Tuesday, February 22, 2011

देशान्तर


नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अट्ठारहवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - १८


अधूरी लड़ाइयों के पार- ११


इतने वर्ष बाद 1970 के युवा लेखक सम्मेलन और उसके हुड़दंग को याद करते हुए, मुझे बेसाख़्ता वाचस्पति उपाध्याय की उस टिप्पणी की याद हो आयी जो उसने पटना से लौट कर सम्मेलन का जायज़ा लेते हुए लिखी थी --

’दिल्ली डूब रही है! बचाओ! इलाहाबाद गया! बचाओ! बचाओ!! हावड़ा किधर है ? हापुड़ ? कऽ रज्जा बनारस! और केरल से आये इब्राहिम शरीफ़, उड़ीसा से आये प्रभात कुमार त्रिपाठी, आन्ध्र प्रदेश से आये वेणु गोपाल और मध्य प्रदेश से आये हरिशंकर अग्रवाल-जैसे अकेले पड़ गये अनेकों रचनाकार हैरत में थे! ऊँचे मंच पर बिछे नर्म कालीन पर खड़े हो कर मेरे समकालीन लेखक बड़ी गर्मजोशी से चौराहे पर खड़े आम आदमी का दर्द, कविता-कहानी-आलोचना पर बहस करते हुए, संसदीय भाषण-प्रणाली से नापते रहे। भाषणों, विरोधी भाषणों और बहिर्गमन का संसदीय नाटक ख़ूब चलता रहा। लेखकों की आपसी बातचीत का अन्दाज़ गोष्ठियों की परिचर्चा में कहीं नहीं मिला।...... (रात के सोने के वक़्त) ’अज्ञातकुलशीलवाला’ बड़ा लेखक-समूह बग़ल के कमरे में किन्हीं शान्ति सुमन का कवितानुमा गायन सुनता रहा। जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन और रमेश गौड़ आदि राजधानी के लेखक कुमार विकल के नेतृत्व में ’सारियाँ बीवियाँ आईंया, हरनाम कौर ना आईं’ कोरस बीच-बीच में मोना गुलाटी तथा अन्य अनेक अनुपस्थित लेखिकाओं के नाम डाल कर गाते रहे। इस पियक्कड़ जमात से टक्कर लेती हुई दूसरी टोली ज़्यादातर इलाहाबाद के लेखकों की थी जिसने अपने पूरे नशे में ’बम भोलेनाथ, बम भोलेनाथ’ की समवेत धुन में माँ-बहन की गालियों का तालियों के ठेके के साथ भरपूर इस्तेमाल किया। लेखक-सम्मेलन के आयोजक तो उतने नहीं, पर कार्यकर्ता इस सबको बहुत ही चकित-व्यथित हो कर देखते रहे। और अलग एक कमरे में पड़े राजस्थान से आये नन्द चतुर्वेदी, विजेन्द्र और नवलकिशोर आदि पटना में दिन भर के सैर-सपाटे के बाद मुश्किल से रात-भर के लिए आयी हुई ग़फ़लत की नींद में बाधा होने से अन्यमनस्क होते रहे।’

मैंने ’सिर्फ़’ का वह अंक निकाल कर उस टिप्पणी को फिर से पढ़ा और देर तक मन-ही-मन हँसता रहा कि कैसा अराजक ज़माना था। वैसी अराजकता सार्वजनिक और सामूहिक रूप से न तो पहले कभी देखी गयी थी, न बाद में कभी नज़र आयी।
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इन अराजक घटनाओं के अलावा एक और घटना मुझे याद आती है। दिन का कोई वक़्त था या शाम का, एक कमरे में धूमिल, वीरेन, रमेन्द्र, अजय सिंह, मैं और कुछ और लोग बैठे हुए हैं। अचानक चर्चा मधुकर सिंह की होने लगती है।

(क्षेपक के तौर पर यहाँ एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। घटना मेरी देखी नहीं, सुनी हुई है, इसलिए कितनी सच्ची है, इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, लेकिन चूँकि उसका कई बार उल्लेख होने पर किसी ने खण्डन नहीं किया, इसलिए सही ही जान पड़ती है। जहाँ तक मुझे याद है, यह घटना दूधनाथ ने सुनायी थी। क़िस्सा कुछ यूँ है कि मधुकर सिंह काशीनाथ सिंह के यहाँ दो-चार बार गये होंगे और वहाँ उन्होंने शायद खाना भी खाया होगा। काशी को तो मालूम था कि मधुकर सिंह कोइरी हैं, लेकिन घरवालों को शायद मधुकर के आगे लगे ’सिंह’ से यही अन्दाज़ा हुआ होगा कि वे भी क्षत्रिय हैं। काशीनाथ सिंह की माता जी मधुकर सिंह को ’मधुरी सिंह’ कहती थीं। एक बार काशी ने भण्डा फोड़ दिया तो उनकी माता जी ने मधुकर सिंह से कहा कि वे अपने बर्तन ख़ुद माँज कर रखें। घटना बहुत मामूली है, लेकिन इलाहाबाद में रहने वाले हम नौजवान लोगों को जिन्हें उत्तर प्रदेश के गाँवों के जातिवाद का प्रथम दृष्टया अनुभव नहीं था, यह घटना बड़ी अजीब लगी थी। मेरा अपना ख़याल है कि अगर ऐसा घटित हुआ भी था तो उस हालत में काशीनाथ को मधुकर सिंह की थाली-कटोरी ख़ुद माँज देनी चाहिए थी और अपने अतिथि को अस्वस्ति और अनपेक्षित अपमान की पीड़ा से बचाना चाहिए था।)

बहरहाल, यह घटना कितनी सच्ची है और किस रूप में घटी, इसके बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, लेकिन इसी के बाद यह भी पता चला कि ’दिनमान’ के बहुत ही प्रतिभाशाली पत्रकार रामधनी, जो दलित थे, एक बार जब धूमिल के घर गये तो उनके जाने के बाद धूमिल ने उस पटिया को पानी से धुलवा दिया था जिस पर रामधनी बैठे थे। यह घटना भी हमें मधुकर सिंह वाली घटना के सन्दर्भ में ही बतायी गयी थी और इससे हमें कोई कम आघात नहीं पहुँचा था। इसलिए जब उस कमरे में मधुकर सिंह वाली चर्चा हुई तो किसी ने रामधनी वाली घटना का भी ज़िक्र किया। धूमिल ने इस घटना की तसदीक की और ठठा कर हँसा। तब वीरेन ने बहुत ही गम्भीर लहजे में मानो धूमिल को फटकारते हुए कहा, ’यह कोई हँसने की बात नहीं है।’ ज़ाहिर है इसके बाद एक बड़ा अप्रिय सन्नाटा छा गया था और महफ़िल भंग हो गयी थी।
(जारी)

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