Saturday, April 5, 2014

               भूमिका द्विवेदी की एक कहानी सभी कथा-प्रेमियों के लिए    
                 
                     रेड लाइट वर्सेज़ रेड लाइट एरिया


                    “दिमाग़ ख़राब हो जाता है स्साला हिसाब देते-देते .. अरे कैबिनेट की मिनिस्ट्री मिली है कि बनिये का बहीखाता खुल गया है ..जिसको देखो मू उठाये चला आता है ..दम मारने को भी स्साला जगै खोजनी पड़ती है .. चैन से जीने ही नहीं देते साले सब ...."
  कमरे में घुसते ही मंत्री जी बड़बड़ाने लगे।

मालविका शांति से बैठी कल हुए प्ले का रिव्यू पढ़ रही थी।
पहली बार भानु जी के साथ काम करने का मौका मिला था, देर रात एन.एस डी.से लौटी थी .
त्रिपाठी जी के बेकल स्वरों ने उसे बीच में ही उठा दिया।

  मालविका ने बोतल खोली, दो पैग बनाये .. एक बेहद लाइट, सोडा-भर गिलास में दो चम्मच रम और दूसरा ज्यादा ही हार्ड, गिलास भर रम में दो चम्मच सोडा।
रम जाने को कुछ तो चाहिये ना ..कहाँ रमे, आदमी नाम का प्राणी, इस हलाकान कर देने वाली बेतहाशा, दौड़ती-भागती दुनिया में ...
ज़हरीली, रेंगती-रिरियाती दुनिया में...
हर लम्हा हर रंग बदलती, घिघियाती, मिमियाती दुनिया में...
उसने चुपचाप दोनों गिलास टेबल पर रख दिए और मंत्री जी को देखने लगी।

   लकदक सफ़ेद कुर्ते के ऊपर पहना बुलेट-प्रूफ जैकेट उतार कर आलमारी में रखा राजशेखर त्रिपाठी जी ने, रिवॉल्वर भी वहीं रख दी। कुर्सी पर बैठते-बैठते  उनका अन्दर से उबला हुआ जी और गरमाया हुआ बेचैन जिस्म वाणी की शक्ल लेकर फिर सक्रिय हो गया,
                     
         "घर जाओ तो वो देहातिन चली आती है, टेसुए बहाती.. जब देखो झाओं-झाओं…
ये नहीं लाये, वो नहीं ख़रीदा .. इसका मुंडन, उसका जनेऊ .. ई नहीं दिया, ऊ नहीं पंहुचवाए.. ससुरी भेजा खा जाती है.. बाबूजी अलग सिर-दर्दी लिए हैं .. चउथा पेट्रोल-पम्प काहे हाथ से जाने दिए ..  तीन से पेट नहीं भरा उनका… उनके साढू के नाती के बियाह में देना है उन्हें …सी एम की भतीजी से तय कर आये हैं लपक के। तब तो मसविरा नहीं किये थे हमसे। अब काहे उम्मीद कर रहे हैं।“
   राजशेखर एक-दो घूँट हलक़ में ढनगाने को रुका दम भर के लिए, तत्क्षण उसने अपनी चिर-परिचित रौ फ़िर से पकड़ ली :
       “और वो चूतिया, दुई बार पार्टी छोड़ के भग गया था। अब भगोड़े के रिस्तेदार कहलायेंगे हम्म। बीस साल से पार्टी की सेवा कर रहे हैं हम, और रसमलाई चाटेगा वो मिसरवा की दुम्म्म। अरे सादी-बियाह में पेट्रोल-पम्प काहे भिड़ा दिए बाबूजी। टिकट तो जित्ते कहें हम बिछा दें उनके चरणों में…..ऊ चिन्दी-चोरों के न्योछावर में उड़ाये, चाहे नातेदारों के बीच हवा बनाये। हमें कउनो दिक्कत नहीं। लेकिन जबरियन की  झाओं-झपड़  नहीं अच्छी लगती ….. मेरा अपना बस चले तो हाई कमान के दरवज्जे मूतने ना जाऊं, लेकिन बाबूजी रिरियाने भेज के ही दम लेंगे ...”

      त्रिपाठी जी को कैबिनेट में अभी-अभी जगह मिली थी, सांसद की कुर्सी तो वो बरसों से तोड़ रहे थे ।
वो लम्हा भर फिर से खामोश हुए, आवाज़ में नरमी उड़ेलते हुए बोले :

        "माल्नी आप काहे चुप्प हैं .... और  इत्ता दूर काहे खड़ी हैं हमसे ?
गुस्सा हैं का हमसे .. हम तनिष्क वाला सेट आडर कर दिए हैं, आपके लिए .. परसों होम-डिलेवरी हो जायेगा… ई लीजिये रसीद ..."
 
   अपने झक्कास सफ़ेद कुर्ते की जेब से उसने फ्रेश बड़ी-सी रसीद निकाली।
पहले तो टेबल पर, बोतल के बगल में रखनी चाही, लेकिन फिर हाथ में लिए-लिए ही बोले, "लीजिये, लीजिये माल्नी, रख लीजिये कही सँभाल के।"
 मालविका के बोल अब फूटे जो काफी देर से गिलास हाथ में लिए राजशेखर को देख रही थी,

     "अरे मंत्री जी, आप नाहक हमें पटाने की कोशिश क्यूँ करते हैं। हम तो पटे-पटाये हैं आपके। ये सब ड्रामा फ़ैलाने की क्या ज़रूरत है ... ये सेट-वेट आप अपनी घरवाली के लिए रख लीजिये.. मुझे नहीं चाहिए. वास्तव में नहीं चाहिए मुझे।"
 "क्यों नहीं चाहिए आपको .. हर लड़की को चाहिए , तो फिर आपको क्यों नहीं चाहिए.. ये तो हम आपके लिए इस्पेसल बनवाए हैं ."
  मालविका धीरे से राजशेखर की कुर्सी तक पँहुची, उसके चौड़े सीने पर सिर टिकाया, वही चन्दन का इत्र महका जो उसने राजशेखर को गिफ्ट में दिया था .. वो मुस्कुरा दी।
उसने उसके मजबूत कंधे को ज़ोर से पकड़ा और बोली :
"त्रिपाठी जी, ये सब काहे के लिये … तुम हो ना बस्स.. कुछ  और की दरक़ार नहीं मुझे .. तुमसे दूर बहोत अकेली थी मैं, अब कुछ भी नहीं चाहिये मुझे ... सब कुछ है, जो तुम हो मेरे पास .. ये सबका बोझ ना चढ़ाओ मुझ पर .. "
   मालविका का लहजा ज़रा सा बदल गया .. उसने शरारती अंदाज़ में आगे कहा, “...और फिर तुम्हारा अपना वज़न कोई कम है क्या मुझ बिचारी पर चढ़ाने के लिए .."

राजशेखर ने गिलास रखा और बड़े आवेग, बड़े प्यार से, बड़े ही दुलार से मालविका को समेट लिया ..
करीब बीस मिनट तक दोनों ख़ामोश रहे।
फ़िर मालविका ने ही पूछा,
"खाना लगवा दूँ, या खाकर आये हैं प्रेसीडेंट-हाउस से .. आज तो मीटिंग थी ना कोई ?"
   "मै सोचता हूँ, तुम ना होतीं तो मेरी ज़िन्दगी का क्या होता .. यूँही बिना सुकून, बिना चैन-आराम के भटकता रहता दुनिया के फ़रेबी जंगल में।"
"जंगलराज में ही तो कुर्सी मिली है तुमको .. ऐक्चुअली तुम हो ही जंगल के राजा .. जंगल का राजा जंगल में नहीं फिरेगा तो और कहाँ है उसका ठिकाना .. "
राजशेखर मुस्कुराने लगा। उसने मालविका को और ज़ोर से जकड़ लिया। उसका सारा क्रोध, उसकी उलझनें, उसका शुद्ध यूपी वाला तेवर, उसका भाषा-प्रवाह, सब नियंत्रित हो गया अपने आप।

अब उसकी दारू की तलब भी जाती रही।
 "आपने खाना नहीं खाया होगा ना.. मै भी फोर्मेलिटी करके ही लौटा हूँ . चलिये आप साथ में खा लीजिये ....”
उसने उपेन्द्र को आवाज़ दी,
"खाना लगा दो, फुल्के सेंको, हम आ रहे हैं.. और सुनो कार में कुछ पिस्ते की बर्फ़ी रखी हैं, उसे लेते आना। " मन्त्री जी मालविका का टेस्ट खूब जानते हैं।

उपेन्द्र, राजशेखर का पुराना घरेलू नौकर था, और उसका सबसे पक्का राज़दार भी, ख़ास कर उसकी लौंडियाबाजी का .. यहाँ पासा पलट जाना उसकी अन्तरात्मा को सुहा नहीं रहा था, उसके ’दुधारू गाय’, मन्त्रीजी किसी एक के ही आंचल से काहे चिपके बैठे हैं, आगे बढ़ना भूल गये क्या।

वो देर से, कमरे के बाहर आदेश के इंतज़ार में बैठा था,फ़ौरन रसोई में दाख़िल हुआ
मालविका, राजशेखर के सीने में चेहरा छुपाये रही।
राजशेखर ने उसे उठाया,
“चलिये खा लीजिये, नहीं आप सो जाएँगी ...नौकर-चाकर भी आराम करेंगे।"


 सबेरा हुआ..
लाल सूरज ने सलामी दाग़ी, चिड़ियें चहचहाई, हवायें गुनगुनाईं।
बेसुध रात की, बेक़रार ख़ुमारी को जैसे अल-सुबह के मदमस्त सुरूर ने सीना ठोंक के चुनौती दी। राजशेखर ने ’लेमन-ग्रास’ कटवाई, महकती-सोंधी चाय खुद तैयार की अपनी बौद्धिक खूबसूरत शहज़ादी के लिये।

राजशेखर विद्यार्थी-जीवन से ही सबेरे उठने का आदी था।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पढ़ा था, सर सुन्दर लाल छात्रावास की छत प्राणायाम करता था।
रोज़ाना पाँच मील की दौड़ लगाता था।
उसका छह फुट दो इंच लम्बा-गोरा-सख्त बदन कसरती अंदाज़ से दमकता था।

सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उसने अपना टाइम-टेबल नहीं बिगाड़ा था।

ना जाने उसे क्या सूझी के अपनी लगी-लगायी सरकारी नौकरी छोड़ दी, फिर अपने होम-टाउन से एम.एल.ए. हुआ। लेकिन सुबह की सैर पर ज़रूर निकलता था।
 अपने बॉडीगार्ड्स को भी उसने अपनी आदत के साँचे में ढाल लिया।
अब जब ‘शहरी विकास मन्त्रालय’ का दारोमदार उस पर आया तो भी वह अपनी आदतों से,
 अपनी जीवन-चर्या से कोई समझौता न कर सका।
वही पुरुषोचित गर्व से तना सिर , वही लुभावने अंदाज़ और एकदम वही मीठी बेहद विनम्र वाणी .. ।
वही झूमकर चलने वाली निराली-अदाबाज़ चाल, वही मस्ती, वही सम्मानित गुरूर भी।
  कुछ अगर बदला तो जीवन में दो अहम चीजें बदलीं, एक घर-खानदान की जबरदस्त अपेक्षायें बदल गईं, सच कहा जाये तो बदली नहीं बल्कि बहोत बढ़ गईं।
और दूसरी ... दूसरी उसके बिस्तर पर नई लेकिन एक ’स्थायी’ लड़की।
 ये नई लड़की मालविका मिश्रा, उसे यूँ ही एक दिन मिल गई ..... ।
ऐसी मिली की ना छोड़ते बनी, ना अपनाते। दो बड़े बच्चों का पिता लगभग आधी उमर की लड़की से  कैसे, किस मुँह से ब्याह रचाये ?
  खानदान-समाज-बिरादरी को क्या जवाब दे, बहनोई-भतीजों-भांजियो से कैसे, किस तरह आँख मिलाये?
बड़े सवाल थे, परेशान करने वाले प्रश्नचिन्ह थे .. ।
राजशेखर जिस परम्परावादी, मर्यादित और मान-सम्मान वाले परिवार से  वाबस्ता  था, वहाँ इस तरह की कोई भी चर्चा जलजला लाने से कम नहीं थी।

   लेकिन दूसरी कोई से भी उसका जी नहीं लगता, उसका पेट ही नहीं  भरता था।
कोई उबाऊ किस्म की, कोई अजब नखड़ीली, कोई गज़ब भड़कीली, कोई चलती-फिरती मेकअप की दुकान सी तो, कोई संत-साध्वी सी। कोई ऐसी चिपक गई थी के छुड़ाए नहीं छूट्ती, सिर पर पाप की तरह मढ़ी हुई।
  खूब हँसता था, मालिनी को बता-बताकर, किसी की काली-काली टांगें तो किसी  की मोटी तोंद, किसी की उल्लू-पंती की बातें, तो किसी की  झटुअल-बेहूदा कवितायें, किसी के चिरकुट एस.एम.एस. तो किसी की लीचड़ फोटुयें ….।

   वैसे तो  नेता जी से कोई प्रान्त, कोई रंग, कोई देस-भेस, कोई भी  ज़बान बोलने वाली, कोई जात-बिरादरी, कोई संस्कृति, कोई संस्कार का, बदन छूटा ना था चखने से।
कभी बाढ़-पीड़ितों की राहत-सामग्री का मुआयना  करने के बहाने, तो कभी सूखा ग्रस्त इलाकों के दौरे के बहाने, कभी विदेश-यात्रा में, तो कभी इलाज के नाम पर, घूम-घूम कर, ढूढ़-ढूढ़कर, झूम-झूम कर, उसने हर तरह के तन-बदन  का खूब भरपूर सेवन किया था, ….और तो और शोक-सभाओं और प्रार्थना-सभाओं में भी उसकी मौजूदगी उसकी तयशुदा रातों का ही सबब होती थीं।
लेकिन मालविका नाम की ’बूटी’ ने ऐसा क्या असर बरपाया कि मालविका के बाद उसे कोई और नहीं सुहा रहा था।
जबसे वो मालविका के फेर में पड़ा, उसका दिल कहीं रम ही नहीं पाया।
बल्कि ये कहना ज़्यादा सही होगा कि वो दोनों एक दूसरे में ही रमते थे.. ।
दोनों एक दूसरे के बिना बड़े बेचैन हो जाया करते थे, एक दूसरे से ही दोनों का जी खूब लगता था .. ।
मालविका की सोहबत बचपने से विलायती रही। उसके पितामह स्वीडन के प्रान्तीय-विश्वविद्यालय में ता-उम्र संस्कृत के प्राध्यापक रहे। बाप अमेरिकी महिला से ब्याह करके कैलिफोर्निया में नौकरीयाफ़्ता जीवन में अनुरक्त हुए। उसकी अपनी सगी माँ संस्कृत की विदुषी जानी जाती थी। उसने वृन्दावन के एक विधवाश्रम में अपनी बची जिंदगी के लिए रास्ते खोज लिए थे।
अब शेष रह गई थी, इकलौती औलाद मालविका।
उसे नियति ने आवारा फिरंगियो की बेलगाम-टोली का बेबाक सदस्य बनाया था।
जहाँ वो अपनी स्वछन्द ज़िन्दगी के दिन सिगरेट के उन्मुक्त धुएं में और मँहगी शराबों के निर्बाध प्रवाह में काफी हद तक बर्बाद कर रही थी।
धुएं के उस ग़ुबार में और प्रवाह की उस ख़ुमारी में, ना अतीत का कोई भी मातम था, और ना ही भविष्य की कैसी भी परवा।

राजशेखर का साथ मिलने से पहले इस रंग-रंगीले ब्रह्माण्ड का फेरा लगा कर हालिया ही लौटी थी। दिलजलों की बस्ती दिल्ली में, थियेटर के बहाने दिल  लगा रही थी।

मालविका को आत्मा से देसी-मिट्टी का चाव था।
विदेशी फूल चाहे जितने रंगीन हों, आकार-प्रकार-प्रजाति से जी को लुभाते हों, लेकिन ’देसी महक’ का मुक़ाबला नहीं कर सकते ।
यही मजबूत प्यारी देसी  महक मालविका को राजशेखर के दामन में, चौड़े सीने में, ऊँचे-विशाल कंधो के साथ-साथ, उसके घर-आंगन में  भी मिली थी .. ।
  इस सोंधेपन ने मालविका के तन-बदन-मन में एक सुरक्षित जगह बना ली और आत्मा में जगह बनाने के लिए राजशेखर का तृप्ति से आकंठ सिंचा हुआ मधुर-मादक-मदमस्त सुरीला प्रेम था।

राजशेखर का ये करीने से सजा आवास मालविका को उसके पैतृक घर की याद दिलाता था, जिसे उसे बहोत-बहोत लाड़-दुलार करने वाली उसकी दादी ने बसाया था।
 वही आत्मीयता  सोंधेपन से सराबोर घर, जहाँ गेंदे-रजनीगंधा-देसी गुलाब की लहकती क्यारियाँ थीं, रातरानी-इन्द्रबेला-जूही-चमेली की महकती बेलें थीं, चौखट पर मुस्कुराता लाल गुड़हल का पेड़ था, जो देवी-माँ को चढ़ता है, जिसकी पूरे नवरात्रि भर बड़ी डिमांड रहती थी .. अशोक का मस्ताना, झूमता पेड़ था, शिव लिंग पर चढ़ाया जाने वाला बेल-पत्र का वो काँटे वाला पेड़ भी था, जो बड़े गैराज की दीवार के पीछे मुस्तैदी से  सभी आने-जाने वालों पर दिन-रात नज़र रखता था, एक कुआं भी था, जिसके ठंडे पानी की बोरिंग बाबा ने पूजाघर तक करा रखी थी।  
जजेज़-कॉलोनी का फैला-पसरा मकान जिसमे मालविका ने अपना बचपन बिताया  था। बाबा का स्पेन से छुट्टियो में यहीं आने-जाने-रुकने का अपना का ठौर था।
काली गायें , घर का बना घी-रबड़ी,  मुनक्का और गाँव से आया ताज़ा देसी गुड़ ..... सब सब
रह-रह कर, एक-एक कर, तेज़ हवा में फड़फड़ाते पन्नों सा सामने से गुज़र जाता और वो लिपट-लिपट, महक-महक, चहक-चहक जाती थी, राजशेखर नाम की ’दिलफ़रोश फुलवारी’ के चहुँ-ओर।

मालविका एक थियेटर-ग्रुप की मामूली-सी कलाकार थी।
बनारस की गलियों से संसद-भवन के अव्वल-दर्जे नौटंकी-निर्माताओं तक अपने थियेटर-ग्रुप की प्रस्तुतियों के माध्यम से ही पँहुची थी। मालविका मिश्रा और राजशेखर  त्रिपाठी एक दिन एस. आर. सी. (श्री राम सेंटर) में हैमलेट की प्रस्तुति के दौरान एक साहित्यिक मित्र की मध्यस्थता से मिले थे।
राजशेखर  त्रिपाठी अपने मित्र की मित्रता का मान रखने को प्ले देखने आया था।
वरना तो लाल-बत्ती वाले फीता काटने और उद्घाटन-दीप जलाने ही आते थे, और बड़ा हाथ हिलाकर, नौटंकी भाँज कर चले जाते थे। निर्देशन की बारीकियों, कलाकारों के अभिनय-क्षमता का के कमाल या फ़िर मंच और लाइटिंग में रँग के उपयोग का महत्व से  भला इन सब ड्रामेबाजों का क्या वास्ता ?
यहाँ तो व्यवहार निभाना था, और बनावटी सत्कार की दरकार को छोड़कर आना था।
लेकिन मज़ा तो ये हुआ,वो कहीं और ही गिरिफ़्तार, बेक़रार हो गए थे .सच तो ये था,
 कि वो प्यार में पड़ गए थे।
पहले-पहल उन्होंने मालविका को बड़ी सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा था।
क्योंकि छोटी जगहों पर, छोटे-कस्बों-शहरों में थियेटर को ही बड़ी सम्मानित दृष्टि से देखा ही नहीं जाता था।
राजशेखर त्रिपाठी, छोटे शहरों की छोटी मानसिकता से वो बाहर नहीं निकल पाया था। उसका मन-कर्म-वचन उसकी तुच्छ सोच की गवाही यदा-कदा देते रहते थे ..
छोटे-कस्बों-शहरों में थियेटर का कारोबार प्रायः वही लोग सँभालते थे, जिनका पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा मन नहीं लगता था। और ऐसे लड़के-लडकियाँ तो ख़ास कर थियेटर में बहुतई उचकते थे, जिनका गली-मोहल्ले में कोई न कोई टांका भिड़ा हो .. ये लोग थियेटर के बहाने अपने-अपने दिलदारों से घंटों नैन-मटक्का करते थे।  देहात-कस्बों की लडकियाँ अपने इन थियेटर वाले 'लच्छनों' के चलते पर्याप्त बदनाम भी होतीं थीं।
   इसी तरह का  थियेटर-परिवेश जानता था। दिल्ली-मुंबई के हाई-प्रोफाइल और मँजे हुए स्तरीय थियेटर  से उसका राबेता अभी तक नहीं रहा था।
   अपनी उसी दकियानूसी और घटिया नज़रिये से थियेटर को देखा और बड़ी नाज़-ओ-अदा से  लपक कर, मालविका को 'स्पेशल डिनर' का न्योता भी दे आया था।
ये बड़ी विचित्र अजीब-ओ-गरीब पहली रात थी दोनों की।
एक दूसरे के साथ दोनों एक बहुत बड़े से अकेले कमरे में थे।
चाँदनी भी छिटक-छिटक कर ख़ूब सुनहरे गीत गा रही थी।
इस पूरे खुशनुमा प्रकरण में अजीब ये था के दो के दोनों एक दूसरे को "कुछ और ही" समझ कर मिले थे।
यदि  वे एक दूसरे की ज़मीनी वास्तविकता से परिचित होते तो यूँ तन्हाई में मिलना होता ही नहीं।
मालविका का ताज़ा ब्रेकअप उसके स्पेनिश प्रेमी निकोलस से हुआ था, खुद को बहला रही  कि उसी वक़्त राजशेखर महोदय टकराए थे।
यदि  हकीक़तों को जानते, तो निस्सन्देह आज एक दूसरे के सामने हर्गिज़ ना होते।

  मालविका ने समझा कोई थियेटर का सच्चा कद्रदान होगा।
तभी अदना-सी कलाकार को बड़ी भारी हैसियत से न्योता दे रहा था, अरे भाई पहली बार में ही शानदार लाल-बत्ती गाड़ी भिजवाई थी लिवाने के लिए।
उधर राजशेखर ने समझा, थोडा टेस्ट में बदलाव और तजुर्बे में इज़ाफा हो जायेगा और खूबसूरत-अदाबाज-संभ्रांत लड़की के साथ एक नई रात रंगीनी में बीत जाएगी।
राजशेखर  इतनी चापलूसी और सलीके से निमंत्रण देकर गया कि मालविका इस ज़रूरत से कहीं ज्यादा विनम्र प्रस्ताव को ना नहीं कह सकी थी।
वो ये समझ कर निकली थी, थियेटर के इतिहास पर विमर्श होगा, बड़े-बड़े सम्मानित कलाकारों के काम करने के अनुभव पर चर्चा होगी, एक सुन्दर-सभ्य-सलीकेदार डिनर के बाद वो अपनी पी.जी. समय से लौट आयेगी।

लेकिन वो रात कड़वी गोली जैसी थी, जिसे आत्मीयता और भ्रम के आकर्षक और मनमोहक वरक़ में लपेटकर राजशेखर ने मालविका को चखाने का एक असफल प्रयास किया था।
मालविका गुस्से से आगबबूला होकर दनदनाती हुई, आधी रात को हॉस्टल लौट आई थी।
अकेले बिस्तर पर पड़ी सोचती रही, "ये साले लाल-बत्ती वाले लड़की को इंसान कब समझेंगे .कलाकार, लेखक या कोई भी सर्जक कब समझेंगे ..  कितना कमीना निकला साला .. ब्राह्मण होकर भी इतना अधमी। उफ़्फ़, बेकार चली गई मैं। बड़ा थियेटर का भक्त बता रहा था खुद को .. दुष्ट . पाखंडी . बदतमीज़।"

और इधर राजशेखर तो एकदम ही झन्ना गया था। उसके पांव के नीचे से ज़मीन जैसे कि हिल गई हो।
‘ये क्या हुआ।’
 उसको तो कुछ समझ ही नहीं आया।
ना जाने कितनी रात कितनी लौंडियो के साथ बिताता रहा था, कितनी-कितनी सेवा करके, बहला-के-फुसला-के, अपनी-अपनी फीस लेकर जाती रहीं थीं। किसी ने पच्चीस तो किसी ने पचास ऐंठे थे।
किसी ने सरकारी नौकरी लगवाई, तो किसी ने प्रोमोशन करवाया, कोई अपने होमटाउन में ट्रान्सफ़र करवा गई।
किसी ने तगड़ा लैपटॉप झटक लिया तो किसी ने केवल मंहगा मोबाइल बदलवाया।
अब तो नारी-जागरण का ज़माना था, टिकट के लिए भी नारियाँ आती रहीं और नाड़े खुलवाती रहीं।

लेकिन ... लेकिन ये कौन आयी. ये कैसी लड़की आई ..?
चार गाली सुना कर, झटक-फटक कर चली भी गई।
अरे चूमा-चाटी तो दूर की बात हाथ तक नहीं लगाने दी।
ऐसी करारी गाली तो किसी औरत से आज तक नहीं खायी थी। सब ‘मंत्रीजी-मंत्रीजी’ करती फिरतीं थीं, ‘नेताजी-नेताजी’ करके सीने से लिपटाती फिरती थीं। आगे-पीछे डोलती थीं।
लेकिन ये हुआ क्या मेरे साथ ?’

राजशेखर यही सब सोचता रहा देर तक। फिर चार पैग चढ़ाये और झल्लाकर सो गया।
सुबह हाउस पँहुचना था। मॉनसून-सेशन चल रहा था।
उसका मन नहीं लग रहा था। बगल में बैठे शहाणे ने टेबल थपथपाया, तो उसने खुद को संसद के अन्दर बड़ा बेचैन पाया। लंच-ब्रेक में उसकी बेक़रार उंगलियों ने मालविका का नम्बर लगाया, जिसे मालविका ने उठाया ही नहीं।
देर रात गए राजशेखर ने फिर उसे फोन लगाया।
आँखे बंद किये मालविका मनोयोग से हेडफोन लगाये मेंहदी हसन साहब को सुन रही थी। सेल फोन की झनझनाहट से आँखे खोली और बड़ी लापरवाही से उसने फोन डिसकनेक्ट कर दिया।
मालविका प्रायः इसी मुद्रा में सोती आई है, और उस दिन भी ऐसे ही ग़ज़लों की गोद में सो गई।

 दूसरे दिन सवेरे कॉलेज में रिहर्सल के लिए जाते वक़्त उसने कपड़े बदले, उसे ख़याल आया कि उसका मैचिंग-स्कार्फ राजशेखर के बँगले में छूट गया है। गुस्से में दनदनाती हुई उठकर चली जो आयी थी.
निकोलस  ने गिफ्ट किया था, धर्मशाला से लाया था, सभी ड्रेस पर चलता था, कितना सुन्दर और यूनिक था,  हर रंग के साथ फबता था, मल्टी-कलर्ड जो था .. अब क्या, गया हाथ  से।
‘वो बेहया आदमी अब क्या लौटाएगा ! जाये भाड़ में रंडीबाज कहीं का !
दूसरा ले ही लूंगी कही से..एकदम वैसा मिलना मुश्किल है, फिर भी कोशिश करती हूँ सरोजिनीनगर या जनपथ में कहीं.. ।
मैंने सच में पाप किया उस कमीने के यहाँ जाकर ही !
कितना अनमोल स्कार्फ गंवा दिया, उफ़ !
बत्तमीज़ मंत्री कहीं का, हुँह !’
मालविका ने गुस्से में भुनभुनाते हुए नीली जीन्स की जगह काली जीन्स चढ़ायी, प्रिंटेड शॉर्ट-कुर्ते की जगह सफ़ेद चिकेन की हाफ शर्ट पहनी और काली-सफ़ेद स्कार्फ हाथ में लपेट कर कॉलेज की ओर निकल पड़ी।

  राजशेखर ने दोपहर बाद एक बार और आख़िरी उम्मीद लगाकर मालविका को फोन घुमाया, ये सोचकर कि, " आज भी नहीं उठाई, तो दोबारा नहीं ही करूँगा..बहोत देखी हैं इस जैसी नकचढ़ी, अरे एक गई तो सौ आएँगी और फिर इस साली की औक़ात ही क्या है, लेकिन घमंड तो देखो, आसमान चढ़कर बरसता है …बस्स ये आख़िरी कॉल है मेरी ..।”
ये राजशेखर का आख़िरी कॉल दोनों के ही जीवन में न सही तूफ़ान मगर, अंधड़ लाने वाला ज़रूर सिद्ध हुआ।
दोनों की जिंदगियो में ऐसा कोई हड़कंप तो नहीं मचा, लेकिन दोनों के ज़ेहन में पलने वाले बड़े-बड़े भ्रम ज़रूर टूट गए।
ठीक उसी तरह जैसे तूफान तो पूरा शहर ही उजाड़ डालता है लेकिन, अंधड़ केवल जमे हुए पक्के बड़े पेड़ों को जड़ से उखाड़ डालता है।
रिहर्सल के दौरान ये फोन-कॉल आयी थी, जब मालविका को अपने डायलॉग पर सरसरी निगाह डालकर मंच पर उतरना था।
उसने थोड़ी-सी लापरवाही से फोन रिसीव किया, कि शायद स्कार्फ लौटाने को मंत्री जी कॉल कर रहे हों।
वैसे भी किसी अनमोल चीज के लिए एक फोन रिसीव करना बड़ी क़ुरबानी नहीं थी
एक अत्यंत संक्षिप्त औपचारिक बातचीत में स्कार्फ लौटाना तय हुआ।
उसी शाम राजशेखर के पर्सनल-ड्राईवर ने मालविका को फोन किया कि वो अपने हॉस्टेल-गेट पर आकर अपना स्कार्फ ले ले …
वो गेट पर आयी तो पाया राजशेखर ख़ुद मिठाई का डिब्बा और सलीके से इस्त्री किया स्कार्फ लिए खड़ा है।
बिना लाग-लपेट के, बिना किसी भी औपचारिकता के, किसी भी कैसे भी अभिवादन के बगैर उसने झपटकर उसने अपना स्कार्फ ले लिया और पलटकर जाने लगी तो राजशेखर ने फ़ौरन रोका,
"सुनिए तो, ये मिठाई भी आपके लिए है। इसे भी ले लीजिये।"
"मिठाई किस लिए भला?" उसने नाक-भौं चढ़ाकर पूछा।
"आपको मीठा पसंद है ना, इसलिए भला," राजशेखर ने अपनी वाणी को चाशनी की कढ़ाही में डुबो कर निकाला।
"आइ डोन्ट वॉन्ट एनिथिंग एल्स, इक्सेप्ट माय स्कार्फ," मालविका लगभग गरज कर बोली।
"लेकिन सुनिए तो, त्यौहारों का सीज़न है आजकल, ऐसे ना नहीं कहते. देखिये किसी की कोई चीज़ खाली हाथ नहीं लौटाते। ये तो तमीज़ की भी बात हुई ना ?"

"ओहहोहोहोहो, तो तमीज़ जानते हैं आप ????
अर्रे वाआह !!! " मालविका ने भरपूर आँख नचाकर, खूब बुरी तरह भौं मटका कर गुस्से से तमतमा कर कहा।
राजशेखर के दिल में शायद एक तीखी छुरी पहले ही चुभी हुई थी, मालूम होता था वो छुरी आज और गहरी धँस गई है, गहरी उतर गई है।
वो उसे प्यार से देखता रहा और मुस्कुरा दिया; और ये तिलिस्मी मर्दाना मुस्कुराहट जिसके असंख्य/अनेकों अर्थ होते हैं, मालविका की तमतमाहट, उसके क्रोध को कुछ, ज़रा-सा हल्का कर गई।
"आप उस दिन बिना खाए, बिना विदा लिए ही लौट आयी थीं। नाराज़गी वश ना?"
"उस दिन की बात ना करें तो बेहतर होगा। ओकेA"
"आपका आदेश सर माथे पर।" राजशेखर मुस्कुराता रहा, जवाब देता रहा।
"ये नाराज़गी वश अच्छा यूसेज़ है, शुद्ध हिंदी के साथ उर्दू भीA नाईसA" मालविका के स्वर कुछ सामान्य हुए।
"देखिये उस दिन की बात ना करने का फ़रमान मिला है मुझे, क्या मै आज की बात कर सकता हूँ?"
"कैसी आज की बात, भला?"
"चलिए, कहीं चलते हैं, पाँच-सात मिनट्स के लिए ही सही। अगर आपको पसंद नहीं तो हर्गिज़ घर नहीं, जहाँ आप कहें, वहीँ सही। आप जिस जगह कहिये वहाँ खाना खाकर लौट आयेंगे। आप को हॉस्टल छोड़ के मैं घर निकल जाऊँगा। बस आपकी हुकूमत चलेगी।आप देख लीजियेगा।"
"देखिये, मैं खाना कहीं भी बाहर नहीं खाती। यहीं, हॉस्टल में खाऊँगी। मुझे पसंद ही नहीं कहीं का भी खाना।"
"जी बहोत अच्छे, लेकिन यूँ ही एक राउण्ड बस्स...जहाँ आप उचित समझें। मै समझूँगा आपने मुझे मेरी नासमझी, मेरी अभद्रता के लिए माफ़ कर दिया।"
मालविका ने दिमाग़ भिड़ाया कि कई दिन से रिहर्सल की व्यस्तता के चलते निकोलस के हॉस्टल तक जाना हो नहीं सका, इसकी कार से एक फेरा लग जायेगा और समय भी बचेगा। इसका कहना भी रह जायेगा और इससे पिंड भी छूट जायेगा।वो चलने को तैयार हो गई।
"मेरे हॉस्टल-मेस के डिनर-टाइम तक लौट आयेंगे ना?"
"जी बिलकुल। मैंने कहा ना, आपकी हुकूमत चलेगी।"
"ठीक है, इंटरनेशनल हॉस्टल तक चलते हैं, नॉर्थ कैम्पस तक।"
"बेशक़ ..." कहते-कहते उसने कार का पिछला दरवाज़ा खोला, मालविका को सलीक़े से बिठाया और ख़ुद भी जल्दी से आकर, साथ बैठ गया। राजशेखर का हाल ही में बैकबोन का गंभीर ऑपरेशन हुआ था, तबसे वो आगे की सीट में ड्राईवर के साथ ही बैठा करता था, लेकिन आज उत्साहित होकर पीछे जा बैठा था और कैसी भी तकलीफें उसे जैसे याद ही नहीं थी।
जब गाड़ी इंटरनेशनल हॉस्टल पर रुकी, मालविका ने बड़े गर्व से निकोलस का कमरा राजशेखर को दिखाया।
उसने हॉस्टल-परिवेश की वो हर जगह दिखाई जहाँ वो निकोलस के साथ उठती थी, बैठती थी, चहकती थी, गाती थी।
राजशेखर मालविका के बरताव से पहले ही बड़ा अचम्भित था, आज तो वो एकदम ही हतप्रभ हुआ था।' कैसी अजीब लड़की मिली है ये, पहली बार साथ में कहीं निकली है, और अपने प्रेमी का कमरा मुझे दिखा रही है।'
वो सोचता रहा, और चुपचाप सब देखता रहा।
और मालविका निकोलस की ड्योढ़ी पर कुछ देर खड़ी रही चुपचाप।
राजशेखर उसके कशिश से भरे मासूम चेहरे पर तत्काल ही उभरी ग़मगीन लकीरों को पढ़ता रहा, समझता रहा।
लौटकर मालविका अपने हॉस्टल में बेपरवाह सो गई, खूबसूरत ग़ज़लों की मादक पनाह में।
ज़िन्दगी ग़ज़ल लिखने को तैयार बैठी थी, मय कागज़-कलम-दवात।
ज़िन्दगी ग़ज़ल सुनाने को, मौसिक़ी सजाने को तैयार खड़ी थी ठीक अगले कदम पर, मय साज़-सुर और साजिंदा।
साजिंदा वो, जो हर साज़, हर राग, हर सुर को, हर तरह से साध लेने में सिद्ध-हस्त था।
वो रंगीन साजों का आदी था, शौक़ीन था।
लेकिन मालविका सो रही थी, आँख-कान बंद किये।
बेसुध, बेखबर।

राजशेखर का मनाना-रिझाना अपनी तेज़ लय पर था। और उसकी नखड़ीली परी, अब रीझ भी रही थी, मन भी रही थी, धीरे-धीरे, हौले-हौले, लेकिन थोड़ा-थोड़ा, ज़रा-ज़रा।
राजशेखर के आलीशान बँगले के बड़े से फाटक पर अक्सर लाल गुड़हल का पेड़ देखकर ठिठक जाया करती थी और उसे बड़े मनोयोग-से निहारने लगती थी।

"आइये." राजशेखर उसे हर बार याद दिलाता था, कि घर के अन्दर भी तो जाना है। हर बार हाथ पकड़ कर साथ ले जाता था.
बस, यूँ ही इसी राजशेखर के प्रेम से बनाये हुए सुन्दर-सलीकेदार माहौल में दिन से महीने, महीनों से बरस बीतने लगे।
मालविका की हॉस्टल की अवधि भी इसी ख़ुमारी में पूरी हो गई और इस बार वो किसी फिरंगी के कन्धे पर सिर टिकाये, उस फिरंगी के वतन, उसके घर नहीं गई।
इस बार वो बड़ी निश्चिन्त राजशेखर के दामन से लिपटी, उसकी बाँह थामे, बड़े अरमान, बड़े इत्मीनान, बड़े एहतराम से, मय सामान उसके सरकारी आवास में शिफ्ट हो गयी।

     बड़ा निर्णय था, बड़ा परिवर्तन था, बड़ी बात थी ... समाज के बदलते ढांचे के लिहाज़ से क्रांतिकारी फैसला तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हाँ, राजशेखर के निजी पारिवारिक माहौल के हिसाब से यह एक तूफानी कदम ज़रूर था। लेकिन यह तूफ़ान उसे बहारों के भेस में  मिला था जिसे उसने गले लगा कर अपनाया था. दिल से, आत्मा से, अपने प्राणों से चाह कर अपनाया और मालविका जीवन पर्यन्त  उसकी हो कर रह गयी . इस बेस्वादी, उलझनों से भरी अजीब सी दुनिया में, उसकी उलझनें दूर न सही, कम करने की कोशिश करने लगी।
       
  कभी राजशेखर की खीझ दूर करती, कभी खुद खीज कर चार बातें सुना दिया करती थी।
मालविका का गरियाना भी राजशेखर के लिए प्रसाद-मानिन्द था।
खूब हँसना-खिलखिलाना यही सब था जीवन, और यही थे जीवन जीने वाले वे दो प्राणी।
कभी चहकते दोनों ’श्रीराम सेंटर’ से निकलते, कभी ’इंडिया इस्लामिक सेंटर’ में साथ तस्वीरें खिंचवाते।
कभी ‘इण्डियन हैबिटैट सेंटर’ तो कभी ‘इण्डिया इंटर नेशनल सेंटर’, कभी ‘आइ. सी. आर. आर.’ तो कभी सुदूर गुडगाँव का ‘ए.पी.-थियेटर’। कभी संसद-भवन का अहाता तो कभी प्रेसीडेंट-हाउस का दिलनशीं बागीचा।
ज़िन्दगी मस्ती और नूर की बारिश करती रही, और दोनों नहाते रहे।
   उस लाल बत्ती वाले ने लाल सिंदूर तो नहीं लगाया, लाल बिंदिया, लाल साड़ी से भी नहीं सजाया, क्यूंकि दोनों में से किसी को, इन सारे ताम-झाम की ज़रूरत ही नहीं पड़ी...लेकिन हां, पूरी शिद्दत, पूरी आत्मीयता, पूरे सम्मान, पूरे दायित्व, पूरे रस्म-ओ-रिवाज़ से अपनी शिराओं में बहते खून के लाल रंग पर एक ही  नाम ज़रूर लिख दिया .. ’मालविका मिश्रा’ .



                                         



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