नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छठी क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - ६
आज लगभग चालीस साल बाद जब मैं उस प्रसंग पर सोचता हूँ तो मुझे ऐसे तमाम संयोगों पर हैरत भी होती है और दुख भी। क्या कारण है कि अक्सर हमें उन्हीं लोगों से आघात पहुँचते हैं, जिनसे हम गहरे भावनात्मक रेशों से जुड़े होते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमीं अपने निकटस्थ व्यक्तियों से कुछ अधिक अपेक्षाएँ रखने लगते हैं ?
यहाँ इस प्रकरण के सम्बन्ध में एक छोटा-सा विषयान्तर करते हुए इतना और जोड़ना है कि मुझे उस समय भी और आज लगभग चालीस वर्ष बाद भी उस सब को याद करते हुए आश्चर्य कालिया पर नहीं, ज्ञान पर था। कारण यह था कि कालिया का स्वभाव ‘आधार’ वाले प्रसंग के बाद बहुत जल्द ही मेरे सामने साफ़ हो गया था। व्यावसायिक पत्रिकाओं के अपने तमाम विरोध के बावजूद उसने उधर की तरफ़ एक चोर दरवाज़ा हमेशा खुला रखा था। ममता को कभी उसने व्यावसायिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित करने से नहीं बरजा। चलिए, मान लेते हैं कि ममता का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व था, लेकिन बाद में कालिया ने ‘सत्यकथा’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ छापने वाले मित्र-बन्धुओं में से एक के साथ गठबन्धन करके कैंची-गोद मार्का पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकाली जो ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के बुरे-से-बुरे रूपों से भी गयी-बीती थी और अब कालिया बरास्ता ‘वागर्थ’ जैनियों के उसी संस्थान में जा पहुँचा है जिसे वह चालीस साल पहले छोड़ आया था। जालन्धर की ज़बान में कहें तो ‘जित्थों दी खोत्ती, ओत्थे जा खलोत्ती,’ यानी ‘पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था।’ इलाहाबाद में दरबार लगाने की परम्परा कभी नहीं रही। लेकिन कालिया दरबार लगाने का कायल था। उसे कॉफ़ी हाउस के लोकतान्त्रिक माहौल की बजाय 370, रानी मण्डी में बैठना पसन्द था। उसे पसन्द था कि प्रेस के बाहर वाले कमरे में लोग उसे घेरे बैठे रहें। शुरू-शुरू में तो पालियाँ बँधी हुई थीं। कौन-सी पाली में साहित्यकार होंगे, कौन-सी पाली में उसके ग़ैर-साहित्यिक पिट्ठू। फिर धीरे-धीरे साहित्यकार छँटते चले गये और यही दूसरे क़िस्म के लोग रह गये। कभी पी.डब्ल्यू.डी. या ऐसे ही किसी सरकारी विभाग का कोई इंजीनियर होता, कभी कोई चालू क़िस्म का डॉक्टर, कभी दिलीप कुमार के फ़िल्मी लिबास बनाने वाला नाई-उपन्यासकार, कभी कोई उपरफट्टू क़िस्म का नेता तो कभी पुलिस का कोई अधिकारी। कुछ समय तक हरनाम दास सहराई ने भी इस दश्त की सैयाही की थी जब कालिया ने उसके उपन्यास को पंजाबी से हिन्दी करके छापा था, शायद ‘रचना प्रकाशन’ के लिए। इलाहाबाद दंग हो कर कालिया के करतब देख रहा था। कालिया ने भी सत्ता का ख़ूब आनन्द लिया। लेकिन दरबारों का एक तर्क होता है। जो लोग दरबार लगाते हैं, वे कई बार किसी और जगह दरबारीलाल बने मुसाहिबगीरी करते रहते हैं। चूँकि इलाहाबाद में ऐसा न कोई व्यक्तित्व था, न माहौल, सो कालिया ने अमेठी का रास्ता लिया।
सारे ब्योरे तो मुझे मालूम नहीं हैं, क्योंकि ‘आधार’ प्रसंग के बाद मैं धीरे-धीरे कालिया से दूर हटता चला गया और 1972 के बाद तो पन्द्रह साल उसके घर नहीं गया, और यूँ भी वह पुरानी गर्मजोशी दोनों तरफ़ से ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन इतना मुझे ज़रूर पता है कि कालिया अमेठी के डॉ. जगदीश पीयूष के ज़रिये अमेठी के राजा संजय सिंह के दरबार में पहुँचा और उनकी मार्फ़त संजय गाँधी के दरबार में। अपनी पुरानी प्रगतिशील प्रतिबद्धताओं को ताक में रख कर वह कांग्रेस के साथ हो लिया। उसके यहाँ सन्दिग्ध क़िस्म के लोगों का जमावड़ा लगने लगा। दिलचस्प बात यह थी कि जब 1981 में संजय गाँधी की मृत्यु हुई तो कालिया ने पलटी मार कर राजीव गान्धी का साथ कर लिया, यहाँ तक कि चुनावों के दौरान मेनका गान्धी का चरित्र हनन करते हुए - कि कैसे वह शराब पीती है, सिगरेट पीती है, उच्छृंखल है, आदि, आदि - एक पुस्तिका भी बँटवायी। यह तब जब ममता बराबर नारी-अधिकारों की हिमायत करती थी। बहरहाल, यह सब कालिया के देखने की चीज़ें हैं - उसकी अन्तरात्मा, उसके ज़मीर और उसके आदर्शों की। शराब पी कर भी वह कैसी-कैसी अभद्रताएँ करता रहा है, इसके कुछ प्रसंग तो मेरे भी देखे हुए हैं, हालाँकि अपने रणछोड़दास स्वभाव के चलते उसने ‘ग़ालिब छुटी शराब’ में ऐसे प्रसंगों का कोई ज़िक्र नहीं किया है। लेकिन मुझे ज्ञान पर ज़रूर आश्चर्य होता रहा है कि उसकी नज़र से यह सब कैसे छिपा रहा और अगर छिपा नहीं रहा तो उसने इस सब के साथ निभाया कैसे।
ज्ञान की यादें ताज़ा करते हुए मैंने एक बार फिर ‘कबाड़ख़ाना’ वह पत्र पढ़ा है जो उसने ‘हंस’ में काशीनाथ सिंह का संस्मरण छपने के बाद उसे लिखा था - कालिया की हिमायत में। मुझे फिर एक बार हैरत हुई। मित्र तो वह जो ग़ालिब के शब्दों में ‘रोक लो गर ग़लत करे कोई’ पर चलने वाला हो। मुझे ऐसे भी मित्र मिले हैं।
हाल के दिनों तक तो ख़ैर, मेरे जीवन के एक व्यक्तिगत प्रसंग की वजह से आनन्दस्वरूप वर्मा के साथ लगभग दस साल से मेरा अबोला चल रहा था, लेकिन लगभग बीस-बाईस बरस पहले 1989 की बात है, मैंने ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ के निर्देशक रमेश शर्मा के लिए वृत्तचित्रों के एक धारावाहिक ‘कसौटी’ पर काम किया था। इस धारावाहिक के ख़त्म होने के कुछ महीने बाद मैं पाकिस्तान चला गया। वहाँ से लौटा तो रमेश ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसके लिए दो वृत्तचित्रों के लिए आलेख लिख दूँ और स्वर भी दे दूँ। विषय था इन्दिरा गाँधी और धर्म निरपेक्षता। रमेश की कुछ राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ थीं, वह कई कारणों से कांग्रेस से जुड़ गया था, और ये फ़िल्में उसके लिए एक सी़ढ़ी का काम कर सकती थीं।
मैं डॉक्यूमेंट्री बना कर अण्डमान चला गया। वहाँ से लौटा तो आनन्द स्वरूप वर्मा से मुलाकात हुई। उसने छूटते ही कहा कि तुमने यह काम ठीक नहीं किया; हम लोग बराबर इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता का, आपात काल का, इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते रहे; ऐसे में फ़िल्म चाहे किसी दृष्टि से इन्दिरा गाँधी को ले कर बनायी गयी हो, हमें और हमारी प्रतिबद्धता को सन्दिग्ध बना देगी। शब्द तो ठीक-ठीक ये नहीं थे, पर आशय यही था। मुझे भी तत्काल अपनी चूक का एहसास हुआ। मैंने आनन्द का शुक्रिया अदा किया कि उसने सचमुच दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया है। ग़लती तो मुझसे हो गयी थी और तीर वापस न आ सकता था, लेकिन मैंने उससे वादा किया कि अब दोबारा ऐसी ग़लती मैं नहीं करूँगा।
मैं आज भी आनन्द स्वरूप वर्मा का कृतज्ञ हूँ कि उसने बेकार का लिहाज़ न बरत कर मुझे टोक दिया था। ‘कबा़ड़ख़ाना’ वाले पत्र के सिलसिले में इतना ही कि ज्ञान ने काशीनाथ सिंह को तो बरजा, लेकिन जब कन्हैयालाल नन्दन ‘सण्डे मेल’ का सम्पादक बना और सैयाँ के कोतवाल बनने पर कालिया ने हमेशा की तरह दोस्ती का लाभ उठा कर पीत पत्रिका मार्का संस्मरण लिखे-छपाये तब ज्ञान ने उसे नहीं बरजा। अलबत्ता, जब काशी ने प्रतिक्रिया में दो-चार बनारसी घिस्से दिये तो कालिया के बिलबिलाने पर ज्ञान द्रवित हो गया! ख़ैर।
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बहरहाल, ‘आधार’ का यह प्रसंग भी बीत गया। मैत्री और दूसरे तमाम सामाजिक सम्बन्ध जो हम ख़ुद बनाते-रचते हैं, कहीं-न-कहीं हमारे वयस्क होते जाने, परिपक्व होते जाने में भी चाहे-अनचाहे, जाने-अजाने अपनी भूमिका अदा करते हैं। मेरे ज़ख़्मों पर खुरण्ड चढ़ने में हालाँकि थोड़ा वक़्त लगा, मगर वह कहा है न कि वक़्त सब कुछ...
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उन दिनों पटना से नन्द किशोर नवल ‘सिर्फ़’ नाम की एक लघु पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे थे। ‘आधार’ के द्वार से धकियाये जाने पर जब मैंने अपनी लम्बी कविता ‘अपने आप से बहुत लम्बी, बहुत लम्बी बातचीत’ एक पुस्तिका की शक्ल में प्रकाशित की तो उसे नवल जी को भेज दिया। पुस्तिका मैंने अशोक वाजपेयी और रवीन्द्र कालिया को समर्पित की थी। अशोक के नाम इसलिए कि उन्होंने हिन्दी के आम वतीरे से हलग हट कर, यानी अश्क जी के साथ अपने और अपने निकट के अन्य लोगों के सम्बन्धों को ख़ातिर में न लाते हुए, मेरे पहले कविता-संग्रह ‘संस्मरणारम्भ’ की अच्छी समीक्षा की थी - शायद ‘धर्मयुग’ में। अच्छी इस मानी में कि वह आज की ‘अच्छी’ समीक्षाओं की तरह न तो अहो-अहोवादी थी, न पंजीरी-बाँटू। उसमें सम्भावनाओं की तरफ़ इशारा करने और उत्साह दिलाने की भावना थी। रवीन्द्र कालिया को मैंने कविता इसलिए समर्पित की, क्योंकि जिन दिनों वह लिखी जा रही थी, कालिया हमारे ही घर पर मुकीम था, कविता के पहले दो-तीन प्रारूप उसने सुने थे, सराहे थे, कुछ ज़रूरी सुझाव दिये थे। फिर, तब तक उसका वह रूप सामने नहीं आया था जिससे मुझे वितृष्णा हुई थी। ‘आधार’ वाले प्रसंग में भी मुझे ज्ञान से ज़्यादा शिकायत थी। (‘आधार’ की पृष्ठ संख्या पर कालिया के नियन्त्रण के कारण ज्ञान के हाथ बँधे हुए थे, यह बात बाद में साफ़ हुई जब ज्ञान ने मेरी ही नहीं, अन्य लेखकों की भी लम्बी रचनाएँ ‘पहल’ में छापीं जहाँ सब कुछ उसके हाथ में था। यही नहीं, बल्कि जिन्हें विशेष रूप से प्रस्तुत करना था, उन रचनाओं को पुस्तिकाओं की शक्ल में ‘पहल’ की ओर से प्रकाशित किया। जब कि ‘आधार’ से अपना काम सध जाने के बाद कालिया ने ‘आधार’ को डम्प कर दिया और वह अंक एक तरह से ‘आधार’ का समाधि-लेख साबित हुआ। हालाँकि उसके बाद ‘आधार’ के दो-एक अंक निकले, पर वे मृत्यु के बाद मांस के फड़कने की मानिन्द थे।)
मेरी कविता-पुस्तिका के ब्लर्ब पर पन्त जी की एक भूमिका थी। यह भी उन दिनों के साहित्यिक माहौल का आम चलन था कि हम जैसे नौसिखुए कवि, पन्त जी जैसे तपे हुए वरिष्ठ कवियों के साथ अदब से, मगर बराबरी की भावना से, संगत करते थे। मैं उन दिनों अक्सर पन्त जी के यहाँ जाता था। एक दिन उन्होंने कहलवाया कि उन्हें पता चला है मैंने नयी कविता लिखी है, वे सुनना चाहते हैं। पन्त जी के आग्रह पर जब मैंने उन्हें कविता सुनायी और ‘आधार’ वाला प्रकरण बताते हुए यह कहा कि अब मैं इसे पुस्तिका के रूप में छापने की सोच रहा हूँ तो उन्होंने बड़े सहज भाव से प्रस्ताव रखा कि वे उसकी भूमिका लिखना चाहेंगे। मैं थोड़ा हिचकिचाया था। हालाँकि लीलाधर जगूड़ी की तरह मैंने पन्त जी की कविताओं के अकवितावादी ‘अनुवाद’ करके ख़ुद को क्रान्तिकारी साबित करने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन मैं पन्त जी को महत्वपूर्ण कवि मानते हुए भी, उनकी अपेक्षा निराला-शमशेर-मुक्तिबोध को अपने ज़्यादा करीब पाता था। लेकिन जब मुझसे कहा गया कि इतने वरिष्ठ कवि का यह प्रस्ताव एक सम्मान की बात है तो मैंने कहा ठीक है, भैये, करा लेते हैं सम्मान, अपनों ने तो हमारी औक़ात हमें जता ही दी है, कविता में कुछ होगा तो रहेगी, वरना डूब जायेगी - पन्त जी की भूमिका समेत। लगे हाथों मैंने कविता से पहले उसकी रचना-प्रक्रिया, वग़ैरा, वग़ैरा पर अपनी तरफ़ से भी दो-तीन पन्ने ख़ासी ऊँचाई से लिख मारे। फ़रवरी 1970 में पुस्तिका प्रकाशित हुई और कुछ महीने बाद ‘सिर्फ़’ में नन्द किशोर नवल ने कविता पर वाचस्पति उपाध्याय की ख़ासी लम्बी समीक्षा प्रकाशित की, जिसमें कविता को, इलाहाबादी शब्दावली में कहें तो, ‘धो कर रख दिया गया था।’ मैंने वह समीक्षा पढ़ी और ऐलान किया कि बनारसी कवि को अपना आसन डोलता नज़र आ रहा है। बनारसी कवि से आशय धूमिल से था, जिनके साथ-साथ वाचस्पति उन दिनों छाया की तरह लगे रहते थे।
(आज, लेकिन, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वाचस्पति की समीक्षा से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ। बाईस-तेईस साल की कच्ची उमर में लिखी गयी वह लम्बी कविता भले ही पुस्तिका के रूप में छप गयी थी, लेकिन मैंने बाद में भी उसे सुधारना-सँवारना जारी रखा था और इस काम में वाचस्पति की समीक्षा से मुझे काफ़ी मदद मिली और उसे मैंने बाद में ‘वयस्क होते हुए’ के शीर्षक से अपने कविता संग्रह ‘जंगल ख़ामोश है’ में संकलित किया। चूँकि तुलसीदास की उक्ति के अनुसार मुझे भी ‘निज कवित्त’ को ले कर एक मोह रहता ही है, इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि कविता इन संशोधनों के बाद निर्दोष हो गयी - यूँ भी उसका एक बुनियादी ख़ाका तो बन ही चुका था - अलबत्ता, यह ज़रूर हुआ कि वह पहले से काफ़ी बेहतर हो गयी। इस नाते मैं वाचस्पति का बहुत कृतज्ञ हूँ।)
(जारी)
अच्छा लगा पढना। अगली कड़ी का इंतज़ार।
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