नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सोलहवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - १६
अधूरी लड़ाइयों के पार- ९
चूँकि सम्मेलन ने एक अच्छे-ख़ासे मुर्ग़ों के युद्ध का रूप ले लिया था, इसलिए जो लोग अखाड़े में एक-दूसरे को उखाड़ने की कोशिश कर रहे थे, जो लोग इन्हें उकसा रहे थे और जो लोग अध्यक्ष मण्डल में बैठे-बैठे मज़ा ले रहे थे, उन्हें छोड़ कर बाकी किसी को इन बहसों में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी। हॉल में बैठे लोगों में से अगर कोई मंच पर जा कर कुछ कहता भी तो वह इस सारे हुल्लड़ को कुछ और हंगामाख़ेज़ ही बना देता था।
मिसाल के लिए, जब आम आदमी की बात शुरू हुई तो धूमिल ने मंच पर जा कर अपने ख़ास बनारसी अन्दाज़ में कहा कि सम्मेलन में इकट्ठा लेखकों के लिए आम आदमी वे होने चाहिएँ जो हॉल में हम सब को पानी पिला रहे हैं, जलेबी-कचौड़ी परोस रहे हैं। और एक ढेले की तरह यह जुमला फेंक कर धूमिल नीचे उतर आया, लेकिन मैंने पूरे दो दिनों के उस सम्मेलन में धूमिल को उन ’आम आदमियों’ से बात करते नहीं देखा।
इसी तरह अचानक अजय सिंह मंच पर पहुँचा और उसने अपने उस ज़माने के ख़ास अन्दाज़ में सभी लोगों को लताड़ते हुए, आलोकधन्वा की लम्बी कविता ’जनता का आदमी’ पढ़ कर सुनायी और फिर जैसे अपना कर्तव्य पूरा करके वह नीचे आ गया और हम सब के साथ हॉल के बाहर चला आया, जहाँ एक बेहद पतला-दुबला शख़्स नीला कम्बल सिर और कन्धों पर ओढ़े खड़ा था। अगर इस शख़्स ने नीली जीन्स और जीन्स की जैकेट न पहन रखी होती तो अपने लम्बे बालों और बकरे जैसी दाढ़ी की वजह से वह कोई सँपेरा जान पड़ता। अजय ने परिचय कराया तो पता चला कि यही आलोकधन्वा है।
आज तो ख़ैर आलोकधन्वा और उसकी सनकों से दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद, पटना और कलकत्ता के सभी लोग परिचित हो गये हैं, लेकिन उन दिनों वह जान-बूझ कर अपने गिर्द एक रहस्य-सा बनाये रखता था। उन दो दिनों में भी उसने कुछ ऐसा ही ज़ाहिर किया कि मानो वह एक भूमिगत नक्सली नेता है, जिसके पीछे पुलिस लगी हुई है, जिसकी जीन्स की जेब में ग़ैरकानूनी और ख़ुफ़िया तौर पर हासिल की गयी एक पिस्तौल मौजूद रहती है और जो पुलिस से छुपता फिर रहा है और इसीलिए उसने यह नीला कम्बल अपने सिर और कन्धों पर ओढ़ रखा है। चूँकि हम इलाहाबाद वाले लेखक और कवि इन बाँकी, तिरछी अदाओं के अभ्यस्त ही नहीं, बल्कि उनके कायल भी थे, इसलिए कुल मिला कर आलोक ने हम सब को आकर्षित ही किया। यूँ भी जब आलोक चाहता है तो वह किसी को भी अपनी तरफ़ खींच सकता है और बड़ी गर्मजोशी से पेश आ सकता है। उस समय वह किसी को यह भनक भी नहीं लगने देता कि मौका पड़ने पर उसके अन्दर का सामन्त किन-किन विकट रूपों में प्रकट हो सकता है।
आलोक के अलावा एक और व्यक्ति जिससे नया-नया परिचय करने की मुझे याद है, वह अनिल सिन्हा था जो उन दिनों’ विनिमय’ नाम की एक पत्रिका निकालता था, कदम कुआं पर रहता थाया शायद अभी महेन्द्रू से कदम कुआं नहीं गया था; और डुआर्स ट्रान्सपोर्ट नाम की किसी कम्पनी में काम करता था और बहुत नरमो-नाज़ुक लहजे में बात करता था। अनिल में एक स्वभावगत भलापन था जो आज तक चला आया है और जिसने उसे इस काबिल बनाया है कि वह हम जैसे सनकी उपद्रवियों को बिना खीझे बरदाश्त कर सके और अपनी असहमति दृढ़ता से प्रकट भी कर सके।
हम लोगों का मन सम्मेलन के चूतियापे से वैसे ही उचटा हुआ था, लिहाज़ा हम लोग ज़्यादा समय आलोक और अनिल के साथ महेन्द्रू पर टहलते रहे और बीच-बीच में गोष्ठियों का हाल-चाल जानने के लिए हॉल में या फिर भोजन के समय पीछे के आँगन में जाते रहे।
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सम्मेलन में जो सौ के करीब लेखक आये हुए थे, उन्हें कई ख़ानों में बाँटा जा सकता था। कुछ लेखक तो ऐसे थे, जिनके लिए 1970 का युवा लेखक सम्मेलन बज़ातेख़ुद काफ़ी अहमियत रखता था। ये ऐसे लोग थे जो साहित्य को एक पूजा भाव से देखते थे। कोई बहुत महत्वपूर्ण और पवित्र गतिविधि। कुछ ऐसे भी थे जिनके लिए साहित्य कुछ नाम और शोहरत पाने की चीज़ थी। (इसमें मैंने पैसे का ज़िक्र नहीं किया है, क्योंकि 1970 तक साहित्य और पैसे का वैसा गठजोड़ नहीं दिखायी देता था, जैसा आज दिखायी देता है।) इन लेखकों को सबसे पहली फ़िक्र इस बात की थी कि बहस चाहे जो दिशा ले, मगर वे अपना झण्डा गाड़ दें। फिर कुछ ऐसे लेखक थे जो किसी ख़ास एजेण्डा के तहत काम कर रहे थे। इनमें ज़्यादातर तादाद ऐसे असन्तुष्ट लेखकों की थी जो महसूस करते थे कि उनकी वाजिब चर्चा नहीं हो रही है। कुछ ऐसे लेखक भी थे जो सचमुच युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र में दी गयी प्रस्तावना पर विश्वास करके सम्मेलन में भाग लेने आये थे। और अन्तिम झुण्ड ऐसे लेखकों का था जो सिर्फ़ मेले का आनन्द लेने आये थे। जिन्हें मालूम था कि ये सब बहसें वग़ैरह कहीं नहीं ले जातीं और असली खेल लेखक की मेज़ और उसकी जनता के बीच खेला जाता है और रचना ही असली कसौटी होती है। इलाहाबाद के बहुत-से लेखक इसी आख़िरी कोटि में थे। ज़ाहिर है कि मंच पर जो नौटंकी हो रही थी, उससे इन लोगों के मन में एक खीझ पैदा हो रही थी और वह बढ़ती जा रही थी और उसने एक ख़ास किस्म की अराजकता को भी जन्म दिया। ऐसे दो-तीन अराजक प्रसंगों का ज़िक्र यहाँ करना चाहँूगा।
कुछ लेखक जो नाम और शोहरत के चक्कर में सम्पर्क बनाने के लिए पटना आये हुए थे, वे अपनी किताबें भी साथ लाये थे और सबको बाँटते फिर रहे थे। इनमें जगदीश चतुर्वेदी और बलदेव वंशी अपनी-अपनी किताब ’इतिहास हंता’ और ’उपनगर में वापसी’ बड़ी मिस्कीनी से साथी लेखकों को देते घूम रहे थे। इसके अलावा मुज़फ़्फ़रपुर से शान्ति सुमन भी आयी हुईं थीं और हमारे पुराने मित्र पंकज सिंह, जो छैला बने रहते थे और ख़ुद भी मुज़फ़्फ़रपुर से आते थे, उन्हें साथ लिये सबसे मिला रहे थे। शान्ति सुमन तब मीठे-मीठे गीत लिखा करती थीं और अपनी बड़ी-बड़ी आँखों और गोल चेहरे के साथ बड़ी भली जान पड़ती थीं। वे भी अपना संग्रह चुनिन्दा लोगों को देती फिर रही थीं। प्रकट ही यह सारा व्यापार इलाहाबाद के उस जत्थे को - जो सीढ़ियों के साथ लगे कमरे में ठहरा हुआ था, और जो आयोजकों की असलियत की शिनाख़्त के अवसाद, मंच पर नामवर जी के ताल-तिकड़म, इब्राहिम शरीफ़ और जितेन्द्र भाटिया द्वारा साठोत्तरी कहानीकारों के ख़िलाफ़ साज़िशी गुटबाज़ी और विश्वेश्वर जैसे लेखकों के हूल-पैंतरों से ऊबा हुआ था - ख़ासा नागवार लग रहा था। सम्मेलन की खीझ को आयोजकों की बेहतरीन भोजन व्यवस्था भी कम नहीं कर पायी थी और यह सारा सम्मेलन उत्तरोत्तर अजीब-से-अजीबोग़रीबतर होता चला जा रहा था।
ऐसे ही में जब शाम को सब लोग कमरे में इकट्ठा हुए, शायद कुछ जने दारू का एक छोटा-मोटा दौर चला चुके थे, तो यह सारी खीझ उन कविता पुस्तकों पर उतरी। पहले तो उनका मज़ाक उड़ाया गया और फिर मुझे याद पड़ता है कि शान्ति सुमन के संग्रह को चिन्दी-चिन्दी करके कमरे में बिखेर दिया गया। अभी यह काम सम्पन्न ही हुआ था कि दरवाज़े पर खट-खट हुई और पंकज सिंह के साथ ख़ुद शान्ति सुमन प्रकट हुईं। कमरे में, मुझे याद पड़ता है, उस समय वीरेन, रमेन्द्र, अजय सिंह, मैं, ज्ञान रंजन और शायद ज्ञान प्रकाश मौजूद थे। अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और वन्दना भी शायद एक कोने में पसरे हुए थे। हम लोगों ने शान्ति सुमन को बड़े तपाक से अन्दर बुलाया और एक ट्रंक पर बैठा दिया। इसके बाद कुछ इधर-उधर की बातें होने लगीं। शायद शान्ति सुमन के कविता पाठ की भी फ़रमाइश की गयी।
लेकिन तभी उस हल्ले-गुल्ले के माहौल में, जो कमरे में बरपा था, ट्रंक पर बैठी शान्ति सुमन की नज़र नीचे फ़र्श पर गयी। फ़र्श के ज़्यादातर हिस्से पर तो बिस्तरेबन्द या दरियाँ बिछी हुई थीं जिन्हें लेखक अपने साथ लाये थे (नवल जी के पर्चे में यह स्पष्ट लिखा हुआ था कि आने वाले लेखक बिस्तर अपने साथ लायें), बाकी हिस्से पर शान्ति सुमन के कविता संग्रह की चिन्दियाँ बिखरी हुई थीं। जैसे-जैसे शान्ति सुमन ने अपनी पुस्तक की इन चिन्दियों के ज़रिये उसके हश्र को पहचाना, उन्होंने अपने पैरों को उन चिन्दियों पर से हटाने की कोशिश की, मगर चिन्दियाँ इस कदर कमरे भर में फैली हुई थीं कि लाख कोशिशों के बावजूद पैरों के नीचे आये न रह पातीं। शान्ति सुमन की बड़ी-बड़ी आँखों में पानी भर आया और इससे पहले कि यह पानी बहता, महफ़िल बरख़ास्त हो गयी और शायद मामले की नज़ाकत को देखते हुए पंकज उन्हें किसी दूसरे कमरे में ले गया और थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ होने के बाद उधर से उनके कविता पाठ का स्वर सुनायी देने लगा। ज़ाहिर है कोरज़ौक इलाहाबादियों की तुलना में वे दूसरे श्रोता शान्ति सुमन को बेहतर लगे होंगे। लेकिन अभी पारा उतरा नहीं था। फिर यह भी शायद लगा कि अगर सज़ा दी जानी है तो सबको एक ही तराज़ू पर तौलना उचित होगा। चुनांचे किसी का ध्यान जगदीश चतुर्वेदी और बलदेव वंशी के संग्रहों पर गया और उन्हें उठा कर उनके फ़्लैप वग़ैरह बाँचने की प्रक्रिया शुरू हुई। तान वहीं टूटी, जहाँ टूटनी थी। दोनों संग्रहों को बीच से चीरते हुए कमरे के फ़र्श पर फेंक दिया गया। तभी किसी ने बताया कि जगदीश नीचे आँगन में खाना खा रहा है। मैंने झपट कर वे संग्रह उठाये और ऊपर की खिड़की से नीचे झाँका जहाँ खाने की मेज़ पर जगदीश चतुर्वेदी खाना खा रहा था। खिड़की से आवाज़ दे कर मैंने एक ही झटके में दोनों संग्रह जगदीश की तरफ़ फेंक दिये।
(इतने वर्षों बाद इस कृत्य को याद करते हुए एक अजीब-सा एहसास होता है। आज तो, ख़ैर, ऐसा करने की कोई आसानी से सोचेगा भी नहीं, लेकिन उस ज़माने में अराजकता के साथ-साथ एक अजीब-सी हिंसा भी जुड़ी रहती थी। किताबें फाड़ने की वह हरकत यकीनन बेवकूफ़ाना थी, लेकिन चूँकि वह सम्मेलन की खीझ का परिणाम थी, इसलिए उस समय किसी ने उस पर बहुत ग़ौर नहीं किया था। अराजकता-भरे उस दौर में किसी ने भी न तो यह सोचा था, न किसी ने यह सुझाया ही था कि आक्रोश को प्रकट करने के दूसरे, और ज़्यादा कारगर ढंग हो सकते हैं। अलबत्ता, जगदीश की मैं तारीफ़ करूँगा कि उसने मन में चाहे बुरा माना हो, बाहर बड़ी बेपरवाही से इस प्रसंग को एक किनारे कर दिया था। यूँ भी तमाम अकवियों में जगदीश के भीतर मैंने एक अजीब-सा कैण्डर और जीवट देखा है। बलदेव वंशी अलबत्ता बहुत हिल गया था। उस समय तो उसकी प्रतिक्रिया की कोई याद नहीं, लेकिन कुछ वर्ष बाद मैं एक दिन दिल्ली में शक्ति नगर से पैदल सब्ज़ी मण्डी की तरफ़ जा रहा था तो कमला नगर के पास बलदेव मुझे अचानक मिल गया। वह मुझे एक होटल में ले गया, उसने कैम्पा कोला की दो बोतलें मँगवायीं और फिर देर तक पंजाबी में मुझसे यह पूछता रहा कि मैंने उसका संग्रह क्यों फाड़ा था। मैंने उसे लाख समझाने की कोशिश की कि वह हरकत सम्मेलन की खीझ का नतीजा थी, एक बेवकूफ़ी थी और हम सब को बाद में उस पर खेद भी हुआ था, गो हममें से कोई भी व्यक्ति किसी अपराधभाव से ग्रस्त नहीं रहा था और उस बेवकूफ़ी को भुला कर उससे निजात पाना ही हम सब को श्रेयस्कर लगा था।। लेकिन बलदेव वंशी को अन्त-अन्त तक हमारी वह हरकत समझ में नहीं आयी थी। तमाम कुरेदने के बावजूद और मेरे समझाने के बाद भी उसकी आँखों में एक बाल-सुलभ आश्चर्य और सन्देह-सा बना रहा था।)
(जारी)
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