-कलाकारों ने ‘मतलब की लकड़ी’ भी नहीं थाम रखी थी। न उनके दिलों में ओछापन इस तरह आसीन था, जैसे वह आज नज़र आता है (जब बेशतर लेखकों की परिस्थितियाँ तब की बनिस्बत कहीं सुधर गयी हैं)। लिहाज़ा अपनी आवारागर्दी के दौरान हम कभी साहित्य अकादमी में प्रभाकर माचवे के यहाँ चले जाते, कभी भारत जी के यहाँ और कभी ‘योजना’ में गिरिजाकुमार माथुर के यहाँ।

गिरिजाकुमार माथुर उन दिनों गीतों की अपनी पुरानी रविश छोड़ कर अकवियों में जा शामिल हुए थे और चूँकि उन दिनों बलराज भी अकवियों के साथ ख़ूब उठता-बैठता था, इसलिए उसकी रसाई वहाँ भी थी। गिरिजाकुमार माथुर बड़े शौकीन आदमी थे, हमेशा लक-दक रहते। एक बार का वाकया मुझे याद है, मैं और बलराज ऐसे ही लफ़ण्टरी करते हुए दोपहर के वक्त ‘योजना’ के दफ़्तर जा पहुँचे जिसका सम्पादन उन दिनों गिरिजाकुमार जी कर रहे थे। वे बड़ी मुहब्बत से मिले और उन्होंने हम दो आवारों के लिए चाय मँगवायी। इसके बाद उन्होंने कविता या साहित्य या दूसरे किसी मुनासिब विषय की चर्चा करने की बजाय ‘योजना’ का ताज़ा अंक हमारे सामने रखा और बातों का रुख़ इस तरफ़ मोड़ दिया कि उन्होंने ‘योजना’ के सम्पादन में क्या तीर मारे हैं। फिर वे फ़िलिप्स या ऐसे ही किसी बेहतरीन तम्बाकू का गुणगान करने लगे जो वे उन दिनों पाइप में पी रहे थे।

हम लोग इतना चट गये कि जब चाय आने पर उन्होंने बड़े ख़ुलूस के साथ हमें अपने पास से उम्दा तम्बाकू का सिगरेट पेश किया तो महज़ उन्हें बताने के लिए कि महाशय, आप को कुल-मिला कर तम्बाकू पीने का सलीका नहीं मालूम है, हम लोगों ने अपनी वही फटीचर सिगरेट निकाल कर उसका सुट्टा लगाया था और यह ज़ाहिर किया था कि उनका तम्बाकू पीने के नहीं, महज़ दिखाने के काबिल है, असली पीने वाले तो उसे हाथ भी नहीं लगाते। बाद में हम लोगों को अफ़सोस हुआ था कि फ़िज़ूल की हेकड़ी में मुफ़्त हाथ आये उम्दा सिगरेट छोड़ दिये, जबकि उन दिनों हमारी कोशिश होती थी कि चाय-कॉफ़ी-सिगरेट के पैसे अदा करने का पुण्य, जहाँ तक सम्भव हो, दूसरों ही को कमाने देना चाहिए।

प्रभाकर माचवे के यहाँ माहौल दूसरा होता था। माचवे जी को, जिसे इलाहाबादी भाषा में ‘परनिन्दा रस’ कहते हैं, उसमें बड़ा आनन्द आता था। वे इसमें निष्णात भी थे। उन दिनों वे शायद साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे और भारत जी (भारतभूषण अग्रवाल) सचिव। माचवे जी वैसे तो किसी को नहीं बख़्शते थे, लेकिन भारत जी पर उनकी विशेष कृपा रहती थी। किस्सा मशहूर था कि एक बार एक प्रसिद्ध साहित्यकार माचवे जी से मिलने गये। उन्हीं दिनों हिन्दी के सवाल पर बहुत-से साहित्यकारों ने अपने अलंकरण लौटा दिये थे। जब इसकी चर्चा चली तो माचवे जी ने बड़ी मासूमियत से कहा - हाँ, देखिए न, हम भी तो कितने दिन से अपने भारत भूषण को लौटाने की बात कह रहे हैं, पर कोई लेने को तैयार ही नहीं होता।

यों, भारत जी बेहद सरल और प्यारे इन्सान थे और हम नये मुल्लाओं के लिए उनके मन में हमेशा स्नेह रहता था। कई बार वे हमें पास ही ’त्रिवेणी कला संगम’ की कैण्टीन में ले जाते और खुले मन से बातें करते। मैं ये बातें इसलिए याद कर रहा हूँ कि मेरे पिता ने अपनी फक्कड़ई, बड़बोलेपन और टेढ़े स्वभाव के चलते बहुत-से लोगों को समय-समय पर ख़ासा नाख़ुश कर रखा था। इनमें से कुछ नामवर जी जैसे साहित्यकार भी थे जो पतनशील सामन्ती निज़ाम के मूल्यों से परिचालित हो कर बाप का बदला बेटे से लेने में गुरेज़ नहीं करते थे, मगर बहुत-से साहित्यकार ऐसे भी थे जिन्हें सामन्ती निज़ाम के उच्चतर मूल्यों में विश्वास था और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इन तमाम लेखकों से उस शुरुआती दौर में मुझे बहुत स्नेह मिला। माचवे जी और भारत जी ऐसे ही लेखकों में थे।

यह सब तो ख़ैर दिन की चर्या थी, जिसमें कुछ भी सम्भव था। जैसे, एक दिन हम लोग जाने क्यों दिल्ली कॉलेज के पास से जा रहे थे - शायद जेब में पैसे कम थे, सो पैदल ही कनॉट प्लेस जाने का इरादा था या जाने क्या बात थी - कि बलराज को उसका एक पुराना बरबाद किस्म का परिचित मिल गया जिसकी जेब में थोड़ी-सी चरस थी। मैं तो उन दिनों चरस पीता नहीं था, लेकिन बलराज की आँखें चमक उठीं। और कोई जगह तो थी नहीं, पर गर्मी की छुट्टियों की वजह से दिल्ली कॉलेज का परिसर भायँ-भायँ कर रहा था। हम लोग उसमें घुस गये और वहीं बरामदे में चरस का दौर चला जिसके बाद मैं और बलराज फिर कनॉट प्लेस को चल दिये जहाँ वैसे भी शाम को टी-हाउस और कॉफ़ी हाउस में अड्डेबाज़ी एक रोज़ का शग़ल बन गया था। वहीं टी हाउस में उन्हीं दिनों रमेश गौड़ से मुलाकात हुई थी।

रमेश उन दिनों क्या करता था, यह कहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वह एक अजीब सन्दिग्ध किस्म की ज़िन्दगी जीता था। चुस्त जुमले चस्पाँ करने और साहित्यिक लतीफ़ेबाज़ी में माहिर था। अश्क जी से उसकी कुछ खट गयी थी, क्योंकि जिन दिनों अश्क जी कुछ दिन दिल्ली रहे थे, उसने ’राजधानी के मेहमान’ के शीर्षक से ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में एक लेख लिखा था और अश्क जी पर छींटाकशी कर दी थी, पलट कर अश्क जी ने उसे सी.आई.ए. का एजेण्ट घोषित करते हुए उसकी ठुकाई कर दी थी। लेकिन मेरे और रमेश के बीच इस घटना का कोई असर नहीं था और दिल्ली के जिन लोगों ने उस शुरू के दौर में मेरा भरपूर गर्मजोशी भरा स्वागत-सत्कार किया, उनमें बलराज पण्डित, नरेन्द्र धीर और जगदीश चतुर्वेदी के साथ-साथ रमेश गौड़ भी शामिल था।

यों, एक बार उसने मुझसे भी अपनी आदत के मुताबिक हल्का-सा पंगा लेने की कोशिश की थी। टी-हाउस में कई लोगों के सामने उसने कहा - ’आज मैं एक रद्दीवाले के यहाँ से तुम्हारा संग्रह ले आया हूँ, जो तुमने बच्चन जी को बड़े प्रेम से भेंट किया था।’

(मेरा पहला कविता संग्रह ’संस्मरणारम्भ’ 1967 में प्रकाशित हुआ था और तभी एक बार जब बच्चन जी इलाहाबाद यात्रा के दौरान हमारे घर आये थे, तो मैंने उन्हें भेंट कर दिया था। उसके कुछ समय बाद ही वे बम्बई जा रहे थे, सो बहुत-सी किताबों के साथ मेरा संग्रह भी उन्होंने रद्दी वाले को बेच दिया होगा। हालाँकि बच्चन जी को पैसों की ऐसी कोई ज़रूरत न थी और वे अपनी फ़िज़ूल की किताबें किसी को दे भी जा सकते थे। लेकिन कवियों के अपने-अपने ख़यालात होते हैं।)

रमेश का ख़याल था कि मैं हतप्रभ हो जाऊँगा और वह थोड़ा मज़ा ले सकेगा। लेकिन मैंने उससे कहा था - ’अच्छा ही है तुम ले आये, संभाल कर रखो, एक दिन यह दुर्लभ पुस्तक बन जायेगा। इसलिए नहीं कि वह बच्चन जी को दिया गया था, बल्कि इसलिए कि उस पर मेरे हस्ताक्षर हैं।’

रमेश और हम सब ठहाका लगा कर हँसे थे और इससे मेरी और रमेश की निकटता कुछ और बढ़ गयी थी। मुझे याद है, एक दिन अचानक दोपहर को ही वह मुझे गोलचा में ’गाइड’ फ़िल्म दिखाने ले गया था। कभी-कभी रमेश और मैं दरियागंज वाले ’स्टैण्डर्ड होटल’ में बियर पीने चले जाते। वहीं ’गोलचा’ के सामने वाली पट्टी में चित्रकार भूषन रॉय रहता था। कभी उसके यहाँ जा बैठते। लेकिन रोज़मर्रा का मिलना-जुलना शाम को टी हाउस में ही होता, जहाँ किसी मेज़ पर उसका एक ख़ाकी लिफ़ाफ़ा और एक डायरी रखी रहती, यानी रमेश गौड़ ’इलाके में है।’ टी-हाउस के पीछे सरदार का एक ढाबा था, जहाँ अक्सर बानी, महमूद हाशमी, बलराज मेनरा और उर्दू के कुछ तबाह-तबा लोग बैठा करते। रमेश वहाँ भी अपनी हाज़िरी लगाया करता और जब काफ़ी पीने की इच्छा होती तो टी-हाउस चला आता और देर शाम को दारू पीने के लिए सरदार के ढाबे में घुस जाता। कभी-कभार वह सरदार के ढाबे के साथ वाली दारू की दुकान से खाकी ठोंगे में एक बियर की बोतल लिये हुए आता और उसे मिल-बाँट कर ख़त्म करने का न्योता देता। यह काम हम टी-हाउस के सामने रेलिंग के पास खड़े-खड़े अंजाम देते।

उन दिनों दिल्ली में ग्रीन लाइन, ब्लू लाइन और इस किस्म की तेज़-तर्रार और जानलेवा बसें नहीं थीं, और मेट्रो का तो किसी ने सपना भी नहीं देखा था। पुरानी चाल की बसें चला करती थीं और इनमें 36-बी नम्बर की बस सचिवालय से राणा प्रताप बाग़ जाती थी जहाँ रमेश रहता था। चूँकि मैं अपने ताऊ के यहाँ सब्ज़ी मण्डी ठहरता और मुझसे दो स्टॉप पहले पुल बंगश में बलराज पण्डित रहता था, इसलिए मैं और बलराज सारा दिन आवारागर्दी करने के बाद 36-बी से ही लौटा करते। आख़िरी बस रात के 10 बज कर 20 मिनट पर रीगल आया करती थी और दिलचस्प बात यह थी कि शाम भर रमेश गौड़ चाहे जहाँ दुबका होता, इस आख़िरी बस में वह हमेशा सवार मिलता।
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ज़ाहिर है, अपर इण्डिया एक्सप्रेस के तीसरे दर्जे के डिब्बे से रमेश गौड़ को झाँकते देख कर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई और हम सब लोग ताबड़-तोड़ उसी डिब्बे में घुस गये। मेरे, वीरेन और रमेन्द्र के अलावा और भी कोई उस डिब्बे में चढ़ा कि नहीं, मुझे अब याद नहीं। इतना ज़रूर याद है कि दिल्ली के कण्टिनजेण्ट के कई सदस्य रमेश वाले डिब्बे में ही थे। लेकिन ज़्यादा वक्त हमारा रमेश के साथ गुज़रा और हम लोग पटना के युवा लेखक सम्मेलन की बातें करते रहे। इतना भर और याद है कि आयोजकों की ओर से जो परिपत्र जारी हुआ था, उसमें नन्द किशोर नवल और शिव शंकर सिंह के अलावा एक नाम ज्ञानेन्द्रपति भी था। हम सिर्फ़ नन्द किशोर नवल को जानते थे और वह भी ’सिर्फ़’ के माध्यम से। उनसे मिलने का मौका हमें नहीं मिला था। शिवशंकर सिंह को हम लोगों ने नन्द किशोर नवल का कोई सहायक समझा था। उसकी असली ख़ूबियाँ तो पटना जा कर उजागर हुईं। अलबत्ता ज्ञानेन्द्रपति के सिलसिले में हम लोग कयास लगाते रहे कि यह ज़रूर कोई पूँजीपति है, जो आयोजन के ख़र्चे-पानी का बन्दोबस्त कर रहा है।

दिलचस्प बात है कि इलाहाबाद से पटना के उस पाँच-सात घण्टों के सफ़र में रमेश गौड़ ने एक बार भी यह ज़ाहिर नहीं किया था कि युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र के साथ जिस साप्ताहिक पत्रिका की योजना का प्रपत्र सभी लेखकों को भेजा गया था, उसका सम्पादन और कोई नहीं, बल्कि वही करने जा रहा था। रमेश में जहाँ एक स्वाभाविक गर्मजोशी, हाज़िरजवाबी और हरदिल अज़ीज़ी थी, वहीं इस सारे खुलेपन के नीचे एक अजीब-सा ख़ुफ़ियापन भी था, जो उसकी चाबुकदस्ती को एक अतिरिक्त धार दे देता था। यूँ भी सफ़र में हा-हा, ही-ही के अलावा और कोई गम्भीर बात तो सम्भव होती नहीं, सो क्या कुछ कहा-सुना गया, इसकी अब इतने बरस बाद कोई याद नहीं रह गयी है। सच तो यह है कि समूचे युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए किसी तारतम्य-भरे आख्यान का नहीं, बल्कि छोटे-छोटे दृश्यों के कोलाज या मोण्टाज का-सा प्रभाव ही मन में रह गया है। कुछ दृश्य हैं जो झलक उठते हैं, कुछ बातें जो याद रह गयी हैं और एक समग्र अनुभूति है जो पीछे मुड़ कर याद करने पर मन में उभर आती है।
(जारी)

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