[यह टिप्पणी लगभग डेढ़ साल पहले लिखी थी.
तब हमारे यहां नया निज़ाम लागू नहीं हुआ था, गो पुराना निज़ाम लड़खड़ाने लगा था. हवा में हलचल थी पर किसी को यक़ीन नहीं था कि हम पूरी तरह सौदागरों के हाथों में चले जायेंगे, साम्प्रदायिकता एक तरफ़ अपनी आक्रामकता दिखायेगी, दूसरी तरफ़ साम्प्रदायिकता के अलमबरदार चालाकी से यह दिखायेंगे कि वे कितने उदार हैं. जनता की गुहार लगाते-लगाते उसे बेचने, गिरवी रखने, ग़ुलाम बनाने, डराने-धमकाने का खुला खेल शुरू हो जायेगा क्योंकि जनता ने पांच बरसों के लिए अपने हाथ बांध लिये हैं.
इस सब के बावजूद इस टिप्पणी को दोबारा पढ़ते हुए आप सब से साझा करने का मन हुआ है तो इसलिए कि आप सब सोचें और इसमें अपनी राय जोड़ें, इसे आगे बढ़ायें.]
सर्वहारा राजनीति और संस्कृति के नये औज़ार
एक भयानक चुप्पी छायी है समाज पर
शोर बहुत है पर सचाई से कतरा कर गुज़र रहा है...
एक भयानक बेफ़िक्री है पाठक अत्याचारों के क़िस्से पढ़ते हैं अख़बारों में
मगर आक्रमण के शिकार को पत्र नहीं लिखते हैं सम्पादक के द्वारा
सभी संगठित दल विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के लिए जुट लेते हैं
एक भयानक समझौता है राजनीति में हर नेता को एक नया चेहरा देना है."
(समझौता : रघुवीर सहाय)
किसी विचारशील युद्ध विशेषज्ञ ने कहा है कि जब लड़ाई लम्बी चलती है तो दोनों पक्ष अपने गुरुओं, सलाहकारों और पक्षधरों से उतना नहीं सीखते जितना अपने दुश्मनों से. शायद यही कारण है कि जो लड़ाई सत्रहवीं-अट्ठारहवीं सदियों में औद्योगिक क्रान्ति के बाद यूरोप में शुरू हुई थी और जिसने हज़ारों वर्षों से क़ायम सामन्ती व्यवस्था को उखाड़ फेंका था और पूंजीवाद की शक्ल में एक नयी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था की नींव रखी थी, उसके अलग-अलग दौरों पर नज़र डालते ही यह साफ़ हो जाता है कि उस लड़ाई के दोनों पक्ष एक-दूसरे पर लगातार गहरी निगाह रखते रहे हैं. पिछले तीन-चार सौ बरसों के दौरान इस लड़ाई ने कई रूप बदले हैं. पूंजीवाद ने, जो औद्योगिक क्रान्ति के नतीजे के तौर पर आया था और जिसकी झोली में ऐसे अनेक वरदान थे जिन्होंने मनुष्य को नयी बुलन्दियों तक पहुंचाया, एक-डेढ सौ बरस ही में अपनी झोली से अभिशापों की झड़ी लगा दी. अमीर और ग़रीब के बीच की सारी पुरानी लड़ाइयों ने नये और निर्मम रूप-रंग अख़्तियार कर लिये. लेकिन दूसरी तरफ़ से भी प्रतिरोध की कोशिशें जारी रही और हर दौर में मनुष्य को जकड़बन्दियों में घेरने के हर नये क़दम के ख़िलाफ़ नये हथियार और औज़ार गढ़े गये. लेकिन इस लड़ाई का यूरोप में जो भी स्वरूप रहा हो, दुनिया के और बहुत-से हिस्सों में यह बिलकुल अलग ढंग से पहुंची और छेड़ी गयी.
हमारे देश में पूंजीवाद और आधुनिक मशीनी युग अपने पैरों पर नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के कन्धों पर चढ़ कर आया. उसने सामन्ती व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने की बजाय, जैसा कि यूरोप में देखा गया था, उससे समझौता कर लिया. यही उसकी विशेषता होती है. वह सत्ता उस तरह नहीं हथियाता जैसे सामन्ती युग में एक राजा या राज्य दूसरे पर कब्ज़ा करके हथियाता है. वह सत्ता पर अपनी पकड़ बना कर उपनिवेश तो लूटने, चूसने और दुहने का काम करता है. सत्ता का असली केन्द्र उपनिवेश के भीतर नहीं बल्कि उस देश में स्थित होता है, जिसने उपनिवेश क़ायम किया हो. यूरोप के सभी उपनिवेशवादियों ने, चाहे वे अंग्रेज़ रहे हों या डच, फ़्रांसीसी रहे हों या जरमन, अपने-अपने उपनिवेशों में ठीक ऐसा ही किया. इस हालत में उपनिवेश और उसमें रहने वालों के प्रति उपनिवेशवादी सत्ता की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती. वह उस उपनिवेश में जो भी तब्दीलियां करता है, अपनी लूट को बेहतर तौर पर अंजाम देने के लिए करता है. रेल हो या डाक-तार व्यवस्था या शासन का पश्चिमी तरीक़ा या आधुनिक शिक्षा पद्धति -- अंग्रेज़ों ने इन्हें हिन्दुस्तान के लोगों के हित के लिए नहीं यहां स्थापित किया था. उनका उद्देश्य अगर हिन्दुस्तानी जनता की बेहतरी होता तो सबसे पहले वे समूचे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे में बुनियादी सुधार करते. लेकिन उन्होंने पुरानी बुराइयों को बने रहने की छूट देते हुए, कुछ नयी बुराइयां भी लाद दीं.
यही वजह है कि आज हमें अपने देश में एक तरफ़ तो भयंकर रूप से लचर और अकल्याणकारी लोकतान्त्रिक ढांचा नज़र आता है, दूसरी तरफ़ सामन्ती संरचना भी अपने पुराने रूप में बहुत हद तक मौजूद है. १९४७ के बाद जिस तरह उत्तरोत्तर हर राजनैतिक दल के भीतर वंशवाद और कुनबापरस्ती पनपी है, वह सामन्ती मूल्यों के अस्तित्व ही का संकेत है. किसी भी विकसित पश्चिमी लोकतन्त्र में यह चलन देखने में नहीं आता. यही वजह है कि १९४७ में अंग्रेज़ तो गये, पर सत्ता भारतीय जनता के हाथ में नहीं आयी. भगत सिंह ने १९३० में अपनी शहादत से पहले ही यह आशंका व्यक्त की थी कि कथित आज़ादी और कुछ नहीं, सत्ता पर गोरे साहबों की जगह काले साहबों का कब्ज़ा होगा. ऐसा ही देखने में आया. यही वजह है कि प्रकट रूप से अंग्रेज़ उपनिवेशवादी तो गये लेकिन नव-उपनिवेशवादियों ने उनकी जगह ले ली. और अब नव-उपनिवेशवाद के ज़रिये हम पर काबिज़ पूंजीवाद सिन्दबाद की कहानी का वह "पीर-ए-तस्मा-पा" बन चुका है जिससे निजात पाने के लिए नयी सूझ-बूझ और नयी हिकमतों की ज़रूरत है. कहने की बात नहीं है कि यह भी पूंजीवाद ही की करनी है कि आज कोई भी देश औरों से अलग-थलग रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर नहीं कर सकता. हमारे देश के अन्दर जो और जिस क़िस्म की कश-म-कश चले, उसका ताल्लुक़ लामुहाला दूसरे देशों से होगा ही, ख़ास तौर पर उन देशों से जो असर डालने की ताक़त रखते हैं. सो, जो भी उपाय तलाश किये जायें, उनका स्वरूप अन्दर के हालात तो तय करेंगे ही, उस में बाहर की परिस्थितियां भी अपनी भूमिका निभायेंगी.
जैसा कि मैंने कहा, चीज़ें स्थिर और स्थायी नहीं होतीं. समाज चाहे जैसा भी हो लगातार बदलता है और हाल के वर्षों में हिन्दुस्तान के भीतर ही नहीं, उसके बाहर भी चीज़ें तेज़ी से बदलती रही हैं. बीसवीं सदी के शुरू में, खास तौर पर पूंजीवाद पर आये पहले संकट के बाद जो १९२९ की मन्दी के रूप में दिखायी पड़ा था, पूंजीवादी तन्त्र के खिलाफ़ एक ज़बरदस्त लहर दिखायी दी थी. सोवियत और चीनी क्रान्तियों ने बहुत-सी नयी आकांक्षाओं के लिए प्रेरणा ही का नहीं, उदाहरण का भी काम किया था. बहुत-से देशों में जो उपनिवेशवादी ताकतों के अधीन थे, स्वाधीनता की लड़ाइयां एक बेहतर और अधिक समानता आधारित समाज की परिकल्पना के साथ लड़ी गयी थीं १९६० और ’७० के दौर नये परिवर्तनों के उन्मेष के दशक थे. समूची दुनिया के स्तर पर स्वाधीनता को समानता के साथ जोड़ कर आन्दोलन चलाये गये. लेकिन इस बीच पूंजीवाद हाथ-पर-हाथ धरे बैठा नहीं रहा. उसने भी अपने दुश्मनों से बहुत कुछ सीखा और बीसवीं सदी के अन्तिम दौर में वह नयी सांस ले कर मोर्चे पर आ जमा. इस बीच सोवियत संघ के पतन और चीन द्वारा पूंजीवादी पथ अपनाने के कारण तीन दुनियाओं की पुरानी अवधारणा निरस्त हो गयी. अमरीका एक-ध्रुवीय शक्ति का सबसे बड़ा और निरंकुश केन्द्र बन कर उभरा, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए होड़ तेज़ हुई, पूंजीवाद ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और भूमण्डलीकरण के माध्यम से पूरे विश्व को एक विराट मण्डी में बदल दिया. साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए जगह-जगह युद्ध छेड़े गये. दूसरे देशों की जनता को अपने देश में खुद परिवर्तन करने की छूट देने की बजाय अमरीका ने साम्राज्यवादी धौंस से काम लेते हुए कभी इराअ में घुस-पैठ की कभी अफ़्घानिस्तान में.
इस सब का असर हमारे देश पर पड़ना ही था. अगर हम पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों पर नज़र डालें तो उनकी बहुत-सी आहटें हमें रघुवीर सहाय की उन कविता पंक्तियों में मिलती हैं जो ऊपर उद्धृत की गयी हैं.. यह वही समय है जब हिन्दुस्तान की राजनीति का -- कहा जाये कि -- कार्पोरेटीकरण होता गया है. नतीजे के तौर पर एक ओर तो समूचे भारतीय समाज का ताना-बाना भयंकर तनाव का शिकार है, दूसरी ओर आर्थिक विषमता अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है, जिसका असर हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी नज़र आने लगा है.
कहने को तो देश में अपने ही लोगों का शासन है, पर यह कोई छिपी बात नहीं है कि लगभग सारे फ़ैसले अमरीका कर रहा है या कार्पोरेट कम्पनियां. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ख़ारिज कर दी गयी है. अन्दरूनी और बाहरी लूट-खसोट का बाज़ार गर्म है. केन्द्र सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें वे अपनी ही जनता का कत्ले-आम करने में ज़रा भी नहीं हिचकतीं. जिस बेशर्मी से पश्चिमी बंगाल की पिछली वाम मोर्चा सरकार ने सिंगुर, लालगढ़, नन्दीग्राम में कहर बरपा किया या जिस बेरहमी से केन्द्र सरकार छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का सफ़ाया कर रही है, उसने सारे खेल का पर्दा फ़ाश करके रख दिया है. असली उद्देश्य लूट-खसोट है. ऊपर से एक के बाद एक जिस तरह घोटालों की लाइन लगी हुई है और जनता के अपने ही कथित नुमाइन्दे उसे लूट रहे हैं, वह भी इस से पहले के किसी दौर में देखने को नहीं आता. लोगों का ध्यान बुनियादी सवालों से हटाने के लिए आज़मूदा हिकमतें बड़ी कामयाबी के साथ लागू की जा रही हैं -- चाहे वह प्रधान मन्त्री द्वारा नक्सलवाद को भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताने से ताल्लुक़ रखता हो या आतंकवाद के नाम पर सभी मुसलमानों को कटघरे में खड़े कर देने से. पकड़-धकड़ का एक अजीबो-ग़रीब खेल चल रहा जो "न दलील, न अपील, न वकील" वाले रौलट ऐक्ट को पीछे छोड़ गया है. देश लगभग एक पुलिसिया राज बन चुका है. मीडिया यानी सूचना-समाचार चूंकि इस लड़ाई में सबसे बड़े साधन का काम करता है, इसलिए मीडिया पर कारपोरेट घरानों का कब्ज़ा हैरत नहीं उपजाता. और इसके नतीजे भी सामने आ गये हैं. नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधान मन्त्री के रूप में पेश करने की मुहिम में मीडिया तन-मन से शामिल है. दूसरी ओर बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद जिस तरह का हंगामा हुआ, उसने बड़े-से-बड़े आतंकवादी से ज़्यादा आतंक पैदा करने का काम किया. ऐसा लगा जैसे कोई अद्वितीय देश-सेवक चला गया हो. यह तब जब चुनाव आयोग बाल ठाकरे के खिलाफ़ कार्रवाई कर चुका था. यह हंगामा अभी तक शान्त नहीं हुआ है. क्षेत्रीयतावाद और फ़िरकापरस्ती की अलमबरदार शिव सेना के लोग अब भी बम्बई के शिवाजी पार्क में डटे हुए हैं कि बाल ठाकरे की मूर्ति वहां लगायी जाये. पिछले दिनों प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को ले कर जिस तरह मनमोहन सरकार ने विश्वास मत जीता है और उसमें विभिन्न राजनैतिक दलों ने नक़ली विरोध करने से ले कर फ़र्ज़ी वजहों से मतदान न करने तक जो और जिस क़िस्म की भूमिकाएं निभायीं, उन्हों ने यह साफ़ कर दिया कि सवाल देश की बुनियादी नीतियों का नहीं है, सवाल है कि जनता की लूट में कौन कितना हिस्सा पाता है, पा सकता है. देश गारत होता है तो हो, लोग मरते हैं तो मरें, संसद और प्रान्तीय असेम्बलियों में बैठे "जनता के नुमाइन्दे" अपना और लगे हाथ अपने कुनबे का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित कर लें, कारपोरेट घराने अपने ख़ज़ाने और भर लें और जनता को बस उतना मिले जितने से वह मरने से बची रहे.
इसमें सबसे घातक बात यह है कि जहां लुटेरों में एक ज़बरदस्त एकता नज़र आती है, वहीं उनका विरोध करने वालों में अभूतपूर्व बिखराव दिखायी देता है. कथित रूप से जन-पक्षधर वाम दल एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं देख पाते. अगर एक मज़लूम समुदाय की ओर से कोई एक वाम दल आवाज़ बुलन्द करता है तो बाकी विचारधारा और रणनीति और तमाम दीगर और गैर ज़रूरी बतें उठा कर उस मुद्दे को भटका देते हैं. यह सिलसिला सब से प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ और दण्डकारण्य में देखने को मिला जहां मौजूदा सरकार द्वारा आदिवासियों के कत्ले-आम का विरोध करने के लिए आवाज़ उठाने वाले वाम-पक्ष को इसलिए समर्थन नहीं दिया गया क्योंकि प्रश्न "हिंसा" का था. यानी "सरकारी हिंसा हिंसा न भवति?" इस बिखराव का सबसे ज़्यादा फ़ायदा पूंजीवादी और सामन्ती शक्तियां उठाती रही हैं और आज भी उठा रही हैं.
यह भी गौर करने लायक है कि इस दौर में जहां एक ऊपरी चका-चौंध दिखती है, वहां ज़्यादातर लोग इस बात से ग़ाफ़िल हैं कि वे दरअसल अपने मौलिक अधिकारों से, जीवन के सुख से, रहन-सहन और रख-रखाव की सहूलतों और सुविधाओं से बेदखल हुए हैं. उन्हें व्यक्तिगत उन्नति और निजी बेहतरी की ऐसी दौड़ में हांक दिया गया है कि उन्हें कई बार रुक कर अपने समय और समाज पर सोचने का वक्त तक नहीं मिलता. मध्यवर्ग को लूट के कुछ टुकड़ो का हिस्सेदार बना कर बुनियादी परिवर्तनों के लिए संघर्ष करने से विमुल्ह करने का काम भी हमारी चालाक शोषकों ने किया है. इसे के साथ एक नया सर्वहारा वर्ग भी पैदा हुआ, लाखों-करोड़ों की तादाद में, जिसे विराट सरवहार समुदाय में शामिल करके गोलबन्द करने की ज़रूरत है. यह समुदाय उन टेक्नोक्रैट्स और सूचना तकनीक से जुडे लोगों का है जिन्हें पुरानी पद्धति में निम्न-पूंजीवादी वर्ग में रखा जाता था. हमें अब पुरानी खानेबन्दियों पर भी फिर से विचार करने की ज़रूरत है. अगर सर्वहारा की परिभाषा यह है कि वे लोग जिनके हाथ में उत्पादन के साधन नहीं हैं तो फिर हिन्दुस्तान जैसे देश में किताबी परिभाषाएं बदलनी पड़ेंगी और वर्गीय आधार पर लोगों को एकजुट करने के काम में नयी सूझ-बूझ अपनानी होगी.
फिर, हमारे यहां वर्ण-व्यवस्था जिस रूप में और जिस पेचीदगी के साथ जड़ें जमाये है और हर बुनियादी परिवर्तन के खिलाफ़ रुकावट का काम करती है, उसे भी समझना होगा और यह भी स्वीकार कर लेना होगा कि वर्ण-व्यवस्था की चंगुलों से निकल कर ही हमारा समाज इन्सानी बेहतरी की तरफ़ पहला कदम बढ़ा सकता है.
इस पसमंज़र में जो बात सब से ज़्यादा खटकने वाली है वह हमारे बुद्धिजीवियों और समाज के दानिशवर और जागरूक तबके की खामोशी है. ज़रा याद कीजिये आज से बीस-पच्चीस साल पहले का समय जब किसी भी जन-विरोधी कार्रवाई के खिलाफ़ लेखक और दूसरे संस्कृतिकर्मी और सामान्य बुद्धिजीवी एकजुट हो जाते थे, बयान जारी करते थे, यहां तक कि धरनों-प्रदर्शनों में भी हिस्सेदारी करते थे. लेकिन आज बड़ी-से-बड़ी घटना पर भी किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती. या तो लोग अपनी-अपनी दुनिया में मगन हैं या फिर बिखरे हुए हैं. हिन्दी पट्टी के साहित्यकारों ने लिखना बन्द कर दिया हो ऐसा नहीं है. पर वे अपनी जनता से इतने विमुख क्यों हैं ? सैकड़ों लोग या तो माओवाद-नक्सलवाद के नाम पर या आतंकवाद के नाम पर जेलों में ठूंस दिये गये हैं, आदिवासियों के साथ ऐसा सुलूक हो रहा है जैसा सुलूक शायद बर्बर भी न करें, मगर लेखक समुदाय चुप है. लेखक, कलाकार, रंगकर्मी, संगीतकार, डौक्टर, इंजीनियर, वकील, सम्पादक, पत्रकार और दूसरे बुद्धिजीवी मौन धारण किये हैं. आज से ठीक २९ वर्ष पहले दिसम्बर १९८३ में अपनी "आज की कविता" शीर्षक से लिखी गयी कविता में रघुवीर सहाय ने जो सवाल उठाया था, वह आज और भी तीखा बन गया है :
"यह दृष्टि सुन्दरापे की कैसे बनी कि हर वह चीज़ जो ख़बर देती है हो गयी ग़ैर ?
क्यों कलाकार को नहीं दिखायी देती अब गन्दगी, ग़रीबी और ग़ुलामी से पैदा ?
आतंक कहां जा छिपा भाग कर जीवन से जो कविता की पीड़ा में अब दिख नहीं रहा ?
हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए..."
क्या सचमुच अब ऐसी स्थिति आ गयी है कि हमारे प्रमुख साहित्यकार और हर प्रकार के बुद्धिजीवी उस हलवे-मांडे में इस हद तक हिस्सेदार हो गये हैं जो सत्ता परोस रही है कि उन्हें सबसे प्रकट और दिल-दिमाग़ को विचलित करने वाली सच्चाइयां नज़र नहीं आतीं या आती भी हैं तो उद्वेलित नहीं करतीं. ऐसी संस्कृति और साहित्य से क्या फ़ायदा जो अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ न उठाये ? क्योंकि संस्कृति सिर्फ़ साहित्य, कला और नृत्य-संगीत ही नहीं है, वह इससे भी आगे बढ़ कर मनुष्य बनने की हुनरमन्दी है. हमारा देश अब एक विराट मृत्यु उपत्यका में बदल चुका है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. किसानों के इस देश में सबसे पहली बलि मौजूदा दौर के निज़ाम ने किसानों ही की ली है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. लाखों किसान आत्महत्या करके भारत भूमि में जन्म लेने का टैक्स अदा कर चुके हैं. इनमें औरतें भी हैं जिन्हें किसानों में शुमार न कर के सरकार किसी और खाते में डाल देती है. तो भी आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या दिल दहलाने वाली है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं.
आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे बुद्धिजीवी क्यों चुप हैं ?
ये सारे मसले सिर्फ़ राजनैतिक और आर्थिक कार्रवाई की मांग नहीं करते, बल्कि उससे भी पहले सांस्क्रुतिक और सामाजिक परिवर्तनों की मांग करते हैं. कई बार उपनिवेशवाद के खिलाफ़ लड़ाई राजनैतिक पहलकदमी की बजाय सांस्कृतिक पहलकदमी से हुई है. हमारे सामने अंगोला, गिनी बिसाउ और मोज़ाम्बीक के उदाहरण हैं जहां राजनैतिक परिवर्तनों की जोत उन लोगों ने जगयी जो अव्वलन कवि, साहित्यकार और बुद्धिजीवी थे -- औगस्टो नेटो, अमिलकर कब्राल और एदुआर्दो मोन्दलेन. हमें अगर पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और नव-उपनिवेशवाद से लड़ाई को तेज़ करना है तो हमें पुराने आज़माये गये औज़ारों को देख-परख कर उनकी छंटाई करते हुए संस्कृति के नये औज़ारों को भी गढ़ना होगा. यही आज हम बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों की सबसे बड़ी चुनौती है.
१६ दिसम्बर २०१२