Saturday, February 12, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चौदहवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - १४


अधूरी लड़ाइयों के पार- ७



गाड़ी दोपहर के किसी समय पटना पहुँची थी। स्टेशन से बाहर निकलते ही जिस चीज़ ने हमारा ध्यान खींचा था, वे थे दीवारों पर जगह-जगह लिखे ’प्रऊत ज़िन्दाबाद’ के नारे। बिहार में अभी नक्सलबाड़ी आन्दोलन शुरू ही हुआ था। मुज़फ़्फ़रपुर के पास मुसहरी की घटना हो चुकी थी और कुछ दिनों तक अख़बार इन ख़बरों से अटे रहे थे कि कैसे जे.पी. (जयप्रकाश नारायण) वहाँ कैम्प कर रहे हैं। लेकिन पटना में सार्वजनिक रूप से इसकी कोई सुन-गुन नहीं थी। हल्ला था तो आनन्द मार्ग का और वह नारा - प्रऊत ज़िन्दाबाद - उसी संगठन ने बुलन्द कर रखा था। बाद में चल कर आनन्द मार्ग और उसके किंग-पिन, प्रभात रंजन सरकार अपने कर्मों-कुकर्मों के चलते, उसी राह रुख़सत हुए जिसे अंग्रेज़ी में ’वे ऑफ़ ऑल फ़्लेश’ कहा गया है। मगर अभी इसकी नौबत आने में देर थी और बिहार में आनन्द मार्ग ने अच्छा-ख़ासा चक्कर चला रखा था।
मैं इससे पहले कभी पटना नहीं आया था। इसलिए न तो मुझे रास्तों का कुछ ज्ञान था, न मोहल्लों का। इतना ज़रूर याद है कि कोई इलाका छज्जूबाग़ था, जहाँ लाजपत राय भवन नाम की एक इमारत थी, जिसमें नीचे हॉल था और ऊपर कमरे। लाजपत राय भवन उन सैकड़ों इमारतों में से एक जान पड़ती थी जो आज़ादी के बाद बहुविध ढंग से इस्तेमाल की जाने के लिए बनायी गयी थीं। सुदूर पंजाब के एक उस समय तक लगभग विस्मृत कर दिये गये नेता के नाम पर उस भवन के नामकरण के पीछे शायद यह कारण रहा होगा कि भवन के संस्थापक पंजाबी या आर्य समाजी रहे होंगे। इमारत एक कम्यूनिटी हॉल जैसी थी - वहाँ सभाएँ भी होती थीं और शादियाँ भी। नीचे हॉल था जिसमें सम्मेलन की कार्रवाई होनी थी और ऊपर के कमरों में हम लोगों को ठहरना था। जिस कमरे में हमने डेरा जमाया, वह ऊपर जाने वाली सीढ़ियों से चढ़ते ही दायीं ओर को था और उसकी पीछे वाली खिड़की से झाँकने पर पीछे का आँगन दिखायी देता था जहाँ हलवाई बैठा कर सामूहिक चाय-नाश्ते और खाने का प्रबन्ध किया गया था। इसी कमरे में नीचे गद्दे बिछा कर ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा, वन्दना, अजय सिंह, मैं, वीरेन और रमेन्द्र डट गये थे। इसी से थोड़ा आगे एक खुले छते दालान में बनारस के लोग जमे हुए थे और कुछ आगे बिलकुल अलहदा कमरों में रवीन्द्र कालिया और ममता (पति-पत्नी) होने के नाते और अशोक वाजपेयी टिके हुए थे। ज्ञान और दूधनाथ ठीक-ठीक किस कमरे में थे, यह अब याद नहीं है, लेकिन वे अक्सर हमारे ही कमरे में डटे रहते। ख़ास तौर पर ज्ञान। दूसरे कुछ कमरों में दिल्ली से आये लोग जमा थे। गंगा प्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी, बलदेव वंशी की मुझे स्पष्ट याद है और कुमार विकल की भी जो अक्सर जगदीश के गुट में ही अपनी हंगामी उपस्थिति बनाये रखता।

नवल जी ने शायद जोश में या शायद नातजुर्बेकारी की वजह से खचिया भर साहित्यकारों को न्योत रखा था, जो अपनी-अपनी सनकों, ख़ूबियों-ख़ामियों, विचारधाराओं, विद्रोही तेवरों और प्रान्तीय विशेषताओं के साथ माहौल को कुछ इस कदर रंगीन बनाये दे रहे थे कि उसके बदरंग होने का ख़तरा पैदा हो गया था, जो कि वह अन्ततः हो के ही रहा। मिसाल के लिए इब्राहिम शरीफ़ उन दिनों केरल के किसी कॉलेज में पढ़ा रहे थे और कहानी नामक विधा को ठीक-ठिकाने लगाने की चिन्ता में उपमहाद्वीप के दूसरे छोर से बाकायदा एक एजेण्डे के साथ आये थे। यही हाल जितेन्द्र भाटिया, अशोक अग्रवाल और विश्वेश्वर का था, जो ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, वग़ैरा साठोत्तरी कहानीकारों से अलग एक छवि बनाना चाहते थे और लगभग साज़िशी अन्दाज़ में यहाँ-वहाँ मिस्कोट करते हुए, नज़र न आने की कोशिश के बावजूद नज़र आने से बच नहीं पाते थे।

यह बात अलग है कि उनकी ’उलटी हो गयीं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया’ और उनकी बिछायी टाट-पट्टी पर कमलेश्वर ने अपना ’समान्तर कहानी’ का स्कूल खोल दिया जिसमें मधुकर सिंह के साथ-साथ इन सारे लोगों ने नाम लिखा लिया और अपने संग रमेश उपाध्याय को भी भरती कर लिया। जैसा कि ’वागर्थ’ के जून 2007 के अंक में रमेश ने अपनी डायरी के एक इन्दराज में बताते हुए लिखा है कि समान्तर आन्दोलन की योजना मूलतः "बम्बई में ’नवनीत’ के दफ़्तर में बनी थी, जहाँ मैं सहायक सम्पादक था। एक दिन इब्राहिम शरीफ़ और जितेन्द्र भाटिया मुझसे मिलने आये थे। वे पटना के एक लेखक सम्मेलन से लौटे थे। शरीफ़ मेरा बहुत अच्छा दोस्त था। उसी ने कहा था कि हमें कुछ करना चाहिए। बाद में उस योजना को कमलेश्वर जी ले उड़े और उसके बाद, जैसा कि कहा जाता है, बाकी सब इतिहास है।"

फिर, बरास्ता इलाहाबाद, हैदराबाद से आया हुआ वेणुगोपाल था, जो अपने मझोले कद के गठे हुए शरीर, साँवले रंग, चौड़े-चकले चेहरे, बड़े-बड़े दाँतों और ओवरकोट की वजह से कवि की बजाय सिनेमा के टिकटों का ब्लैकिया जान पड़ता था जब तक कि वह मुस्कुराता नहीं था। उसकी इनोसेण्ट, उजली मुस्कान ही थी जो उसे ऐसा लगने से बचा लेती थी और चूँकि वह कसरत से मुस्कराता था, इसलिए वह निरन्तर बचा भी रहता था। तुर्रा यह कि वह जिस-तिस को पकड़ कर छूटते ही सवाल करता - क्रान्ति के बारे में आपका क्या ख़याल है ? इसके पीछे हो सकता है यह कारण रहा हो कि एक तो वह तेलंगाना आन्दोलन की ख्याति वाले आन्ध्र प्रदेश से आया था; दूसरे, नक्सलबाड़ी के विप्लव की ख़बर तब तक आन्ध्र के कुछ हिस्सों में फैल चुकी थी; और तीसरे यह कि नये मुल्ले और प्याज़ वाला हाल रहा होगा।

(तब तक हमें यह नहीं पता था, और युवा लेखक सम्मेलन के एक इतिहासकार, वाचस्पति उपाध्याय को भी यकीनन नहीं मालूम रहा होगा, कि वेणुगोपाल उर्फ़ नन्दकिशोर शर्मा आन्ध्राइट नहीं, मूलतः राजस्थान का रहने वाला है, जो अपने परिवार का पुश्तैनी पुरोहिताई का धन्धा और मन्दिर वग़ैरा छोड़ कर क्रान्ति को समर्पित हो गया है और यही उसके अतिरिक्त उत्साह का कारण है। क्रान्ति की यही लौ वेणु को आगे मथुरा ले गयी, जहाँ सव्यसाची रहते थे, फिर बरास्ता दिल्ली, भोपाल और विदिशा, जहाँ उसे राजेश जोशी जैसा मित्र और विजय बहादुर सिंह जैसे गुरु मिले। हैदराबाद में वह एक अदद पत्नी उसी पुश्तैनी घर और मन्दिर में छोड़ गया था। मैं जब 1975 में विदिशा गया तो वेणु वहाँ ऐसे रमा हुआ था, मानो उसका जन्म ही उदयगिरि के वन-प्रान्तर में हुआ हो। लेकिन एकाकी जीवन जब ऋषियों को रास नहीं आया तो वेणु को कैसे आता जो कवि था। लिहाज़ा वेणु ने भोपाल में नाटक वग़ैरह में हिस्सा लेते हुए वीरा से शादी कर ली, कुछ दिन तरह-तरह के पापड़ बेले और फिर वह हैदराबाद लौट गया जहाँ वह एक अलग मकान में वीरा और अपनी प्यारी-सी बेटी के साथ रहने लगा। उसकी पहली पत्नी उसके पुश्तैनी मकान और मन्दिर में थी ही, वेणु ने वहाँ भी आना-जाना नहीं छोड़ा और यों एक क्रान्तिकारी की-सी निष्ठा से उसने दीन और दुनिया को साधे रखा है।)

इन अनोखेलालों के अलावा कुछ संजीदा किस्म के लोग भी थे, मसलन, नन्द चतुर्वेदी, नवल किशोर, विजेन्द्र, चन्द्रकान्त देवताले और हरिशंकर अग्रवाल, आदि, जिनकी बदकिस्मती थी (जैसा कि आगे साबित हुआ) कि वे क्रान्तिकारियों और हुड़दंगियों के बीच फंसे हुए थे और जब क्रान्ति का ज्वार और हुड़दंग की हिलोर अपने-अपने चरम पर पहुँच कर एक होने को हुईं तो ऐसे लेखकों के लिए इसके सिवा और कोई चारा न रहा कि वे युवा लेखकों को उनके हाल पर छोड़ कर सम्राट अशोक की राजधानी के सैर-सपाटे को निकल जायें और वर्तमान और भविष्य की माथा-पच्ची करने की बजाय अतीत में त्राण खोजें। मगर यह तो आगे की बात है।

जैसा मैंने कहा, हम लोग दोपहर के वक्त पटना पहुँचे थे और जाते ही साथ हम लोगों ने अपना सामान वग़ैरह जमा लिया था। जहाँ तक याद पड़ता है, दिल्ली, इलाहाबाद और बनारस से आने वाले लोग लगभग साथ-ही-साथ लाजपत राय भवन पहुँचे थे और ऊपर की मंज़िल में अपने-अपने हिसाब से फैल गये थे। बाकी लोग, जो अन्य जगहों से आये थे, मिसाल के लिए राजस्थान या मध्यप्रदेश से या फिर जो अन्य गाड़ियों से आये, वे धीरे-धीरे लाजपत राय भवन आ रहे थे और टिकते जा रहे थे। सम्मेलन 27-28 दिसम्बर - 2 दिन का था। हम लोग 26 की दोपहर ही पहुँच गये थे। लिहाज़ा गहमा-गहमी का माहौल धीरे-धीरे परवान चढ़ रहा था। एक हल्की-सी याद इस बात की भी है कि जहाँ सम्मेलन होना था, वहाँ पहुँचने पर एक गोरे-चिकने, चमकीली आँखों पर चश्मा चढ़ाये, पतले-दुबले युवक ने बड़े तपाक से हमारा स्वागत किया था और यह बताया था कि वह ज्ञानेन्द्रपति है। पहली नज़र में ऐनक के पीछे से चमकती हुई अपनी आँखों की वजह से वह मुझे ऐल्फ्रेड हिचकॉक की प्रसिद्ध फ़िल्म ’साइको’ के नायक एन्थनी परकिन्स की तरह लगा था। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी चतुराई-भरी मुस्कान और आँखों में एक ’शिफ़्टी’ भाव था, जो आज तक मौजूद है। प्रकट ही इलाहाबाद और दिल्ली से आने वाले ’दिग्गजों’ की नज़र में उस समय ज्ञानेन्द्रपति कोई ऐसी ऊँची चीज़ नहीं थी। उसका यों सोडे की बोतल से निकलती हुई झाग की तरह उफन कर मिलना भी बहुत-से लोगों को अपनी ओर खींचने की बजाय विकर्षित ही कर गया था। लेकिन उस समय इतने सारे लोग इतनी जगहों से एक जगह आ इकट्ठे हुए थे कि अमूमन लोगों की दिलचस्पी एक-दूसरे से मिलने-मिलाने और पुरानी दोस्तियों को ताज़ा करने या फिर नये परिचय बनाने की तरफ़ थी, सो ज्ञानेन्द्रपति आया और फिर उड़ते हुए पत्ते की तरह किसी और दिशा में कुछ और आगन्तुकों का स्वागत करने बढ़ गया, किसी ने उस पर बहुत ध्यान नहीं दिया।

सामान वग़ैरह रख कर मैं दूधनाथ के साथ ऊपर बने कमरों के इर्द-गिर्द घूमते बरामदे की रेलिंग के सहारे खड़ा था कि नीचे एक रिक्शा आ कर रुका। रिक्शे से उतरने वाले व्यक्ति का चेहरा नज़र नहीं आ रहा था, लेकिन पतली-छरहरी काया और घुँघराले बालों वाले सिर को देख कर दूधनाथ ने कहा देखो रमेश (बक्षी) आ गया है, और ज़ोर-से आवाज़ दी - ’अबे साले, आ गया।’ दूसरे ही पल जब उस व्यक्ति ने सिर ऊपर किया और हमने देखा कि रमेश नहीं, वे तो नन्द चतुर्वेदी थे, तो एक अजीब-सी स्थिति पैदा हो गयी थी। दूधनाथ ने फ़ौरन अफ़सोस ज़ाहिर किया था और माफ़ी भी माँगी। नन्द जी युवा लेखकों की इन हरकतों के अभ्यस्त थे और उन्होंने बुरा नहीं माना था। इस छोटे-से प्रसंग को एक तरह से उस पूरे सम्मेलन की टोन का प्रतीक माना जा सकता है।
(जारी)






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