नीलाभ के लम्बे संस्मरण की दसवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - १०
अधूरी लड़ाइयों के पार- ३
आज यह देखना बहुत दिलचस्प जान पड़ता है कि ‘परिमल’ नाम की जो संस्था कला, मानव-मूल्यों, आन्तरिक प्रेरणा और पूर्ण स्वतन्त्रता की बातें करती थी, उसने एक ऐसा सम्मेलन आयोजित किया जिसके पहले वाक्य से ले कर समापन की घोषणा तक राजनीति प्रधान थी। 1970 के आरम्भ में ‘परिमल’ के रजत पर्व पर आयोजित सम्मेलन में ‘परिमल’ के संयोजकों की तरफ़ से एक विस्तृत लेखा-जोखा पेश किया गया था जो एक तरह से इस संस्था का समाधि-लेख भी साबित हुआ, क्योंकि उसके बाद ‘परिमल’ का - देसी ज़बान में कहें तो - ‘भट्ठा ही बैठ गया।’ यह भी हो सकता है कि यह संस्था तब तक जितना नुकसान कर सकती थी, कर चुकी थी। (आख़िर इस रजत पर्व में ‘परिमल’ के संयोजक साहित्य के सवालों को ‘साहित्य क्यों ?’ तक तो ले ही आये थे) इसलिए आगे इसकी उपयोगिता न रही। जो भी हो, यह देखने लायक है कि ‘परिमल’ का मूल मन्त्र क्या था। उसी के परिपत्र का उद्धरण दिया जाय तो -
‘परिमल साहित्य एवं साहित्यकार के किसी भी प्रकार के राजनैतिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक या वैयक्तिक प्रतिबन्ध को उस पर आरोपित करने का विरोधी है। वह मानता है कि लेखक का व्यक्तित्व उसकी रचनात्मक दृष्टि, उसकी सृजन-शक्ति, उसकी अपनी आन्तरिक अनुभूतियों का पुंजीभूत रूप है। सृजनात्मक क्षणों में उसके साथ उसकी अपनी नियति होती है और होता है उसका अपना निजी संकल्प। नियति का निर्माता वही होता है और संकल्प का स्वामित्व भी उसके अपने निजी अनुशासन से प्रजनित होता है। उसका नियन्ता न तो कोई बाह्य तन्त्र हो सकता है और न कोई अन्य सत्ता या शक्ति हो सकती है। वह स्वयम ही साक्षी होता है और साक्ष्य भी होता है। उसकी प्रामाणिकता न तो राजसत्ता से उद्भूत होती है और न वह पुरोहितवाद से अनुशासित होती है। न तो उसका कोई अतीत होता है और न भविष्य, न वर्तमान। लेखक अपनी अनुभूति के गहनतम क्षणों में काल की सीमा को भी लाँघ जाता है और ईश्वर की परिधि के आगे सम्पूर्ण सृष्टि की अनन्तता का नागरिक होता है और तब उसकी इस अनन्तता और विशालता में देश-काल भी वह देश-काल नहीं रह जाता तो केवल स्थूल रूप में नितान्त ख़ानों में बँटा दिखता है।’
‘परिमल’ की इस घोषणा पर अलग से कोई टिप्पणी करने की ज़रूरत नहीं। उसका वैचारिक संभ्रम, घाल-मेल और समाज की दुहाई देने के बाद भी उसकी समाज-विमुख आत्मपरकता आईने की तरह साफ़ है। इसी वैचारिक घाल-मेल का नतीजा है कि कला और मनुष्य पर तमाम बल देने के बावजूद ‘परिमल’ से जुड़े साहित्यकारों की निगाह बराबर राजनीति और साहित्येतर चीज़ों पर ही टिकी रही। 1957 में ‘साहित्य और राज्याश्रय’ पर आयोजित लेखक परिगोष्ठी में भी सारी चिन्ता राज्य-संरक्षण, सरकारी पुरस्कारों, सरकारी अकादमियों, राजकीय सेवाओं, विदेश जाने वाले शिष्ट मण्डलों पर ही केन्द्रित थी। राज्य यानी सत्ता और कला का आपसी सम्बन्ध कला की प्रैक्टिस यानी कला-कर्म को, विषय, शैली-शिल्प और कथ्य तथा सम्वेदना के लिहाज़ से कितना और किस तरह प्रभावित करता है, कर सकता है, इसके बुनियादी पहलू पर विचार नहीं हुआ।
उधर, ‘परिमल’ की इस राष्ट्रीय परिगोष्ठी के बाद उसी वर्ष इलाहाबाद में 15-17 दिसम्बर 1957 को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की ओर से जो साहित्यकार सम्मेलन आहूत हुआ, उस में इसका विलोम देखने को मिला। हालाँकि चिन्ता ‘स्वाधीन भारत और लेखक’ ही की थी, लेकिन उसमें बल ‘सहचिन्तन, रचना की प्रक्रिया और आलोचना के मान’ पर था। यह बात मुझे आज दिलचस्प लगती है कि जो संगठन राजनीति और कला के बीच एक अटूट सम्बन्ध मानता था, वह तो कला के प्रश्नों को उठा रहा था और जो संस्था कला की स्वायत्तता की बातें करती थी, वह राजनीति से आक्रान्त थी। इस सिलसिले में आयोजन की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए, अमृत राय ने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में छपी नेमिचन्द्र जैन के ‘चेतावनी भरे’ लेख के उत्तर में कहा था - "सम्मेलन के आवाहक खुले मन से सभी साहित्यकारों को आमन्त्रित करना चाहते हैं और कर रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे इस बात का पता नहीं है कि साहित्यकारों में कई प्रश्नों पर बहुत मतभेद है, और न इसका यही मतलब है कि किसी एक विचारधारा के लोगों को बटोर लिया जाय। जहाँ तक मैं समझता हूँ, ऐसा करना सम्मेलन की सफलता नहीं, विफलता होगी।"
उन दिनों, जैसा कि मैंने कहा धड़ेबन्दी ज़ोरों पर थी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘परिमल’ के बीच बराबर एक रस्साकशी चल रही थी, इसलिए ज़ाहिरा तौर पर ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के सम्मेलन को ‘परिमल’ वाले लेखक सम्मेलन का जवाब समझा गया। नेमि जी ने भी ऐसी ही शंका प्रकट की थी जिसका जवाब देते हुए अमृत राय ने अपने काउण्टर-ऐफ़िडैविट के अन्त में लिखा था - "मुझे खेद है कि बन्धुवर नेमिचन्द्र ने प्रस्तावित सम्मेलन के विषय में अपने उद्गार व्यक्त करने में जो अतिरिक्त तत्परता दिखलायी है, वही तत्परता यदि उन्होंने आवश्यक तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने में दिखायी होती, तो उनका लेख अधिक संगत होता और तब शायद उनको ऐसा भी न लगता कि यह प्रस्तावित साहित्यकार सम्मेलन उस ‘अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन’ का जवाब है, ‘जो कुछ मास पहले प्रयाग की एक अन्य सुप्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ने किया था।’ इस विषय में मैं और कुछ न कह कर केवल इतना कहूँगा कि वह सम्मेलन केवल साहित्यकार और राज्याश्रय के प्रश्न को ले कर आहूत हुआ था और हमारे प्रस्तावित सम्मेलन की कार्य-सूची को ऊपर दी हुई रूप-रेखा से मिलान करने पर दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।"
बीच की बात यह थी कि ‘परिमल’ वाला सम्मेलन भले ही किसी हद तक ’ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन’ के बाद एक जवाबी कार्रवाई के तौर पर हुआ था, लेकिन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ द्वारा आयोजित सम्मेलन प्रगतिवादी धारा के अन्दरूनी अन्तर्विरोधों के चलते बुलाया गया था। यों, व्यापक धरातल पर ये दोनों सम्मेलन उस युग की अपनी समस्याओं के चलते आयोजित हुए थे। ‘परिमल’ के रजत पर्व के अवसर पर प्रस्तुत आकलन में संयोजकों ने साफ़-साफ़ यह स्वीकार किया था कि -
"1936 से 1944 तक का समूचा साहित्यिक आन्दोलन या तो एक प्रकार की प्रतिबद्धता की माँग करता था या फिर छायावाद और रहस्यवाद के उस धूप-छाँव का आश्रय लेता था जिसमें शब्द, अर्थ, भाव-भंगिमा - सब कुछ एक निरर्थकता की सीमा पर पहचानहीन हो गये थे। ‘परिमल’ इन दोनों स्थितियों के विरोध के बीच जन्मा और उसने इन दोनों सीमाओं के बाहर एक नयी क्रान्ति को स्वर देना चाहा और क्रान्ति थी लेखक के मुक्त व्यक्तित्व की।"
लेकिन यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति तो ‘परिमल’ के रजत पर्व पर की गयी। अघोषित रूप से ‘परिमलियन’ और ‘प्रगतिशील’ दोनों ख़ेमों के साहित्यकार शुरू ही से जानते थे कि ‘परिमल’ की स्थापना ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बढ़ते हुए वर्चस्व को कम करने के लिए की गयी थी। इसलिए जहाँ प्रगतिशीलों का सम्मेलन अपने ही आन्दोलन के भीतर कट्टरपन्थियों और उदारवादियों की कशमकश का परिणाम था, वहीं ‘परिमल’ वाला सम्मेलन ’ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन’ के रूप में प्रगतिवादियों की ताज़ातरीन हलचल की प्रतिक्रिया थी। और अब तो यह इतिहास की बात हो चुकी है कि अपने अन्तर्विरोधों को ख़ातिर-ख़्वाह ढंग से सुलटा न पाने के कारण प्रगतिशील लेखक आन्दोलन में आयी मन्दी को 1957 का वह यादगार सम्मेलन रोक नहीं पाया था। अगले बारह-तेरह वर्ष प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के बिखराव के वर्ष थे। इस दौर के पहले हिस्से में नयी कविता और नयी कहानी के शोर-शराबे में पुराने साहित्यिक मूल्य ही नहीं, अनेक पुराने साहित्यकार भी किनारे पर दिये गये, समाज और साहित्यकार के आपसी रिश्ते पर आन्तरिक प्रेरणा और आत्मा के रहस्य की छानबीन को तरजीह दी जाने लगी और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों ने पहले की समाजोन्मुखी धारा को किनारे कर दिया। 1970 के आरम्भ में ‘परिमल’ का रजत पर्व इस पुराने युग का समापन माना जा सकता है।
‘परिमल साहित्य एवं साहित्यकार के किसी भी प्रकार के राजनैतिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक या वैयक्तिक प्रतिबन्ध को उस पर आरोपित करने का विरोधी है। वह मानता है कि लेखक का व्यक्तित्व उसकी रचनात्मक दृष्टि, उसकी सृजन-शक्ति, उसकी अपनी आन्तरिक अनुभूतियों का पुंजीभूत रूप है। सृजनात्मक क्षणों में उसके साथ उसकी अपनी नियति होती है और होता है उसका अपना निजी संकल्प। नियति का निर्माता वही होता है और संकल्प का स्वामित्व भी उसके अपने निजी अनुशासन से प्रजनित होता है। उसका नियन्ता न तो कोई बाह्य तन्त्र हो सकता है और न कोई अन्य सत्ता या शक्ति हो सकती है। वह स्वयम ही साक्षी होता है और साक्ष्य भी होता है। उसकी प्रामाणिकता न तो राजसत्ता से उद्भूत होती है और न वह पुरोहितवाद से अनुशासित होती है। न तो उसका कोई अतीत होता है और न भविष्य, न वर्तमान। लेखक अपनी अनुभूति के गहनतम क्षणों में काल की सीमा को भी लाँघ जाता है और ईश्वर की परिधि के आगे सम्पूर्ण सृष्टि की अनन्तता का नागरिक होता है और तब उसकी इस अनन्तता और विशालता में देश-काल भी वह देश-काल नहीं रह जाता तो केवल स्थूल रूप में नितान्त ख़ानों में बँटा दिखता है।’
‘परिमल’ की इस घोषणा पर अलग से कोई टिप्पणी करने की ज़रूरत नहीं। उसका वैचारिक संभ्रम, घाल-मेल और समाज की दुहाई देने के बाद भी उसकी समाज-विमुख आत्मपरकता आईने की तरह साफ़ है। इसी वैचारिक घाल-मेल का नतीजा है कि कला और मनुष्य पर तमाम बल देने के बावजूद ‘परिमल’ से जुड़े साहित्यकारों की निगाह बराबर राजनीति और साहित्येतर चीज़ों पर ही टिकी रही। 1957 में ‘साहित्य और राज्याश्रय’ पर आयोजित लेखक परिगोष्ठी में भी सारी चिन्ता राज्य-संरक्षण, सरकारी पुरस्कारों, सरकारी अकादमियों, राजकीय सेवाओं, विदेश जाने वाले शिष्ट मण्डलों पर ही केन्द्रित थी। राज्य यानी सत्ता और कला का आपसी सम्बन्ध कला की प्रैक्टिस यानी कला-कर्म को, विषय, शैली-शिल्प और कथ्य तथा सम्वेदना के लिहाज़ से कितना और किस तरह प्रभावित करता है, कर सकता है, इसके बुनियादी पहलू पर विचार नहीं हुआ।
उधर, ‘परिमल’ की इस राष्ट्रीय परिगोष्ठी के बाद उसी वर्ष इलाहाबाद में 15-17 दिसम्बर 1957 को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की ओर से जो साहित्यकार सम्मेलन आहूत हुआ, उस में इसका विलोम देखने को मिला। हालाँकि चिन्ता ‘स्वाधीन भारत और लेखक’ ही की थी, लेकिन उसमें बल ‘सहचिन्तन, रचना की प्रक्रिया और आलोचना के मान’ पर था। यह बात मुझे आज दिलचस्प लगती है कि जो संगठन राजनीति और कला के बीच एक अटूट सम्बन्ध मानता था, वह तो कला के प्रश्नों को उठा रहा था और जो संस्था कला की स्वायत्तता की बातें करती थी, वह राजनीति से आक्रान्त थी। इस सिलसिले में आयोजन की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए, अमृत राय ने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में छपी नेमिचन्द्र जैन के ‘चेतावनी भरे’ लेख के उत्तर में कहा था - "सम्मेलन के आवाहक खुले मन से सभी साहित्यकारों को आमन्त्रित करना चाहते हैं और कर रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे इस बात का पता नहीं है कि साहित्यकारों में कई प्रश्नों पर बहुत मतभेद है, और न इसका यही मतलब है कि किसी एक विचारधारा के लोगों को बटोर लिया जाय। जहाँ तक मैं समझता हूँ, ऐसा करना सम्मेलन की सफलता नहीं, विफलता होगी।"
उन दिनों, जैसा कि मैंने कहा धड़ेबन्दी ज़ोरों पर थी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘परिमल’ के बीच बराबर एक रस्साकशी चल रही थी, इसलिए ज़ाहिरा तौर पर ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के सम्मेलन को ‘परिमल’ वाले लेखक सम्मेलन का जवाब समझा गया। नेमि जी ने भी ऐसी ही शंका प्रकट की थी जिसका जवाब देते हुए अमृत राय ने अपने काउण्टर-ऐफ़िडैविट के अन्त में लिखा था - "मुझे खेद है कि बन्धुवर नेमिचन्द्र ने प्रस्तावित सम्मेलन के विषय में अपने उद्गार व्यक्त करने में जो अतिरिक्त तत्परता दिखलायी है, वही तत्परता यदि उन्होंने आवश्यक तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने में दिखायी होती, तो उनका लेख अधिक संगत होता और तब शायद उनको ऐसा भी न लगता कि यह प्रस्तावित साहित्यकार सम्मेलन उस ‘अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन’ का जवाब है, ‘जो कुछ मास पहले प्रयाग की एक अन्य सुप्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ने किया था।’ इस विषय में मैं और कुछ न कह कर केवल इतना कहूँगा कि वह सम्मेलन केवल साहित्यकार और राज्याश्रय के प्रश्न को ले कर आहूत हुआ था और हमारे प्रस्तावित सम्मेलन की कार्य-सूची को ऊपर दी हुई रूप-रेखा से मिलान करने पर दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।"
बीच की बात यह थी कि ‘परिमल’ वाला सम्मेलन भले ही किसी हद तक ’ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन’ के बाद एक जवाबी कार्रवाई के तौर पर हुआ था, लेकिन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ द्वारा आयोजित सम्मेलन प्रगतिवादी धारा के अन्दरूनी अन्तर्विरोधों के चलते बुलाया गया था। यों, व्यापक धरातल पर ये दोनों सम्मेलन उस युग की अपनी समस्याओं के चलते आयोजित हुए थे। ‘परिमल’ के रजत पर्व के अवसर पर प्रस्तुत आकलन में संयोजकों ने साफ़-साफ़ यह स्वीकार किया था कि -
"1936 से 1944 तक का समूचा साहित्यिक आन्दोलन या तो एक प्रकार की प्रतिबद्धता की माँग करता था या फिर छायावाद और रहस्यवाद के उस धूप-छाँव का आश्रय लेता था जिसमें शब्द, अर्थ, भाव-भंगिमा - सब कुछ एक निरर्थकता की सीमा पर पहचानहीन हो गये थे। ‘परिमल’ इन दोनों स्थितियों के विरोध के बीच जन्मा और उसने इन दोनों सीमाओं के बाहर एक नयी क्रान्ति को स्वर देना चाहा और क्रान्ति थी लेखक के मुक्त व्यक्तित्व की।"
लेकिन यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति तो ‘परिमल’ के रजत पर्व पर की गयी। अघोषित रूप से ‘परिमलियन’ और ‘प्रगतिशील’ दोनों ख़ेमों के साहित्यकार शुरू ही से जानते थे कि ‘परिमल’ की स्थापना ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बढ़ते हुए वर्चस्व को कम करने के लिए की गयी थी। इसलिए जहाँ प्रगतिशीलों का सम्मेलन अपने ही आन्दोलन के भीतर कट्टरपन्थियों और उदारवादियों की कशमकश का परिणाम था, वहीं ‘परिमल’ वाला सम्मेलन ’ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन’ के रूप में प्रगतिवादियों की ताज़ातरीन हलचल की प्रतिक्रिया थी। और अब तो यह इतिहास की बात हो चुकी है कि अपने अन्तर्विरोधों को ख़ातिर-ख़्वाह ढंग से सुलटा न पाने के कारण प्रगतिशील लेखक आन्दोलन में आयी मन्दी को 1957 का वह यादगार सम्मेलन रोक नहीं पाया था। अगले बारह-तेरह वर्ष प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के बिखराव के वर्ष थे। इस दौर के पहले हिस्से में नयी कविता और नयी कहानी के शोर-शराबे में पुराने साहित्यिक मूल्य ही नहीं, अनेक पुराने साहित्यकार भी किनारे पर दिये गये, समाज और साहित्यकार के आपसी रिश्ते पर आन्तरिक प्रेरणा और आत्मा के रहस्य की छानबीन को तरजीह दी जाने लगी और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों ने पहले की समाजोन्मुखी धारा को किनारे कर दिया। 1970 के आरम्भ में ‘परिमल’ का रजत पर्व इस पुराने युग का समापन माना जा सकता है।
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