Friday, September 12, 2014

हिचकी

किस्त : 14-15

चौदह

शाहिद अन्सारी और अन्य साथियों को विदा करके नन्दू जी मुड़े थे तो उन्हें लगा था कि जैसे वे महाभारत की कथा के उसी कुएँ से निकल कर आये हैं जिसमें एक बरगद की जड़ उतरी हुई थी जिससे बाल खिल्य ऋषि टँगे हुए थे। उन्होंने दोनों हाथों की उँगलियाँ एक-दूसरी में फंसा कर एक दुर्दम अँगड़ाई ली थी और ऐसी साँस छोड़ी थी जिससे गली के कोने पर रमज़ान डेण्टर एण्ड पेण्टर की दुकान पर टँगा समाजवादी पार्टी का काग़ज़ का झण्डा फड़फड़ाने लगा था। फिर वे धीरे-धीरे प्रकाशन संस्थान की सीढि़याँ चढ़ गये थे।
     इरादा तो उनका यही था कि आज जल्दी ही चल देंगे, ख़ास तौर पर जब उन्हें रमा जी के यहां से लौट कर पता चला था कि हरीश अग्रवाल लंच के बाद नहीं आने वाला। लेकिन जब उन्होंने टिफ़िन निकालने के लिए अपना दराज़ खोला था तो उनकी नज़र उस ब्रोशर के रफ़ डिज़ाइन और ले आउट पर पड़ी थी जो राजनैतिक महारथियों वाली श्रृंखला के प्रचार-प्रसार के लिए तैयार किया जा रहा था और पिछले एक-डेढ़ हफ़्ते से इस बात के इन्तज़ार में रुका हुआ था कि रमा बड़थ्वाल पन्त अपने ‘पूज्य पिताजी’ पर केन्द्रित पुस्तक के डिज़ाइन को हरी झण्डी दिखायें तो ब्रोशर को अन्तिम रूप दिया जाये। उन्होंने डिज़ाइन को वैसे-का-वैसा छोड़ दिया था और खाना खाने चले गये थे।
     उधर, जैसे टेलिपैथी का करिश्मा हो, जब वे लौटे तो रागिनी शर्मा ने उन्हें बताया कि पीछे हरीश अग्रवाल का फ़ोन आया था कि वे बड़थ्वाल जी वाली किताब का डिज़ाइन कम्प्यूटर-कक्ष में दे दें और वहीं बैठ कर ब्रोशर के रफ़ डिज़ाइन को भी दुरुस्त करा दें। 
     इस ‘दुरुस्त करा दें’ का मतलब नन्दू जी बख़ूबी जानते थे। वे जानते थे कि अब उन्हें अगले सेट में आने वाली तीन पुस्तकों का एक परिचय लिखना पड़ेगा जो ब्रोशर में उन पुस्तकों के आवरण चित्रों की छोटी-छोटी प्रतिकृतियों के नीचे छपेगा। ब्रोशर का डिज़ाइन तो श्रृंखला की पहली तीन पुस्तकों के आने के बाद ही बन गया था। हर नये सेट के साथ सिर्फ़ रंग योजना और पुस्तकें और उनके परिचय बदलते रहते।
नन्दू जी को सबसे ज़्यादा चिढ़ इस प्रचार सामग्री को तैयार करने में होती थी, क्योंकि कई बार उन्हें प्रचार के नाम पर झूठ का ऐसा जाल रचना पड़ता था जिसमें पाठक फंस जाय। हरीश अग्रवाल बार-बार इस बात को ज़ोर दे कर कहता था कि सम्पादकीय और प्रोडक्शन विभाग का सारा उद्देश्य किताबों की बिक्री बढ़ाना था। उसका आप्त-वाक्य था कि कोई हलवाई अपने दही को खट्टा नहीं कहता। 
     एक बार जब नन्दू जी कुछ ज़्यादा ही खदबदाये थे तो स्वामी ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया था कि हरीश अग्रवाल ने उन्हें अख़बार से डेढ़ गुनी तन्ख़ाह पर प्रकाशन संस्था के सम्पादकीय विभाग में नियुक्त किया था तो इसलिए कि उसकी किताबों की बिक्री बढ़े, इसलिए नहीं कि उसे कला या साहित्य की कोई सेवा करनी थी। वह हर रोज़ सुबह नियमित रूप से एक घण्टा पूजा करता था, लेकिन आख़िरी किताब उसने तब पढ़ी थी जब वह बी.ए. कर रहा था। वे दो-चार बार तो उसके घर गये होंगे, क्या उन्होंने भूले से भी उसके ड्रॉइंग-रूम में कोई किताब देखी थी ? 
     इसके बाद नन्दू जी ने शिकायत करना बन्द कर दिया था। इसलिए जब रागिनी शर्मा ने उन्हें हरीश अग्रवाल का सन्देश दिया था तो वे जल्दी घर जाने का ख़याल छोड़ कर अपनी मेज़ पर आ बैठे थे। उन्होंने आधे घण्टे में तीनों नयी किताबों के परिचय लिखे थे और फिर कम्प्यूटर कक्ष में सुनील विरमानी के साथ बैठ कर ब्रोशर में सेट करवाये थे। 
छै बजने को थे जब सुनील विरमानी ने तब तक डिज़ाइन किये गये ब्रोशर को कम्प्यूटर की मेमरी में सेव करते हुए कहा था, ‘कॉमरेड, हुन बस। बाक़ी सोम नूँ पूरा कराँगे।’ 
     सुनील, जो उनके पुरानी साथी शमशाद की देखा-देखी उन्हें कॉमरेड कहने लगा था, बहुत होशियार कम्प्यूटर ऑपरेटर था और तकनीकी रूप से कुशल लोगों की तरह मनमौजी भी। वह जानता था कि हरीश अग्रवाल को उस जैसा ऑपरेटर जल्दी किये नहीं मिल सकता और इसलिए वह थोड़ी-बहुत छूट लेने में कभी कोताही नहीं करता था।
आख़िरकार, जब सब-कुछ समेट कर नन्दू जी प्रकाशन संस्थान की सीढि़याँ उतरे थे तो साढ़े छै बजने को थे। आफ़िस में सन्नाटा था। सभी कर्मचारी जा चुके थे। सिर्फ़ चपरासी नन्द लाल दफ़्तर बन्द करने के इन्तज़ार में रुका हुआ था। उसे हरीश अग्रवाल ने सीताराम बाज़ार में ही एक कोठरी ले दी थी और सुबह चाभी ले कर आना और दफ़्तर खुलवाना, और फिर शाम को दफ़्तर बन्द कराके चाभी हरीश के घर देना उसकी ड्यूटी में शामिल था। 
     बाहर गली में शोर-शराबा कुछ कम हो गया था। चूँकि कारों-स्कूटरों की रँगाई दिन ही के समय हो पाती थी, इसलिए बाक़ी काम - जैसे मँजाई, धुलाई, अस्तर-पुटीन, वग़ैरा, - बिजली की रोशनी में कर लिये जाते थे। बाहर दो-तीन गाडि़यों पर मिस्त्रियों के यहाँ काम करने वाले छोकरे जुटे हुए थे। थोड़ा आगे चल कर कम्प्यूटरों की मरम्मत का काम चल रहा था। मिस्त्री और छोकरे आपस में हँसी-मज़ाक करते हुए मँजाई-धुलाई कर रहे थे। 
     नन्दू जी ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया था और दरियागंज की मुख्य सड़क से आई¤ टी¤ ओ¤  हो कर लक्ष्मी नगर जाने की बजाय पीछे अन्सारी रोड की ओर मुड़ गये थे ताकि रिंग रोड ले कर जल्दी से आई¤ टी¤ ओ¤ पुल पर पहुँच जायें। मगर शाम का वक़्त था और पुल पर जाम लगा हुआ था। उन्हें पुल पार करने में आध घण्टा लग गया था। जैसे ही वे पुल पार करके ढलान उतरते ही बायीं ओर लक्ष्मी नगर की तरफ़ घूमे थे, उन्हें एक हल्केपन का एहसास हुआ था। सोमवार ही से उन्हें जो एक बादल अपने ऊपर घिर आया महसूस हो रहा था, वह जैसे एकबारगी साफ़ हो गया था। गली के मुहाने पर पहुँचते ही उन्होंने अपनी स्वभावगत सतर्कता को ताक पर रखते हुए हेल्मेट सिर से उतार कर बाँह से लटका लिया था - इसलिए भी कि अब उन्हें ट्रैफ़िक पुलिस के चालान का कोई डर नहीं रह गया था - और मुक्त मन से घर पहुँचे थे।

पन्द्रह

चाय का दूसरा प्याला पीते-पीते नन्दू जी ने बिन्दु को रमा बड़थ्वाल पन्त के यहाँ जाने और परेशान होने की पूरी कथा सुनायी थी। तभी उन्हें ख़याल आया था कि पार्टी के पुराने कॉमरेड कल आने की बात कह रहे थे और अपने अनुभव से वे जानते थे कि अनिल वज्रपात और उदय प्रकाशपुंज भले ही संस्कृतिकर्मी होने के नाते कभी-कभार थोड़ी लापरवाही और ग़ैर जिम्मेदारी से काम ले लें, लेकिन रामअँजोर और रामजी यादव जैसे खाँटी कार्यकर्ता कभी हलकी-फुलकी बात नहीं करते थे और अगर उन्होंने कल सुबह आने के बारे में कहा था तो यह वादा ‘चन्द्र टरै सूरज टरै’ वाली कहावत के अनुसार न-टलने-वाले वचनों की कोटि में आता था। चुनांचे एहतियात के तौर पर उन्होंने बिन्दु को आगाह कर देना उचित समझा।
‘अरे, मैं बताना भूल गया, रमा जी के यहाँ से दफ़्तर वापस आने पर साथी वज्रपात और प्रकाशपुंज आ गये थे। साथ में नालन्दा और पटना के साथी रामअँजोर और रामजी यादव भी थे।’
     ‘अच्छा! लगता है रैली के बाद रुक गये होंगे। क्या कह रहे थे?’
     ‘कह रहे थे कि पता होता तो सीधे यहीं चले आते,’ नन्दू जी की आवाज़ में हलकी-सी तल्ख़ी घुल गयी - कुछ तो रमा जी वाले प्रसंग का असर अभी बाक़ी था और कुछ ‘साथी लोगों’ के कटाक्षों का। ‘उन्हें दिल्ली की हालत का तो अन्दाज़ा है नहीं। समझते हैं कि जैसे नालन्दा और आरा में होता है, वैसा ही दिल्ली में भी हो सकता है। बहरहाल, कल सुबह आने की बोले हैं।’
‘अरे, तो आयेंगे, मिलेंगे, चले जायेंगे। वैसे भी कल इतवार है। पुराने साथियों से पीछा तो छुड़ाया नहीं जा सकता न?’ बिन्दु के स्वर में नरमी थी। वह जानती थी कि नन्दू जी इस बात से डर रहे हैं कि पुराने साथी कहीं उनसे जवाब तलब न करने लगें।
     ‘पीछा छुड़ाने की बात नहीं है। समझा करो। साथी लोग बदलती हुई स्थितियों को तो देखते नहीं, पुराने ढर्रे पर चलने की रट लगाये रहते हैं। दिल्ली में रहना और टिकना इतना आसान है क्या! पटना-इलाहाबाद में बात दूसरी थी।’ नन्दू जी ने झल्ला कर कहा।
बिन्दु चुप हो गयी और चाय के बर्तन उठाने लगी। तभी नन्दू जी को डॉ. दिनेश कुमार की उस चिट्ठी का ख़याल आया जो कॉमरेड रामजी यादव ने उन्हें दी थी और जिसे उन्होंने अभी तक पढ़ा नहीं था। कॉमरेड रामजी यादव ने कहा भी था कि इस सम्बन्ध में बात करनी है। सो नन्दू जी ने उठ कर बुशशर्ट की जेब से लिफ़ाफ़ा  निकाला था और उसे खोल कर चिट्ठी की तहें सीधी की थीं। 
     चिट्ठी लाईनदार काग़ज़ पर लिखी हुई थी, डॉ. दिनेश कुमार के मोती जैसे अक्षरों में, मगर लिखावट कुछ काँपती हुई-सी थी मानो किसी वृद्ध या बीमार आदमी ने लिखी हो। काग़ज़ भी किसी बच्चे की कापी से फाड़ा हुआ जान पड़ता था। लेकिन काग़ज़ और इबारत जैसी भी रही हो, मज़मून की पहली चार-छै पंक्तियाँ पढ़ते ही नन्दू जी को पसीना आ गया था और उन्हें लगा था जैसे कोई अदृश्य हाथ उनके दिल को मुट्ठी में ले कर मसल रहा है।

प्रिय नन्दू,
लाल सलाम। उम्मीद है तुम और बिन्दु दिल्ली में ठीक-ठाक होगे और बड़े शहर की नयी चुनौतियों का सामना साहस और समझदारी के साथ कर रहे होगे। यह पत्र मैं एक मुसीबत में फंस कर लिख रहा हूँ जिसमें तुम्हारी मदद की ज़रूरत आ पड़ी है।
कुछ महीने पहले जब साथी रामजी यादव नालन्दा आये थे तो उन्होंने बताया था कि तुमने अख़बार से इस्तीफ़ा दे दिया है। उसके बाद तुम्हारी कोई ख़बर नहीं मिली। मैंने एक पत्र महीना भर पहले तुम्हारे कुसुम विहार वाले पते पर लिखा था लेकिन वह लौट आया। नया पता मेरे पास था नहीं, इसलिए जब मुझे पता चला कि साथी राम अँजोर रैली में जायेंगे। तो मैंने उनके हाथ यह पत्र कॉमरेड रामजी यादव को भेजने का फ़ैसला किया कि वे तुम्हें दे दें। मैं भी रैली में आना चाहता था लेकिन मौजूदा हालात में यह सम्भव नहीं है।
तुम्हें यह पता नहीं होगा कि चार-पाँच महीने पहले यहाँ नालन्दा में एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस के लाठी चार्ज में मेरी दायीं टाँग घुटने के पास से टूट गयी थी। 
उस समय तो पलास्टर लगा दिया गया था, लेकिन बाद में पता चला कि जोड़ ठीक नहीं बैठा है। एक बार फिर आपरेशन करके बैठाने की कोशिश की गयी, लेकिन शायद बात बनी नहीं। अन्दर शायद कोई किरच रह गयी है  जिसकी वजह से घाव भरता नहीं और लगातार दर्द रहता है। चलना-फिरना भी बैसाखी के सहारे ही हो पाता है और उसमें भी बहुत कष्ट होता है। 
मैंने पटना भी जा कर दिखाया था। डॉक्टरों का कहना है कि क़ायदे से ऑपरेशन होना ज़रूरी है, तभी पूरी तरह आराम आ पायेगा। सभी ने दिल्ली जा कर एम्स या सफ़दरजंग में दिखाने की सलाह दी है।
इसी कठिनाई में तुम्हें यह चिट्ठी भेज रहा हूँ। तुम्हें मालूम है, दिल्ली मेरे लिए अपरिचित शहर है। वैसे तो वहाँ पार्टी ऑफ़िस भी है, लेकिन उन्हें तो यों भी जगह की तंगी रहती है। फिर उनकी पहुँच भी सीमित है। तुम चूँकि अख़बार में काम करते रहे हो, इसलिए कह-सुन कर मेरे इलाज का प्रबन्ध करा सकते हो। जब तक किसी हस्पताल में ठौर-ठिकाना नहीं होता, कुछ दिन मैं तुम्हें तकलीफ़ दूँगा। 
जैसे ही साथी रामजी यादव रैली से लौट कर तुम्हारी कुशल-क्षेम देंगे, मैं सौरभ को साथ ले कर दिल्ली आ जाऊँगा। तुम्हें तकलीफ़ तो होगी, पर ऐसी हालत में आशा है उसे तुम बरदाश्त करोगे। 
तुम्हारी भाभी और सीमा ठीक-ठाक हैं। सभी तुम्हें बहुत याद करते हैं।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ
तुम्हारा
  दिनेश

डॉ. दिनेश कुमार पार्टी के बहुत पुराने और सम्मानित कॉमरेड थे और तभी से पार्टी के साथ थे जब सत्तर के दशक में पार्टी का पुनर्गठन हुआ था। वे सुल्तानपुर में नन्दू जी के गाँव के नज़दीक के गाँव मौजपुर के रहने वाले थे। खाते-पीते ज़मींदार परिवार के। लेकिन उन्होंने इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान पार्टी के क़रीब आने के बाद ही से अपने पिता से किनारा कर लिया था, एक लम्बे समय तक वे भूमिगत रहते हुए बिहार में पार्टी का काम करते रहे थे और फिर जब पार्टी ने भूमिगत आन्दोलन की लाइन छोड़ कर बाहर आने का फ़ैसला किया था तो डॉ. दिनेश कुमार नालन्दा में एक छोटा-सा स्कूल चलाते हुए पार्टी की किसान-सभा का काम-काज देखने लगे थे। 
     डॉ. दिनेश कुमार की पत्नी नालन्दा ही की रहने वाली थीं और एक स्कूल में पढ़ाती थीं। दोनों पति-पत्नी पार्टी के सदस्य थे, डॉ. दिनेश कुमार तो केन्द्रीय समिति में भी थे और उन्हें पार्टी के पुराने सम्मानित सदस्यों में शुमार किया जाता था। हाल के वर्षों में जब से पार्टी ने संसदीय चुनावों में हिस्सा लेने का फ़ैसला किया था, पार्टी में कुछ ऐसे लोगों का वर्चस्व बढ़ने लगा था जो नये परिवर्तनों से ताल-मेल बैठाने के पक्ष में थे। जिन्हें लगता था कि पुराने आदर्शवादी ढंग से क्रान्तिकारी परिवर्तन अव्वल तो सम्भव नहीं था, या फिर अगर था भी तो उसमें बहुत समय लगने की गुंजाइश थी। 
प्रकट ही, पार्टी के भीतर नये और पुराने विचारों की कशमकश शुरू हो गयी थी और इसके चलते पार्टी की धार में कमी भी आयी थी, क्योंकि संसदीय रास्ता अपनाने के बाद पार्टी को कुछ समझौते भी करने पड़े थे। यही नहीं, बल्कि अपनी पुरानी जुझारू छवि के बल पर पार्टी ने जिन आठ विधायकों को प्रान्तीय चुनावों में जिताया था, उनमें से चार विधायक जातीय समीकरणों के प्रभाव में सत्ताधारी राजनैतिक  दल से जा मिले थे। इसका भी असर पार्टी पर पड़ा था। 
     चुनावी समझौतों के अलावा ज़मीनी स्तर पर भी पार्टी को कई बार अपने वरिष्ठ सदस्यों की मनमानी को अनदेखा  करना पड़ता था। नतीजे के तौर पर एक बार जहानाबाद के एक सामान्य साथी ने पार्टी समर्थित साप्ताहिक में एक लम्बा पत्र छपा कर ‘मालिक कॉमरेड’ और ‘नौकर कॉमरेड’ जैसी बहस भी उठा दी थी। 
पुराने कॉमरेड होने के नाते डॉ. दिनेश कुमार  इन परिवर्तनों को बड़ी चिन्ता से परखते रहे थे। नन्दू जी जब ख़ुद पार्टी से पूरी तरह जुड़ कर बिहार के गाँवों में काम करने की ख़ातिर आये थे तो उन्हें सबसे पहले डॉ. दिनेश कुमार ही की देख-रेख में रखा गया था। दिनेश कुमार ने नन्दू जी को छोटे भाई की तरह अपने परिवार का सदस्य बना लिया था और हर तरह से उनकी देख-रेख की। घर-परिवार की तरफ़ से पड़ने वाले दबावों का मुक़ाबला करने की तरकीब बतायी थी, हताशा के क्षणों में साहस बँधाया था और आर्थिक मदद तो की ही थी। 
     आगे चल कर जब नन्दू जी पटना में पार्टी समर्थित साप्ताहिक में काम करने लगे और उसी दौरान बिन्दु से मिले थे जो पार्टी की महिला शाखा में सक्रिय थी तो डॉ. दिनेश कुमार ने इसका स्वागत किया था। 
     यही नहीं, बल्कि जब इस नियमित मिलने-जुलने की वजह से पार्टी के ऊपरी हलक़ों में एक क्रुद्ध भनभनाहट होने लगी थी तो डॉ. दिनेश कुमार ने ही मामले को सँभाला था। वे जानते थे कि बिन्दु से नन्दू जी का मेल-जोल इसलिए भी नहीं पसन्द किया जा रहा था, क्योंकि दोनों अलग जाति के थे। ऊपर से बिन्दु पार्टी के एक पुराने हमदर्द की भतीजी थी जिसके पिता इंश्योरेंस कम्पनी में अच्छे पद पर थे और बिन्दु की शादी ऐसे युवक के साथ करने के क़तई इच्छुक नहीं थे जिसकी जेब में पैसों से ज़्यादा पार्टी समर्थित साप्ताहिक के लिए लिखे गये लेख होते थे, भले ही उनसे कितनी चिनगारियाँ क्यों न फूटती रहें। 
     पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों के मन में असली भय यह था कि इससे एक ऐसे समर्थक के विमुख हो जाने का ख़तरा था जिससे पार्टी को लगातार पैसों के अलावा भी अनेक प्रकार की सहायता मिलती रहती थी। डॉ. दिनेश कुमार ने पार्टी के साथियों को समझाया था कि नन्दू जी का इरादा बहुत साफ़ था, वे बिन्दु से शादी करना चाहते थे और बिन्दु को भी इसमें कोई एतराज़ नहीं था। बाक़ी, रहा सवाल नन्दू जी की आर्थिक स्थिति का तो जब वे या बिन्दु इस लायक़ हो जायेंगे कि अपने बल पर गृहस्थी चला सकें, तभी शादी करेंगे। 
     बहरहाल, डॉ. दिनेश कुमार ने हर मोड़ पर और हर तरह से नन्दू जी की सहायता फ्रेण्ड-फ़िलॉसोफ़र ऐण्ड गाइड की तरह की थी। जब नन्दू जी का सब्र चुकने लगा था और पार्टी का साप्ताहिक भी आर्थिक संकट में जा फंसा था तो डॉ. दिनेश कुमार ने ही उन्हें सलाह दी थी कि कुण्ठित हो कर पार्टी से बिलकुल किनाराकशी करने की बजाय कहीं बेहतर था कि आदमी अपना कोई छोटा-मोटा जुगाड़ कर ले और फ़ुलवक़्ती नहीं तो ख़ाली समय में पार्टी का काम करता रहे। 
ज़ाहिर है, नन्दू जी पार्टी के रिश्ते ही से डॉ. दिनेश कुमार के क़रीब नहीं थे, निजी तौर पर भी उनसे उपकृत थे  और अब दिनेश जी की चिट्ठी पाने के बाद उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इस नयी गुत्थी को कैसे सुलझायें।
नन्दू जी ने उठ कर गमछे से अच्छी तरह सिर-मुँह पोंछा था और लौट कर फिर से तख़्त पर बैठ गये थे। बिन्दु रसोई में रात के खाने का इन्तज़ाम कर रही थी। शायद रोटियाँ बना रही थी, क्योंकि थोड़ी-थोड़ी देर बाद बेली हुई रोटी को तवे पर डालने से पहले थपकने की आवाज़ आती। नन्दू जी को दिमाग़ में एक आँधी-सी चलती महसूस हो रही थी। उन्हें मानो एक ही साथ दो फ़िल्मों की रीलें चलती नज़र आ रही थीं। एक तरफ़ इलाहाबाद से पटना और नालन्दा जा कर डॉ. दिनेश कुमार और उनके घर-परिवार के साथ बिताये गये समय की तस्वीरें कौंध रही थीं, दूसरी ओर दिल्ली के पिछले तीन-चार वर्षों की जद्दो-जेहद के दृश्य बाइस्कोप की फिरकी से उभरते और विलीन होते चित्रों की तरह आँखों के सामने आ रहे थे। 
     उन्होंने एक बार फिर पत्र को उठा कर पढ़ा था। मशीन की तरह वे चिट्ठी में दर्ज इबारत को बाँच गये थे। उनकी आँखें पत्र के आख़िरी हिस्से पर पहुँच कर वहीं अटक गयी थीं: ‘जब तक किसी हस्पताल में ठौर-ठिकाना नहीं होता, कुछ दिन मैं तुम्हें तकलीफ़ दूँगा। जैसे ही साथी रामजी यादव रैली से लौट कर तुम्हारी कुशल-क्षेम देंगे, मैं सौरभ को साथ ले कर दिल्ली आ जाऊँगा।’
कुशल-क्षेम! नन्दूजी ने तल्ख़ी से सोचा, यही तो वह चीज़ थी जिसकी असलियत आये-दिन बदलती रहती थी और जो दिल्ली की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के मुलम्मे से ढँकी रहती थी। साथी लोग मुलम्मे ही को असलियत समझ बैठते थे। वे कल यहाँ आयेंगे तो दुनिया जहान के सवाल उनकी आँखों में होंगे। वे फ़्लैट देखेंगे। फ़्रिज, टीवी और वॉशिंग मशीन देखेंगे और फ़ौरन सोच लेंगे कि अब नन्दू जी के यहाँ बड़े आराम से ठहरा जा सकता है। बंसल साहब और उनकी तिरछी नज़र को तो वे देखेंगे नहीं, न उन टीका-टिप्पणियों को सुनेंगे जो बंसल साहब हर वाजिब-ग़ैर वाजिब मौक़े पर करते रहते थे। उन्हें याद आया कि हफ़्ता-दस दिन पहले ही बंसल साहब ने सब-मीटर के फुंक जाने पर कितना हो-हल्ला मचाया था:
     ‘इत्ते किरायेदार आये जी पिछले पाँच साल में,’ उन्होंने अजीब-से अवसाद-भरे अचरज से सिर हिलाते हुए कहा था, ‘कभी तो मीटर फुंका नहीं। आप अपनी अप्लायन्सेज़ चेक कराओ नन्द किशोर जी। किस कम्पनी का है फ़्रिज और टीवी? आजकल असेम्बल्ड माल आ रहा है ढेरों, और सारे-का-सारा सब-स्टैण्डर्ड।’ 
     बंसल साहब बिजली के मिस्त्री के आने तक सन्देह-भरी नज़रों से नन्दू जी के टीवी को देखते रहे थे और तभी शान्त हुए थे जब मिस्त्री ने आ कर कहा था कि गड़बड़ी नन्दू जी के फ्रिज और टीवी में नहीं, बल्कि मीटर ही में थी। 
     मिस्त्री ने मीटर ठीक करने के दो सौ रुपये माँगे थे और बंसल जी ने घर के अन्दर से ला कर पैसे देते हुए ऐसा बुरा मुँह बनाया था कि नन्दू जी का सारा दिन ख़राब हो गया था। 
     अब यह नयी मुसीबत आ खड़ी हुई थी। अगर डॉ. दिनेश कुमार अपने बेटे के साथ चले आये और बंसल साहब ने कहा कि उन्होंने मकान रहने के लिए दिया है, होटल चलाने के लिए नहीं, तो ?.... 
     और इसी ‘तो’ पर आ कर अचानक नन्दू जी को पहली हिचकी आयी थी।

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