Tuesday, September 2, 2014

हिचकी

हिचकी

इरफ़ान और आर.चेतन क्रान्ति के लिए
वही ख़ू है तुम्हारी भी रगों में और मेरी भी’

एक

वह महीने का आख़िरी शनिवार था, जब नन्दू जी को अचानक हिचकियाँ आना शुरू हुईं। 
नन्दू जी हस्बमामूल दफ़्तर से फ़ारिग़ होने के बाद शाम के सात बजे के क़रीब, हाल ही में ख़रीदे अपने बजाज स्कूटर पर घर पहुँचे थे। यह घर दो छोटे-छोटे कमरों का एक ऐसा फ़्लैट था, जो दिल्ली के यमुना पार के इलाक़े की लगभग हर मध्यवर्गीय बस्ती में ग्यारह महीने की लीज़ और आदमी से एक दर्जा नीचे रहने की शर्त स्वीकार करने पर मिल जाता है। नन्दू जी दो-तीन महीने पहले ही इस फ़्लैट में आये थे, जब उन्हें अपनी दूसरी नौकरी में पहली तरक़्क़ी  मिली थी। फ़्लैट तीसरी मंज़िल पर था। दूसरी मंज़िल पर तीन कमरों वाले बड़े फ़्लैट में वर्मा जी रहते थे, जो स्टेट बैंक में चीफ़ अकाउण्टेण्ट थे, और नीचे के सारे हिस्से में मकान मालिक श्री सूरजप्रकाश बंसल अपने परिवार सहित डटे हुए थे।
इस फ़्लैट में आने से पहले नन्दू जी दिल्ली-ग़ाज़ियाबाद बॉर्डर पर चतुर्थ श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों के लिए बनायी गयी एक कॉलोनी, कुसुम विहार में रहते थे। यह उन दिनों की बात है, जब वे एक दैनिक समाचार-पत्र के सम्पादकीय विभाग में काम करते हुए, दिल्ली नामक इस विराट शरणार्थी शिविर में किसी तरह पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे। 
चूँकि यह समाचार-पत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकलने के बावजूद नन्दू जी ही की तरह दिनों-दिन तरक़्क़ी की मंज़िलें तय कर रहा था, इसलिए नन्दू जी को वे सारी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं, जो पुराने पूँजीपति घरानों से निकलने वाले अख़बारों के पत्रकारों को उपलब्ध होती हैं। लिहाज़ा अख़बार और नन्दू जी, दोनों ही का कशमकश से सीधा सामना था। अख़बार के मालिक सहज वणिक बुद्धि से इस मुहिम में जुटे थे, जबकि नन्दू जी तीसरी धारा की वामपन्थी पार्टी से प्राप्त ज्ञान और अनुभवों से काम लेते हुए इस कशमकश को वर्ग-संघर्ष का अनिवार्य परिणाम मान कर मन को समझा लिया करते थे।
मगर जैसे ही नन्दू जी को एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान के सम्पादकीय विभाग में नौकरी मिली थी और पत्रकारों की ऊबाऊ और काइयाँ बिरादरी की बजाय उनका सम्पर्क लेखकों-कलाकारों की चकाचौंध-भरी आकर्षक दुनिया से हुआ था, उन्हें दिल्ली-ग़ाज़ियाबाद बॉर्डर पर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की कॉलोनी वाला फ़्लैट आउटर मंगोलिया के किसी दूरस्थ और दुर्गम गाँव की चौकी जैसा जान पड़ने लगा था। 
हालाँकि अख़बार की नौकरी के दौरान भी नन्दू जी का ज़्यादातर वक़्त प्रूफ़ पढ़ने और अनुवाद करने या सुधारने में ही गुज़रता था, मगर इस प्रकाशन संस्थान में आने के बाद वे ख़ुद को तसल्ली दे सकते थे कि वे जिन पुस्तकों के प्रूफ़ पढ़ रहे हैं, अनुवाद सुधार रहे हैं या फिर छपाई वग़ैरह की देख-भाल कर रहे हैं, वे अख़बार की तरह अगले ही दिन किसी रद्दी वाले कबाड़ी या लिफ़ाफ़े बनाने वाले के हाथ लगने की बजाय देश के किसी प्रतिष्ठित पुस्तकालय की शोभा बढ़ायेंगी। 
हाल ही में दिल्ली के इस जाने-माने प्रकाशन संस्थान ने बदलते हुए समय का साथ निभाने की ख़ातिर बरसों से चले आ रहे पुराने और आज़माये हुए ढर्रे में कुछ बुनियादी परिवर्तन किये थे। सबसे पहले तो अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं की चर्चित कृतियों से हिन्दी के पाठकों को परिचित कराने का महत कार्य शुरू किया था और अंग्रेज़ी की अनेक बेस्ट-सेलर किताबों के सिलसिले में अनुबन्ध कर डाले थे। 
प्रकाशन के कार्यालय में अब भगवतीचरण वर्मा, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, मोहन राकेश और फणीश्वरनाथ रेणु की जगह अचानक शोभा डे, विक्रम सेठ, सलमान रुश्दी, सुधीर कक्कड़, स्टीफ़न हॉकिंग और ख़ुशवन्त सिंह के नाम सुनायी देने लगे थे। अक्सर प्रकाशन संस्थान के मैनेजिंग डायरेक्टर के कक्ष में प्रतिष्ठित अथवा उदीयमान लेखकों की जगह ऐसे लेखकों का जमावड़ा दिखाई देने लगा जो लेखन में पर्याप्त हाथ-पैर मारने के बाद अब अपनी प्रतिभा अपने अनुवादों के सहारे मनवाने की जुगत में थे। 
प्रकाशन संस्थान वैसे तो एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी था और प्राइवेट  लिमिटेड कम्पनियों के तर्क से कई मालिकों को आते-जाते देख चुका था। लेकिन अब उसकी बागडोर एक ऐसे अपेक्षाकृत युवा व्यापारी के हाथ में थी, जिसने व्यापार के पाठ नेहरू-युगीन मिश्रित अर्थ-व्यवस्था में नहीं, बल्कि उनके सुयोग्य नाती द्वारा प्रचारित आर्थिक उदारीकरण और मुक्त व्यापार के युग में पढ़े थे। नतीजे के तौर पर जब इस प्रकाशन संस्थान के पुराने मालिकों ने, जो उसके प्रेस और भव्य शो-रूम की पगड़ी बड़े इत्मीनान से पहले ही डकार चुके थे, हवा के बदलते रुख़ को भांप कर समय रहते अवकाश ग्रहण करने की सोची थी तो हरीश अग्रवाल ने - कि यही नये मैनेजिंग डायरेक्टर का नाम था - ज़्यादातर शेयर अपने और अपने परिवार के विभिन्न सदस्यों के नाम ख़रीद कर उसे फिर से एक इजारेदारी में तब्दील कर दिया था। 
अपनी पुश्तैनी व्यापाराना सूझ-बूझ के चलते हरीश अग्रवाल जानता था कि इजारेदारी ही उदारीकरण और मुक्त व्यापार का आधार है, और उसका अनिवार्य लक्ष्य भी। इसलिए उसने अंग्रेज़ी के चालू चर्चित साहित्य के बढ़ते हुए वर्चस्व के साथ-साथ राजनीतिक व्यक्तित्वों की महत्वाकांक्षाओं को भी पहचाना था, जो बदलती फ़िज़ा में अपनी राजनीतिक जोड़-तोड़ के दौरान व्यक्त किये गये सूत्रों और आप्त-वाक्यों को गाँधी-नेहरू-लोहिया वांग्मय की क़तार में शामिल कराने के इच्छुक थे। 
नेताओं की इस इच्छा को पूरा करने और सरकारी ख़रीदों में अपनी पुस्तकों को शामिल कराने के परस्पर उपयोगी उद्देश्य से हरीश अग्रवाल ने एक तेज़-तर्रार पत्रकार, हेरम्ब त्रिपाठी, की सेवाएँ प्राप्त की थीं, जो बढ़ते हुए गंजेपन और वज़न की वजह से अब वरिष्ठों की कोटि में आने-आने को था। 
युवावस्था में, इस दौर के अनेक युवकों की तरह, इस पत्रकार ने भी क्रान्ति के सपने देखे थे और हथियारबन्द क्रान्ति का एक चर्चित लेखा-जोखा भी प्रस्तुत किया था, मगर वास्तविकता को पहचान कर उसने जल्द ही स्वप्न-मुक्त हो, एक परिचित मुख्यमन्त्री से भारी अनुदान लेने के बाद एक राजनीति प्रधान मासिक पत्रिका निकाली थी। पत्रिका तो कुछ ही महीने चली, पर अपनी विफलता की एवज़ में पत्रकार को एक मकान और मारुति कार अलबत्ता उपलब्ध करा गयी। 
पत्रकार का काम अब पुराने क्रान्तिकारी साथियों को बुरा-भला कहने और नये सम्पर्क सूत्र साधने तक सीमित था। चूँकि अब वह सारे पुराने सपनों को तिलांजलि दे चुका था, लिहाज़ा उसके लिए राजनीति एक ऐसा शयन-कक्ष थी, जहाँ किसी भी विचार या दल के नेता के साथ हमबिस्तरी की जा सकती थी। बशर्ते कि इसकी वाजिब क़ीमत मिलती रहे। 
हरीश अग्रवाल की ज़रूरत और नेताओं की हसरत को पहचान कर पत्रकार ने पुस्तकों की एक श्रृंखला का ख़ाका बनाया था जिसमें एक-एक पुस्तक एक-एक नेता के व्यक्तित्व पर केन्द्रित होने वाली थी। देखते-ही-देखते प्रकाशन संस्थान की डाक में आने वाले ऐसे लिफ़ाफ़ों की तादाद बेतहाशा बढ़ गयी जिन पर राज्य सभा या लोकसभा के तीन शेरों वाले चिन्ह अंकित होते या प्रान्तीय सरकारों के राज चिन्ह।
हवा के बदलते रुख़ को प्रकाशन संस्थान के मालिक ही ने नहीं पहचाना था। कुछ पुराने साहित्य-सेवी भी थे, जो जैसी बहे बयार पीठ तब तासी दीजे की उक्ति के अनुभवजनित सत्य को पहचानते थे। इनमें से कुछ को  - जो पुराने मालिकों के भी ख़ैर-ख़्वाह रहे थे - हरीश अग्रवाल ने विरासत में प्राप्त किया था और उनकी प्रयोग-सिद्ध उपयोगिता को पहचान कर उनके अनुभवों से फ़ायदा उठाने का फ़ैसला किया था। 
इन्हीं पुराने हितचिन्तकों में एक, जो बहुत-से विश्वविद्यालयों को एक-एक करके सुशोभित करते हुए अन्ततः राजधानी के एक अति-प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान में आ टिके थे, लम्बे अर्से से प्रकाशन संस्थान के सलाहकार बने हुए थे और किसी राजनीतिज्ञ की-सी चतुराई से अपने साम्राज्य का विकास और विस्तार करने के लिए प्रकाशन संस्थान का उपयोग करते आ रहे थे। 
चूँकि वे अवकाश ग्रहण करने के बाद भी अनेक केन्द्रीय और प्रान्तीय पाठ्य-क्रम और पुरस्कार समितियों में कहीं सदस्य, कहीं संयोजक और कहीं अध्यक्ष की हैसियत से मौजूद थे, इसलिए हरीश अग्रवाल ने उन्हें उसी प्रकार सिर-आँखों पर लिया था, जैसे धनी-धोरियों की नयी पीढ़ी पुश्तैनी हवेली को, उसकी ‘एथनिक’ साज-सज्जा में आधुनिक साधनों का समावेश करके बनाये रखती है। 
आचार्य प्रवर भी, अपनी देसी धज के बावजूद, देशी-विदेशी पुराने और आधुनिक साहित्य से परिचित थे, अपूर्व वक्ता थे और ‘तन्त्री नाद कबित्त रस सरस राग रति रंग’ के अपने पाठ में ‘सरस’ का अभिप्राय ‘सुरा’ से लगाते हुए सायंकालीन रस-रंजन गोष्ठियों को अपनी उपस्थिति और वक्तृता से धन्य करते रहते थे। एक ओर वे पाठ्य-क्रमों में पुस्तकें स्वीकृत कराने की दृष्टि से उपयोगी थे, दूसरी ओर पुरस्कारों के माध्यम से प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित कृतियों को प्रतिष्ठा दिलाने की दृष्टि से और तीसरी ओर पारम्परिक और आधुनिक ख़ेमों को एक ही समय में साधे रखने के लिए।
ज़ाहिर है, इन बहुरंगी, बहुविध हलचलों का साथ देने के लिए प्रकाशन संस्थान को अपनी समूची कार्य-शैली बदलनी पड़ी थी। चूँकि प्रकाशन संस्थान के पुराने मालिक भव्य नये शो रूम की पगड़ी को बेच कर उसकी ‘अतिरिक्त आय’ पहले ही ख़ुर्द-बुर्द कर चुके थे, इसलिए हरीश अग्रवाल के हाथ प्रतिष्ठा और पुस्तकों के स्टॉक से अलावा प्रकाशन संस्थान का पुराना कार्यालय ही लगा था, जो उसी बिल्डिंग के पिछवाड़े की तंग गली में पहली मंज़िल के चार छोटे-छोटे कमरों में बेतरतीबी से फैला हुआ था। गली में मोटरों की मरम्मत और रँगाई के बहुत-से मिस्त्रियों की दुकानें थीं। हर वक़्त गली में स्प्रे पेंट और स्पिरिट की तेज़ महक बसी रहती और हवा में मिस्त्रियों की ठेठ गालियाँ। 
गली का तो ख़ैर हरीश अग्रवाल कुछ नहीं कर सकता था, मगर कार्यालय को उसने आधुनिक ढंग से सुसज्जित करके छोटे-छोटे कैबिन बनवा दिये थे। कार्यालय के अन्दर बीड़ी-सिगरेट पीना बन्द करवा दिया था। दिन में दो बार चाय की व्यवस्था करा दी थी ताकि कर्मचारी चाय के बहाने मटरगश्ती करने से बाज़ आयें। अपने कैबिन में उसने आदमक़द काँच का दरवाज़ा और काँच ही के पैनल लगवाये थे कि वह कर्मचारियों पर नज़र रख सके। हालाँकि कार्यालय ऐसा था कि एक कमरे में कही गयी बात बख़ूबी दूसरे कमरे में सुनायी देती थी, तो भी उसने इण्टरकॉम की व्यवस्था करके एक रिसेप्शनिस्ट बैठा दी थी, जो सीढि़याँ चढ़ कर ऊपर आते व्यक्ति को दहलीज़ ही से नज़र आती।
कार्य-शैली का यह परिवर्तन नयी पुस्तकों के प्रचार-प्रसार में सबसे पहले लक्षित हुआ। छोटे-छोटे सभागारों और साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं के भवनों में पुस्तकों के विमोचन की पुरानी परम्परा को त्याग कर प्रकाशन संस्थान ने राजधानी के कुछ हाई-फ़ाई  सांस्कृतिक क्लबों में भव्य और दिव्य ‘लोकार्पण समारोहों’ की लीक पकड़ ली थी, जहाँ लोकार्पण के बाद आयोजित चाय-पान में चाय को छोड़ कर भाँति-भाँति के पेय-पदार्थ पेश किये जाते। 
इसी के साथ प्रकाशन संस्थान के मालिक ने यह भी बख़ूबी समझ लिया था कि मौजूदा दौर में आवरण ही अन्तर्वस्तु है। लिहाज़ा प्रकाशन संस्थान में एक नया विभाग बनाया गया, जो पुस्तकों के कलेवर को हर तरह से नये युग के अनुरूप बनाने में पूरी एकाग्रता से जुट सके। तीन-चार नये कम्प्यूटर लगाये गये, पुस्तकों के कवर डिज़ाइनों को आकर्षक बनाने के लिए उन्हें इसी विभाग के सुपुर्द कर दिया गया। एक कुशल बेरोज़गार युवा-कवि को, जो कुछ दिनों तक पत्रकारिता की ख़ाक छानने और उसके ताल-तिकड़म से मेल न बैठा पाने के कारण बेकार था, पाण्डुलिपियाँ सँवारने, प्रूफ़ पढ़ने और छपाई का काम-काज सँभालने के लिए रख लिया गया। 
कुछ ही महीनों में इस युवक की ख़ामियाँ हरीश अग्रवाल के सामने उजागर हो गयीं। वह काम तो पूरी निष्ठा से और कुशलतापूर्वक करता था, लेकिन उसका ढर्रा अब भी उन्हीं आदर्शवादी युवकों का-सा था, जो नयी उम्र में भारी तादाद में वामपन्थी पार्टियों की तरफ़ आकृष्ट होते हैं और फिर ज़िन्दगी के थपेड़े झेलते हुए किसी-न-किसी हीले से जा लगते हैं। के.विक्रम स्वामी किसी हीले से तो क्या जा लगता, यह नौकरी भी उसे अपने मित्रों के आग्रह पर स्वीकार करनी पड़ी थी, जो देख रहे थे कि पत्रकारिता के तिलिस्म को भेद पाने की विफलता उसे ज़रूरत से ज़्यादा तीखा और तल्ख़ बनाये दे रही थी। 
यह कड़वाहट तो नौकरी के बाद कुछ मन्द हो चली थी, लेकिन पाण्डुलिपियों की प्रेस-कॉपी तैयार करने या उनके प्रूफ़ पढ़ने के दौरान जब स्वामी का साबक़ा दिल्ली घराने के लेखकों से पड़ता तो यह कड़वाहट कभी-कभी उभर आती और लेखकों ही को नहीं, हरीश अग्रवाल को भी अस्वस्ति से भर जाती, जो कड़वे-से-कड़वे सच को गोल-मोल लफ़्ज़ों के शीरे में लपेट कर परोसने का हामी था। 
फिर, स्वामी के पास अक्सर उसके पुराने कॉमरेड आते रहते और वह कुछ देर के लिए गली में बाहर निकल कर उनके साथ चाय पीते हुए बीड़ी के कश लगाया करता, क्योंकि कार्यालय में तो किसी भी प्रकार के धूम्रपान की सख़्त मनाही थी। एक दिन हरीश ने उसे बीड़ी फूंकते देख लिया था और उसे एक झटका-सा लगा था कि कहीं उसने आदमी चुनने में भूल तो नहीं कर दी। लेकिन स्वामी अपने काम में इतना माहिर था और ढब के लोग इतनी मुश्किल से मिलते थे कि हरीश अग्रवाल ने धीरज से काम लेते हुए फ़ैसला किया था कि देर-सबेर वह एक ‘क़ायदे का आदमी’ इस विभाग में ला बिठायेगा। 
‘क़ायदे का आदमी’ से उसका मतलब ऐसे आदमी से था, जो पुस्तकों की छपाई वग़ैरह भी करा सके और उनके प्रचार-प्रसार अभियान में भी उसकी सहायता कर सके और सबसे बड़ी बात - प्राचीन भृत्यों की तरह हर प्रकार से और पूरी तरह अनुगत हो । नन्दू जी की नियुक्ति इसी विभाग में हुई थी और हालाँकि वे स्वामी से साल भर बाद इस प्रकाशन संस्थान में आये थे और पार्टी के मुखपत्र में स्वामी के बराबर के सहयोगी रहे थे, तो भी उन्हें स्वामी से ढाई गुना ज़्यादा तन्ख़्वाह पर लाया गया था। कारण बिलकुल सीधा था। स्वामी पार्टी के मुखपत्र से अलग होने के बाद कहीं फ़िट नहीं हो पाया था, जबकि नन्दू जी के साथ दैनिक समाचार-पत्र का  तजरुबा, घिसाई और ग्लैमर जुड़ा हुआ था। 
नन्दू जी ने जल्द ही इस नये माहौल में ख़ुद को ढाल लिया था और इस नाते कुछ तो अपने काम के तक़ाज़े से और इस से अधिक साहित्य-संस्कृति के चकाचौंध-भरे जगत में प्रवेश करने की ललक के चलते वे बीच-बीच में प्रकाशन संस्थान द्वारा आयोजित भव्य और दिव्य पार्टियों में जाने लगे थे और लेखकों-कलाकारों का सान्निध्य प्राप्त करने लगे थे। अभी उन्होंने ‘रसरंजन’ की दहलीज़ तो नहीं पार की थी, पर वे उसके काफ़ी क़रीब आ चुके थे। 
प्रकट ही, उन्हें यह बताते हुए बड़ी शर्मिन्दगी महसूस होती कि वे कहाँ रहते थे। इसीलिए जब एक पार्टी में सगुन राजगढि़या ने, जो एक जाने-माने कथाकार की तीस बरस छोटी, दूसरी पत्नी थीं और ख़ुद भी कविताएँ लिखती थीं, रम की चुस्की ले कर, अपनी बड़ी-बड़ी काजल-डली आँखें नचाते हुए हरीश अग्रवाल से कहा था - ‘हरीश जी, नन्दू को कहीं नज़दीक ही घर दिलवाइए न, ताकि कभी अगर इनसे कुछ डिस्कस करने का मन हो तो हम इनके घर भी जा सकें’ - तो नन्दू जी ने फ़ैसला कर लिया था कि वे अपने नाम के नीचे दक्षिण दिल्ली का कोई क़ाबिले-ज़िक्र पता दर्ज करवा के ही रहेंगे। 
लेकिन दिल्ली के भौगोलिक अर्थशास्त्र के हिसाब से कुसुम विहार अगर आउटर मंगोलिया का दूरस्थ और दुर्गम गाँव था तो दक्षिण दिल्ली का इलाक़ा न्यूयॉर्क के मैनहैटन आइलैण्ड का स्वप्नलोक। इसलिए फ़िलहाल इस अभियान के पहले चरण में नन्दू जी ने आई.टी.ओ. पुल की दहलीज़ की उस तरफ़, मगर प्रकाशन संस्थान और दक्षिण दिल्ली, दोनों के निस्बतन क़रीब आ जाने पर ही सन्तोष कर लिया था। दौड़-धूप करके और प्रकाशन संस्थान के अपने नये सहयोगियों की मदद से उन्होंने जमुना नदी के ठीक उस पार लक्ष्मी नगर के इलाक़े में इस फ़्लैट को खोज निकाला था और अपनी पिछली ज़िन्दगी को मानो पिछले अक़ीदों की तरह एकबारगी ख़ैरबाद कहते हुए इस फ़्लैट में उठ आये थे। 

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