Wednesday, February 23, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उन्नीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - १९


अधूरी लड़ाइयों के पार- १२


युवा लेखक सम्मेलन का सबसे यादगार पहलू उसका समापन है।

समापन तक आते-आते वहाँ इकट्ठा साहित्यकारों की सारी गैस निकल चुकी थी, जो-जो समीकरण बनने-टूटने थे, वे बन-टूट चुके थे और अब बहुत कुछ बाक़ी नहीं था। 28 दिसम्बर की शाम को अभी सम्मेलन की इति नहीं हुई थी कि आयोजकों की तरफ़ से नवल जी और दूसरे लोगों ने यह प्रस्ताव रखा कि अगली सुबह जो लोग राजगीर (राजगृह) की सैर पर जाना चाहें, वे बता दें, उन्हें आयोजक गण गाड़ियों पर वहाँ घुमाने ले जायेंगे। मुझे नहीं मालूम कि इस प्रस्ताव पर कितने लोगों ने हामी भरी और अपने नाम आयोजकों के यहाँ दर्ज कराये, इतना ज़रूर मुझे मालूम है कि इलाहाबादियों का बोहीमियन जत्था राजगीर जाने का इच्छुक नहीं था। हम लोग जब सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर जा रहे थे तो मैंने ज्ञान से कहा कि हमें आने-जाने का किराया आयोजकों से ले लेना चाहिए। नवल जी ने तृतीय श्रेणी स्लीपर के तीन टिकटों का ख़र्च देने का आश्वासन दे रखा था। इतने बरस बाद यह याद नहीं कि परिपत्र में किये गये वादे के मुताबिक आधा ख़र्च हमें अग्रिम मनीऑर्डर द्वारा मिला था या नहीं। शायद नहीं ही मिला था। बहरहाल, वापसी के किराये को वसूलने का काम तो बाक़ी ही था। इसलिए मैंने वक़्त रहते ही ज्ञान पर ज़ोर दिया था कि हमें किराया-भाड़ा नवल जी से ले लेना चाहिए। यह मुझे अच्छी तरह याद है कि जब हम सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे तो मेरे साथ ज्ञान के अलावा अजय सिंह भी था। ज्ञान ने बेपरवाही से कहा था कि किराये का क्या है, कल सुबह ले लिया जायेगा। अजय ने भी इसी बात की ताईद की थी।

हालाँकि एक मन मेरा यही कह रहा था कि किराया उसी शाम वसूल लिया जाना चाहिए, बाद में मिले-न मिले, क्योंकि सम्मेलन का डेरा-डण्डा तो उठ ही चुका था, तो भी मैं चुप हो गया था। शाम चूँकि अपनी थी, इसलिए उन्मुक्त भाव से शग़ल-मेला शुरू हो गया। रात के खाने से पहले कई लोग दरवाज़े को खटखटा कर ज़रा-सा खोल कर, सिर अन्दर ढुकाते हुए पूछते घूम रहे थे - ’राजगीर चलिएगा ?’ हर बार हम उन्हें किसी और जत्थे की तरफ़ रवाना कर देते। मैं कुछ और मुतमईन हो गया कि पिछले दो-तीन दिनों से जिस प्रेम से बरातियों की तरह हम लोगों की आव-भगत हो रही है, उसी प्रेम से किराया-भाड़ा दे कर हम लोगों को विदा भी किया जायेगा।

बहरहाल, अगली सुबह जब हम उठे तो न तो नवल जी का कोई अता-पता था, न ज्ञानेन्द्र पति का और न उन दो सन्दिग्ध किस्म के लोगों का जिनके नाम परिपत्र पर छपे हुए थे, यानी शिवशंकर सिंह और शिवदेव। अलबत्ता आयोजकों के कुछ मुस्टण्डे किस्म के गुर्गे बड़ी शाइस्तगी से हम लोगों को स्टेशन पहुँचाने की जुगुत बैठा रहे थे। किराये-भाड़े की चर्चा करने पर उन्होंने कहा कि हम लोग स्टेशन चलें, वहीं सब कुछ हो जायेगा। लेकिन दूसरी तरफ़, जिधर दिल्ली, पंजाब और राजस्थान के लेखक ठहरे हुए थे, मुस्टण्डों में शाइस्तगी कुछ कम रही होगी, इसीलिए उधर के लोगों को बड़ी बेरुख़ी से कमरे ख़ाली करने के लिए कहा जा रहा था और बिना इस बात की परवाह किये कि वे निवृत्त हुए हैं या नहीं, शौचालय वग़ैरह बन्द कराये जा रहे थे।

(यह भी दिलचस्प है कि रमेश गौड़, जो तीन दिन से फिरकी की तरह सम्मेलन भर में नाच रहा था, सम्मेलन ख़त्म होते ही पिछली शाम से नदारद था। बाद में पता चला कि वह तो नवल जी को भी धता बता कर शिवशंकर सिंह और शिवदेव के साथ उस साप्ताहिक को अवतरित करने की ’तपस्या’ में जुटा हुआ था। रमेश की फ़ितरत को जानने के कारण मुझे पूरा यकीन है कि बाक़ी लेखकों के साथ जो भी गुज़री, शिवशंकर सिंह द्वारा मेडिकल कॉलेज से अर्जित धन का कुछ हिस्सा ज़रूर रमेश ले मरा होगा, क्योंकि कुछ ही दिनों बाद उस साप्ताहिक ’दशा दिशा’ का एक अकेला अंक निकला था जो अब भी उस सारे प्रकरण की याद दिलाता हुआ मेरे पास महफ़ूज़ है। उसके बाद रमेश से तो दिल्ली में कई बार मुलाकात हुई, मगर शिवशंकर सिंह यकसर ग़ायब-गुल्ला हो गये और फिर उनका नाम सिर्फ़ एक बार उछला जब ललित नारायण मिश्र वाली घटना हुई।)

ख़ैर, हम लोग सुबह ही तैयार हो चुके थे, इसलिए समय खोये बिना स्टेशन पहुँचे। इस बीच कुछ ख़ास-ख़ास लेखक या तो आयोजकों की गाड़ी पर या फिर एक काली अम्बैसेडर पर सवार हो कर ’नयी धारा’ कार्यालय की ओर चले गये थे - शिवा जी से मिलने। पता चला कि शिवा जी राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के पुत्र उदय राज सिंह का बुलाने का नाम है। पटना के स्थानीय लेखकों की तरह वे भी सम्मेलन में नहीं आये थे। या तो बुलाये नहीं गये थे, या फिर शायद उन्हें यह अपेक्षा थी कि उनकी राजसी प्रतिष्ठा को देखते हुए कोई उन्हें बुलाने जाय तो वे आयें। जो भी हो, अब वे नामी-गिरामी लोगों को अपने दरबार में बुला कर उनकी ख़ातिर-तवाज़ो कर रहे थे और अपने प्रताप का प्रदर्शन। ज़ाहिर है, यह बुलावा सिर्फ़ बड़वार किस्म के लेखकों को था। जैसे अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, दूधनाथ सिंह, आदि। इसलिए हम लोग जो इन बड़े लोगों में शुमार नहीं किये जाते थे, आयोजकों की गाड़ियों पर लद-फंद कर स्टेशन पहुँचे। अभी तक ज्ञान हमारे ही साथ था।

स्टेशन पहुँच कर जब हम लोगों ने किराये-भाड़े की बात की तो आयोजकों के गुर्गों की तरफ़ से टाल-मटोल शुरू हुई। इस बीच मैंने देखा कि गंगा प्रसाद विमल, सौमित्र मोहन और दिल्ली से आये और बहुत-से लोग अपने-अपने सामान के साथ स्टेशन के बाहर की सीढ़ियों पर ऐसे मुँह लटकाये बैठे हुए हैं मानो कोई उन्हें वहाँ आ कर कचरे की तरह फेंक गया हो। पता चला कि उन्हें भी किराया-भाड़ा कुछ नहीं मिला है और नवल जी, ज्ञानेन्द्र पति और उनके दो साथी-आयोजक दिल्ली वालों को भी दग़ा दे गये हैं।

सम्मेलन के दो दिनों की अराजकता और कहा जाय कि विचारगोष्ठियों के चूतियापे का ग़ुस्सा एकबारगी उबल पड़ा। हम लोगों ने आयोजकों के गुर्गों को पकड़ लिया और किराये-भाड़े को ले कर उनके साथ शुद्ध ’मातृ भाषा’ में बातचीत शुरू कर दी। ज़ाहिर है, वे लोग जो दो-तीन दिन से इस प्रकार हम लोगों की आवभगत कर रहे थे मानो हम किसी साहित्यिक कार्यक्रम में आये लेखक नहीं, बल्कि जनवासे में ठहरे बराती हों, ठेठ हिन्दी के इस ठाठ पर अवाक थे। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये लेखक लोग जो कल तक होरी किसान और घीसू चमार की फ़िक्र में ग़लतान थे, कविता-कहानी की बात कर रहे थे, अचानक इतने उग्र और हिंसक क्यों हो रहे हैं। लेकिन वहाँ एकाध आदमी की बात होती तो ग़म खाया जा सकता था, लेकिन इकट्ठा 25-30 लोग इस तरह अपने हाल पर छोड़ दिये गये थे जिस तरह लावारिस मवेशी सड़कों पर छोड़ दिये जाते हैं।

जब मातृ भाषा पूरी न पड़ी तो भौतिकवाद का सहारा लिया गया और एक गुर्गे को बन्धक बना लिया गया। दूसरे से कहा गया कि वह जाये और जहाँ से भी पैसा लाना हो, पैसा लाये और हम लोगों को किराया-भाड़ा दे, वरना हम बन्धक बनाये गये गुर्गे को छोड़ेंगे नहीं। इस ’छोड़ेंगे नहीं’ में कई तरह की ध्वनियाँ और व्यंजनाएँ थीं और यह बात उन गुर्गों को फ़ौरन समझ में आ गयी। लगता है, वे मुस्टण्डे अपने मालिक से राग धमकौवल के इन्हीं सुरों में आदेश सुनने के आदी थे, क्योंकि एक मुस्टण्डा उसी दम ताबड़तोड़ अम्बैसेडर गाड़ी पर पैसे लेने के लिए भागा गया। हम लोगों को यह तो पता चल ही चुका था कि गाड़ियाँ तो सारी निकल चुकी हैं और शाम से पहले कोई गाड़ी नहीं है। इसलिए हम लोगों ने पहले से ही यह फ़ैसला कर रखा था कि हम स्टेशन पर गाड़ी का इन्तज़ार करते हुए ख़राब होने की बजाय राजेन्द्र नगर जायेंगे, जहाँ उन दिनों नरेन्द्र घायल रहता था और एक छोटी पत्रिका ’पतझड़’ प्रकाशित किया करता था। ख़याल यह भी था कि वक़्त मिला तो वहीं राजेन्द्र नगर में ही रेणु जी से भी मिल लिया जायेगा।

इस बीच उदय राज सिंह उर्फ़ शिवा जी की वही काली अम्बैसेडर गाड़ी पटना स्टेशन पर आ खड़ी हुई और ड्राइवर ने सूचना दी कि वह ज्ञान को ’नयी धारा’ ले जाने के लिए आया है। हम लोगों को थोड़ा-सा धक्का लगा, क्योंकि हम यह मान कर चल रहे थे कि बाक़ी सब भले ही साथ छोड़ दें, लेकिन ज्ञान हमारा साथ नहीं छोड़ेगा। लेकिन, ज्ञान उस गाड़ी पर बैठा और यह कह कर कि वह वहाँ से आ कर बाद में कहीं हम लोगों में शामिल हो जायेगा, ’नयी धारा’ कार्यालय चला गया। हम लोग मानो ठगे-से वहीं स्टेशन के बाहर खड़े रह गये।

उधर, जो आदमी गाड़ी पर पैसे लाने के लिए गया था, वह दस मिनट के अन्दर दस-दस रुपये की गड्डियाँ ले कर लौटा। फिर किराया-भाड़ा बाँटने का क्रम शुरू हुआ और थोड़ी देर के बाद नौबत यहाँ पहुँची कि हमने एक गड्डी उसके हाथ से ले ली कि बाक़ी लोगों को हम बाँट देंगे। वे दोनों गुर्गे सुख की साँस ले कर ऐसे दफ़ा हो गये मानो उनके पीछे साँप लगा हो। अब जब पैसे हाथ में आ गये तो थोड़ी राहत मिली। चूँकि ज्ञान के जाने से पहले ही राजेन्द्र नगर का कार्यक्रम बन चुका था, इसलिए हम लोग भारी दिल लिये, रिक्शों में राजेन्द्र नगर पहुँचे। पहले सामान नरेन्द्र के कमरे में फेंका गया और उसके बाद वहीं एक ढाबे में हम लोग दाल-चावल खाने बैठ गये। अभी खाना परोसा भी नहीं गया था कि हमने ज्ञान को बाहर खड़े देखा।

अब यह तो याद नहीं है कि वह उसी काली अम्बैसेडर से लौटा था, जो उसे ले कर ’नयी धारा’ गयी थी या रिक्शे से उतरा था, पर इतना मालूम है कि वह अपने सामान के साथ बाहर नज़र आया था। हम लोगों ने पेट्रोलावासियों की तरह ज़ोर का नारा बुलन्द किया और इसके बाद ज्ञान से उसका हाल-चाल पूछा। ज्ञान ने बताया कि हम सब को छोड़ कर अकेले वहाँ ’नयी धारा’ कार्यालय जाने को उसका मन नहीं माना और वह बीच रास्ते से ही लौट आया है। इस छोटी-सी घटना ने युवा लेखक सम्मेलन के दो दिनों के दौरान जमा हुई खीझ और ग़ुस्से को एकबारगी धो कर साफ़ कर दिया। हम लोगों को लगा कि ज्ञान अब भी अपने पेट्रोला और पेट्रोला के बाशिन्दों के साथ नत्थी है। सभी के चेहरे खिल उठे, ढाबे वाले को एक और पत्तल लगाने का आदेश दिया गया और खाना-वाना खा कर हम सब लोग रेणु जी से मिलने चल दिये।

रेणु जी मुझे तो बचपन से ही जानते थे, आलोकधन्वा उस ज़माने में उनके लिए लगभग शिष्यवत था और जहाँ तक मुझे याद पड़ता है कि ज्ञान से भी वे परिचित थे। सो, हम लोगों का स्वागत-सत्कार मेहमानों की तरह नहीं, बल्कि घर के छोटे सदस्यों की तरह हुआ। एक गहमा-गहमी, एक चहल-पहल राजेन्द्र नगर के उस फ़्लैट को गुलज़ार कर गयी और कई बार रेणु जी ने लतिका जी को बुला कर दिखाया कि देखो, यह वही लड़का है, अश्क जी का बेटा, जो उन दिनों जब हम लूकरगंज में कुछ समय के लिए रहे थे, तो हमारे घर आया करता था और अब इतना बड़ा हो गया है।

सब कुछ के बावजूद रेणु जी में एक आत्मीय पुरानापन था। वे राष्ट्रीय ख्याति के साहित्यकार थे और कुछ बेजोड़ कहानियाँ और दो अविस्मरणीय उपन्यास लिख चुके थे, एक बहुत रोमांचकारी जीवन बिता चुके थे और कहा जाये कि ’लेजेण्ड्री फ़िगर’ थे। हम लोग उनसे इस बात पर भी झगड़ते रहे कि उन्होंने युवा लेखक सम्मेलन के मंच से जय प्रकाश नारायण का पत्र क्यों पढ़ कर सुनाया, और जब वे जानते थे कि युवा लेखक सम्मेलन की बागडोर एक ठेकेदार किस्म के ग़ैर साहित्यिक और भ्रष्ट व्यक्ति के हाथ में है तो वे मंच पर ही क्यों गये और उन्होंने सब को असलियत से अवगत क्यों नहीं कराया ? रेणु जी मन्द-मन्द मुस्कराते हुए अपनी सफ़ाई देते रहे और चूँकि वे जानते थे कि इस तरह के सम्मेलनों से साहित्य का कुछ होना-हवाना नहीं है, इसलिए वे हमें भी इस पूरे प्रकरण को नज़रअन्दाज़ करके आगे बढ़ जाने की राय देते रहे। हमारा उनसे झगड़ा लगभग वैसा ही था, जैसा घर के बड़े-बुज़ुर्ग से छोटे सदस्यों का होता है - जिसमें मान-मनुहार के साथ राग-अनुराग की धारा भी बहती रहती है। जब शाम हो चली तो हम लोगों ने रेणु जी से विदा ली और अपना सामान नरेन्द्र घायल के कमरे से लेते हुए वापस स्टेशन आ गये जहाँ से हम सब ने रात की गाड़ी पकड़ी और घर को लौटे बुद्धुओं की तरह इलाहाबाद का रास्ता लिया।
(जारी)

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