Friday, September 5, 2014

हिचकी

हिचकी 


क़िस्त - 4

चार
बिन्दु चाय ले कर आयी थी तो नन्दू जी उसी दिन डाक में आये पार्टी के मुखपत्र को हाथ में थामे-थामे ऊँघ-सा गये थे। मेज़ पर कप-प्लेट रखने की आवाज़ से वे चौंके थे और पार्टी के मुखपत्र को एक तरफ़ रख कर उन्होंने चाय का प्याला उठा लिया था। चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उन्होंने बिन्दु से दिन भर का हाल-चाल लिया था।
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लक्ष्मीनगर वाले फ़्लैट में आने के बाद ही से बिन्दु का सामना उस भयानक अकेलेपन से हुआ था, जो दिल्ली के मध्यवर्गीय फ़्लैटों में ज़िन्दगी बसर करने वाली उन पढ़ी-लिखी महिलाओं को भुगतना पड़ता है, जिनके अभी बच्चे नहीं हुए होते और जो कहीं काम नहीं करतीं। ख़ास तौर से उन महिलाओं को, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के संयुक्त परिवारों से आ कर अपने पतियों के साथ अपना परिवार बसाने की कोशिश कर रही होती हैं। कुसुम विहार में इस अकेलेपन का एहसास उसे इसलिए नहीं हुआ था, क्योंकि वहाँ बहुत-से परिवार पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के थे, लगभग उसी पृष्ठभूमि के जिससे नन्दू जी और बिन्दु आये थे और एक कॉलोनी में रहने की सामान्य असुविधाओं के चलते हर तरह से एक-दूसरे के सुख-दुख में शरीक होते थे। 
लक्ष्मी नगर वाले फ़्लैट का पर्यावरण बिलकुल अलग था। नीचे के वर्मा जी के दोनों बच्चे इतने बड़े हो गये थे कि अपनी देख-भाल ख़ुद कर सकें। वर्मा जी की पत्नी उन्हीं के बैंक की दूसरी शाखा में क्लर्क थीं और सुबह वर्मा जी के साथ ही उनकी हीरो हॉण्डा पर बैठ कर निकल जाती थीं। रहीं बंसल जी की पत्नी तो उनके पास घर-गिरस्ती सँभालने के बाद दोपहर को जो थोड़ा-बहुत ख़ाली वक़्त बचता, उसे वे नियमपूर्वक अपने जैसी अन्य पड़ोसिनों के साथ सत्संग करने में ख़र्च करतीं जिसमें भगवत भजन से अधिक अपनी और मुहल्ले की दूसरी बहुओं पर टीका-टिप्पणी की जाती।
एकाध बार वे बिन्दु को भी आग्रहपूर्वक अपने साथ ले गयी थीं, लेकिन उन अधेड़ अथवा बूढ़ी औरतों के साथ, जो ज़्यादातर व्यापारियों की पत्नियाँ थीं, नीरस, ऊबाऊ, धर्म-चर्चा करने या बेसुरे भजन गाने या फिर उनकी चरित-चर्चा सुनने की बनिस्बत घर रह कर अपने अकेलेपन को पत्र-पत्रिकाओं के सहारे काटना बिन्दु को कहीं बेहतर लगा था।
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उसके अकेलेपन को दूर करने के ख़याल से, और किसी हद तक आमदनी में इज़ाफ़ा करने के लिए भी, नन्दू जी ने उसे अपने परिचित प्रकाशकों से प्रूफ़ और पाण्डुलिपियाँ ला कर दी थीं। लेकिन प्रूफ़ पढ़ना ख़ासा सिरदर्द का काम था और भाषा की जानकारी के साथ एकाग्रता भी चाहता था। ऊपर से हिन्दी के प्रकाशकों में भाषा को ले कर न कोई समझ थी, न रुचि और न परवाह। वर्तनी से ले कर व्याकरण तक एक अजीब अराजकता थी। एक ही प्रकाशक की पाँच पुस्तकों में हिन्दी के सामान्य शब्द पाँच तरह से छपे मिलते थे। 
अरबी-फ़ारसी के शब्दों का तो और भी बुरा हाल था। अव्वल तो उनमें नुक़्ते लगाने की परम्परा ही त्याग दी गयी थी, लेकिन कभी-कभार, शायद लेखक के आग्रह पर, अगर नुक़्ते लगाये भी जाते तो अकसर ग़लत जगह पर लगा दिये जाते। ज़्यादातर प्रकाशकों को काग़ज़ काला करने और ऊपर की टीम-टाम दुरुस्त करके रिश्वत और रुसूख़ के बल पर सरकारी ख़रीदों में किताबें ठेलने में ही दिलचस्पी थी। ऐसी हालत में बिन्दु जल्द ही इस कुत्ते-ख़स्सी से तंग आ गयी थी। 
पिछले चार-पाँच महीनों से उसने आकाशवाणी के चक्कर लगाने शुरू कर दिये थे। आकाशवाणी अब दूरदर्शन के साथ प्रसार भारती बन चुका था और जब से सूचना संचार माध्यमों की क्रान्ति ने उपभोक्ता सामग्री के विज्ञापनदाताओं के साथ मिल कर नये-नये चैनलों के लिए रास्ता साफ़ कर दिया था, तब से दुर्दिन का शिकार था। टीवी चैनलों ने रेडियो के श्रोताओं में भारी कटौती कर दी थी। 
आकाशवाणी भले ही प्रसार भारती बन गया था, पर उसके कार्यक्रमों का वही पुराना ढर्रा था। बजट की कटौतियों ने अलग क़हर बरपा कर रखा था। जो कार्यक्रम पहले अलग-अलग प्रोग्राम एग्ज़ेक्यूटिवों के ज़िम्मे रहते, अब गिने-चुने लोगों के हवाले कर दिये गये। इस बोझ को बाँटने के लिए कैज़ुअल आर्टिस्टों की एक फ़ौज खड़ी की गयी थी। स्थायी पदों की तादाद घटा दी गयी थी, ताकि प्रॉविडेंट फ़ण्ड और अन्य भत्तों में ख़र्च की जाने वाली रक़म कार्यक्रमों में लगायी जा सके और अस्थायी कलाकारों द्वारा सस्ते में कार्यक्रम तैयार कराये जा सकें। 
इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान बिन्दु युव-वाणी और बाल-संघ जैसे कार्यक्रमों में कैज़ुअल आर्टिस्ट के रूप में काम कर चुकी थी। कार्यक्रमों के आलेख तैयार करने से ले कर उन्हें प्रस्तुत करने में भी प्रोग्राम एग्ज़ेक्यूटिवों का हाथ बँटाती रही थी। लेकिन इलाहाबाद की तुलना में दिल्ली के आकाशवाणी केन्द्र में मार-काट कहीं ज़्यादा थी। नन्दू जी ने अपने पुराने अख़बारी सम्पर्कों के बल पर बिन्दु को कैज़ुअल आर्टिस्ट के तौर पर स्वीकृत तो करा दिया था, लेकिन काम का मिलना प्रोग्राम एग्ज़ेक्यूटिव की मन-मर्ज़ी पर निर्भर था। बिन्दु को कार्यक्रम मिलने भी लगे थे, लेकिन अभी इनकी तादाद न तो बिन्दु की योग्यता के अनुरूप थी, न नन्दू जी की आकांक्षा के।
चाय पीते हुए नन्दू जी को पता चला था कि उस दिन बिन्दु को कार्यक्रम के लिए बुलाया नहीं गया था। जब उसने पास के पी.सी.ओ. से प्रोग्राम एग्ज़ेक्यूटिव को फ़ोन किया था तो उसे बताया गया था कि उस हफ़्ते उसे चार कार्यक्रम पहले ही मिल चुके थे और अब अगले हफ़्ते ही कोई गुंजाइश होगी। 
आम तौर पर शनिवार को युव-वाणी की रक़म मिल जाया करती थी। पिछले तीन शनिवारों से उसे लगातार युव-वाणी के लिए बुलाया जा रहा था और नन्दू जी आश्वस्त थे कि एक स्थायी व्यवस्था हो गयी है। इसीलिए बिन्दु से यह पता चलने पर कि उस शनिवार को नागा हो गया है, वे प्रोग्राम एग्ज़ेक्यूटिव के रवैये पर झल्लाये थे और उन्होंने मन-ही-मन फ़ैसला किया था कि जल्द ही वे किसी साहित्यिक समारोह के अवसर पर आकाशवाणी के केन्द्र निदेशक के कान में सफ़ाई से इस मसले को हल करने की बात डाल देंगे। 
केन्द्र निदेशक सीतेश मयंक एक कवि-सम्मेलनी गीतकार थे और यह उनके जुगाड़-तन्त्र का कमाल था कि वे लगातार प्रान्तीय राजधानियों के रेडियो स्टेशनों पर ही तैनात होते रहते थे, अपने गिर्द गीतकारों का एक झुण्ड जुटाये रखते थे और अब तक चार गीत संग्रह दिल्ली की प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थाओं से छपवा चुके थे, जिनमें वह प्रकाशन संस्थान भी था, जिसमें नन्दू जी काम कर रहे थे। मन में यह इरादा कर लेने के बाद, नन्दू जी ने केतली से अपने लिए चाय का एक और प्याला भरा था और बिन्दु को अपनी कारगुज़ारियाँ सुनाने लगे थे।

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया सर। पढ़ने में मज़ा आ रहा है। अगली कड़ियों का बेसब्री से इंतज़ार।

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