Thursday, September 11, 2014

हिचकी

किस्त : 12-13


बारह

पाँच साल पहले जब शाहिद अन्सारी बुलन्दशहर से दिल्ली पहुँचा था तो उसकी जेब में फ़क़त डेढ़ सौ रुपये और सूटकेस में बी.ए. की डिग्री थी। मगर राहत की बात यह थी कि नयी ज़िन्दगी की तलाश में हर साल उत्तर प्रदेश और बिहार के मुफ़स्सलात से हज़ारों की तादाद में दिल्ली की शम्मा की तरफ़ खिंच कर आने वाले परवानों के विपरीत उसके पास, मुहावरे की ज़बान में कहें तो सिर छिपाने को एक छत और पैर टिकाने को एक ठौर थी, भले ही वह उसके सपनों के हिसाब से कितनी अस्थायी और असुविधाजनक क्यों न रही हो।
उसके पिता, वाजिद अन्सारी, नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास पहाड़गंज की एक लॉज के मैनेजर थे। यह लॉज दरअसल सस्ती दरों वाला एक सुथरा-सा होटल था, जिसका मालिक चौधरी भान सिंह बुलन्दशहर का एक सम्पन्न किसान था और शाहिद अन्सारी के पिता को बहुत मानता था, जो ख़ुद भी बुलन्दशहर के रहने वाले थे।
     भान सिंह को यह होटल अपने नाना से मिला था और अगर भानसिंह को दिल्ली में ज़मीन-जायदाद की बढ़ती हुई क़ीमतों का पता न होता तो वह कभी का उसे बेच चुका होता, क्योंकि वह ‘उत्तम खेती मध्यम बान’ वाले आप्त कथन में अक़ीदा रखता था और हालाँकि बदले हुए ज़माने में यह कहावत उलट कर ‘मध्यम खेती उत्तम बान’ को चरितार्थ करने लगी थी और भान सिंह को आये दिन खेती को ले कर किसी-न-किसी परेशानी का सामना करना पड़ता था, तो भी वह अपने ही शब्दों में ‘होटलगीरी’ करने को क़तई तैयार न था। 
बेटी की शादी कर चुका था। दो बेटे थे - ख़ासे आवारा और हथछुट क़िस्म के - जिनकी करतूतों ने जब अति कर दी तो भान सिंह ने दोनों को दो-दो टेम्पो ख़रिदवा दिये थे जिन्हें वे शहर से पास के क़स्बों तक सवारियाँ ढोने के काम में लाते और अपने-अपने रूटों पर चलने वाले दूसरे टेम्पो वालों से आये दिन सिर-फुटव्वल करते रहते। भान सिंह को इससे कोई एतराज़ न था, चुनांचे उसने अपने खेती के शौक़ को पूरा करने की ख़ातिर शाहिद अन्सारी के वालिद वाजिद अन्सारी को लॉज की तीसरी मंज़िल पर अटैच्ड बाथरूम वाला एक बड़ा-सा कमरा दे कर उन्हें होटल का सर्वे-सर्वा बना दिया था। होटल की आमदनी नियमित रूप से उसके बैंक से होती हुई बारिश के पानी की तरह खेती को सींचती रहती। 
     वैसे तो भान सिंह ने वाजिद अन्सारी से भी कहा था कि शाहिद चाहे तो होटल ही में लग जाये। ‘आखर, बी.ए. पास लौंडे को लाट साहबी तो मिलने से रही।’ और भान सिंह ने अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों पर हाथ फेरते हुए अपनी पसन्दीदा कहावत का दूसरा मिसरा भी सुनाया था - ‘अधम चाकरी भीख निदान। चाकरी करने से तो अच्छा है होटल का काम सीक्खे। आग्गे चल कर वह अपना भी होटल खोल सकता है।’ 
     लेकिन शाहिद अन्सारी बुलन्दशहर से निकल कर दिल्ली इसलिए नहीं आया था कि वह पहाड़गंज की छोटी-सी, नीम-अँधेरी गली में दफ़्न हो जाय। अपने पिता की इज़्ज़त करते हुए भी मन के किसी कोने में वह उन्हें एक विफल व्यक्ति ही मानता था, जो अपनी सीधी-सादी ज़िन्दगी से सन्तुष्ट थे, जिन्हें बस इतना ख़याल था कि ईमानदारी से ज़िन्दगी बसर करते हुए, बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर दें और जिनके मन में इससे ज़्यादा कोई महत्वाकांक्षा न थी। 
शाहिद अन्सारी ने बुलन्दशहर के अपने ही मुहल्ले में ऐसे कितने युवकों के किस्से सुने थे जो किराये पर ऑटो चलाने दिल्ली आये थे और जाने कहाँ-से-कहाँ जा पहुँचे थे। दिल्ली उसे एक ऐसी जगह लगती थी जिसका आकाश अनन्त था, जहाँ उड़ान की अनगिनत सम्भावनाएँ थीं, बशर्ते कि आपके डैने मज़बूत हों और दिल में हौसला हो। 
     शाहिद अन्सारी को अपनी सेकेण्ड क्लास बी.ए. की डिग्री से भी ज़्यादा भरोसा इस आख़िरी बात में था। इसीलिए वह उस जाली अंग्रेज़ी मीडियम ‘सनबीम स्कूल’ की चार सौ रुपये की मास्टरी छोड़ कर चला आया था जो अस्सी के दशक के शुरू में कुकुरमुत्तों की तरह हर शहर में खुलने वाले स्कूलों जैसा ही एक स्कूल था और जहाँ शाहिद अन्सारी बी.ए. करते ही पढ़ाने लगा था। 
     महीने भर ही में शाहिद अन्सारी ने शहर के मिज़ाज को समझ लिया था। पहाड़गंज का वह इलाक़ा, जहाँ भान सिंह का ‘चौधरी गेस्ट हाउस’ था, मझोले दर्जे के होटलों से अटा पड़ा था जिनमें अक्सर ट्रैवेल एजेण्ट, छोटे व्यापारी, आस-पास से तीस हज़ारी की अदालत में किसी मुक़दमे की पेशी भुगतने आये वादी-प्रतिवादी और इसी क़िस्म के लोग ठहरते थे। इन्हीं में वे विदेशी सैलानी भी शामिल थे जो अमरीका, इंग्लैण्ड या यूरोप की आपा-धापी, और अफ़रा-तफ़री से भाग कर कथित शान्ति की तलाश में हिन्दुस्तान आते थे या फिर जो कम पैसे ही में हिन्दुस्तान ‘देखने’ के इच्छुक थे। 
     शाहिद ने इन विदेशी सैलानियों को बतौर गाइड दिल्ली घुमाना शुरू कर दिया। फ़िरंगी गोरों के पास ख़र्च करने के लिए डॉलर थे, शाहिद अन्सारी के पास वक़्त। होशियारी उसने यह बरती कि इस काम की तैयारी के लिए अंग्रेज़ी की दो-एक किताबों के साथ-साथ दिल्ली पर महेश्वर दयाल की किताब भी पढ़ डाली जिससे अक्सर कुछ नायाब क़िस्म के तथ्य उद्धृत करके वह इन सैलानियों को चकित कर देता।
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एक साल के अन्दर-अन्दर शाहिद अन्सारी का नक़्शा बदल गया। ढीली पतलून और बुश्शर्ट की जगह चुस्त जीन्स, बदन पर कॉलरदार टी-शर्ट और आँखों पर धूप का सुनहरा चश्मा। 
     तभी उसने पहली बार एक अमरीकी सैलानी जॉन ऐण्डरसन के पास विडियो कैमरा देखा। जॉन ऐण्डरसन अमरीका के एक टुटहे-से विश्वविद्यालय में पूर्वी सभ्यताओं, विशेष रूप से भारतीय सभ्यता और संस्कृति, पर शोध कर रहा था। अभी क्लिंटन और बुश के आने में देर थी, उदारीकरण का डंका हिन्दुस्तान में बजना शुरू नहीं हुआ था, लिहाज़ा अमरीकियों ने भी मुट्ठियाँ कसी हुई थीं। जॉन ऐण्डरसन की छात्र-वृत्ति बहुत कम थी और अगर डॉलर और रुपये के विनिमय मूल्य में इतना अन्तर न होता तो ऐण्डरसन पहाड़गंज तो क्या, फ़तहपुरी या मजनूँ का टीला में भी ठहरने की सोच न पाता। 
     बहरहाल, उसने शाहिद अन्सारी को कैमरा इस्तेमाल करना सिखा दिया, ताकि वह दिल्ली के स्मारकों के साथ-साथ गली-कूचों में भी जॉन ऐण्डरसन की चलती-फिरती तस्वीरें खींच सके। पहले दिन की शाम को ही जॉन ऐण्डरसन ने पाया था कि शाहिद अन्सारी में कैमरे को ख़ूबी के साथ इस्तेमाल करने का कुदरती सलीक़ा है और शाहिद  को तो जैसे पहली बार अपनी ज़िन्दगी का मक़सद मिल गया था। सारा हफ़्ता वह जॉन ऐण्डरसन के साथ चिपका रहा था और उसने कैमरा इस्तेमाल करने की एवज़ में तयशुदा फ़ीस से आधी रक़म ही ली थी। 
जॉन ऐण्डरसन की रही-सही कसर पैटी श्नाइडर ने पूरी कर दी थी। पैटी पश्चिम जर्मनी से छै महीने की छुट्टी पर हिन्दुस्तान घूमने आयी थी। अस्सी के दशक में पश्चिम जर्मनी की मुद्रा मार्क चढ़ती पर थी और पैटी के पास वक़्त और वसीला दोनों अच्छी-ख़ासी मिकदार में था। वह पहाड़गंज की बजाय जंगपुरा में ‘कपूर गेस्ट हाउस’ में ठहरी थी और शाहिद से उसे उसके ट्रैवल एजेण्ट ने यह कह कर मिलवाया था कि इससे बेहतर गाइड उसके देखने में नहीं आया। 
     पैटी ने तीन-चार दिन बाद ही शाहिद को अपनी सरपरस्ती में ले लिया था, उसे डिफ़ेंस कालोनी और साउथ एक्स के कुछ चुनिन्दा रेस्तराओं के दर्शन कराये थे और खादी भण्डार की बजाय विभिन्न प्रान्तों के एम्पोरियमों में लिये-लिये फिरी थी। कैमरा पैटी के पास भी था और ऐण्डरसन वाले मॉडल से आगे का था जिसमें वह ‘हिन्दुस्तान की यादें अपने साथ वापस ले जाना’ चाहती थी। 
     पैटी की सोहबत में शाहिद अन्सारी ने पहली बार वह सुख भी प्राप्त किया था, जिसके लिए विदेशियों के इर्द-गिर्द मँडराने वाले दिल्ली के सैकड़ों नौजवान तरसते रहते हैं और कुछ तो ग़ालिब-ओ-मीर की इस नगरी को अपनी दुस्साहसी करतूतों से वैसा ही अपराध-बहुल शहर बना चुके हैं जैसा आम तौर पर न्यू यॉर्क ख़याल किया जाता है।
     इस एक महीने के संग-साथ ने शाहिद अन्सारी की ज़िन्दगी बदल कर रख दी थी। पैटी ने एकबारगी शाहिद को एक ही साथ औरत की देह की रहस्यमयता और उसके विलक्षण खुलेपन से परिचित कराया था। इतना ही नहीं, बल्कि उसने शाहिद अन्सारी को भेज कर पता लगवाया था कि दिल्ली में ऐसी कौन-सी जगहें हैं, जहाँ वह अपनी बी.ए. की डिग्री के बल पर दाख़िल हो सकता था और अपने शौक़ को पेशे में तब्दील कर सकता था। 
अस्सी के दशक के आरम्भ में हालाँकि टेलिविज़न क्रान्ति अभी कोसों दूर थी और नॉएडा में फ़िल्म सिटी के बनने का किसी को ख़्वाबो-ख़याल भी नहीं था, लेकिन दिल्ली में एशियाई खेलों के बाद दूरदर्शन पर रंगीन कार्यक्रम प्रसारित होने लगे थे, इन्दिरा गाँधी हफ़्ते में दो-तीन की संख्या में नये टीवी केन्द्र खोल रही थीं और आगे की सम्भावनाओं को भाँपते हुए एक अदद इंस्टीट्यूट ऑफ़ मास कम्यूनिकेशंज़ खुल गया था; साथ ही जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय ने अपनी तरक़्क़ीपसन्द रवायत पर चलते हुए बाक़ायदा एक जन संचार विभाग खोल दिया था। 
     पाँच महीने बाद जब पैटी श्नाइडर कश्मीर, काठमाण्डू, कलकत्ता और कन्याकुमारी का चक्कर लगा कर वीसबाडन के लिए जहाज़ में सवार होने के लिए दिल्ली आयी थी तो उसने पाया था कि शाहिद अन्सारी ने, बकौल भान सिंह, ‘गाइडगीरी’ से बचाये पैसों के बल पर जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के जन संचार विभाग में दो साल के डिप्लोमा कोर्स में दाख़िला ले लिया है। वह उसे विदा करने के लिए पालम आया था तो उसके साथ एक गोरी, गोल चेहरे वाली सुन्दर-सी लड़की भी थी जिसका नाम उसने सबीना चोपड़ा बताया था और जो जामिया में उसी के साथ दाख़िल हुई थी।
सबीना चोपड़ा दक्षिण दिल्ली के ग्रेटर कैलाश इलाक़े में रहने वाली एक तेज़-तर्रार लड़की थी, जैसी लड़कियाँ जीसस एण्ड मेरी कॉन्वेंट और लेडी श्रीराम कॉलेज की दहलीज़ों लाँघने के बाद सैकड़ों की तादाद में दिल्ली में नज़र आती हैं। उसका परिवार बँटवारे के समय स्यालकोट से उखड़ कर लाजपत नगर में आ बसा था और अब सूखे मेवों के बड़े व्यापारियों में गिना जाता था। 
     शाहिद अन्सारी के प्रशिक्षण में जो कमी रह गयी थी वह सबीना चोपड़ा ने पूरी कर दी थी। वह स्त्री-शक्ति और महिला अधिकारों के कई संगठनों के साथ जुड़ी हुई थी, छात्र राजनीति में भी दिलचस्पी रखती थी और एक ही साथ कॉन्वेंटी लबो-लहजे और ‘एथनिक’ यानी देसी रहन-सहन का ऐसा मेल थी जो दिल्ली के ही बहुत-से लड़कों की सिट्टी-पिट्टी गुम कर देता था, फिर बुलन्दशहर से आये शाहिद अन्सारी बेचारे की तो हस्ती ही क्या थी। 
     यों, दोनों एक लिहाज़ से एक-दूसरे के पूरक भी थे। शाहिद मुलायम-तबियत, व्यवहार-कुशल और लचकीले सुभाव का था, जबकि सबीना चोपड़ा को उसके कुछ सहपाठी पीठ-पीछे ‘झाँसी की रानी’ कहा करते थे। वह दरअसल उन बिरली लड़कियों में से थी, जिन्हें पंजाबी बड़े लुत्फ़ से ‘माही-मुण्डा’ कह कर नवाज़ते हैं।
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शाहिद को कैमरे पर महारत हासिल थी तो सबीना को ऐसे विषयों पर जो उन दिनों ग़ैर सरकारी संगठनों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। महिला सशक्तीकरण का दौर शुरू हो रहा था और जल्द ही इसके साथ परिवार नियोजन, बँधुआ मज़दूरी, दलित जागृति, एड्स और आदिवासियों तथा विस्थापन आदि के मुद्दे भी जुड़ जाने वाले थे। डिप्लोमा ले कर जामिया से निकलने के बाद शाहिद अन्सारी और सबीना चोपड़ा ने शादी कर ली थी, लेकिन वह जानी इसके बाद भी सबीना चोपड़ा के नाम से ही जाती थी। 
     आश्चर्यजनक रूप से सबीना के परिवार का झुकाव भाजपा की ओर होते हुए भी इस शादी ने बहुत हलचल नहीं पैदा की थी। कुछ ही दिन बाद शाहिद और सबीना गोल डाकख़ाने के पास एक सरकारी फ़्लैट में चले आये थे। फ़्लैट मानव संसाधन मन्त्रालय के अन्तर्गत संस्कृति विभाग में काम करने वाले एक सेक्शन ऑफ़िसर को दिया गया था जो दिल्ली के हज़ारों दूसरे बाबुओं की तरह अपने निजी मकान में रहता था और अपने नाम आबण्टित फ़्लैट को किराये पर चढ़ा कर कुछ अतिरिक्त आमदनी की डौल बैठाये हुए था। 
     धीरे-धीरे फ़्लैट में आराम-आसाइश की चीज़ें जुटना शुरू हो गयी थीं। शाहिद ने जामिया की पढ़ाई के दौरान ही तीसरी धारा की कम्यूनिस्ट पार्टी से कुछ रब्त-ज़ब्त क़ायम कर ली थी और अब जब उस धारा के संस्कृतिकर्मी उसके यहाँ आते तो वह उनकी सवालिया नज़रों को लक्ष्य कर, बड़े सहज अन्दाज़ में नये ख़रीदे टेलिविज़न या वी.सी.आर. या म्यूज़िक सिस्टम का ज़िक्र करते हुए उसकी ज़रूरत और ख़ूबियाँ बताता और फिर मानो सरे-राहे उसकी क़ीमत की भी जानकारी देना न भूलता। 
     डेढ़ साल बाद ही शाहिद के घर एक बेटा आ गया था और उसी दौरान सबीना की बनायी एक डॉक्यूमेण्टरी फ़िल्म को कैलिफ़ोर्निया के किसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल का पुरस्कार मिला था। पुरस्कार की राशि से शाहिद ने एक सेकेण्ड हैण्ड फ़िएट गाड़ी ख़रीद ली थी और अब वह अपनी फ़िल्मों की कम और सबीना की फ़िल्मों की चर्चा ज़्यादा करता था। भौतिक उन्नति के बावजूद वह गाहे-बगाहे पार्टी ऑफ़िस जा धमकता, उनकी गतिविधियों के लिए वक़्तन-फ़वक़्तन चन्दा भी देता और ख़ास-ख़ास मौक़ों पर पाँच-दस मिनट के लिए चेहरा दिखाना न भूलता; भले ही पहले से तयशुदा किसी कार्यक्रम का बहाना बना कर जल्दी ही फूट लेता। यों भी कविता-कहानी, नुक्कड़ नाटक और क्रान्तिकारी गीत गाने वाले संस्कृतिकर्मियों के लिए फ़िल्मी दुनिया - चाहे वह दिल्ली की और डॉक्यूमेण्टरी फ़िल्मों की क्यों न हो - एक अचरज-भरी दुनिया थी। सो शाहिद अन्सारी बिना कुछ ज़्यादा किये-धरे ही पार्टी हलक़ों में हरदिल अज़ीज़ बना हुआ था।
     इस समय भी शाहिद अन्सारी पटना, नालन्दा और आरा से आये पार्टी और पार्टी के सांस्कृतिक संगठन के कुछ कार्यकर्ताओं के साथ था। ये सभी ‘साथी लोग’ रैली में पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ताओं की हैसियत में शामिल होने आये थे और उन्हें बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और अन्य छिट-पुट जगहों से आये सामान्य किसान-मज़दूरों की तरह तड़-फड़ लौटने की जल्दी नहीं थी।

तेरह

‘देखिए नन्दू जी, आपसे मिलाने के लिए हम किन-किन को ले आये हैं,’ शाहिद अन्सारी ने कुछ दूर ही से ऊँची आवाज़ में कहा था, फिर नज़दीक आ कर बात पूरी की, ‘दरअसल मुझे कल की रैली का विडियो टेप पार्टी ऑफ़िस में देना था। इन सब से वहीं भेंट हो गयी, सो हम लोगों ने सोचा आपसे भी मिल लिया जाय। बहुत ही अच्छी फ़ुटेज तैयार हुई है रैली की।’
     नन्दू जी उन चारों साथियों से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, जो शाहिद अन्सारी के अगल-बग़ल आ कर ढाबे के बाहर खड़े हो गये थे। उन्होंने सबसे हाथ मिलाया। 
     ‘चाय नहीं पिलायेंगे नन्दू जी ?’ शाहिद अन्सारी ने कुछ ऐसे अन्दाज़ में कहा कि वह सवाल और अनुरोध से आगे बढ़ कर आग्रह-सा जान पड़ा।
     नन्दू जी ने फ़ौरन कहा, ‘क्यों नहीं।’ और फिर वे ढाबे के बाहर लगी बेंचों पर ही बैठ गये।
     ‘कॉमरेड, कल आप रैली में दिखायी नहीं दिये,’ आरा के पुराने संस्कृतिकर्मी अनिल वज्रपात ने नन्दू जी की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा, ‘आपका बहुत इन्तजारी होता रहा।’
     ‘असल में...’ नन्दू जी ने सफ़ाई देने के लिए मुँह खोला ही था कि नालन्दा के किसान सभा के कार्यकर्ता राम अँजोर ने टप से उनकी बात काट दी।
     ‘हमको तो आज तक समकालीन लोकमत में आपका वोह रपट याद है,’ उसने कहा, ‘जेमे आप जहानाबाद का बिबरन छपाये रहे कि कइसे कोन तो बिदेसी लेखक का पात्र आदमी से पिल्लू बन जाता है, लेकिन बिहार के जलते खेत-खलिहान में पिल्लू का माफिक रेंगने वाला सब लोग संघर्स का गर्भ में पिल्लू से इन्सान बनता जा रहा है।’
     ‘बहुत अच्छी रिपोर्ट थी वह,’ शाहिद अन्सारी ने टीप जड़ी, ‘मैंने तो उसकी कतरन सँभाल कर रखी हुई है। सबीना एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल में मेक्सिको गयी है। वहाँ से आ जाय तो हम उस रिपोर्ट के आधार पर एक फ़िल्म बनायेंगे। मैंने तो उसका शीर्षक भी सोच लिया है - कायाकल्प।’
     ‘ऊ रपट पर फ़िलम जरूर बनना चाहिए,’ पटना की पार्टी इकाई के सचिव रामजी यादव ने कहा, ‘हम लोग तो ऊ रपट की फ़ोटोकॉपी कराके बँटवाये भी थे।’
     इस बीच चाय आ गयी थी और सबने अपने-अपने गिलास थाम लिये थे। अगर नन्दू जी ख़याल था कि उनकी रपट की चर्चा से यह सवाल दब जायेगा कि वे कल की रैली में क्यों शामिल नहीं हुए तो वे भूल कर रहे थे, क्योंकि तभी फ़ैज़ाबाद के युवा रंगकर्मी उदय प्रकाशपुंज ने उनकी ओर मुड़ कर कहा, ‘हम तो कल आखिर तक आपकी राह देखते रहे कॉमरेड। दरअसल, और भी साथी आपसे मिलना चाहते थे।’
     ‘क्या बतायें साथी, कल स्कूटर ने ऐसा धोखा दिया कि पूछो मत,’ नन्दू जी बोले। ‘मुझे नॉएडा में प्रेस जा कर आधे घण्टे का काम निपटाना था। सोचा था, वहीं से रैली में चला जाऊँगा, लेकिन स्कूटर ख़राब हो गया। आस-पास कोई मिस्त्री नहीं था। बनवाते-बनवाते साढ़े चार बज गये।’ 
‘वहीं छोड़ कर बस से ही चले आये होते। लौटते में उठा लेते,’ अनिल वज्रपात ने कहा, ‘रोज-रोज रैली कहाँ होता है।’
‘अरे कॉमरेड, यह इलाहाबाद या फ़ैज़ाबाद नहीं है,’ शाहिद अन्सारी ने समझाते हुए कहा, ‘यहाँ पहले तो कोई स्कूटर रखने को तैयार ही न होता। हो भी जाता तो नॉएडा के इंटीरियर से आना और फिर स्कूटर उठाने के लिए लौटना कोई आसान काम है।’
     नन्दू जी ने कृतज्ञता-भरी नज़रों से शाहिद अन्सारी की तरफ़ देखा। उन्हें कई बार अपने पुराने साथियों से उलझन होने लगती थी जो अपनी उसी छोटे शहर की मानसिकता से दिल्ली की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को नापने लगते थे। लेकिन उनका आश्वस्ति का यह भाव ज़्यादा देर तक क़ायम नहीं रह पाया, क्योंकि अनिल वज्रपात की अगली ही बात ने उसे एकबारगी चकनाचूर कर दिया।
     ‘हम तो कल्हे सुबह आपके हियाँ आने की सोचे रहे। काहे से कि गाड़ी से उतर कर पार्टी आफिस पहुँचे तो बड़ी भीड़ रही,’ उसने इतमीनान से बीड़ी सुलगाते हुए कहा, ‘लेकिन आपका नया डेरा का पता नहीं मालूम रहा।’
     ‘हम लोगों ने सोचा था कि अब दिल्ली आये हैं तो दू-चार रोज रुक कर सबसे मिल-मिला लिया जाये,’ प्रकाशपुंज ने कहा।
नन्दू जी को अचानक अपनी साँस रुकती-सी लगी। कुसुम विहार वाले फ़्लैट में तो एकाध बार उन्होंने बाहर से आने वाले साथियों को टिकाया भी था, मगर बंसल साहब के इस मकान में ऐसा करने की वे सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा करने में कई तरह के ख़तरे थे। जिस क़िस्म की पाबन्दियाँ बंसल साहब ने लगा रखी थीं, उनमें नन्दू जी ओखला में रहने वाले अपने बड़े भाई को ही बड़ी मुश्किल से कभी-कभार टिका पाते थे जब वह इधर का चक्कर लगाता था, पार्टी कॉमरेड की तो कौन कहे। उन्होंने कल्पना की कि लुंगी बाँधे बीड़ी फूंकते अनिल वज्रपात को देख कर बंसल साहब की क्या प्रतिक्रिया होगी।
     ‘सोच में काहे पड़ गये साथी,’ कॉमरेड रामअँजोर ने कहा।
     ‘नहीं, नहीं, सोच की बात नहीं,’ नन्दू जी बोले, ‘आप लोग कल सुबह आइए न। कल मेरी छुट्टी है। बिन्दु को रेडियो स्टेशन जाना होगा तो भी कोई बात नहीं। जम कर चर्चा होगी। मैं तो कहता उधर ही टिकिए पर बात यह है कि मकान-मालिक नीचे ही रहता है और...’
     ‘किराया-भाड़ा तो लेता होगा न,’ प्रकाशपुंज ने कहा, ‘फिर आपके यहाँ कौन ठहरता है, इसमें कौन एतराज का बात है।’
     ‘साथी, आप दिल्ली के मकान-मालिकों को नहीं जानते,’ शाहिद अन्सारी ने हँसते हुए कहा, ‘ऐसी-ऐसी शर्तें रखते हैं मकान देते समय कि बस। मैंने तो इसीलिए सरकारी क्वार्टर लिया। और अब तो पटपड़गंज की एक सोसाइटी का फ़ार्म भर दिया है जो रंगकर्मियों और फ़िल्मकारों के लिए फ़्लैट बना रही है। प्राइवेट मकानों में तो यही चख-चख रहती है।’
     ‘हमको तो ई जना रहा कॉमरेड,’ अनिल वज्रपात ने बीड़ी का आख़िरी कश खींच कर टोटे को बेंच के पाये से रगड़ कर बुझाते हुए कहा, ‘कि ई बड़ा सहर में होता है कि जबर-से-जबर लोग आदमी से पिल्लू बन जाता है। आप सब को ई पेटी बुर्जुआ मानसिकता से संघर्ष करना...’
     ‘साथी,’ शाहिद अन्सारी ने अनिल वज्रपात की बाँह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘यह बहस आप कल नन्दू जी के घर पर जारी रखिएगा। मुझे अभी रैली की फ़ुटेज एडिट करनी है। चलिए, आपको आई.टी.ओ. पर छोड़ दूँ, वहाँ से पार्टी ऑफ़िस के लिए सीधी बस मिल जायेगी।’
नन्दू जी ने ढाबे वाले को चाय के पैसे हिसाब में लिख लेने के लिए कहा था और सब लोग नन्दू जी के दफ़्तर की तरफ़ बढ़े थे। अभी दफ़्तर कुछ दूर ही था कि शाहिद अन्सारी एक नीले रंग की फ़िएट गाड़ी के पास रुक गया और उसने जेब से चाभियों का छल्ला निकाल कर दरवाज़ा खोला। फिर, इससे पहले कि नन्दू जी कुछ कहते, वह बोला, ‘हाल ही में ली है। सेकेण्ड हैण्ड है पर बहुत अच्छी मेनटेन की हुई थी। सबीना के पापा के दोस्त, एक कर्नल साहब की थी। बहुत सस्ते में दे दी। चालीस हज़ार में। शूटिंग के काम भी आती है और सबीना को भी आराम हो गया है। कैसी लगी ?’
     नन्दू जी ने कार की प्रशंसा की थी तो शाहिद अन्सारी ने सरे राहे यह जानकारी भी दे डाली थी कि ’एज़्योर ब्लू’ रंग की फ़िएट गाडि़याँ कम्पनी ने बहुत सीमित संख्या में बनायी थीं और दिल्ली में गिने-चुने लोगों के पास ही थीं। चलते-चलते अनिल वज्रपात ने नन्दू जी से उनके मकान का पता लिया था और पहुँचने का रास्ता समझा था। तभी, कॉमरेड रामजी यादव ने जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर नन्दू जी की ओर बढ़ाया था।
     ‘डॉ. दिनेश कुमार ई चिट्ठी आपको देने खातिर कहे थे,’ उन्होंने कहा, ‘चाहते रहे कि रैली में आयें। लेकिन इधर उनका तबियत ठीक नहीं चल रहा है। सो बड़ा दुख से ई चिट्ठी भेजे हैं। आप फुरसत से पढ़ लीजिएगा। कल जब मुलाकात होगा तब इस पर भी चर्चा हो जायेगा।’
     ‘ठीक है,’ नन्दू जी ने चिट्ठी ले कर जेब में रखते हुए कहा था, ‘मैं घर जा कर इसे देख लूँगा।’

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