Monday, September 8, 2014

हिचकी

किस्त - 7


सात

नन्दू जी के आने से पहले इस प्रकाशन संस्थान के कवर डिज़ाइन दिल्ली के तीन चित्रकार बनाया करते थे। तीनों मूलतः कलाकार थे और चूँकि तब तक कला जगत में वह क्रान्ति नहीं हुई थी, जो बड़े उद्योगपतियों ने अपने अनायास फूट पड़ने वाले कला-प्रेम से पैदा कर दी है, चित्रकारों को अपनी कला-साधना जारी रखने के लिए पुस्तकों के आवरण चित्र भी बनाने पड़ते थे। लेकिन बड़े पूँजीपतियों और औद्योगिक संस्थानों द्वारा कला-जगत में बहायी जा रही गंगा पिछले दो-तीन वर्षों में दूसरी और तीसरी क़तार के चित्रकारों को भी पुण्य-लाभ कराने लगी थी। 
दिल्ली के वे तीनों चित्रकार, जो नियमित रूप से हरीश अग्रवाल के लिए काम करते थे, धीरे-धीरे कवर डिज़ाइन बनाना छोड़ चुके थे। अब बड़ी मुश्किल से, और पुराने सम्बन्धों का वास्ता दिला कर ही, यदा-कदा उन्हें किसी पुस्तक का आवरण चित्र बनाने के लिए राज़ी कर पाना सम्भव होता, और वह भी तब जब पुस्तक किसी ऐसे प्रतिष्ठित लेखक की हो जिसकी कृति के साथ जुड़ कर चित्रकार को भी चर्चा-प्रशंसा का लाभ मिल सके। 
नन्दू जी ने प्रकाशन संस्थान में आने के बाद बड़ी गम्भीरता से इस मसले पर विचार करना शुरू किया था। पुराने चित्रकारों से नाता तोड़ कर उन्हें रुष्ट करने का ख़तरा मोले बिना, नन्दू जी ने वैकल्पिक उपायों की खोज शुरू कर दी थी। उन्हीं दिनों उनका एक पुराना साथी, जो पार्टी समर्थित साप्ताहिक में उनके साथ काम किया करता था, अपनी पत्नी और नन्ही-सी बच्ची के साथ दिल्ली आ बसा था।
 
सैयद शमशाद अहमद, जो सिर्फ़ शमशाद  के नाम से जाना जाता था, पार्टी के छात्र-संगठन के दिनों से ही उनका साथी था। एम.ए. के पहले वर्ष की परीक्षा देने के बाद ही उसने शिक्षा-व्यवस्था को एक ढोंग बताते हुए पढ़ाई छोड़ दी थी, और उस समय, जब नन्दू जी अपने पारिवारिक पँडिताऊ संस्कारों के चलते एम.ए. की वैतरणी पार करने में जुटे हुए थे, शमशाद पटना जा कर पार्टी समर्थित साप्ताहिक से जुड़ गया था। 
छात्र संगठन की गतिविधियों में धरना-प्रदर्शन और जुलूस के अलावा पोस्टर बनाना और पर्चेबाज़ी करना भी एक अहमियत रखता था। शमशाद को इस सब में महारत हासिल थी और उसका मानना था कि वामपन्थी विचारों को लौकी और करेले के पथ्य की तरह परोसने की बजाय सुरुचिपूर्ण और आकर्षक ढंग से पेश करने की ज़रूरत है। जहाँ पार्टी के पुराने साथियों के लिए कम्प्यूटर और ऐसी ही नयी तकनीकें पूँजीवादी साज़िश का नतीजा थीं, वहीं शमशाद उन्हें मनुष्य जाति की उपलब्धियाँ मानता था। 
उसने जाते ही पार्टी समर्थित साप्ताहिक का रूप-रंग बदल दिया था। पुराने लेटर प्रेस को अलविदा कह कर उसने साप्ताहिक को ऑफ़सेट पर छपाना शुरू किया था। उसे साप्ताहिक की सामग्री से ले कर साज-सज्जा और आर्थिक पक्ष की भी चिन्ता रहती थी और वह न केवल पार्टी ऑफ़िस के एक कोने में अपने तमाम साज-सामान के साथ बिना शिकायत किये डेरा जमाये था, बल्कि प्रूफ़ पढ़ने से ले कर छपाई वग़ैरा की दौड़-भाग ख़ुद अपने सिर ले कर कम-से-कम में काम चलाने की हिकमतें आज़माता रहता था। 
नन्दू जी उससे कुछ घबराते भी थे, क्योंकि वह बहुत बार अचूक तार्किकता से नये विचारों को व्यक्त करते हुए सही बातों को अटपटे, लेकिन बेलौस ढंग से कह देता था। इसी बेलौसपन से काम लेते हुए उसने साप्ताहिक को आम पाठकों में लोकप्रिय बनाने की मुहिम भी छेड़ी थी और आवरण-कथा  के रूपमें ‘प्यार की नाशपाती’ शीर्षक से एक टिप्पणी हिन्दी फ़िल्मों पर लिखी थी। साप्ताहिक के आवरण पर आम तौर पर छपने वाले धरना-प्रदर्शन के चित्रों की जगह उसने बॉक्स ऑफ़िस पर उन्हीं दिनों हिट होने वाली एक फ़िल्म का चित्र छाप दिया था। 
पार्टी हलक़ों में तहलका मच गया था। पुराने कॉमरेड शमशाद को जिलावतन कर देने की गुहार लगाने लगे थे। लेकिन शमशाद ने बिना उत्तेजित हुए पार्टी की कार्यकारिणी को बताया था कि हिन्दी फ़िल्में हमारे समाज की समस्याओं का हल चाहे जैसा सुझायें, मगर इन समस्याओं को चिह्नित करने में औसत वामपन्थियों से कहीं आगे हैं; कि फ़िल्मों में इस भरपूर मात्रा में प्रेम और हिंसा की मौजूदगी हमारे समाज ही का अक्स है, जहाँ प्रेम ज़रूरत से कहीं कम और हिंसा ज़रूरत से कहीं ज़्यादा है। यही हिन्दी फ़िल्मों की लोकप्रियता का राज़ है और इसीलिए साप्ताहिक में फ़िल्म समीक्षा का एक नियमित कॉलम होना चाहिए, जिससे हम पाठकों की रुचि को सार्थक विचारों की तरफ़ मोड़ सकें। 
इस मुहिम में कामयाब होने के बाद शमशाद ने और भी कई प्रयोग किये थे - हाथ से बने नये साल के शुभकामना कार्डों पर हिन्दी के प्रतिबद्ध कवियों की पंक्तियाँ  छाप कर उन्हें वितरित करने से ले कर देशी-विदेशी संगीत को साथियों में लोकप्रिय बनाने तक। इतना ही नहीं, बल्कि जहाँ गाँव-देहात से आये साथी पार्टी की महिला कार्यकर्ताओं के साथ बात करने में हिचकिचाते, वहीं शमशाद इन महिला कार्यकर्ताओं को ‘अजूबा’ मानने की बजाय उनसे सहज दोस्ताना ढंग से पेश आता। 
नन्दू जी के दिल्ली चले आने के बाद भी शमशाद पार्टी समर्थित साप्ताहिक में डटा रहा था और उसे बन्द होने से रोकने के प्रयासों में साथियों का हाथ बँटाता रहा था। तभी उसने पार्टी के साथियों को विस्मित करते हुए एक साधारण सूरत-शक्ल की सीधी-सादी लड़की से शादी कर ली थी।
 
आख़िरकार, जब उनके यहाँ एक बच्ची भी हो गयी और साप्ताहिक को जारी रखना असम्भव हो गया तो शमशाद ने भी दिल्ली की राह ली थी। उन्हीं दिनों रेडियो पर एफ़¤ एम. प्रसारण शुरू हुआ था और टीवी पर डिस्कवरी और नैशनल जियोग्राफ़िक चैनलों ने दर्शकों को हिन्दी में प्रकृति और पर्यावरण सम्बन्धी जानकारी देनी शुरू की थी। शमशाद फ़्री लांस प्रसारक के रूपमें इन कार्यक्रमों के आलेख तैयार करने से ले कर आवाज़ देने तक कई तरह के पापड़ बेलता। 
आमदनी नियमित नहीं थी, इसलिए वह बीच-बीच में पुस्तकों के आवरण भी बना दिया करता। कुछ समय पहले उसने हिन्दी की एक मासिक कहानी पत्रिका के जो आवरण बनाये थे, वे आम पाठकों द्वारा सराहे भी गये थे। नन्दू जी को चित्रकार की खोज थी ही, सो वे भी शमशाद से कुछ पुस्तकों के आवरण चित्र बनवा लेते। हरिश्चन्द्र दत्त बड़थ्वाल पर केन्द्रित पुस्तक का आवरण भी शमशाद ही ने बनाया था।
आवरण में वैसे किसी कलाकारिता की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि यह पुस्तक बड़थ्वाल जी के व्यक्तित्व का स्वतन्त्र लेखा-जोखा होते हुए भी  श्रृंखला की एक कड़ी थी। श्रृंखला की पुस्तकों के कलेवर और साज-सज्जा में एकरूपता लाने के ख़याल से पृष्ठ संख्या भी एक-सी रखी गयी थी और आवरण भी पहले से तयशुदा शैली में बनवाये गये थे। हर पुस्तक में नेता और लेखक का नाम और नेता का चित्र भर बदल जाता। बाक़ी सब कुछ वैसा ही रहता। चित्र के इर्द-गिर्द की पट्टी जिसमें ऊपर की तरफ़ छोटे अक्षरों में श्रृंखला का नाम दिया हुआ था, हर पुस्तक में अलग रंग में दी जा रही थी ताकि इस एकरूपता में भी कुछ विविधता बनी रहे। 
रमा जी ने जब अपने पिता पर केन्द्रित पुस्तक का आवरण देखा था तो उनका तीखा, हठी स्वभाव, जिस पर इतने दिनों से उन्होंने क़ाबू किया हुआ था, एकबारगी भड़क उठा था। यह तो ठीक से कहना मुश्किल है कि ऐसा पुस्तक मेले की अफ़रा-तफ़री के सबब से हुआ था या रमा जी की बार-बार की मीन-मेख से उपजे तनाव की वजह से, मगर आवरण पर बड़थ्वाल जी के नाम में प्रूफ़ की एक खटकने वाली भूल रह गयी थी। 
इतना ही नहीं, रमा जी को पुस्तक के आवरण पर दिये गये बड़थ्वाल जी के चित्र पर भी भारी ऐतराज़ था। उनके हिसाब से यह चित्र बड़थ्वाल जी के व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं करता था। अपनी तरफ़ से रमा जी ने बारह-तेरह चित्र हरीश अग्रवाल को भेजे थे, लेकिन उनमें से शमशाद ने सौम्य मुख-मुद्रा वाले चित्रों को नज़रन्दाज़ करके एक ऐसा चित्र चुना था जिसमें बड़थ्वाल जी पार्टी के एक अन्य नेता से बातें करते नज़र आ रहे थे। इस चित्र में से शमशाद ने बड़थ्वाल जी के चित्र को सफ़ाई से अलग करके कम्प्यूटर पर एनलार्ज करके आवरण में फ़िट कर दिया था। 
मूल चित्र में भी बड़थ्वाल जी की मुख-मुद्रा, होंटों की वक्र स्मिति और आँखों की चमक से उनकी गुटबाज़ नेता वाली ही छवि उभरती थी, जो अब अलग कर लिये जाने पर और भी नुमायाँ हो गयी थी। रमा जी ने फ़ौरन हरीश अग्रवाल को फ़ोन करके अपनी खीझ-भरी नाराज़गी जतायी थी। उन्हें बड़थ्वाल जी के नाम में हो जाने वाली प्रूफ़ की भूल पर उतना एतराज़ नहीं था, जितना चित्र के चयन पर। 
हरीश अग्रवाल को जी भर झाड़ पिलाने के बाद रमा जी ने कहा था कि वे उसी हफ़्ते बुध या बृहस्पत को दिल्ली आ रही थीं और ख़ुद बैठ कर चित्र का मसला हल करेंगी। इसलिए उनके भेजे चित्र किसी आदमी के हाथ उनके मालवीय नगर वाले फ़्लैट में भिजवा दिये जायँ। 
चूँकि आवरण चित्र हरीश अग्रवाल ने ख़ुद देख कर रमा जी को भेजा था, इसलिए बिना कुछ कहे, आवरण-चित्र को नन्दू जी की तरफ़ सरका कर उसने मानो गेंद फिर से नन्दू जी के पाले में डाल दी थी।

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