इलाहाबाद की डायरी
दोस्तो,
जहाज़ से उड़ कर फिर जहाज़ पर लौट आने वाले पंछी की तरह २६ तारीख़ को मैं फिर इलाहाबाद नामक अपने जहाज़ पर लौट आया.
इस बार सात महीने बाद लौटा था. देखा कि मौसम, फ़िज़ा और दीवानगी वही पहले जैसी थी, लेकिन सारा शहर मानो किसी क़हर या दैवी कोप की ज़द में आया हुआ था. पूछने पर पता चला कि शहर जवाहरलाल नेहरू अरबन रीन्यूअल मिशन की चपेट में आया हुआ था, नगर के पुनरुत्थान का पहला धमाका सड़कों को गहरा खोद कर सीवर लाइन बिछाने का था. सड़कें खुदी हुईं ख़ुदा की पनाह मांग रही थीं, बुलडोज़र प्रागैतिहासिक डाइनोसौरों की मानिन्द धरती उधेड़ रहे थे, धूल के बादलों ने आसन्न वसन्त की सारी मस्ती हर लेने की ठानी हुई थी, जगह-जगह और वजह-बेवजह टिराफ़िक जाम रही-सही क़सर पूरी किये दे रहे थे.
मुझे बेसाख़्ता अपने मित्र प्रयाग शुक्ल की याद हो आयी जिन्होंने ऐसे महौल पर फ़ौरन से पेश्तर एक ललित टिप्पणी "जनसत्ता" में छपा दी होती, पर यहां तबियत का फ़ालूदा निकला जा रहा था. सन १९५०-६०-७० के दशकों में हर ख़ास-ओ-आम को मोह लेने वाली सड़कें अपनी दुर्दशा की कहानी खुले आम बयान कर रही थीं. ऊपर से यहां-वहां मिट्टी के ऊंचे-ऊंचे ढेर किसी ज़लज़ले का-सा मंज़र पेश कर रहे थे. ऐसे में मुझे किसी ललित टिप्पणी के ख़याल की बजाय बेहद दुनियादार क़िस्म के विचार सताने लगे. यह नहीं कि हमारे यहां हर योजना किसी-न-किसी नेहरू या गान्धी के नाम पर शुरू होती है और देश का बाजा बजाती चली जाती है. क्योंकि वंशवाद की भारतीय प्रवृत्ति के चलते यह तो होना ही था. बल्कि मेरा ध्यान कुछ दूसरे तथ्यों ने खींचा.
अब यही देखिए कि कहने को यह जवाहरलाल नेहरू शहरी पुनरुत्थान अभियान है, लेकिन अन्दर का मामला यह है कि यह ठेकेदार पुनरुत्थान अभियान है. सब से पहले तो वे ठेकेदार चाचा नेहरू के गुन गायेंगे जिन्हें सीवर लाइन बिछाने के ठेके दिये गये हैं. फिर बारी उन ठेकेदारों की आयेगी जो इन तबाहो-बरबाद सड़कों की मरम्मत करेंगे और यह ख़याल रखेंगे कि इतनी अच्छी मरम्मत न कर दें कि आगे उनके ठेकों का राम नाम सत्त हो जाये. इसे कहते हैं उत्तम क़िस्म का व्यापार यानी वह व्यापार जो आगे व्यापार पैदा करता चले.
फिर जैसे पुराने पंछी को झटका देने के लिए इतना ही काफ़ी न था, शहर का नक़्शा पहले से भी ज़्यादा बदला नज़र आया. वैसे तो बाज़ार हमेशा से ही हर समाज का एक अहम हिस्सा रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में ऐसा लगता है कि असली बस्ती तो दुकानों की है, रिहाइशी इलाक़ों का वजूद तो महज़ इसलिए है कि बाज़ार का वजूद क़ायम रह सके, उसका औचित्य संगत ठहराया जा सके. हाई कोर्ट से शुरू हो कर संगम तक जाने वाली सड़क -- महात्मा गान्धी मार्ग -- जो कभी कैनिंग रोड कहलाती थी, तरह-तरह की दुकानों से पट गयी है. पहले दुकानों का सिलसिला इस सड़क पर कौफ़ी हाउस से ले कर सरदार पटेल मार्ग से कुछ आगे सेंट्रल बैंक तक था, पटेल मार्ग पर दुकानें नवाब यूसुफ़ रोड के तिराहे से ले कर ताशकन्त रोड के चौराहे तक थीं और यह इलाक़ा जो सिविल लाइन्ज़ कहलाता था ख़ूब खुला-खुला था. अब शरीर में फैलते कैंसर की तरह न सिर्फ़ महात्मा गान्धी मार्ग और सरदार पटेल मार्ग पर दुकानें विष-ग्रस्त कोशिकाओं की तरह बढती चली गयी हैं बल्कि इस कैंसर के संक्रमण ने इन से फूटने वाली और इनके समानान्तर चलने वाली छोटी सड़कों को भी अपनी गिरफ़्त में ले लिया है.
जो शहर किसी ज़माने में उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी था, वहां हर जगह अब सिक्कों की झंकार सुनाई देती है, धड़ा-धड़ दुकानें बन रही हैं, देसी-बिदेसी कम्पनियां पूंछ उठाये दौड़ती चली आ रही हैं, कला, साहित्य, संगीत, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान अगर बिकने को तैयार नहीं हैं या बेचे नहीं जा सकते, तो फिर उनकी जगह किसी टूटे-फूटे गोदाम में भी नहीं है, वे सिर्फ़ घूरे पर फेंक दिये जाते हैं.
(जारी)
नीलाभ चाचा !!
ReplyDelete'नेतागिरी' सब ली बितिस ! हम तो मानित थी की इलाहाबाद कै सब कुछ तहस- नहस करेय में छात्रों का बहुताय बड़ा योगदान है . एक पूरी पीढी की राजनीती हर जगह का ठेका लेती है ..वो राजनीती जिसमे एक बड़े पैमाने में 'कट्टा संस्कृति के वाहक' थे या हैं !! रोड तो फिर दुरुस्त हो जाएगी ..पर जो गया वो अब्ब दुरुस्त होने का कहीं कोई सवाल नहीं होता ..
बाबु जी हमरे कहत हैं ..'"इलाहाबाद में अब वही बचा है जेकर बुद्धि में कुछ नहीं बचा". ई तो अंशु भैया जैसे लोग है जो कुछ दिखा जाते हैं दूर से ..बाकी तो करिया-करिया चेहरा दिखात है ..का बताई हम तो सोच रहे है एक मुहीम शुरू करी ' Back to Prayag.. for the city of ours '