Saturday, September 20, 2014

[यह टिप्पणी लगभग डेढ़ साल पहले लिखी थी. 
तब हमारे यहां नया निज़ाम लागू नहीं हुआ था, गो पुराना निज़ाम लड़खड़ाने लगा था. हवा में हलचल थी पर किसी को यक़ीन नहीं था कि हम पूरी तरह सौदागरों के हाथों में चले जायेंगे, साम्प्रदायिकता एक तरफ़ अपनी आक्रामकता दिखायेगी, दूसरी तरफ़ साम्प्रदायिकता के अलमबरदार चालाकी से यह दिखायेंगे कि वे कितने उदार हैं. जनता की गुहार लगाते-लगाते उसे बेचने, गिरवी रखने, ग़ुलाम बनाने, डराने-धमकाने का खुला खेल शुरू हो जायेगा क्योंकि जनता ने पांच बरसों के लिए अपने हाथ बांध लिये हैं.
इस सब के बावजूद इस टिप्पणी को दोबारा पढ़ते हुए आप सब से साझा करने का मन हुआ है तो इसलिए कि आप सब सोचें और इसमें अपनी राय जोड़ें, इसे आगे बढ़ायें.]  




सर्वहारा राजनीति और संस्कृति के नये औज़ार


एक भयानक चुप्पी छायी है समाज पर
शोर बहुत है पर सचाई से कतरा कर गुज़र रहा है...
एक भयानक बेफ़िक्री है पाठक अत्याचारों के क़िस्से पढ़ते हैं अख़बारों में 
मगर आक्रमण के शिकार को पत्र नहीं लिखते हैं सम्पादक के द्वारा
सभी संगठित दल विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के लिए जुट लेते हैं
एक भयानक समझौता है राजनीति में हर नेता को एक नया चेहरा देना है."
(समझौता : रघुवीर सहाय)


किसी विचारशील युद्ध विशेषज्ञ ने कहा है कि जब लड़ाई लम्बी चलती है तो दोनों पक्ष अपने गुरुओं, सलाहकारों और पक्षधरों से उतना नहीं सीखते जितना अपने दुश्मनों से. शायद यही कारण है कि जो लड़ाई सत्रहवीं-अट्ठारहवीं सदियों में औद्योगिक क्रान्ति के बाद यूरोप में शुरू हुई थी और जिसने हज़ारों वर्षों से क़ायम सामन्ती व्यवस्था को उखाड़ फेंका था और पूंजीवाद की शक्ल में एक नयी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था की नींव रखी थी, उसके अलग-अलग दौरों पर नज़र डालते ही यह साफ़ हो जाता है कि उस लड़ाई के दोनों पक्ष एक-दूसरे पर लगातार गहरी निगाह रखते रहे हैं. पिछले तीन-चार सौ बरसों के दौरान इस लड़ाई ने कई रूप बदले हैं. पूंजीवाद ने, जो औद्योगिक क्रान्ति के नतीजे के तौर पर आया था और जिसकी झोली में ऐसे अनेक वरदान थे जिन्होंने मनुष्य को नयी बुलन्दियों तक पहुंचाया, एक-डेढ सौ बरस ही में अपनी झोली से अभिशापों की झड़ी लगा दी. अमीर और ग़रीब के बीच की सारी पुरानी लड़ाइयों ने नये और निर्मम रूप-रंग अख़्तियार कर लिये. लेकिन दूसरी तरफ़ से भी प्रतिरोध की कोशिशें जारी रही और हर दौर में मनुष्य को जकड़बन्दियों में घेरने के हर नये क़दम के ख़िलाफ़ नये हथियार और औज़ार गढ़े गये. लेकिन इस लड़ाई का यूरोप में जो भी स्वरूप रहा हो, दुनिया के और बहुत-से हिस्सों में यह बिलकुल अलग ढंग से पहुंची और छेड़ी गयी. 

हमारे देश में पूंजीवाद और आधुनिक मशीनी युग अपने पैरों पर नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के कन्धों पर चढ़ कर आया. उसने सामन्ती व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने की बजाय, जैसा कि यूरोप में देखा गया था, उससे समझौता कर लिया. यही उसकी विशेषता होती है. वह सत्ता उस तरह नहीं हथियाता जैसे सामन्ती युग में एक राजा या राज्य दूसरे पर कब्ज़ा करके हथियाता है. वह सत्ता पर अपनी पकड़ बना कर उपनिवेश तो लूटने, चूसने और दुहने का काम करता है. सत्ता का असली केन्द्र उपनिवेश के भीतर नहीं बल्कि उस देश में स्थित होता है, जिसने उपनिवेश क़ायम किया हो. यूरोप के सभी उपनिवेशवादियों ने, चाहे वे अंग्रेज़ रहे हों या डच, फ़्रांसीसी रहे हों या जरमन, अपने-अपने उपनिवेशों में ठीक ऐसा ही किया. इस हालत में उपनिवेश और उसमें रहने वालों के प्रति उपनिवेशवादी सत्ता की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती. वह उस उपनिवेश में जो भी तब्दीलियां करता है, अपनी लूट को बेहतर तौर पर अंजाम देने के लिए करता है. रेल हो या डाक-तार व्यवस्था या शासन का पश्चिमी तरीक़ा या आधुनिक शिक्षा पद्धति -- अंग्रेज़ों ने इन्हें हिन्दुस्तान के लोगों के हित के लिए नहीं यहां स्थापित किया था. उनका उद्देश्य अगर हिन्दुस्तानी जनता की बेहतरी होता तो सबसे पहले वे समूचे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे में बुनियादी सुधार करते. लेकिन उन्होंने पुरानी बुराइयों को बने रहने की छूट देते हुए, कुछ नयी बुराइयां भी लाद दीं. 

यही वजह है कि आज हमें अपने देश में एक तरफ़ तो भयंकर रूप से लचर और अकल्याणकारी लोकतान्त्रिक ढांचा नज़र आता है, दूसरी तरफ़ सामन्ती संरचना भी अपने पुराने रूप में बहुत हद तक मौजूद है. १९४७ के बाद जिस तरह उत्तरोत्तर हर राजनैतिक दल के भीतर वंशवाद और कुनबापरस्ती पनपी है, वह सामन्ती मूल्यों के अस्तित्व ही का संकेत है. किसी भी विकसित पश्चिमी लोकतन्त्र में यह चलन देखने में नहीं आता. यही वजह है कि १९४७ में अंग्रेज़ तो गये, पर सत्ता भारतीय जनता के हाथ में नहीं आयी. भगत सिंह ने १९३० में अपनी शहादत से पहले ही यह आशंका व्यक्त की थी कि कथित आज़ादी और कुछ नहीं, सत्ता पर गोरे साहबों की जगह काले साहबों का कब्ज़ा होगा. ऐसा ही देखने में आया. यही वजह है कि प्रकट रूप से अंग्रेज़ उपनिवेशवादी तो गये लेकिन नव-उपनिवेशवादियों ने उनकी जगह ले ली. और अब नव-उपनिवेशवाद के ज़रिये हम पर काबिज़ पूंजीवाद सिन्दबाद की कहानी का वह "पीर-ए-तस्मा-पा" बन चुका है जिससे निजात पाने के लिए नयी सूझ-बूझ और नयी हिकमतों की ज़रूरत है. कहने की बात नहीं है कि यह भी पूंजीवाद ही की करनी है कि आज कोई भी देश औरों से अलग-थलग रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर नहीं कर सकता. हमारे देश के अन्दर जो और जिस क़िस्म की कश-म-कश चले, उसका ताल्लुक़ लामुहाला दूसरे देशों से होगा ही, ख़ास तौर पर उन देशों से जो असर डालने की ताक़त रखते हैं. सो, जो भी उपाय तलाश किये जायें, उनका स्वरूप अन्दर के हालात तो तय करेंगे ही, उस में बाहर की परिस्थितियां भी अपनी भूमिका निभायेंगी.

जैसा कि मैंने कहा, चीज़ें स्थिर और स्थायी नहीं होतीं. समाज चाहे जैसा भी हो लगातार बदलता है और हाल के वर्षों में हिन्दुस्तान के भीतर ही नहीं, उसके बाहर भी चीज़ें तेज़ी से बदलती रही हैं. बीसवीं सदी के शुरू में, खास तौर पर पूंजीवाद पर आये पहले संकट के बाद जो १९२९ की मन्दी के रूप में दिखायी पड़ा था, पूंजीवादी तन्त्र के खिलाफ़ एक ज़बरदस्त लहर दिखायी दी थी. सोवियत और चीनी क्रान्तियों ने बहुत-सी नयी आकांक्षाओं के लिए प्रेरणा ही का नहीं, उदाहरण का भी काम किया था. बहुत-से देशों में जो उपनिवेशवादी ताकतों के अधीन थे, स्वाधीनता की लड़ाइयां एक बेहतर और अधिक समानता आधारित समाज की परिकल्पना के साथ लड़ी गयी थीं १९६० और ’७० के दौर नये परिवर्तनों के उन्मेष के दशक थे. समूची दुनिया के स्तर पर स्वाधीनता को समानता के साथ जोड़ कर आन्दोलन चलाये गये. लेकिन इस बीच पूंजीवाद हाथ-पर-हाथ धरे बैठा नहीं रहा. उसने भी अपने दुश्मनों से बहुत कुछ सीखा और बीसवीं सदी के अन्तिम दौर में वह नयी सांस ले कर मोर्चे पर आ जमा. इस बीच सोवियत संघ के पतन और चीन द्वारा पूंजीवादी पथ अपनाने के कारण तीन दुनियाओं की पुरानी अवधारणा निरस्त हो गयी. अमरीका एक-ध्रुवीय शक्ति का सबसे बड़ा और निरंकुश केन्द्र बन कर उभरा, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए होड़ तेज़ हुई, पूंजीवाद ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और भूमण्डलीकरण के माध्यम से पूरे विश्व को एक विराट मण्डी में बदल दिया. साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए जगह-जगह युद्ध छेड़े गये. दूसरे देशों की जनता को अपने देश में खुद परिवर्तन करने की छूट देने की बजाय अमरीका ने साम्राज्यवादी धौंस से काम लेते हुए कभी इराअ में घुस-पैठ की कभी अफ़्घानिस्तान में. 

इस सब का असर हमारे देश पर पड़ना ही था. अगर हम पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों पर नज़र डालें तो उनकी बहुत-सी आहटें हमें रघुवीर सहाय की उन कविता पंक्तियों में मिलती हैं जो ऊपर उद्धृत की गयी हैं.. यह वही समय है जब हिन्दुस्तान की राजनीति का -- कहा जाये कि -- कार्पोरेटीकरण होता गया है. नतीजे के तौर पर एक ओर तो समूचे भारतीय समाज का ताना-बाना भयंकर तनाव का शिकार है, दूसरी ओर आर्थिक विषमता अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है, जिसका असर हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी नज़र आने लगा है. 
कहने को तो देश में अपने ही लोगों का शासन है, पर यह कोई छिपी बात नहीं है कि लगभग सारे फ़ैसले अमरीका कर रहा है या कार्पोरेट कम्पनियां.  कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ख़ारिज कर दी गयी है. अन्दरूनी और बाहरी लूट-खसोट का बाज़ार गर्म है. केन्द्र सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें वे अपनी ही जनता का कत्ले-आम करने में ज़रा भी नहीं हिचकतीं. जिस बेशर्मी से पश्चिमी बंगाल की पिछली वाम मोर्चा सरकार ने सिंगुर, लालगढ़, नन्दीग्राम में कहर बरपा किया या जिस बेरहमी से केन्द्र सरकार छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का सफ़ाया कर रही है, उसने सारे खेल का पर्दा फ़ाश करके रख दिया है. असली उद्देश्य लूट-खसोट है. ऊपर से एक के बाद एक जिस तरह घोटालों की लाइन लगी हुई है और जनता के अपने ही कथित नुमाइन्दे उसे लूट रहे हैं, वह भी इस से पहले के किसी दौर में देखने को नहीं आता. लोगों का ध्यान बुनियादी सवालों से हटाने के लिए आज़मूदा हिकमतें बड़ी कामयाबी के साथ लागू की जा रही हैं -- चाहे वह प्रधान मन्त्री द्वारा नक्सलवाद को भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताने से ताल्लुक़ रखता हो या आतंकवाद के नाम पर सभी मुसलमानों को कटघरे में खड़े कर देने से. पकड़-धकड़ का एक अजीबो-ग़रीब खेल चल रहा जो "न दलील, न अपील, न वकील" वाले रौलट ऐक्ट को पीछे छोड़ गया है. देश लगभग एक पुलिसिया राज बन चुका है. मीडिया यानी सूचना-समाचार चूंकि इस लड़ाई में सबसे बड़े साधन का काम करता है, इसलिए मीडिया पर कारपोरेट घरानों का कब्ज़ा हैरत नहीं उपजाता. और इसके नतीजे भी सामने आ गये हैं. नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधान मन्त्री के रूप में पेश करने की मुहिम में मीडिया तन-मन से शामिल है. दूसरी ओर बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद जिस तरह का हंगामा हुआ, उसने बड़े-से-बड़े आतंकवादी से ज़्यादा आतंक पैदा करने का काम किया. ऐसा लगा जैसे कोई अद्वितीय देश-सेवक चला गया हो. यह तब जब चुनाव आयोग बाल ठाकरे के खिलाफ़ कार्रवाई कर चुका था. यह हंगामा अभी तक शान्त नहीं हुआ है. क्षेत्रीयतावाद और फ़िरकापरस्ती की अलमबरदार शिव सेना के लोग अब भी बम्बई के शिवाजी पार्क में डटे हुए हैं कि बाल ठाकरे की मूर्ति वहां लगायी जाये. पिछले दिनों प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को ले कर जिस तरह मनमोहन सरकार ने विश्वास मत जीता है और उसमें विभिन्न राजनैतिक दलों ने नक़ली विरोध करने से ले कर फ़र्ज़ी वजहों से मतदान न करने तक जो और जिस क़िस्म की भूमिकाएं निभायीं, उन्हों ने यह साफ़ कर दिया कि सवाल देश की बुनियादी नीतियों का नहीं है, सवाल है कि जनता की लूट में कौन कितना हिस्सा पाता है, पा सकता है. देश गारत होता है तो हो, लोग मरते हैं तो मरें, संसद और प्रान्तीय असेम्बलियों में बैठे "जनता के नुमाइन्दे" अपना और लगे हाथ अपने कुनबे का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित कर लें, कारपोरेट घराने अपने ख़ज़ाने और भर लें और जनता को बस उतना मिले जितने से वह मरने से बची रहे.

इसमें सबसे घातक बात यह है कि जहां लुटेरों में एक ज़बरदस्त एकता नज़र आती है, वहीं उनका विरोध करने वालों में अभूतपूर्व बिखराव दिखायी देता है. कथित रूप से जन-पक्षधर वाम दल एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं देख पाते. अगर एक मज़लूम समुदाय की ओर से कोई एक वाम दल आवाज़ बुलन्द करता है तो बाकी विचारधारा और रणनीति और तमाम दीगर और गैर ज़रूरी बतें उठा कर उस मुद्दे को भटका देते हैं. यह सिलसिला सब से प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ और दण्डकारण्य में देखने को मिला जहां मौजूदा सरकार द्वारा आदिवासियों के कत्ले-आम का विरोध करने के लिए आवाज़ उठाने वाले वाम-पक्ष को इसलिए समर्थन नहीं दिया गया क्योंकि प्रश्न "हिंसा" का था. यानी "सरकारी हिंसा हिंसा न भवति?" इस बिखराव का सबसे ज़्यादा फ़ायदा पूंजीवादी और सामन्ती शक्तियां उठाती रही हैं और आज भी उठा रही हैं.
यह भी गौर करने लायक है कि इस दौर में जहां एक ऊपरी चका-चौंध दिखती है, वहां ज़्यादातर लोग इस बात से ग़ाफ़िल हैं कि वे दरअसल अपने मौलिक अधिकारों से, जीवन के सुख से, रहन-सहन और रख-रखाव की सहूलतों और सुविधाओं से बेदखल हुए हैं. उन्हें व्यक्तिगत उन्नति और निजी बेहतरी की ऐसी दौड़ में हांक दिया गया है कि उन्हें कई बार रुक कर अपने समय और समाज पर सोचने का वक्त तक नहीं मिलता. मध्यवर्ग को लूट के कुछ टुकड़ो का हिस्सेदार बना कर बुनियादी परिवर्तनों के लिए संघर्ष करने से विमुल्ह करने का काम भी हमारी चालाक शोषकों ने किया है. इसे के साथ एक नया सर्वहारा वर्ग भी पैदा हुआ, लाखों-करोड़ों की तादाद में, जिसे विराट सरवहार समुदाय में शामिल करके गोलबन्द करने की ज़रूरत है. यह समुदाय उन टेक्नोक्रैट्स और सूचना तकनीक से जुडे लोगों का है जिन्हें पुरानी पद्धति में निम्न-पूंजीवादी वर्ग में रखा जाता था. हमें अब पुरानी खानेबन्दियों पर भी फिर से विचार करने की ज़रूरत है. अगर सर्वहारा की परिभाषा यह है कि वे लोग जिनके हाथ में उत्पादन के साधन नहीं हैं तो फिर हिन्दुस्तान जैसे देश में किताबी परिभाषाएं बदलनी पड़ेंगी और वर्गीय आधार पर लोगों को एकजुट करने के काम में नयी सूझ-बूझ अपनानी होगी.
फिर, हमारे यहां वर्ण-व्यवस्था जिस रूप में और जिस पेचीदगी के साथ जड़ें जमाये है और हर बुनियादी परिवर्तन के खिलाफ़ रुकावट का काम करती है, उसे भी समझना होगा और यह भी स्वीकार कर लेना होगा कि वर्ण-व्यवस्था की चंगुलों से निकल कर ही हमारा समाज इन्सानी बेहतरी की तरफ़ पहला कदम बढ़ा सकता है.   

इस पसमंज़र में जो बात सब से ज़्यादा खटकने वाली है वह हमारे बुद्धिजीवियों और समाज के दानिशवर और जागरूक तबके की खामोशी है. ज़रा याद कीजिये आज से बीस-पच्चीस साल पहले का समय जब किसी भी जन-विरोधी कार्रवाई के खिलाफ़ लेखक और दूसरे संस्कृतिकर्मी और सामान्य बुद्धिजीवी एकजुट हो जाते थे, बयान जारी करते थे, यहां तक कि धरनों-प्रदर्शनों में भी हिस्सेदारी करते थे. लेकिन आज बड़ी-से-बड़ी घटना पर भी किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती.  या तो लोग अपनी-अपनी दुनिया में मगन हैं या फिर बिखरे हुए हैं. हिन्दी पट्टी के साहित्यकारों ने लिखना बन्द कर दिया हो ऐसा नहीं है. पर वे अपनी जनता से इतने विमुख क्यों हैं ? सैकड़ों लोग या तो माओवाद-नक्सलवाद के नाम पर या आतंकवाद के नाम पर जेलों में ठूंस दिये गये हैं, आदिवासियों के साथ ऐसा सुलूक हो रहा है जैसा सुलूक शायद बर्बर भी न करें, मगर लेखक समुदाय चुप है. लेखक, कलाकार, रंगकर्मी, संगीतकार, डौक्टर, इंजीनियर, वकील, सम्पादक, पत्रकार और दूसरे बुद्धिजीवी  मौन धारण किये हैं. आज से ठीक २९ वर्ष पहले दिसम्बर १९८३ में अपनी "आज की कविता" शीर्षक से लिखी गयी कविता में रघुवीर सहाय ने जो सवाल उठाया था, वह आज और भी तीखा बन गया है :

"यह दृष्टि सुन्दरापे की कैसे बनी कि हर वह चीज़ जो ख़बर देती है हो गयी ग़ैर ?     
क्यों कलाकार को नहीं दिखायी देती अब गन्दगी, ग़रीबी और ग़ुलामी से पैदा ?
आतंक कहां जा छिपा भाग कर जीवन से जो कविता की पीड़ा में अब दिख नहीं रहा ?
हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए..." 

क्या सचमुच अब ऐसी स्थिति आ गयी है कि हमारे प्रमुख साहित्यकार और हर प्रकार के बुद्धिजीवी उस हलवे-मांडे में इस हद तक हिस्सेदार हो गये हैं जो सत्ता परोस रही है कि उन्हें सबसे प्रकट और दिल-दिमाग़ को विचलित करने वाली सच्चाइयां नज़र नहीं आतीं या आती भी हैं तो उद्वेलित नहीं करतीं. ऐसी संस्कृति और साहित्य से क्या फ़ायदा जो अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ न उठाये ? क्योंकि संस्कृति सिर्फ़ साहित्य, कला और नृत्य-संगीत ही नहीं है, वह इससे भी आगे बढ़ कर मनुष्य बनने की हुनरमन्दी है. हमारा देश अब एक विराट मृत्यु उपत्यका में बदल चुका है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. किसानों के इस देश में सबसे पहली बलि मौजूदा दौर के निज़ाम ने किसानों ही की ली है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. लाखों किसान आत्महत्या करके भारत भूमि में जन्म लेने का टैक्स अदा कर चुके हैं. इनमें औरतें भी हैं जिन्हें किसानों में शुमार न कर के सरकार किसी और खाते में डाल देती है. तो भी आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या दिल दहलाने वाली है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. 

आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे बुद्धिजीवी क्यों चुप हैं ?

ये सारे मसले सिर्फ़ राजनैतिक और आर्थिक कार्रवाई की मांग नहीं करते, बल्कि उससे भी पहले सांस्क्रुतिक और सामाजिक परिवर्तनों की मांग करते हैं. कई बार उपनिवेशवाद के खिलाफ़ लड़ाई राजनैतिक पहलकदमी की बजाय सांस्कृतिक पहलकदमी से हुई है. हमारे सामने अंगोला, गिनी बिसाउ और मोज़ाम्बीक के उदाहरण हैं जहां राजनैतिक परिवर्तनों की जोत उन लोगों ने जगयी जो अव्वलन कवि, साहित्यकार और बुद्धिजीवी थे -- औगस्टो नेटो, अमिलकर कब्राल और एदुआर्दो मोन्दलेन. हमें अगर पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और नव-उपनिवेशवाद से लड़ाई को तेज़ करना है तो हमें पुराने आज़माये गये औज़ारों को देख-परख कर उनकी छंटाई करते हुए संस्कृति के नये औज़ारों को भी गढ़ना होगा. यही आज हम बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों की सबसे बड़ी चुनौती है. 

१६ दिसम्बर २०१२ 

Thursday, September 18, 2014

सबूत

क़दम क़दम पर
वे मांगते रहे सबूत
हम देते चले आये

मुसलमान होने पर 
अपनी देशभक्ति का सबूत
औरत होने पर 
अपने सतीत्व का सबूत
हरिजन होने पर
अपनी मेधा का सबूत
बलत्कृत होने पर 
चरित्र की श्रेष्ठता का सबूत
नौकरी करने पर निष्ठा का सबूत
तरक़्क़ी के लिए
योग्यता का सबूत
हर राष्ट्रीय आपदा में
त्याग और साहस का सबूत

हमने मांगा उनसे सिर्फ़
मनुष्यता का सबूत

उन्होंने दिया यह हमें
फांसी के तख़्ते पर ले जा कर

Wednesday, September 17, 2014

हिचकी

आख़िरी किस्त 


चौबीस

‘दरअसल, हमारा शरीर एक अत्यन्त जटिल मशीन है,’ डॉ0 विनय कुमार ने बात जारी रखी थी, ‘और इसका गहरा सम्बन्ध हमारे मन-मस्तिष्क से है। इसीलिए आपने देखा होगा कि जब दिमाग़ बहुत परेशान रहने लगे तो एसिडिटी की शिकायत हो जाती है। जीवन की भौतिक स्थितियाँ हमारे मन-मस्तिष्क पर और मन-मस्तिष्क की हलचल हमारे शरीर पर असर डालती हैं। इसीलिए आपने देखा होगा किसी अप्रिय समाचार या दृश्य को देखने पर उलटी आ जाती है। यह शरीर की स्वाभाविक क्रिया है।’
डॉ0 विनय कुमार बड़े धीर-गम्भीर अन्दाज़ में नन्दू जी को समझा रहे थे उनके हाव-भाव और लबो-लहजे में कुछ ऐसा आश्वस्त करने वाला भाव था कि पहले से बैठे साथी लोग तन्मयता से उनकी बातें सुनने लगे थे, यहाँ तक कि साथी अनिल वज्रपात के चेहरे पर भी हर चीज़ को सन्देह की नज़र से देखने का जो भाव स्थायी रूप से बना रहता था, वह तिरोहित तो नहीं, पर ढीला ज़रूर पड़ गया था। 
अचानक उन्होंने डॉ0 विनय कुमार की बातों में आयी हल्की-सी फाँक का फ़ायदा उठा कर टप्प-से कहा, ‘साथी बहुत वैज्ञानिक बात कह रहे हैं। मार्क्सवाद में भी एही तो कहा गया है न। भौतिक सत्ता और मन का द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध है।’
‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं,’ डॉ0 विनय कुमार अपने धीर-गम्भीर स्वर में बोले। ‘आम चिकित्सा पद्धतियों में शरीर और मन को अलग करके देखा जाता है, लेकिन होमियोपैथी में दोनों का सम्बन्ध मान कर रोग की जाँच की जाती है। इसीलिए दवा रोगी-रोगी के हिसाब से बदलती है, इसमें पेटेण्ट दवा जैसा कोई फ़ण्डा नहीं है। पुरानी सभी पद्धतियाँ इसी हिसाब से चलती थीं। हमारे यहाँ भी तो कहा गया है विषस्य विषमौषधम। होमियोपैथी भी ज़हर को ज़हर से काटने की कोशिश है।’
तभी दरवाज़े पर चण्डिका जी का मुण्डू नमूदार हुआ। उसके हाथ में एक नफ़ीस-सा चमड़े का बैग था, जैसा अमूमन दवाई कम्पनियों के प्रतिनिधि लिये रहते हैं। फ़र्क़ बस इतना था कि इस बैग में अन्दर एक ही ख़ाना था जिसमें क़रीने से काँच की छोटी-छोटी काग-लगी शीशियों में पानी की तरह तरल दवाइयाँ सजी थीं। चूंकि शीशियाँ सटा कर रखी हुई थीं, इसलिए दवा का नाम शीशी पर लगी चिप्पी के साथ-साथ स्याही से ऊपर काग पर भी अंकित था। 
डॉ0 विनय कुमार ने पल-दो पल सोच कर एक शीशी निकाली, उसकी चिप्पी पर लिखा नाम पढ़ा, फिर उसे वापस रख कर दूसरी शीशी निकाली। इसके बाद बैग के अन्दर से ही सफ़ेद काग़ज़ का छोटा-सा चौकोर टुकड़ा ले कर उस पर एक बड़ी बोतल से कुछ सफ़ेद गोलियाँ पलटीं और शीशी के तरल पदार्थ की कुछ बूंदें टपका दीं। टुकड़े को हलका-सा मोड़ कर, जिससे गोलियाँ नीचे न गिरें, उन्होंने नन्दू जी की तरफ़ बढ़ा दिया।
इस बीच सब लोग ख़ामोशी से, जैसे मन्त्र-बिद्ध, यह प्रक्रिया देख रहे थे। जेसे ही डॉ0 विनय कुमार ने मुड़ा हुआ काग़ज़ नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाया, सब लोगों पर छाया हुआ जादू मानो एकबारगी टूट गया और एक हलचल-सी हुई।
‘यह डोज़ ले लीजिए। दो ख़ूराक़ और बना देता हूं, पन्द्रह-पन्द्रह मिनट पर लेनी है,’ डॉक्टर विनय कुमार ने कहा, ‘उम्मीद है, इतने से आराम आ जायेगा। वैसे मैं एक शीशी में दूसरी दवा भी दे रहा हूं। हिचकियाँ बन्द न हों तो दो घण्टे के बाद उसकी पाँच गोलियाँ ले लीजिएगा और चार-चार घण्टे पर लेते रहिएगा। हालाँकि मेरे ख़याल से उसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।’
यह कह कर डॉ0 विनय कुमार ने तत्परता से दो पुडि़यों में पहली दवा बनायी और और बैग में रखी छोटी-सी ख़ाली शीशी में दूसरी दवा बनाने लगे। माहौल पर इतनी देर से जो सक़ता-सा छाया हुआ था, उसके टूटने पर लोग हरकतज़दा हो उठे थे। यह डॉ0 विनय कुमार के व्यक्तित्व का कमाल था कि उनकी दवा के असर का, नन्दू जी की हिचकियों की तीव्रता भी हलकी-सी कम हो गयी जान पड़ती थी।
अब नन्दू जी को अपने कर्तव्य का भी ख़याल आया। उन्होंने बिन्दु से चाय बनाने के लिए कहा।
‘नहीं, नहीं, भाभी जी,’ चण्डिका ने फ़ौरन उसे रोका, ‘चाय किसी और दिन। अभी हमें यहाँ कइयो बार आना है।’
अचानक उनका ध्यान गया कि इस बीच कॉमरेड राम अँजोर मूढ़े से उठ खड़े हुए थे।
‘बैठिए अभी, साथी,’ चण्डिका ने राम अँजोर को बैठने के लिए कहा, ‘कुछ राय आपकी भी दरकार होगी। बात यह है,’ उन्होंने राम अँजोर के बैठने का इन्तज़ार करके पल भर बाद कहा, ‘डॉक्टर विनय कुमार एक पत्रिका निकालने की योजना बना रहे हें और उसी में आप सबकी मदद चाहिए।’
‘कैसी पत्रिका?’ अब तक ख़ामोशी से इस सारे व्यापार को देख रहे आदित्य प्रकाश ने पूछा।
‘विचार प्रधान पत्रिका,’ चण्डिका ने फ़ौरन जवाब दिया। ‘बाक़ी बात डॉक्टर साहब ख़ुद बतायेंगे।’
‘अभी एक रफ़-सा आइडिया है दिमाग़ में,’ डॉ0 विनय कुमार ने कहा, ‘अर्सा पहले जैसे ‘दिनमान’ पत्रिका निकलती थी, वैसी ही कुछ-कुछ। वह साप्ताहिक थी, हम मासिक निकालेंगे। ज़ाहिर है, ख़बरों का हिस्सा कम, विश्लेषण और बहस का हिस्सा ज़्यादा होगा। पत्रिका विचार प्रधान होगी।’
‘मगर साथी,’ अनिल वज्रपात ने टीप जड़ी, ‘जैसा हमारे कवि मुक्तिबोध कहते थे, पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’
‘विचार-विमर्श का खुला मंच होगा,’ डॉ0 विनय कुमार ने स्पष्ट किया। ‘हम रज़ामन्दों को राज़ी करने के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों को राज़ी करने के लिए पत्रिका निकालेंगे जिनका ख़याल है कि चीज़ें बदल नहीं सकतीं। और ऐसा पहले से तैयार की गयी कोई घुट्टी पिला कर नहीं, खुली बहस से होगा।’
‘इसीलिए हम आपके पास आये थे,’ चण्डिका ने नन्दू जी से कहा, ‘यह कहने कि आप भी हमारी टीम में शामिल होइए, सम्पादक मण्डल में, लेकिन आप तो भीष्म पितामह बने हुए थे।’ और वे ठठा कर हँसे। ‘ख़ैर, आपके कान में बात डाल दी है। डॉक्टर साहब ने रजिस्ट्रेशन के लिए अर्ज़ी दे दी है। इस बीच आप सोचिएगा पत्रिका की रूप-रेखा कैसी हो। अब हम चलते हैं, अभी हमको राम किशुन पासवान के यहाँ जाना है, इन दो साथियों के काम से।’ और उठते हुए उन्होंने बाहर खड़े युवकों में से एक को आवाज़ दी, ‘राजू।’
युवक के अन्दर आने पर चण्डिका ने उसे डॉ0 विनय कुमार का बैग उठा कर गाड़ी में रखने के लिए कहा। फिर वे पहले से बैठे लोगों की तरफ़ मुड़े जो इस बीच उठ कर खड़े हो गये थे। ‘आप लोगों को अगर कहीं जाना है तो हम आपको छोड़ते हुए निकल जायेंगे,’ उन्होंने राम अँजोर से कहा।
‘जाना तो अब पाटियै आफिस है,’ राम अँजोर ने कहा और फिर कुछ हिचकते हुए बोले, ‘मुदा आप चलिए, हम बाद में आ जायेंगे। फिर हम चार जने हैं।’
‘अरे तो क्या हुआ,’ चण्डिका ने कहा, ‘हम समूचा ट्रक लिये हैं। क्वालिस गाड़ी है ई साथी लोग की, रस्ते में थोड़ा और गप-शप हो जायेगी।’
लेकिन राम अँजोर की हिचकिचाहट को देख कर सीपीडी फ़ौरन समझ गये कि जिस काम से वे लोग नन्दू जी के पास आये थे, वह अभी पूरा नहीं हुआ है। चण्डिका को मालूम था कि आम तौर पर दूसरे की फटी चादर में पैर डालना चाहे नागवार समझा जाता हो और घाटे का सौदा, मगर राजनीति में कई बार छप्पर से गिरी थैली-सरीखा होता है।
‘नन्दू जी से बात करना है तो कर लीजिए, हम पाँच-सात मिनट रुक जाते हैं,’ वे बोले।
राम अँजोर ने सवालिया नज़रों से नन्दू जी की तरफ़ देखा तो नन्दू जी कसमसाये।
‘साथी, आप ऊ चिट्ठी पढ़ लिये थे?’ राम अँजोर ने पूछा।
नन्दू जी ने सिर हिलाया लेकिन जवाब देने की बजाय एक हिचकी ली।
‘फिर, कुछ सोचे आप?’
नन्दू जी के पास कोई जवाब होता तो देते। वे जिस राह पर चल पड़े थे, उसमें अब मुड़ कर उस कम्यून-सरीखी मानसिकता में लौटना उनके लिए सम्भव नहीं रह गया था। फिर वे अगर ख़ुद को और बिन्दु को किसी तरह तैयार कर भी लेते, तो मकान-मालिक बंसल जी को कैसे मना पाते। अगर बंसल जी ने एक बार अपने मख़सूस लहजे में कह दिया कि ‘हमने तो जी मकान आपको रैने के लिए दिया है, हस्पताल खोलने के लिए नहीं,’ तो वे क्या करेंगे।
जब उनकी ख़ामोशी स्वीकृत अवधि को पार कर गयी तो चण्डिका ने सक्रिय हस्तक्षेप की सोची और बोले, ‘तनी हमको भी समस्या बतायी जाय, साथी। हो सकता है, कोई हल निकल आये।’
अब बिन्दु ने, जो काफ़ी देर से खड़ी यह मौन सवाल-जवाब का खेल देख रही थी, लगाम अपने हाथ में ली। ‘बात यह है भाई साहब कि दिनेश कुमार जी को तो आप जानते ही हैं, इनके बड़े भाई, बुज़ुर्ग, सभी कुछ हैं, उन्हीं को ले कर परेशान हैं।’
‘अरे, तो बताइए न,’ चण्डिका ने कहा, ‘सारी परेशानी मिल कर दूर की जा सकती है।’
‘उन्हीं का पत्र आया है। पिछले साल एक लाठी चार्ज में उनकी टाँग टूट गयी थी, उसी का इलाज कराना है। यहाँ। और जगह पार्टी ऑफ़िस में है नहीं। हमारे लिए चिट्ठी भेजी थी, पर हमारे यहाँ भी दिक़्क़त है। हम तो चलो जैसे-तैसे गुज़ारा कर लें, आख़िर दिनेश जी बड़े भाई जैसे हैं, पर इस मकान मालिक को क्या कहेंगे। वैसे ही नाक में दम किये रखता है।’
‘तो ई सब आप लोगों ने हमें पहले क्यों नहीं बताया,’ चण्डिका ने कहा, ‘हम पराये थोड़े ही हैं। क्या हम नहीं जानते साथी दिनेश कुमार के बारे में? चलिए, अभी एम्स में डॉ0 विनोद खुराना को फ़ोन करके टाइम लेते हैं। वहीं इलाज का बन्दोबस्त हो जायेगा। रहने का क्या है, हम तो आजकल भाई साहब के साथ उनके एम.पी. फ़्लैट ही में रहते हैं, दिनेश जी को हम अपने डिफ़ेन्स वाले मकान में ठहरा देंगे। एम्स के पास रहेगा।’ वे राम अँजोर की तरफ़ मुड़े, ‘चलिए साथी, हमको रास्ते में सब डिटेल बताइए। हम सीपीएम छोड़ दिये हैं, पर पुराने सम्बन्ध थोड़े ही तोड़े हैं। फिर दिनेश जी तो हमारे पुराने साथियों में से हैं। चलिए, रास्ते में सब फरिया लिया जायेगा।’
सब लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए तो नन्दू जी भी उठ कर टेरेस पर आये। डॉ0 विनय कुमार ने जेब से अपना कार्ड निकाला और नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाया।
‘यह मेरा कार्ड है, दोनों फ़ोन हैं इसमें, घर का भी और क्लिनिक का भी। कोई परेशानी हो फ़ोन करने में संकोच मत कीजिएगा।’
‘लाइए, हम भी अपना नम्बर लिख दें,’ चण्डिका ने रास्ते ही में कार्ड थामते हुए कहा और उसकी पिछली तरफ़ अपना फ़ोन नम्बर लिख दिया। 
कार्ड को नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाते हुए वे बोले, ‘कोई समस्या हो फ़ोन करने से हिचकिएगा नहीं। उम्मीद है संझा तक आराम आ जायेगा। बस, अब आप पत्रिका की रूप-रेखा तैयार कर लीजिए।’ यह कह कर वे मुड़े और बिन्दु से बोले, ‘अच्छा भाभी जी, चाय अगली बार पियेंगे। और घबराइए नहीं, सब सेट हो गया तो पत्रिका का अपना ऑफ़िस होगा और उधर ही एक अच्छा-सा फ़्लैट खोजा जायेगा आप के लिए।’
यह कह कर वे मुड़े और सभी लोगों को अपनी अर्दल में लिये सीढि़याँ उतर गये। नन्दू जी लौट कर पहले ही तरह दीवान पर ढह गये। हिचकियों की तीव्रता में कुछ कमी तो आयी थी, मगर वे आ अब भी रही थीं। अलबत्ता हिचकियों के बीच का फ़ासला काफ़ी बढ़ गया था। उन्होंने घड़ी पर नज़र डाली और डॉ0 विनय कुमार की दी हुई पुडि़या खोल कर दवा फाँक ली।
बिन्दु ने इस बीच चाय के मग और कॉमरेड वज्रपात की बीडि़यों के प्लेटों से भरी कटोरी ले जा कर रसोई के सिंक में रख दी थी। जब वह लौट कर बैठक में आयी तो नन्दू जी दीवान पर चित लेटे हल्के-हल्के ख़र्राटे ले रहे थे।
अब यह कहना मुश्किल है कि यह बंसल जी के चूरन का कमाल था, या नन्दू जी के भाई की झाड़-फूंक और तावीज़ का, डॉ0 विनय कुमार की दवा की करामात थी या चण्डिका प्रसाद द्विवेदी उर्फ़ सीपीडी के आश्वासन की, दोपहर बाद जब स्वामी नन्दू जी से मिलने आया और वे उठे तो उन्हें तबियत काफ़ी हल्की लगी थी और कुछ देर बाद ही अचानक यह एहसास हुआ था कि उनकी हिचकियाँ बिलकुल बन्द थीं। रात उन्होंने दो दिनों में पहली बार तृप्त हो कर खाना खाया था और चैन की नींद सोये थे।
अगली शाम प्रकाशन के दफ़्तर से बाहर आ कर उन्होंने डॉ0 विनय कुमार को अपने बिलकुल ठीक हो जाने की ख़बर दी और यह भी बताया कि उन्होंने पत्रिका का एक रफ़ ख़ाका तैयार कर लिया है। यही सूचना उन्होंने सीपीडी उर्फ़ चण्डिका प्रसाद द्विवेदी को देते हुए कहा था कि पत्रिका पर काम शुरू करने के लिए जब चाहें बैठ जायें।
लेकिन यह सब करते हुए उन्होंने चन्दू गुरु का तावीज़ अपनी बाँह पर बँधा ही रहने दिया था।
                                                                                                                                             
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Tuesday, September 16, 2014


हिचकी

किस्त : 22-23

बाईस

सबको नमस्कार करके चन्दू जी सीढि़याँ उतर गये तो नन्दू जी को अचानक हाजत-सी महसूस हुई। वे कुछ मिनट में आने को कह कर पीछे के कमरे से होते हुए बाथरूम में चले गये। कुछ देर बाथरूम में गुज़ारने के बाद उन्हें लगा कि हाजत तो महज़ झूठा संकेत था, असल में तो उन्हें पेशाब करना था। सुबह से ही लगातार पानी पीने के कारण उनके मसाने पर दबाव बढ़ गया था।
जब वे निपट-निपटा कर बाहर आये तो एक ऐसी बात उनके कान में पड़ी कि उनका तन-मन एकबारगी झनझना उठा। जैसा कि किसी भी महफ़िल में आम तौर पर होता है, आदमी के बाहर जाते ही चर्चा उसी पर केन्द्रित हो जाती है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ था।
‘केतना तन्खाह पाते होंगे साथी नन्दू जी,’ वज्रपात ने कमरे में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए कहा था।
‘ठीकै-ठाक पाते होंगे। तब्बै तो ई सब सामान जुटाये हैं। पार्टी के अखबार लोकमत में तो कम्यून चलता रहा न, सो खाना-खर्चा ही पाते थे।’ राम अँजोर बोले।
‘अरे भई, बीच में कुछ साल अमर ज्योति में भी काम किया है नन्दू जी ने,’ आदित्य प्रकाश भाँप गये थे कि बातों की दिशा कौन-सा रुख़ ले रही थी, सो वे इस टीका-टिप्पणी को सीमा से बाहर जाने से रोकने के लिए हस्तक्षेप-सा करते हुए बोले, ‘सामान तो जुट ही जाता है। फिर कुछ चीज़ों की ज़रूरत भी तो होती है।’
‘जरूरत हो तब न,’ वज्रपात को पिछली शाम की भेंट से ही जो मलाल था, वह बाहर आ रहा था। ‘अब एही सब देखिए, ए सब टीम-टाम का कऊन ज़रूरत है। जहाँ लोग दू मुट्ठी अन्न नहीं पाते हों, हुआँ ई सब सजावट हमको तो अस्लील जनाता है कॉमरेड।’ उन्होंने जैसे अन्तिम फ़ैसला सुनाते हुए कहा।
‘हम ए बात मान लिये जे सादी के बाद पार्टी के अखबार में जियादा गुंजाइस नहीं रहा। अच्छा-भला अमर ज्योति में काम करते रहे नन्दू जी, पार्टी का भी कुछ भला होता था। दस ठो काम सपरता था। ई परकासन में का धरा है। एसे जनवाद और क्रान्ति का कऊन भला होने वाला है?’ फ़ैज़ाबाद के संस्कृतिकर्मी उदय प्रकाशपुंज ने टीप जड़ी।
‘आप ई भी देखिए न साथी,’ राम अँजोर जो बहुत देर से चुप थे अचानक बोले, ‘जे ई समस्या व्यक्ति का नहीं है। नन्दू जी का परिवर्तन वास्तव में प्रवृत्ति का संकेत देता है। इसका सम्बन्ध पार्टी से भी है।’
‘पार्टी से?’ वज्रपात चिंहुके। ‘साथी, आप लोग हर मामला थियोराइज जो करने लगते हो, ई ठीक नहीं है।’
‘कइसे साथी,’ राम अँजोर ने कहा, ‘कोनो आदमी पैदाइस से क्रान्तिकारी नहीं होता है। पार्टी में आने अऊर बिचारधारा अपनाने पर धीरे-धीरे वर्ग चेतना से लैस होता है। अब एही देखिए, आजकल पाटी में विलोपवाद, विसर्जनवाद और डेविएसन पर केतना बहस चल रहा है। जब तक क्रान्ति के गर्भ से नया इन्सान नहीं आयेगा जइसा कॉमरेड महासचिव बोले हैं, तब तक डेविएसन तो होगा और उसको ठीक भी करना होगा। नन्दू जी का धीरे-धीरे पार्टी से कटना भी एही का संकेत है।’
‘हमको तो ई जनाता है, साथी,’ प्रकाशपुंज ने कहा, ‘कि पुराना लोग सही-सही कहता था। ई सब छान-फटक नहीं करता था। हमरा गाँव का बात होता तो बूढ़-पुरनिया बोलता -- अरे, भूखा ब्राह्मण है, भोजन पाने पर तृप्ति तो होगा ही। सो इहाँ भी ओही मसल है।’
‘दरअसल महत्वाकांक्षी हैं,’ आदित्य प्रकाश ने प्रकाशपुंज की बात के डंक को कुछ कम करते हुए कहा। 
‘हाँ, महत्वाकांछा तो होगा ही, तभी जल्दी धनवान होना चाहते हैं।’ साथी रामअँजोर बोले, ‘पोलित ब्यूरो का भी एही कहना है।’ फिर उन्होंने हँसते हुए बात ख़त्म की, ‘वर्गीय चेतना की बात है न, मार्क्स भी कहे हैं, मध्यवर्ग में लालसा सहज रूप से होता है।’
यही वह आख़िरी टिप्प्णी थी जो नन्दू जी के कान में पड़ी थी और बाहर को आते हुए वे ठिठक गये थे। 
‘महत्वाकांक्षी हैं, जल्दी धनवान होना चाहते हैं, पोलित ब्यूरो का भी यही कहना है।’ शब्द जैसे कीलों की तरह उन्हें चुभे जा रहे थे। 
उन्हें अपने साथियों की संकीर्णता पर खीझ हुई जो यह भी नहीं समझते थे कि सुरुचि भी कोई चीज़ होती है। हर वक़्त वही मामूली-से कपड़े पहने, सुर्ती ठोंकते या बीड़ी फूंकते हुए, कम्यून में जीना और संस्कृति कर्म के नाम पर नुक्कड़ नाटक खेलना या क्रान्तिकारी गीत गाना ही काफ़ी नहीं होता। आख़िर उच्चतर सौन्दर्य बोध, ‘हायर एस्थेटिक्स’ भी तो कोई चीज़ होती है। साथी लोग यह कभी नहीं समझेंगे, इसीलिए तो पार्टी दलदल में फँसी हुई है। उन्हें फिर ज़ोर की हिचकी आयी। उन्होंने सिर झटका और बैठक में दाख़िल हुए।
इस बीच बिन्दु चाय बना लायी थी और सब लोग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे।
‘तुम चाय लोगे ?’ बिन्दु ने नन्दू जी से पूछा।
‘थोड़ी-सी चाय लेना ठीक होगा,’ आदित्य प्रकाश ने कहा, ‘हिचकी में आराम मिलेगा।
बिन्दु ने केतली से एक कप में थोड़ी-सी चाय ढाल कर नन्दू जी की तरफ़ बढ़ायी। नन्दू जी ने बेमन से दो-एक घूंट भरे। उन्हें अचानक बेहद थकान और ऊब महसूस होने लगी थी। साथी लोग अब भी पार्टी की गतिविधियों को ले कर जुटे हुए थे मानो यह नन्दू जी का घर नहीं, पार्टी का दफ़्तर हो।
‘साथी, जेतना समय तक पार्टी में डेमोकैटिक सेंट्रलिज्म है, ओतना समय तक आप पार्टी पर डेविएसन का आरोप नहीं न लगा सकते,’ साथी राम अँजोर दृढ़ता से कह रहे थे, ‘दो लाइन का संघर्ष पार्टी का बुनियादी नीति है।’
‘बुनियादी नीति था, हम भी ई मानते हैं,’ वज्रपात ने प्रतिवाद किया, ‘लेकिन इधर जब से पार्टी चुनाव में हिस्सा लेने का फ़ैसला किये है, तब से ई दू लाइन का संघर्ष कुछ कम हो गया जनाता है।’
‘अऊर डेमोक्रैटिक सेंट्रलिज्म भी,’ प्रकाशपुंज ने टीप जड़ी, ‘कम हो गया है। अब एही देखिए कि जब पार्टी का सांस्कृतिक घटक लोक संस्कृति मंच बना था तो पार्टी का नेता लोग बोले थे जे ई स्वायत्त रहेगा। जब ऊ धड़ल्ले से काम करने लगा तो पार्टी को लगा अब लगाम कसना चाहिए। सो, कॉमरेड अवध बिहारी सुक्ला को कार्यकारिणी में को-ऑप्ट कराये दिया। साथी अवध बिहारी पार्टी के पुराने नेता सही, लेकिन ऊ कभी सांस्कृतिक मोर्चे पर ऐक्टिव नहीं रहे। ई फैसला इकतरफा नहीं रहा?’
अभी यह बहस जाने कितनी देर चलती और नन्दू जी को कितना ऊबाती-तपाती (क्योंकि पार्टी लाइन और प्रवृत्तियों की यह सारी बहसा-बहसी उन्हें अपने बारे में कहे गये दो वाक्यों के सन्दर्भ में की गयी लग रही थी) कि तभी सीढि़यों से टेरेस में खुलने वाले दरवाज़े के ऊपर लगी घण्टी बजी। बिन्दु उठ कर टेरेस की मुंडेर तक गयी और टेरेस से नीचे झाँक कर देखने के बाद उसने लौट कर बताया, ‘चण्डिका प्रसाद द्विवेदी हैं, दो-तीन लोगों के साथ, और ऊपर आ रहे हैं।’
‘ई दलाल हियाँ का करने आया है ?’ अनिल वज्रपात ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा।
इस बीच बिन्दु ने सीढि़यों से फ़्लैट में आने वाला दरवाज़ा खोल दिया था और कुछ पल बाद दो युवकों को (जो शक्ल-सूरत और हाव-भाव से चमचे लगते थे) अपनी अर्दल में लिये, एक सम्भ्रान्त-से व्यक्ति के साथ चण्डिका प्रसाद द्विवेदी कमरे में दाख़िल हुए।

तेईस

साँवला रंग, मझोला क़द और गठा बदन; चुंधी-चुंधी आँखों पर मोटे शीशों वाला चश्मा जिसे उतारने पर उनकी आँखें और भी चुंधी-चुंधी जान पड़ती थीं; चेहरे के नक़्श ब्रश के मोटे स्पर्शों और मोटी रेखाओं से बनाये गये -- चण्डिका प्रसाद द्विवेदी जब चश्मा हटा कर बात करते तो सिर को थोड़ा ऊपर को उठाये रहते, जिस तरह से अमूमन नेत्रहीन उठाये रखते हैं और मुस्कराते तो उनके चेहरे पर एक निरीहता-सी झलकने लगती। लेकिन उनके खाँटी घाघपन पर अनायास छा जाने वाली यह निरीहता महज़ एक छलावा थी जिसके पीछे छिपी सूक्ष्म बुद्धि और शातिर काँइयापन उनके सरापे या सूरत-शक्ल से नहीं, बल्कि कामकाज, व्यवहार और आचरण से उजागर होता था।
राजनैतिक हलक़ों में चण्डिका प्रसाद द्विवेदी, जिन्हें हर ख़ास-ओ-आम अब उनके पुकारू नाम सीपीडी से जानता था, ‘फ़ितरती’ प्रसिद्ध थे - उन लोगों में से एक, जिनकी हमारे इस संसदीय लोकतन्त्र में सुदीर्घ परम्परा थी। 
साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़ और जुगाड़ में माहिर सीपीडी ने शुरुआत तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा से की थी जब वे हाई स्कूल में थे और ‘वियोगी’ के उपनाम से गीत लिखा करते थे, लेकिन जल्दी ही वे मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन एस.एफ़.आई. में आ गये, छात्र-संघ के अध्यक्ष बने, उपनाम बदल कर ‘अग्निशिखा’ रखा और अर्से तक वहीं बने रहे। जब तक कि उन्हें अपनी एक अलग क़िस्म की सौन्दर्य वृत्ति के कारण, जो लोगों के ख़याल में उनके संघी सान्निध्य और साहचर्य की देन थी, पार्टी से अलग नहीं होना पड़ा। 
यों, ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो कहते थे कि दरअसल सीपीडी  संघ-विरोधियों का निशाना बन गये थे या फिर कुछ दूसरों का दावा था कि संघ को सीपीडी की नैसर्गिक सौन्दर्य-वृत्ति के कारण कलंकित होना पड़ा था। बहरहाल, ज़हीन आदमी थे, दुनिया भर का साहित्य-दर्शन घोखे हुए, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से ले कर संस्कृति, आदि पर साधिकार बोल सकते थे और अपनी महत्वाकांक्षाओं पर घूंघट काढ़ कर बड़े नेताओं का साथ निभा सकते थे, उनके भाषण लिख सकते थे और साँठ-गाँठ में ऐसे बिचौलिये की भूमिका निभा सकते थे जो अदृश्य और मूक रहने का गुर जानता हो और जिसके कान में डाली गयी बात न तो दूसरे कान के रास्ते हवा हो जाय, न मुँह के रास्ते आग भड़का दे ।
जल्दी ही सीपीडी एक ऐसे प्रभावशाली नेता के साथ ‘लग लिये’ थे, जिसने अनेक पार्टियों की जननी हमारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पुरानी रवायत बरक़रार रखते हुए अपनी स्वतन्त्र पार्टी बना ली थी। चूंकि उस पुरानी रवायत के मुताबिक़ ऐसा काम वही करते आये थे जो फ़क़ीर हों या फ़नकार, चुनांचे इस नेता ने मोक्ष का दूसरा मार्ग पकड़ा था। पैसा उन्होंने कांग्रेस के मन्त्रिमण्डलों में प्रभावशाली और रसीले पदों पर रह कर अकूत गँठियाया था और अब भी केन्द्र की अस्थिर सरकार को समर्थन देने-न देने या वापस लेने-न लेने के एवज़ में गँठिया रहे थे। नतीजतन इस गुड़ के बल पर राजनैतिक चींटों को अपनी तरफ़ खींचे रखने की क़ूवत रखते थे। 
चण्डिका उर्फ़ सीपीडी ऐसे ही चींटे थे और चूंकि अत्यन्त विपन्न परिवार से आये थे, इसलिए गुड़ की अहमियत से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। अब तो ख़ैर अपने शुभाकांक्षी-संरक्षक की कृपादृष्टि की बदौलत सीपीडी के पास दो-दो गाडि़याँ और दिल्ली, बम्बई और बनारस में मकान, यहाँ तक कि बनारस के पास अपने गाँव में, ज़मीन भी थी मगर एक ज़माना ऐसा भी था जब वे पढ़ने के लिए बनारस आने से पहले चाय-पकौड़ी और जलेबी की एक दुकान के अन्दर परछत्ती पर गुज़ारते थे।
दुकान चण्डिका के पिता की थी जो सन तीस में कांग्रेस की लहर पर सवार हो कर अपने गाँव जोखूपुरवा, ज़िला चन्दौली से कलकत्ता चले आये थे और ज्वार के उतर जाने पर किनारे फेंक दिये गये तिनकों की तरह कलकत्ता ही में रह गये थे। चूंकि ताल-तिकड़म वाले आदमी नहीं थे, इसलिए पार्टी के नेताओं ने वहीं बड़ा बाजार में उन्हें एक छोटी-सी चाय-पकौड़ी की दुकान खुलवा दी थी और उसी के ऊपर रिहाइश का इन्तज़ाम करा दिया था।
यहीं चण्डिका प्रसाद द्विवेदी के आरम्भिक वर्ष गुज़रे थे, जब तक कि वे इण्टर के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस नहीं आये। उनके अन्दर के जौहर को बनारस ने सान पर चढ़ाया था जो ठेठ बनारसी मुहावरे में कहें तो ‘राँड़-साँड़-सीढ़ी-संन्यासी’ ही के लिए नहीं, बल्कि अपने एक और समुदाय की वजह से जाना जाता था, जिसके गुणों की आज़माइश के लिए राजनीति सबसे उपयुक्त अखाड़ा था।
बनारस के बाद सीपीडी ने मुड़ कर नहीं देखा था। रोज़ पहने जाने वाले कपड़ों की तरह साथी-संगाती, दल और नेता बदलते हुए आज वे अपने ताज़ातरीन आक़ा की पार्टी के महासचिवों में से एक थे। चूंकि शुरू ही से चण्डिका ने बादशाहों के हश्र को पहचान लिया था, इसलिए बादशाह बनने की बजाय, उन्होंने बादशाह बनाने की तरकीबें सिद्ध की थीं। इससे दो फ़ायदे थे; एक तो विश्वास का संकट नहीं पैदा होता था, दूसरे उनकी अपनी गाड़ी प्रेम से अप्रयास खिंचती रहती थी।
आजकल चूंकि वह दल जिसके चण्डिका महासचिव थे किसी भी प्रान्त में सत्ता में नहीं था, इसलिए चण्डिका निस्बतन ख़ाली थे। गो, उनका अपना धन्धा बदस्तूर जारी था। अपने पिछले सफ़र में चण्डिका ने हर दल में एक न दो ऐसे सम्पर्क बनाये हुए थे कि वे अपने पास आने वाले लोगों के ‘काम आ सकें।’ काम आ सकने की यही ख़ासियत अब तक चण्डिका की सफलता का एक रहस्य थी। उनके साथ इस समय भी जो दो युवक थे, वे अपने काम के सिलसिले में चण्डिका के साथ थे और चण्डिका उन्हीं की क्वालिस गाड़ी में नन्दू जी से मिलने आये थे।
कमरे में दाख़िल होते ही चण्डिका की नज़र वहाँ बैठे लोगों पर पड़ी थी और इस बात पर भी कि सारे मूढ़ों पर लोग बैठे थे और दीवान पर लगभग भीष्म पितामह की मुद्रा में नन्दू जी लेटे हुए थे। उन्होंने मुड़ कर अपने साथ आये युवकों से कहा था, ‘तुम लोग थोड़ी देर बाहर का नज़ारा लो, हम दू मिनिट नन्द किशोर जी से बतिया लें, फिर चल कर तुम्हारा काम कराते हैं।’
इसके बाद हालाँकि अन्दर मौजूद लोगों ने चण्डिका और उनके साथ आये व्यक्ति के लिए जगह ख़ाली करने की पेशकश की थी, लेकिन बड़ी तत्परता से सबसे अपनी जगह बैठे रहने का आग्रह करके चण्डिका नीचे चटाई पर उसी जगह जा बैठे थे जो थोड़ी देर पहले नन्दू जी के भाई के जाने पर ख़ाली हुई  थी। वे जानते थे कि महत्व व्यक्ति का होता है, आसन का नहीं और राजा धरती पर बैठे तो भी राजा ही रहता है। इसके साथ ही उन्होंने अपने साथ आये व्यक्ति से कहा, ‘आइए डॉक्टर साहब,’ और उन्हें भी अपने साथ ही बिठा लिया।
ज़ाहिर है कि कमरे में चल रही बहस में चण्डिका के आने से जो ख़लल पैदा हुआ था, उसकी वजह से एक अजीब-सी-चुप्पी छा गयी थी जिसके नीचे-नीचे तर्कों, दलीलों और अनकही रह गयी बातों की एक अदृश्य-सी हलचल मची हुई थी, जैसा कि अमूमन ऐसे वक़्तों में होता है। मगर इससे पहले कि यह चुप्पी असहजता अख़्तियार करे, चण्डिका ने मोर्चा सँभाल लिया था और ‘नमस्कार-नमस्ते’ और ‘आइए-आइए’ का कीर्तन समाप्त होने के बाद चटाई पर अपनी परिचित योग-मुद्रा वज्रासन में बैठ कर चण्डिका ने जो पहला वाक्य बोला, उससे सब लोगों को अन्दाज़ा हो गया कि चण्डिका को नन्दू जी की हालत का रत्ती भर पता नहीं है और वे और भले ही किसी काम से आये हों मिज़ाजपुर्सी के लिए नहीं आये।
‘कहिए साथी राम अँजोर जी,’ चण्डिका ने किसान सभाई कॉमरेड से पूछा जिनसे वे पूर्व परिचित थे, ‘नालन्दा में काम कैसा चल रहा है?’
‘ठीकै है,’ राम अँजोर बोले, ‘पिछली बार चुनाव में सीट पाटिये जीता था।’
‘रैली तो आपकी ज़ोरदार हुई, बहुत अच्छी कवरेज की है अख़बारों में, लगता है आप लोगों ने दिल्ली चलो का बिगुल फूंक ही दिया है आख़िर,’ चण्डिका ने चश्मा उतार कर एक हाथ से आँखों को मलते हुए कहा।
‘दिल्ली आये बिना किस का गुजारा हुआ है साथी,’ वज्रपात ने हल्के-से व्यंग्य और तल्ख़ी से कहा, ‘सत्ता तो दिल्लियै बिराजती है न।’
अब चण्डिका ने ग़ौर से उस युवक पर नज़र डाली। वे पल भर में पहचान गये कि अभी ज़िन्दगी ने इस युवक को लड़ाई के अवसर चुनना नहीं सिखाया है।
‘भाई, हम तो अब तक यही जानते थे कि सत्ता सर्वहारा के अधिनायकवाद में बिराजती है। दिल्ली तो एक पड़ाव है। आपकी पार्टी ने भी तो चुनाव में हिस्सा लेने का फ़ैसला करके यही मान लिया है न?’ वे बिना उत्तेजित हुए बोले।
अब कॉमरेड राम अँजोर को अचानक अपने साथियों का परिचय देने का ख़याल आया। उन्होंने अनिल वज्रपात, उदय प्रकाशपुंज और आदित्य प्रकाश का परिचय दिया। आदित्य का नाम सुनते ही चण्डिका चहक उठे, ‘अरे आप ही आदित्य प्रकाश हैं। अहो भाग्य। मैं तो आपकी कहानियों का मुरीद हूं। भाषा-शैली का भी और जिस तरह से आप विषय उठाते हैं, उसका भी।’
‘लेकिन कॉमरेड,’ अबकी बार बारी उदय प्रकाशपुंज की थी, ‘आपकी इस राजनैतिक व्यस्तता में कहानी पढ़ने का टाइमौ मिलता है ?’
‘आपने हमारी दुखती नस छेड़ दी साथी,’ स्वर में अवसाद ला कर चण्डिका ने कहा, ‘समय तो कम मिलता है, यह ठीक है, पर हमने साहित्य-संस्कृति और विचार से अपने को कभी अलग नहीं किया है। लोकवादी कांग्रेस में भी हमने साफ़ कर दिया है कि यह सब हमारे लिए साँस लेने के बराबर है। अरे, हमको तो आज भी वे दिन याद आते हैं जब हम बनारस में गोरख पाण्डे, महेश्वर और दूसरे साथियों के संग मिल कर काम करते थे, गीत गाते थे...’
और बात अधूरी छोड़ कर चण्डिका ने अचानक दिवंगत कवि गोरख पाण्डे के गीत की कुछ पंक्तियाँ सस्वर सुनानी शुरू कर दीं।

‘सूतल रहलीं सपन एक देखलीं 
सपन मनभावन हो सखिया
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया
अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा 
त खेत भइलें आपन हो सखिया
गोसयाँ के लठिया मुरइया अस तूरलीं 
भगवलीं महाजन हो सखिया....’

शक्ल-सूरत और सरापा चाहे जैसा हो, पर कण्ठ चण्डिका का लाजवाब था। तरह-तरह की अतियाँ भी (वे सुबह से शाम तक पी सकते थे और रात-रात भर जाग कर ख़रमस्तियाँ कर सकते थे) उसकी मधुरता को कम नहीं कर पायी थीं। गीत था भी उस साध के बारे में जो हर आम हिन्दुस्तानी किसान के मन में दुल्हिन की तरह सफल होने की चाह में बैठी रहती है। 
कमरे में बैठे लोग मन्त्र-मुग्ध-से सीपीडी को गाते सुनते रहे। यहाँ तक कि बिन्दु भी रसोई से वहाँ आ गयी।
गीत की दो कडि़याँ गा कर चण्डिका मुस्कराये और फिर घड़ी की तरफ़ नज़र डाल कर नन्दू जी की तरफ़ मुड़े जो चण्डिका के आने के बाद दीवान पर दीवार से पीठ टिका कर अधबैठे हो गये थे।
‘दरअसल, हम एक ख़ास काम से आये हैं, नन्दू जी,’ उन्होंने बात शुरू की, मगर इस बीच नन्दू जी की हिचकियों का क्रम थोड़ा तेज़ हो गया था, इसलिए उन्होंने पहले नन्दू जी की कुशल पूछना ज़रूरी समझा, ‘क्या बात है, हम आये तो आप लेटे हुए थे, तबियत तो ठीक है न?’
‘कहाँ ठीक है,’ बिन्दु ने चिन्ता-भरे स्वर में कहा, ‘कल शाम से हिचकी शुरू हुई है और अभी तक नहीं रुकी। हमें तो बहुत चिन्ता हो रही है।’
‘अरे, फिर तो देखिए, हम कैसे सही समय आये, ज़रूर इसमें टेलिपैथी का कुछ हाथ है,’ चण्डिका चहके। ‘आप डॉक्टर विनय कुमार हैं, होमियोपैथी के जाने-माने डॉक्टर हैं।’
अपने साथ आये सज्जन का परिचय दे कर चण्डिका ने एक ही साँस में यह जानकारी दे दी कि डॉ0 विनय कुमार मुज़फ्फ़रपुर के रहने वाले हैं और वहाँ के सुप्रसिद्ध होमियोपैथ डॉ.आर.पी. शर्मा के साथ कई बरस काम कर चुके हैं और साल भर से दिल्ली में पैर जमाने की कोशिश में हैं, बल्कि कहा जाय कि पैर जमा चुके हैं और अपनी एक पुरानी साध को पूरा करने के मक़सद से चण्डिका के साथ नन्दू जी से मिलने आये हैं। 
यह सब जानकारी एक ही साँस में दे कर चण्डिका डॉक्टर विनय कुमार की तरफ़ मुड़े और बोले, ‘मगर वह काम बाद में। पहले नन्दू जी को इस लायक़ तो बनाया जाय कि वे हमारी मदद कर सकें।’ 
यह कह कर चण्डिका ने डॉ0 विनय कुमार की तरफ़ देखा, मानो गेंद उन्होंने अब गोल के नज़दीक पहँच कर अग्रिम पाँत के सही खिलाड़ी को सौंप दी हो, और अपनी सवालिया निगाहें डॉ0 विनय कुमार पर गड़ा दीं।
‘कब से आ रही है हिचकी आपको?’ डॉक्टर विनय कुमार ने चन्दू से पूछा।
‘कल रात खाने से पहले से,’ नन्दू जी ने जवाब दिया।
‘अच्छे-भले शाम को काम से घर लौटे थे,’ बिन्दु ने तफ़सील दी, ‘चाय-वाय पी। बस, अचानक हिचकी शुरू हो गयी। खाना भी नहीं खाया। अभी मुश्किल से चाय पी है। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। यहाँ हम नये-नये आयें हैं। किसी को जानते नहीं कुसुम विहार में तो दस पड़ोसी थे, डॉ0 सुशील वर्मा भी नज़दीक थे, यहाँ किसी को दूसरे से जैसे कोई वास्ता ही नहीं...’ 
इतना कहते-कहते बिन्दु का स्वर मद्धम होते-होते अचानक रुंध-सा गया।
‘घबराने की कोई बात नहीं,’ डॉ0 विनय कुमार बोले, ‘हिचकी कोई रोग नहीं, एक कण्डिशन है। क़रीब-क़रीब उलटी आने जैसी - रिवर्स पेरिस्टॉल्सिस - जब शरीर स्वाभाविक रूप से खाने-पीने की चीज़ों को अन्दर लेने की बजाय बाहर फेंकता है या और तरीक़ों से रिऐक्ट करता है। शरीर का कुदरती उपाय है यह ख़ुद अपनी रक्षा करने का, उन चीज़ों से जो उसे महसूस होता है कि उसे सूट नहीं करतीं। कभी-कभी तीखी मिर्च खाने पर भी हिचकी आती है तो इसीलिए। इसके कुछ साइको-सोमैटिक कारण भी होते हैं।’ 
’साइको-सोमैटिक ?’ आदित्य प्रकाश ने फ़ौरन कहा,’यानी मनो-शारीरिक ?’
’हां, हमारा शरीर और मन तो आपस में जुड़े ही हैं न,’ इतना कह कर डॉ0 विनय कुमार चण्डिका की तरफ़ मुड़े और बोले, ‘गाड़ी में मेरा बैग रखा है, उसे मँगवा दीजिए।’
चण्डिका ने फ़ौरन अपने साथ आये युवकों में से एक को आवाज़ दे कर बुलाया और नीचे भेजा कि वह डॉ0 विनय कुमार का बैग ले आये। इस बीच सबका ध्यान डॉक्टर विनय कुमार पर जमा हुआ था। वे मझोली क़द-काठी और खुलते गेंहुए रंग के सुदर्शन व्यक्ति थे। यह उनकी स्वाभाविक वृत्ति थी या फिर होमियोपैथी जैसी चिकित्सा पद्धति अपनाने से बना स्वभाव, उनके लहजे में एक आश्वस्तिकारक भाव रहता था।

Monday, September 15, 2014

हिचकी

किस्त : 20-21

बीस

‘खेलावन मिसिर की व्यथा-कथा’ जब एक सामान्य-सी पत्रिका में छपी तो किसी ने उसका नोटिस ही नहीं लिया। लेकिन जब उसे एक लोकप्रिय कहानी-पत्रिका ने दोबारा ‘साभार’ छापा तो एक हंगामा मच गया। कहानी के संकेत इतने स्पष्ट थे कि किसी को रत्ती भर शक नहीं हो सकता था कि कहानी के प्रमुख पात्र कौन हैं।
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कहानी की शुरुआत यह भ्रम पैदा करती थी कि कहानी उस उच्चवर्गीय विश्वविद्यालय पर चोट करने के लिए लिखी गयी है, लेकिन अन्त तक पहुंचते-पहुंचते इसमें कोई सन्देह नहीं रहता था कि यह कहानी रामखेलावन नामक उस पात्र का उपहास करने के लिए लिखी गयी है। 
कहानी के चर्चित होने के पीछे परनिन्दा का यह पहलू तो था ही, आदित्य प्रकाश की चटकीली चमत्कारी भाषा-शैली का भी हाथ था। चूंकि सौरभ मिश्रा के हिमायतियों और हितचिन्तकों की भी कोई कमी नहीं थी, इसलिए इस कहानी के दोबारा छपते ही एक अच्छा-ख़ासा युद्ध छिड़ गया।
आदित्य प्रकाश से जब दिल्ली की एक चिकनी रंगीन साप्ताहिक पत्रिका में साहित्य के पन्ने देखने वाली एक उउत्फुल्लमना उपसम्पादिका ने, जो होली के त्योहार पर अपनी चुटीली हास्य-व्यंग-भरी शैली में चुटकियाँ लेने के लिए मशहूर थी, इस प्रसंग पर छोटा-सा इण्टर्व्यू लिया तो आदित्य प्रकाश ने कहा, ‘लेखक अपने इर्द-गिर्द के परिवेश से ही तो सामग्री लेता है न ? भला और कहाँ से वह सामग्री लायेगा ? वैसे, यह केवल प्रचार है कि मैंने कहानी किसी ख़ास व्यक्ति पर लिखी है। मैं तो उस उच्चवर्गीय शिक्षा संस्थान की असलियत दिखाना चाहता था।’
इस कहानी से सौरभ मिश्रा का कुछ बना या बिगड़ा, यह तो उनके मित्र ही बता सकते थे, अलबत्ता आदित्य प्रकाश का नाम उन युवा कहानीकारों में दर्ज हो गया जिन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। इसलिए जब कुछ समय बाद आदित्य प्रकाश ने अपने सरपरस्त आई.ए.एस. कवि की छत्रछाया से बाहर आने की सोची तो उन्होंने उस सारे तन्त्र को निशाना बनाया जो मँहगी शराबें पीते हुए साहित्य और संस्कृति का जलवा राजधानी के ऐसे सभागारों और अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्रों में दिखाता था जहाँ अव्वल तो आम मध्यवर्गीय लेखक की पहुंच नहीं थी, और अगर कभी वह किसी आयोजन में शिरकत करने पहुंचता भी था तो कला-संस्कृति के किसी क्षत्रप या सेठ के दरबारी या मुसाहिब की हैसियत में। 
इस बार आदित्य प्रकाश ने अपनी कहानी के मुख्य पात्र के रूप में हिन्दी के ऐसे जाने-माने कवि को लिया जिसने शुरुआत तो अकविता की विचारशून्य अराजकता से की थी, लेकिन बहुत जल्द उससे किनारा करके अपने समय और समाज की तस्वीरें उकेरनी शुरू कर दी थीं। अकविता के अराजकतावादी दिनों में परम्परा से एक विचारशून्य विरोध सिर्फ़ कविता तक ही सीमित नहीं था, औरों से अलग नज़र आने और चौंकाने वाला कुछ करना भी इसमें शुमार था। 
लिहाज़ा, शिरीष कुमार ने अपने अच्छे-ख़ासे नाम को बदल कर शिमार कुरीष कर लिया था। बाद में जब वह अकविता के कोहरे से बाहर आया तो उसे अपनी इस बचकानी हरकत पर पछतावा भी हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वह शिमार कुरीष के नाम से जाना जाने लगा था। औरों से अलग लीक पर चलने का ज़ज्बा अब एक नये रूप में उसके भीतर अँकुवाया था। 
जब राजधानी के अधिकांश मध्यवर्गीय हिन्दी कवि अस्सी के दशक में विद्रोह की सारी पुरानी बातें भूल कर जनता के इहलोक से पहले अपना इहलोक सुधारने की दौड़ में शामिल हो गये थे और परस्पर पीठ-खुजाऊ मण्डलियाँ बना कर पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार और पारितोषिक के चक्कर में कभी इस साहित्यिक गॉड फ़ादर सभी उस साहित्यिक गॉड फ़ादर के दरबार में सज्दा करने लगे थे, कुरीष ग़ाज़ियाबाद से रोज़ उस राष्ट्रीय दैनिक के दफ़्तर तक बस में अप-डाउन करता था, जिसके सम्पादकीय विभाग में वह अपने अराजतावादी दौर से बाहर निकलने के बाद बहैसियत जूनियर सह सम्पादक शामिल हुआ था। 
बीस बरस तक ख़बरों और किसिम-किसिम की रिपोर्टों और टिप्पणियों से सिर मारने के बाद अब वह सीनियर उपसम्पादक  की कुर्सी सुशोभित कर रहा था, हालाँकि बहुत-से लोगों को इस सन्दर्भ में ‘सुशोभित’ शब्द अनुपयुक्त लगता, क्योंकि कुरीष का वतीरा अब भी वैसे-का-वैसा था। समय की करवटसाज़ी के साथ जब पत्रकारिता में भगदड़ मची और पत्रकार लगभग अश्लील-सी जान पड़ने वाली तन्ख़्वाहों पर इस अख़बार से उस अख़बार में छलाँगें लगाने लगे, मानो वे पत्रकार न हों, पश्चिमी फ़ुटबॉल क्लबों में ख़रीदे-बेचे जाने वाले खिलाड़ी हों, और कुछ भाग्यशाली तो टी.वी. की नयी लालसा-उपजाऊ दुनिया के बाशिन्दे बन गये, तब भी कुरीष उसी राष्ट्रीय दैनिक में बना रहा। यों, समय-समय पर वेतन आयोगों की सिफ़ारिशों की वजह से आम तौर पर तन्ख़्वाहें बढ़ गयी थीं और पहले जैसी तंगी न रही थी, तो भी कुरीष ने न स्कूटर ख़रीदा था, न कार, और उसी तरह बस से आता-जाता रहा।    
उसकी बहुत-सी कविताओं में बसों की महिमा गायी गयी थी, दिल्ली की बसों के कुख्यात कण्डक्टरों और ड्राइवरों के दुख-दर्द और उनकी सहज मानवीयता अंकित की गयी थी, आम निम्न-मध्यवर्गीय बाबूपेशा वर्ग के जीवन और हर्ष-विषाद की छवियाँ अंकित की गयी थीं। जब भोपाल के कवि गैस काण्ड के बाद नसैनी लगा कर आकाश में चढ़ जाने की बात कहने लगे थे और दिल्ली के कवि शरीर के अनन्त स्वप्न देखने, तब कुरीष ने अपनी एक चर्चित कविता में यह कामना की थी कि वह मरे भी तो दिल्ली की बस में लटकते हुए सफ़र करता हुआ मरे।
ज़ाहिर है, अपनी इस टेक की वजह से कुरीष बहुत-से लोगों की आँख में गड़ने वाला तिनका था और उनकी खीझ अक्सर उसकी सादगी की तारीफ़ की आड़ में उसकी ‘सनकों’ का मज़ाक़ उड़ाने में निकलती थी। तभी दो-तीन घटनाएँ एक साथ हुईं। कुरीष जिस राष्ट्रीय दैनिक में काम करता था, उसके अख़बार का दफ़्तर कॉरपोरेट जगत में आ रही तब्दीलियों के चलते नॉएडा चला गया, जहाँ अख़बार के पूंजीपति मालिकों की नयी पीढ़ी की नज़र में ज़्यादा सुविधाएँ थीं। फ़ायदा यह था कि कनॉट प्लेस और बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग के युगों पुराने महँगे दफ़्तरी ताम-झाम की बजाय ज़्यादा चुस्त-दुरुस्त ढाँचा क़ायम किया जा सकेगा जो बड़ी पूँजी वाले अख़बार की काम-काजी फ़ितरत के भी ज़्यादा माफ़िक बैठता था। छिपी हुई असलियत यह थी कि ने अख़बार के पूंजीपति मालिकों की नयी पीढ़ी ज़मीनों की बेतहाशा बढ़ी हुई क़ीमतों को देख कर अपने पुरखों के कुशादा बँगलों को रफ़ा-दफ़ा करके उस पैसे को किसी और मुनाफ़ेदार धन्धे में लगाने की इच्छुक थी।    
इसी बीच कुरीष ने भी नॉएडा ही में डी.डी.ए. का एक छोटा-सा मकान किस्तों पर ख़रीदा -- एच.आई.जी. नहीं, एम.आई.जी. भी नहीं, बल्कि आर्थिक रूपसे कमज़ोर तबक़ों के लिए बनायी गयी कॉलोनी का दो कमरों वाला मकान। राहत सिर्फ़ इतनी थी कि मकान एक मंज़िला था और अपनी ही ज़मीन पर बना था, ऊपर उसे बढ़ाने की गुंजाइश थी और उसके पीछे की तरफ़ एक छोटा-सा आँगन भी था। कुरीष ने हिसाब लगाया था कि जितना किराया वह ग़ाज़ियाबाद के फ़्लैट का देता था, लगभग उतनी ही किस्त इस मकान की बैठ रही थी। 
तीसरी घटना थी कुरीष का साइकिल ख़रीदना। उस समय जब पूरी दुनिया इक्कीसवीं सदी में दाख़िल होने के लिए बेसब्री से आख़िरी दशक के बीतने की बाट जोह रही थी, हिन्दी के कवि नये कथ्य और शैली की बजाय कारों के नये मॉडलों पर बहस करने लगे थे, कुरीष का साइकिल ख़रीदना भी उसकी एक और ‘सनक’ का सबूत जान पड़ा था। 
हंगामा तो तब मचा था जब एक दिन कुरीष साहित्य अकादेमी के एक कार्यक्रम में नॉएडा से दस किलोमीटर साइकिल ही पर चला आया था। इसी साइकिल को ले कर आदित्य प्रकाश ने अपनी ख़ास चुलबुली शैली में, जिसे आम तौर पर मार्केज़ के जादुई यथार्थवाद का हिन्दी क्लोन कहा जाता था, एक नयी कहानी लिखी थी ‘मारीच चीमरा की साइकिल।’ 
इस कहानी में भी ज़ाहिरा तौर पर आदित्य प्रकाश ने दिल्ली की उन उच्चवर्गीय संस्थाओं, हाई-फ़ाई सभागारों और संस्कृति के उठाईगीरों पर चोट करने की कोशिश की थी, लेकिन अपनी मुकम्मल शक्ल में उनकी कहानी कुरीष का एक कैरीकेचर बन कर रह गयी थी।
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इधर उनकी एक ताज़ा कहानी हिन्दी की एक जानी-मानी कहानी पत्रिका में धारावाहिक रूपसे छप रही थी -- ‘क्लोज़ अप की मुस्कान वाला लड़का’ जिसमें उन्होंने एक दक्षिण भारतीय युवक और एक कश्मीरी लड़की की प्रेम-कथा को बड़े ऐन्द्रिक, लगभग रीतिकालीन श्रृंगार कविताओं की-सी शैली में पेश किया था और कहानी में आर्य-द्रविड़ तनाव से ले कर पर्यावरण, आर्थिक उदारीकरण, कॉरपोरेट जगत, शेयर बाज़ार और भूण्डलीकरण सब कुछ पिरो दिया था। 
दिलचस्प बात यह थी कि प्रेमचन्द की विरासत के गुन गाने वाले हिन्दी के नये-पुराने कहानीकारों को अब सच के सीधे-सीधे बयान में कोई तुक नज़र नहीं आता था। प्रेमचन्द अब उन्हें इकहरे यथार्थ के कथाकार जान पड़ते थे। अपने घर से बाहर निकलते ही एक औसत हिन्दुस्तानी का सामना पैसे और ताक़त के जिस खुले और निर्मम खेल से होता था, घूसख़ोरी और अपराध पर टिके जिस राजनैतिक तन्त्र से होता था उसका अक्स बिरले ही किसी कहानी या उपन्यास में नज़र आता। 
ऐसी हालत में आदित्य प्रकाश की चमकीली भाषा, उनकी कहानियों में तनाव और ऐन्द्रिकता का मसाला और बुराइयों पर चोट करने के मिस उनका एक जुगुप्सा-भरा चित्रण बहुत-से लोगों को रुच रहा था और उनका बेबाक अन्दाज़ और भी बेबाक होता जा रहा था। कहानियों में भी और जीवन में भी।
अपनी इसी बेबाक अदा से उन्होंने ‘अरे भाई, नन्दूजी हैं क्या?’ कहते हुए दरवाज़ा ठेला था और बिहार से आये तीनों कॉमरेडों को अपनी अर्दल में लिये अन्दर आये थे।



इक्कीस

इस बीच चन्दू गुरु चाय ख़त्म कर चुके थे और जेब से एक नफ़ीस-सा देसी बटुआ निकाल कर, उसकी डोरी खींच, सुपारी और कत्थे के डले निकाल कर हथेली पर रख रहे थे। जिस बीच आदित्य प्रकाश और दूसरे लोगों ने बैठक में रखे मूढ़ों को सरका कर जगह बनाते हुए आसन जमाया, पण्डित चन्द्र किशोर तिवारी सुपारी, कत्था, चूना, लौंग मिला कर गुटका बनाते रहे, फिर उन्होंने उसकी एक फंकी लगा कर एक छोटी-सी डिबिया से चुटकी भर तम्बाकू मुंह में डाला और दीवार से टेक लगा कर थोड़ा इतमीनान से टिक गये।
‘मैंने आज सुबह जब कल की रैली के बारे में बधाई देने के लिए पार्टी ऑफ़िस फ़ोन किया,’ अदित्य प्रकाश ने नन्दू जी को सम्बोधित करते हुए, लेकिन जैसे किसी सभा को सुनाते हुए कहा, हालाँकि कमरे में नन्दू जी के भाई और बिहार से आये उन तीन कॉमरेडों के अलावा और कोई नहीं था, ‘तो साथी प्रकाशपुंज ने बताया कि नन्दू जी की तबियत ख़राब है। शायद आपकी पत्नी ने वहाँ फ़ोन किया था। बहरहाल, ज़्यादा-कुछ तो पता नहीं चला, इसलिए और भी चिन्ता हो गयी। साथी लोग तो आ ही रहे थे, हमने कहा, हम भी नन्दू जी से मिलते आयें। आख़िर, हमारे नये संग्रह का दारोमदार तो नन्दू जी के कन्धों पर ही है।’
इतना सब एक ही साँस में कह कर आदित्य प्रकाश बैठक में रखे मूढ़ों में से एक पर इत्मीनान से टिक गये और उन्होंने बैठक में चारों तरफ़ निगाह दौड़ायी। उनके साथ आये पार्टी कॉमरेड पहले ही से नन्दू जी की बैठक और उसमें लगी संस्कृति की नुमाइश का नज़ारा कर रहे थे। एक साथ इतनी कला को देख कर उन्हें बस यही महसूस हो रहा था कि नन्दू जी ने सम्पन्नता की (और संस्कृति की भी) कई सीढि़याँ एकबारगी तय कर ली हैं। रहे आदित्य प्रकाश तो उनका कहानीकार सहसा जागृत हो गया था और वे एक-एक ब्योरे को मन में बिठाते जा रहे थे।
कुछ पल की ख़ामोशी के बाद, जिसमें नन्दू जी की हिचकियों ही की आवाज़ सुनायी देती रही, आदित्य प्रकाश ने फ़ैसलाकुन अन्दाज़ में कहा, ‘बैठक तो आपने ख़ूब सजायी है। जगह भी यह कुसुम विहार से अच्छी है। सबसे बड़ी बात है कि आपके दफ़्तर के नज़दीक है।’
नन्दू जी इतने निढाल थे कि इस पर एक फीकी-सी मुस्कान के अलावा और कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त कर पाये, लेकिन अनिल वज्रपात ने फ़ौरन टीप जड़ी, ‘साथी, रघुवीर सहाय एक कविता में लिखे हैं जहाँ बहुत कला होगी वहाँ परिवर्तन नहीं होगा। जेतना सादगी होगा, कला ओतना ही कारगर होगा।’
‘ई बात में थोड़ा दम तो है, कॉमरेड,’ नालन्दा के किसान सभाई राम अँजोर बोले। ‘सब कला समाजिक परितवर्तन का औजारै तो है। कला कला के लिए का सिद्धान्त तो बहुत पहले ही खारिज कर दिया गया रहा।’
‘लेकिन जिस आदर्श की आप बात कर रहे हैं, कॉमरेड,’ आदित्य प्रकाश बोले, ‘उस तक पहुंचने में अभी समय लगेगा। यह संक्रान्तिकाल है, इसमें हम मध्यवर्गीय लोग तरह-तरह के चरणों से गुज़रेंगे और इसी क्रम में उस सहजता को हासिल करेंगे जिसकी तरफ़ आप इशारा कर रहे हैं। जैसा कि अभी आते समय भी चर्चा हो रही थी, एक वर्ग विभाजित समाज में लोगों की चेतना भी लामुहाला विभाजित होगी और.......’
इस सारी बहस से नन्दू जी का मन बेतरह ऊबने लगा था। उन्हें अपने साथियों की यही बात बहुत बुरी लगती थी। वे मौक़ा-मुहाल देखते नहीं थे और सिद्धान्त झाड़ने में जुट जाते थे। कई बार वे सोचते, इस तीसरी धारा को भी तो अब पैंतीस-चालीस साल हो चले थे, अब तक तो कुछ ठहराव आ जाना चाहिए था ‘वसन्त का वज्रनाद’ वालों में। पार्टी बनी थी, टूटी थी, लगभग मिट गयी थी, फिर राख से जन्म लेने वाले पौराणिक पक्षी की तरह उठ खड़ी हुई थी, और अब तो खुले में जा कर चुनावों में भी भाग लेने लगी थी, मगर समस्या शायद पार्टी में उतनी नहीं थी जितनी पार्टी के कार्यकर्ताओं में, सवाल पार्टी की उमर का नहीं, साथियों की उमर का था। और वह भी शारीरिक से ज़्यादा दिमाग़ी उमर का।
तभी आदित्य प्रकाश की नज़र वहीं चटाई पर बैठे और दीवार से टेक लगाये नन्दू जी के बड़े भाई की तरफ़ गयी। उन्होंने नन्दू जी की तरफ़ देखते हुए पूछा, ‘नन्दू जी, आपने इनसे परिचय नहीं कराया। आप....’
‘मेरे बड़े भाई हैं, चन्द्र किशोर तिवारी,’ नन्दू जी ने कहा।
‘अच्छा-अच्छा, नमस्कार,’ आदित्य प्रकाश सिर को हल्का-सा झुकाते और हाथ जोड़ने की-सी मुद्रा बनाते हुए बोले। ‘यहीं दिल्ली में हैं आप, या...’
‘दिल्लियै में हैं। उधर ओखला साइड में। एक फ़ैक्टरी में स्टोर कीपर हैं।’ चन्दू जी ने संक्षेप में बात निपटा दी। वे अपने भाई के इन साथियों की फ़ितरत भाँप गये थे।
लेकिन आदित्य प्रकाश इतनी जल्दी झटके जाने को तैयार नहीं थे। ‘तो नन्दू जी को देखने आये होंगे आप? वैसे देखने में आप स्टोर कीपर नहीं, पूजा-पाठ कराने वाले पण्डित लगते हैं। कुछ इसमें भी विश्वास है आपका?’
‘काहे नहीं होगा, साहेब,’ चन्दू जी का ब्राह्मणत्व जाग उठा। ‘बिस्वास में बहुत ताक़त है। सन्त लोग कह गये हैं बिस्वास के बल पर पंगु गिरि लाँघ जाते हैं, बधिर को सुनायी देने लगता है ।’
‘तो नन्दू जी को आप कौनो उपाय बताये कि नहीं, ई हिचकी को ठीक करने का?’ बीड़ी निकालते हुए अनिल वज्रपात ने पूछा।
‘हम को जो जनाता था, सो हम कर दिये हैं, सीधा-सीधा प्रेत-बाधा का लच्छन है,’ चन्दूजी बोले।
‘प्रेत-बाधा ?’ कॉमरेड प्रकाशपुंज भड़क कर कोई तीखी बात कहने ही वाले थे कि आदित्य प्रकाश ने बात का सिरा थाम लिया।
‘साथी, सब खेल नयी-पुरानी शब्दावली का है।’ वे बोले, ’जिसे पुराने लोग प्रेत-बाधा कहते थे, उसे आज की भाषा में मनोविकार भी कहने लगे हैं। ये सब ऐंग्ज़ाइटी सिंड्रोम और तरह-तरह की मनोग्रन्थियाँ पहले एकजुट करके प्रेतबाधा कह दी जाती थीं।’
इस बीच वज्रपात इस चर्चा से ऊब कर बीड़ी को नाख़ून पर ठोंकते हुए बारजे पर चले गये थे। उन्होंने बीड़ी सुलगायी, दो-चार कश लगाये और इत्मीनान से नन्दूजी के घर का मुआयना किया। उन्हें चाय की तलब लग रही थी। वहीं टहलते हुए उन्होंने रसोई की तरफ़ झाँका कि ‘भाभी जी’ दिखें तो चाय की फ़रमाइश की जाय। ‘भाभी जी’ तो दिखीं नहीं, अलबत्ता उन्होंने रसोई में रखी गैस और उसके बाहर बारजे के घिरे हुए हिस्से में रखा फ़्रिज और वॉशिंग मशीन ज़रूर देख ली।
अन्दर चन्दू जी, जिनका ब्रह्मतेज अब तक जागृत हो गया था, अपने फ़ॉर्म में आ गये थे। 
‘देखिए, आप सब लेखक-कलाकार लोग हैं,’ वे बोले, ‘हम आप लोग के बराबर पढ़े-लिखे तो नहीं हैं, मुदा थोड़ा-बहुत सास्तर-ज्ञान हमहूं प्राप्त किया है। ई जो प्रकृति है इसमें सब पदार्थ या तो जड़ है या चेतन। एतना ही नहीं, ई सब आपस में टकराता भी रहता है। का कहते हैं आप लोग सब, हाँ, द्वन्द्वात्मकता। तो ई भौतिक जगत में सब खेल जड़ और चेतन के संघर्ष का है। एही से सब परगति भी होता और बिकार भी फैलता है। आप लोग अपना उपाय लगाते हो, हम लोग अपना। उद्देस एकै है, बिकार दूर करना।’
चन्दू जी कुछ इतने विश्वास से बोल रहे थे कि न तो आदित्य प्रकाश को बीच में कहने का कुछ मौक़ा मिला, न प्रकाशपुंज या नालन्दा के राम अँजोर को। यह प्रवचन अभी जारी रहता, मगर अनिल वज्रपात के अन्दर आते ही एकबारगी रुक गया, क्योंकि चाय से तलबियाये कॉमरेड ने, बिना इस बात का ख़याल किये कि वहाँ कितनी गूढ़ चर्चा चल रही थी, छूटते ही कहा, ‘अरे नन्दू जी, कुछ चाय-ओय पिलवाइएगा कि नहीं ? घरवा तो खूब टिच-टाच कर लिये हैं आप। गैस, फ़्रिज, वासिंग मसीन। आराम का सब्बे चीज है। वासिंग मसीन नया लिये हैं आप, ऐसा जनाता है?’
नन्दू जी को समझ नहीं आया कि वे वॉशिंग मशीन लेने पर ग्लानि महसूस करें या गर्व। वे बुदबुदाते हुए कुछ कहने ही वाले थे कि अन्दर से बिन्दु ऑँचल से हाथ पोंछती हुई बाहर आयी। यह साफ़ नज़र आ रहा था कि जिस बीच इधर बैठक में ज्ञान-चर्चा हो रही थी, वह साथियों के आने से मिली फ़ुरसत का फ़ायदा उठा कर नहा रही थी। चूंकि वह सबसे पहले ही से परिचित थी, इसलिए उस झमेले में समय ज़ाया न करके उसने सीधे सवाल किया था, ‘कॉमरेड रामजी यादव भी तो आने वाले थे। वे नहीं आये?’
‘दिल्ली कमेटी का मीटिंग चल रहा है, रैली का समीक्षा करने का खातिर। ओही में फँसे हैं। बोले हैं, बाद में टाइम मिलेगा तो आयेंगे,’ जवाब किसान सभाई राम अँजोर जी ने दिया था।
‘रैली तो सुनते हैं, बहुत अच्छी हुई,’ बिन्दु ने पूछने के अन्दाज़ में कहा।
लेकिन कॉमरेड वज्रपात इन सब बातों में अभी सिर खपाने के मूड में नहीं थे, उन्होंने अपने मुंहफट अन्दाज़ में कहा, ‘ऊ सब बात भी होगा, भाभी जी, फिलहाल तो चाय पिलाइए। दिल्ली का ई सब लेफ़्ट-राइट में चाय का तलब बहुत लगता है।’
‘अभी बनाते हैं चाय। हम ज़रा नहाने चले गये थे, नहीं तो चाय पहले ही मिलती,’ यह कह कर बिन्दु चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी। अचानक उसकी नज़र चन्दू जी पर पड़ी और उसने पूछा, ‘आपके लिए भी लाऊँ भैया?’
‘नहीं, नहीं, अबहिन तो पिये हैं,’ चन्दू जी बोले। फिर उन्होंने सहसा घड़ी की तरफ़ देखा और उठ खड़े हुए, ‘बारह बज गया है। आज हमको सेठ बदरी प्रसाद दुबारा बुलायेन हैं। संझा को हुआँ फिर जाना है। अउर अभी करोल बाग के लाला हरदयाल चोपड़ा का काम बाक़ी है।’
यह कह कर चन्दू जी ने तत्परता से अपना झोला उठाया और उसमें से गंगाजल की बोतल निकाल कर बिन्दु को थमा दी। ‘एका तुम्हीं रखो, घण्टे-घण्टे पर एक चम्मच नन्दू को पिलाय देना। बड़ी-बड़ी दवाइयन से गंगाजल में बहुत ताकत होती है। अउर ई तो सुद्ध है, पिछली बार हम माघ में संगम नहाये गये थे तब हुंअई से लाये रहे।’ फिर वे नन्दू की तरफ़ मुड़े थे, ‘ईस्वर ने चाहा तो संझा नहीं तो रात तक आराम आ जायेगा! धियान रखना अऊर हमका खबर करवाये देना।’

Sunday, September 14, 2014

हिचकी

किस्त : 18-19

अट्ठारह

ऊपर नन्दू जी के यहाँ हाल वैसा ही था। 
आख़िर, इन ढाई तीन घण्टों में - बिन्दु के फ़ोन करके आने के बाद से चन्दू गुरु के आने तक - ऐसा क्या फ़र्क़ पड़ने वाला था। चन्दू गुरु के घण्टी बजाने पर बिन्दु ने दरवाज़ा खोला था और हालाँकि नन्दू जी के प्रभाव में पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं का विरोध करने के नाम पर उसने बहुत-से रिवाज छोड़ दिये थे, जैसे सिर ढँकना, पैर छूना, बिछुआ पहनना, लेकिन इस अजीब स्थिति में जब उसने ख़ुद फ़ोन करके ‘बड़के भैया’ को बुलाया था, वह कुछ अचकचा-सी गयी थी। उसने सिर तो नहीं ढँका था लेकिन झुक कर चन्दू गुरु के पैर ज़रूर छू लिये थे।
‘जीती रहो, जीती रहो,’ चन्दू गुरु ने उसे आशीर्वाद दिया था, ‘सुहाग अचल रहे।’ फिर वे चप्पल उतार कर अन्दर गये थे। 
नन्दू जी दीवान पर निढाल पड़े थे। हिचकियों का वेग तो कम हो गया था, पर उनका सिलसिला बराबर जारी था। हर दो-तीन मिनट पर नन्दू जी को झटके के साथ हिचकी आती। उन्होंने एक ऐसी कातर दृष्टि से अपने भाई को देखा जिसमें तकलीफ़, फ़रियाद, लाचारी और राहत का एक मिला-जुला भाव था।
‘धरम-करम छोड़ने से एही होता है,’ चन्दू गुरु ने आत्म-विश्वास से लबरेज़ अपने ख़ास पँडिताई वाले अन्दाज़ में कहा, ‘तुम नयी चाल के लोग तो कुछ मानते ही नहीं।’ 
उन्होंने अपना झोला बेंत की एक कुर्सी पर टिका दिया था और धाराप्रवाह बोलते-बुदबुदाते हुए जा कर पैर-हाथ धोये थे और फिर अन्दर आ कर नीचे चटाई पर बैठ गये थे। 
‘अरे, सब कुछ जो पुराना है, वह बुरा नहीं है, और सब कुछ जो नया है, वह अच्छा नहीं है। बाबू जी बताते थे कालीदास भी एही कहे हैं। जइसे दुनिया में अच्छा-बुरा आदमी होता है, वइसे अच्छी-बुरी आत्मा होती है। एही लिये लोग देवी-देवता की तस्वीर टाँगते हैं, गनेस जी की मूर्ति रखते हैं, सिउलिंग और सालिग्राम पूजते हैं। तुलसी बाबा भी कह गये हैं - भूत परेत निकट नहीं आवे, हनूमान जब नाम सुनावे। हम दिल्ली के बड़े-बड़े घर में गये हैं, ढेर पढ़े-लिखे लोगन के हियाँ भी हम गनेस जी की मूरती देखा है। तुम लोग जाने कौन-कौन बिदेसी बाबा लोग की फ़ोटू सजाये हो।’ 
उन्होंने दीवार पर लगे मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन के चित्रों की तरफ़ विरक्त भाव से देखा।
नन्दू जी थोड़ा कसमसाये। उनका जी हो रहा था कि अभी उठ कर बैठ जायें और अपने इस बड़े भाई से, जो एक छोटे-मोटे धार्मिक उठाईगीरे से बढ़ कर धार्मिक माफ़िया बनने की तरफ़ क़दम बढ़ा रहा था, दो-दो हाथ करें। लेकिन एक तो उनकी तबियत ख़ासी शिकस्ता थी; दूसरे, दो-तीन महीने पहले ही हरीश अग्रवाल ने दिल्ली के जाने-माने मनोविज्ञान-वेत्ता डॉ0 मुनीश ग्रोवर की किताब ‘सन्त-सियाने, झाड़-फूंक और ओझा’ का अनुवाद छापा था जिसमें डॉ0 मुनीश ग्रोवर ने फ़्रायड, जुंग, हैवलॉक एलिस और दूसरे विदेशी मनोवैज्ञानिकों के साथ-साथ प्राचीन ग्रन्थों और गाँव-देहात के झाड़-फूंक करने वालों के हवाले से यह बताया था कि भूत-प्रेत, आसेब, देवी आने और टोने-टोटके से जुड़े हुए बहुत-से ख़याल जिन्हें आम-तौर पर अन्ध-विश्वास कह कर ख़ारिज कर दिया जाता है, दरअसल देसी वैज्ञानिक समझ के सबूत हैं और अब पश्चिमी जगत में भी मानसिक रोगियों के इलाज में इस सबका इस्तेमाल हो रहा है। 
डॉ0 मुनीश ग्रोवर रातों-रात चर्चा का विषय बन गये थे, क्योंकि हाल के हर हिन्दुस्तानी विशेषज्ञ की तरह उन्होंने अपनी पुस्तक और अपनी स्थापनाएँ सब से पहले अंग्रेज़ी में प्रस्तुत की थीं और अच्छी-ख़ासी रायल्टी वसूलने के साथ-साथ टेलिविजन पर आधे-घण्टे का एक साप्ताहिक ‘शो’ भी शुरू कर दिया था। और अब मुनीश ग्रोवर ने अंग्रेज़ी पढ़ी-लिखी पश्चिम-परस्त जनता के लिए कामसूत्र वाले वात्स्यायन पर एक उपन्यास भी लिखना शुरू कर दिया था। 
अपने भाई की बातें सुन कर नन्दू जी को डॉ0 मुनीश ग्रोवर का ख़याल आ गया था और इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हर गंगातट वासी संशयात्मा की तरह उन्होंने ‘क्या पता इसमें कुछ सच्चाई हो’ के सम्भ्रम में अपना मुंह बन्द रखने में ही भलाई समझी थी।
इस बीच होंटों-ही-होंटों में बुदबुदाते हुए चन्दू गुरु ने बिन्दु को झोला पकड़ाने के लिए इशारा किया था और उसमें से एक मैगी-सॉस की छोटी बोतल निकाली भी जिसमें मटमैला-सा पानी भरा था। 
‘गंगाजल है,’ चन्दू गुरु ने बिन्दु की सवालिया निगाहों को लक्ष्य करके कहा था, ‘हम हमेसा अपने साथ रखते हैं, सुद्ध करने के वास्ते।’ 
यह सूचना देने के बाद उन्होंने बिन्दु से एक लोटा पानी मँगवाया और उसमें दो ढक्कन उस कथित गंगाजल के डाल दिये और गर्व से कहा, ‘एही तो गंगाजल की महिमा है, दुई बूंद भी आदमी को तार देती है।’ 
इसके बाद उन्होंने बोतल पर एहतियात से ढक्कन लगा कर उसे वापस झोले के हवाले किया और उठ कर लोटे से अँजुरी में पानी ले कर चारों तरफ़ छिड़कते हुए, अस्पष्ट स्वर में मन्त्रों का ऐसा पाठ करना शुरू किया जो किसी भौंरे के गुंजार सरीखा लग रहा था।
‘चलो, बाताबरन सुद्ध हो गया,’ गुंजार ख़्त्म करके वे बोले।
फिर चन्दू गुरु ने अन्दर के कमरे, रसोई, बाथरूम और बाहर की परछत्ती में भी उस लोटे से पानी ले कर छिड़कते हुए वही मन्त्रोच्चार दोहराया था जो वे बैठक में कर रहे थे और फिर वापस चटाई पर आसन जमाते हुए बोले थे, ‘हमको तो शनि का प्रकोप जान पड़ता है।’
नन्दू जी हिचकियाँ लेते हुए एक अजीब-सी श्लथ विरक्ति और उदासीनता से यह सारा व्यापार देख रहे थे। अगर चन्दू गुरु वाक़ई उनके बड़े भाई न होते तो यह सारा दृश्य चाँई ओझा और भोला यजमान के-से शीर्षक वाला कोई प्रहसन जान पड़ता।
इस बीच चन्दू गुरु अपने झोले से धूप निकाल कर जला चुके थे और उसके दूधिया बादलों को मोरपंखी से पूरे कमरे में फैला रहे थे। ‘बाताबरन’ को दोबारा ‘सुद्ध’ करने के बाद चन्दू गुरु ने मोरपंखी झोले में रखी और एक पीतल की तश्तरी निकाली, उसमें एक डिबिया से लाल सिन्दूर डाला, झोले ही से काली की एक छोटी-सी फ़्रेम-मढ़ी तस्वीर निकाल कर उस पर लाल सिन्दूर से टीका लगाया और अन्त में ताँबे का एक तावीज़ निकाल कर काली की तस्वीर के सामने रख दिया। इसके बाद उन्होंने नाक से तेज़-तेज़ साँस लेते और छोड़ते हुए, कुछ ऐसे मन्त्र पढ़ने शुरू किये जिनमें ‘ह्रीं क्लीं और फट’ जैसा कुछ सुनाई देता था।
जब आख़िरकार यह मन्त्रोच्चार ख़त्म हुआ तो चन्दू गुरु ने बिन्दु से कहा, ‘एक कटोरी में थोड़ा-सा कड़ू तेल तो ले आओ।’
जब बिन्दु तेल ले आयी तो चन्दू गुरु ने तावीज़ और सिन्दूर की तश्तरी उठायी और उसी व्यावसायिक तत्परता और कुशलता से जिससे वे अब तक की सारी क्रियाएँ सम्पन्न कर रहे थे, नन्दू जी को टीका लगाया, उनका कुर्ता उतरवा कर उनकी बाँह से वह तावीज़ बाँधा, उनके हाथ से छुआ कर एक रुपये का सिक्का तेल की कटोरी में डाल दिया और फिर सारा सामान उसी मुस्तैदी से झोले में रख कर वहीं चटाई पर पालथी मार कर बैठ गये। 
‘ई रुपिया कौनो भिखारी को दे देना,’ उन्होंने बिन्दु से कहा, ‘प्रकोप सान्त हो जायेगा।’
टीका लगाने पर तो नहीं, पर जब चन्दू गुरु ने उनकी बाँह से तावीज़ बाँधा था तो नन्दू जी कसमसाये थे और अब भी कुर्ते के ऊपर से उसे टटोल रहे थे।
‘हम जानते हैं, तुम लोग अब बिदेसी शिक्षा के असर में ई सब पूजा-पाठ और गण्डा-ताबीज नहीं मानते हो,’ चन्दू गुरु उस चाय की चुस्की लेते हुए बोले थे जो इस बीच दो मठरियों के साथ बिन्दु उनके सामने रख गयी थी, ‘मगर इन सब में बड़ी सक्ती होती है। आखिर हमारे सब बूढ़-पुरनिये नासमझ तो नहीं थे जो ई सब बिधि-बिधान बनाये रहे। और फिर, चलो मान लिया कि एमें कुछ नहीं होता, मगर एक गण्डा पहिरने से अगर आदमी का मन सान्त हो जाये तो समझो आधा कस्ट तो दूर हो गया। असली चीज तो मन की सक्ती है। हम लोग दवा खाते हैं तो डाक्टर के बिस्वासै पर तो खाते हैं न ? क्या हमको मालूम रहता है दवा में का है और कैसे असर करेगा?’ और जैसे इस तर्क से नन्दू जी को पूरी तरह आश्वस्त करके चन्दू गुरु ने चाय की एक लम्बी चुस्की ली।  

उन्नीस

तभी दरवाज़े के ऊपर लगी घण्टी बजी और किसी ने दरवाज़े को ठेलते हुए आवाज़ दी, ‘अरे भाई, नन्दू जी हैं?’
बिन्दु ने लपक कर दरवाज़ा खोला तो तेज़ी से गंजे होते सिर वाले एक गोरे, सुदर्शन, मझोले क़द के आदमी ने अन्दर क़दम रखा। उनके पीछे-पीछे फ़ैज़ाबाद और बिहार के वे तीनों साथी थे जो पिछली शाम नन्दू जी से प्रकाशन के बाहर मिले थे।
ये गोरे, सुदर्शन व्यक्ति हिन्दी के चर्चित युवा कहानीकार आदित्य प्रकाश थे जिन्होंने अपनी हाल की दो कहानियों से तहलका मचा दिया था। पहली कहानी में हिन्दी के एक प्रतिभाशाली, लेकिन भोले स्वभाव के क्रान्तिकारी कवि सौरभ मिश्रा को व्यंग्य और उपहास का निशाना बनाया गया था।
कहानी शुरू होती थी नयी दिल्ली के एक ऐसे शिक्षा संस्थान की पोल खोलते हुए जो सत्तर के दशक में बड़े ताम-झाम के साथ खोला गया था ताकि विदेशों के उच्च शिक्षा संस्थानों का मुक़ाबला कर सके। ज़ाहिर है इस शिक्षा संस्थान के ज़्यादातर छात्र उच्च वर्ग के थे। अलबत्ता, चूंकि तब तक हिन्दुस्तान में कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को बिलकुल ख़ारिज नहीं किया था, इसलिए सरकारी और सरकार समर्थित संस्थानों में मध्य और निम्न वर्गों के भी कुछ छात्र दाख़िल कर लिये जाते थे, बशर्ते कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे हों। सौरभ मिश्रा ऐसे ही छात्रों में थे जिन्हें आदित्य प्रकाश ने, जो उनसे तीन वर्ष बाद उस संस्थान में आये थे, पहले-पहल श्रद्धा-मिले विस्मय से देखा था। 
इस श्रद्धा में लगाव की एक भावना थी, क्योंकि सौरभ मिश्रा अगर पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव से आये थे तो आदित्य प्रकाश शहडोल से जो सतपुड़ा के जंगलों में एक सोया-खोया गाँव नुमा क़स्बा था। लेकिन उस समय आदित्य प्रकाश यह नहीं जानते थे कि एक ओर जहाँ गँवई-गाँव का होना और जमींदारों की पृष्ठभूमि उनमें और सौरभ में एक-सी थी, वहीं निजी परिस्थितियों के हिसाब से दोनों दो ध्रुवों पर खड़े थे। 
सौरभ की माँ बचपन में गुज़र गयी थीं, उन्हें उनकी बुआ ने पाला था, और उनका बचपन, किशोरावस्था और जवानी का शुरुआती हिस्सा अपने सामन्ती पिता की ‘परजा’ के दुख-दर्द से विचलित होने और पिता के अत्याचारी स्वभाव के ख़िलाफ़ तीखी नफ़रत और विद्रोह में गुज़रा था। उनकी शादी बहुत कम उमर में ही कर दी गयी थी, लेकिन पत्नी के अचानक गुज़र जाने के बाद घर से उनके रहे-सहे रिश्ते भी टूट गये। 
वे भाग कर बनारस चले आये, पिता ने उन्हें संस्कृत विद्यालय में शिक्षा दिलवायी थी, बनारस में सौरभ ने वह पुरानी केंचुल उतार दी और विश्वविद्यालय में अपनी आचार्य की उपाधि के बल पर बी0 ए0 और फिर राजनीति शास्त्र में एम0 ए0 किया, सक्रिय राजनीति में हिस्सा लिया, कविताएँ लिखीं, भोजपुरी के गीतों में क्रान्ति की उमंग और आग भरी और फिर दिल्ली के उस उच्च शिक्षा संस्थान में रिसर्च करने आये।
आदित्य प्रकाश का परिवार भी घोर सामन्ती था, लेकिन चूंकि उनके पिता उनके बचपन ही में नहीं रहे थे, इसलिए वे उस वैभवपूर्ण साम्राज्य में एक युवराज की तरह अपने ‘ठाकुर’ पिता की प्रशस्तियाँ सुनते बड़े हुए। उन्हें लगातार अच्छे स्कूलों में पढ़ाया गया था और उन्हें उस तरह की दीवारों से सिर नहीं टकराना पड़ा था जिन्हें तोड़ कर सौरभ दिल्ली आये थे। इसीलिए जैसे ही आदित्य प्रकाश उस उच्च शिक्षा संस्थान, उसकी अंग्रेज़ियत, उसके उच्चवर्गीय वातावरण में रमते गये, उन्हें सौरभ मिश्रा का भोला, सादालौह स्वभाव, उनका देसीपन, उनकी हिन्दी में भोजपुरी की महक, अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहने का उनका हठ खटकने लगा। 
कविताएँ और कहानियाँ आदित्य प्रकाश भी लिखते थे। उन्हीं दिनों वे एक वरिष्ठ कवि के सम्पर्क में आये जो ऊँचे सरकारी अफ़सर भी थे और संस्कृति को समाज से अलग एक स्वायत्त इलाक़ा मान कर, किसानों की आत्महत्या, पुलिस के फ़र्ज़ी एनकाउण्टरों, लगातार बढ़ती बेरोज़गारी, विषमता और माफ़ियागीरी के निपट निचाट भारतीय उजाड़ में कला और संस्कृति के छोटे-छोटे शाद्वल बनाने के संकल्प में जुटे रहते थे।
आदित्य प्रकाश के सामने एक ऐसा लुभावना संसार खुल गया जिसमें सौरभ मिश्रा अगर किसी संयोग से पहुंच भी जाते तो जहाँगीर के दरबार में कबीर सरीखे जान पड़ते। इसी बीच सौरभ मिश्रा राजस्थानी हैण्डीक्राफ़्टस के एक बड़े निर्यातक की बेटी मालविका सिंघानिया को, जो उसी शिक्षा संस्थान में लातीनी अमरीका पर शोध कर रही थी, दिल दे बैठे। मालविका को भी इस युवक में, जो कौटिल्य और मैकियावेली के राजनैतिक सिद्धान्तों पर शोध कर रहा था, एक ही साथ कवि भी था और क्रान्तिकारी भी, अपने खाँटी भोजपुरी अन्दाज़ में मार्क्स पर बहस करता था, ज़रूर कुछ अनोखा लगा होगा, क्योंकि कुछ दिन तक दोनों विश्वविद्यालय के परिसर में, और बाहर भी, घूमते-फिरते पाये गये। 
विश्वविद्यालय दक्षिणी दिल्ली की पहाडि़यों पर ऐसी जगह बना था जहाँ दिल्ली की आबादी अपनी पगलायी रफ़्तार के बावजूद पहुंची न थी। विश्वविद्यालय को आने वाली सड़क इन पहाडि़यों में घूमती-घुमाती ऊपर हॉस्टलों, अध्यापक निवासों और विभागों तक पहुंचती थी। विश्वविद्यालय का प्रशासनिक और दफ़्तरी काम पहाडि़यों की तली में बनी इमारतों में होता था। इस तरह विश्वविद्यालय में छात्रों के पढ़ने के लिए (और प्रेम करने, गाँजा-चरस-दारू पीने और सशस्त्र क्रान्ति की योजनाएँ बनाने के लिए भी, क्योंकि अलग-अलग दौरों में ये सारी गतिविधियाँ एक-एक करके या एक साथ भी विश्वविद्यालय के सुरम्य परिवेश में होती रही थीं) भरपूर एकान्त था। 
ऐसी स्थिति में वैसे तो सौरभ-मालविका प्रसंग पर कोई हंगामा न मचता, मगर यह प्रसंग अगर देखते-देखते चर्चा-कुचर्चा का विषय बन गया तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही था कि सौरभ मिश्रा और मालविका सिंघानिया के प्रेम की तो क्या, उनके सहज सम्पर्क की भी कल्पना कोई नहीं कर सकता था। फिर, मालविका की तरफ़ बहुत-से लोग सतृष्ण निगाहों से देखते थे, जिनमें आदित्य प्रकाश भी थे, और उसने किसी को कहावती घास भी नहीं डाली थी।
ज़ाहिर है, उस चर्चा-कुचर्चा के पीछे वास्तविक विस्मय के साथ-साथ ‘हम न हुए’ की हाय-हाय भी थी। सबसे तीखी प्रतिक्रिया आदित्य प्रकाश की थी। सौरभ के सामने तो वे उन्हें प्रोत्साहित करते और मालविका के साथ उनकी जो बातें हुई होतीं, उन्हें बड़ी गम्भीरता से सुनते, मगर पीठ-पीछे वे सौरभ का मज़ाक़ उड़ाते। लेकिन इससे पहले कि यह प्रसंग कोई ऐसा रूप लेता कि उन्हें सार्वजनिक रूपसे सौरभ मिश्रा की किरकिरी को देखने या उनसे प्रत्यक्ष सहानुभूति प्रकट करते हुए उनकी खिल्ली उड़ाने का मौक़ा मिलता, मालविका सिंघानिया अपनी शोध पूरी करने के लिए हवाना विश्वविद्यालय की स्कॉलरशिप पर क्यूबा चली गयी। सौरभ मिश्रा कुछ दिन उदास रहे, फिर अपने ढर्रे पर लौट आये। आदित्य प्रकाश ने अपनी ताज़ा कहानी इसी प्रसंग पर लिखी थी।