Sunday, February 27, 2011

देशान्तर



मित्रो,

कई हफ़्तों से आप लोग "ज्ञानरंजन के बहाने" में ज्ञानरंजन और मेरे कुछ और मित्रों और दोस्तियों और गुज़रे हुए ज़माने के साहित्यिक माहौल की एक सैर-बीनी तस्वीर देख रहे थे. इस दौर का पहला चरण यहां एक अन्तराल की मांग कर रहा था. आगे का हिस्सा रफ़ लिख लिया गया है. जैसे ही दोबारा लिखा जा कर उसका अन्तिम प्रारूप तैयार होता है, हम 1970 के बाद के सफ़र पर रवाना होंगे.

इस बीच कुछ विविध प्रकार की सामग्री आपके सामने पेश करने की कोशिश करूंगा. मसलन कल शनिवार २६ फ़रवरी को काफ़ी हाउस में युवा कवि रवि प्रकाश ने अपनी कविताएं सुनायीं. बड़ी ताज़ा और हृदयग्राही. हमने उन्हें आमन्त्रित किया है कि वे अपनी कविताएं हमें भेजें हम "देशान्तर" में उन्हें अपने अन्य कविता प्रेमियों को भी उपलब्ध करायेंगे. इसी तरह और भी जो कविता या गद्य की रचनाएं हमें लगेगा कि आप के सामने आनी चाहिएं, उन्हें हम यहां प्रस्तुत करेंगे.

इस बीच अपनी एक ताज़ा कविता यहां दे रहा हूं,

¶ ¶



जादूई यथार्थवाद और खद्योत प्रकाश


क्या आपने खद्योत प्रकाश का नाम सुना है ?

कहानी की अति प्राचीन विधा का सबसे नया,
सबसे अनोखा जादूगर जो तब्दील कर देता है
क़िस्सों को ज़िन्दगी में और ज़िन्दगी को कहानियों में
और दोनों को सपनों या दुःस्वप्नों में
(जैसा उस वक़्त उसका मूड हो)
ऐसी कुशलता से कि आप जान नहीं पाते सच क्या है,
है भी या नहीं।

वैसे खद्योत प्रकाश के मुताबिक़ सच का कहानी से क्या ताल्लुक़
और क्या ताल्लुक़ उसका ज़िन्दगी से;
आख़िर सब कुछ माया ही तो है न।

तो समझ लीजिए, खद्योत प्रकाश ने
माया की महिमा के महामन्त्र को सिद्ध कर लिया है।
वह एक ही समय में, एक ही शरीर में, बयकवक़्त मौजूद
बच्चा, किशोर, नौजवान और वृद्ध है।

वह छली है, छलिया है, परम मायावी है,
भूत और वर्तमान के कन्धों पर सवार भावी है --
इस सब को मिला कर अपना अलौकिक अंजन तैयार करता हुआ
जिससे वह आपका मनोरंजन भी करता है ज्ञानरंजन भी,
आपको शोकग्रस्त भी करता है अशोकग्रस्त भी।
इस अंजन को अब वह पेटेण्ट कराने की सोच रहा है
जब से भारत के बड़े-बड़े भारद्वाजों से भी उसने
अपने दर पर मत्था टेकवा लिया है।

बहरहाल, वापस आयें,
अगर आपने इस यातुधान का नाम नहीं सुना
तो आप जादूई यथार्थवाद के बारे में भी नहीं जानते होंगे,
लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं,
जादूई यथार्थवाद कुछ-कुछ ईश्वर की तरह है,
आप ईश्वर को जानें या न जानें, या फिर मानें या न मानें,
अगर वह है तो आप कुछ नहीं कर सकते,
नहीं है तो भी आप कुछ नहीं कर सकते,
लिहाज़ा जादूई यथार्थवाद एक क़िस्म का जादू है,
ईश्वर की तरह, और एक क़िस्म का यथार्थ,
हमारे संसार के प्रतिबिम्ब की तरह।

इस जादूई संसार में सब कुछ सम्भव है।
सम्भव है एक ही आदमी के भीतर,
एक ही समय में मौजूद हों
सन्त और सौदागर, कवि और क़ातिल,
क़यामतसाज़ और क़यामत का मसीहा,
जैसे हर विकास के पेटे में होता है विनाश,
हर विनाश लिये चलता है अपनी नाभि में
नये ब्रह्माण्ड की सम्भावना।

इस जादूई संसार में सम्भव है जो कौर आप खा रहे हों
वह पुष्ट कर रहा हो आपके हत्यारे को,
जो निवाला बना रहा हो अपने ही लोगों को
वह निवाला हो किसी और भी बड़े पेटू का।

और यह समय परीकथाओं वाला, बहुत दिन हुए वाला,
एक बार की बात है वाला समय नहीं है,
अपना यही हैरतअंगेज़, लेकिन परम विश्वसनीय समय है,
जिसमें पाखण्ड का पर्दाफ़ाश करने वाले शिकार हुए --
अपनी करनी का नहीं, बल्कि अपनी कथनी का।

जो अपने शान्त शरण्यों में बैठे प्रलय का प्राक्कथन लिख रहे थे,
वे इस तरह प्रलयंकारियों के प्रिय पात्र बन गये
जैसे बन जाता है प्रिय पात्र एक सिंह दूसरे सिंह का
जब हिरनों और ख़रगोशों को खाने की बारी आती है।

मिट रहे हैं हम, मिट रहे हैं हम -- की गुहार लगाते कवि,
आहिस्ता से दाख़िल हो गये उसी समय के ऐसे हिस्से में
जहाँ उन्हें चीख़ें भी नहीं सुनायी देती थीं मिट रहे लोगों की।

शास्त्रीय फ़नकारी के बीच रात को हरमुनिया के सुरों पर
बचाओ बचाओ का शोर मचाते हुए वे बचा लिये जाते थे
उनकी कृपा से जिनसे बच नहीं पा रहे थे
इस देश के जंगल, नदियाँ, खेत और किसान।

मलयेशियाई लकड़ी के फ़र्निचर और
सारे आधुनिक उपकरणों से सज्जित
अपने तीसरे नये मकान में
कवि की नींद बार-बार टूट जाती थी
गद्दे पर बिछी रेशमी चादर पर भी
जब किसान-मज़दूर नहीं,
किसान-मज़दूरों का कोई आवारा ख़याल
भटकता हुआ चला आता था
अतीत के किसी गुमगश्ता गोशे से।

उनिद्रा और ऊब के बीच ऊभ-चूभ करता
वह सोचता --
क्यों हैं, आख़िर क्यों हैं ये लोग अब भी
अम्बानी और अज़ीम प्रेमजी, मोनटेक और मनमोहन की
इस भारत भूमि में, कील की तरह गड़-गड़ जाते हुए --
जब वह बाँहों में लिये प्रियंका चोपड़ा या कैटरीना कैफ़ को
चुम्बन लेने जा रहा होता।
सपने में।

2 comments:

  1. नीलाभ जी, बधाई , इस सारगर्भित कविता के लिए. जिस बात को कहने के लिए उपन्यास की दरकार थी उसे आपने कविता में कह दिया. चाहते तो थोड़ी लंबी कविता हो सकती थी कुछ बातें रह गयीं.

    वीरेन्द्र यादव

    ReplyDelete
  2. मन में एक मंथन होता चला जाता है जैसे जैसे कविता प्रारम्भ से मध्य और मध्य से अपने अंतिम छोर पर पंहुचती है |

    सार्थक कविता के लियें बधाई...



    गीता पंडित .

    ReplyDelete