Monday, December 27, 2010

देशान्तर



आज के कवि : जीवनानन्द दास

"ऋणी है मनुष्य पृथ्वी का ही"
आज कविता जहाँ पहुंची है, वहाँ से पीछे मुड़ कर देखते हुए निश्चय ही जीवनानन्द दास की कविताएँ पुरातन लगती हैं, वैचित्र्यपूर्ण भी। आज की कविता बहुत हद तक रवीन्द्रनाथ की बजाय नज़रुल इस्लाम से और जीवनानन्द दास की बजाय सुकान्त भट्टाचार्य से प्रेरणा और शक्ति पाती है। इसके बावजूद बांग्ला कविता में जीवनानन्द दास का महत्व है और रहेगा। उनकी कविता तीव्र अन्तर्विरोधों और समाज से सामंजस्य बैठा पाने की कविता है। अपने चारों ओर के समाज की पतनशीलता से विमुख हो कर जीवनानन्द दास ने या तो धुर बंगाल के ग्रामीण परिवेश में शरण ली या फिर हिन्दुस्तान, मिस्र, असीरिया और बैबिलौन के धूसर अतीत में। इसीलिए उनकी कविता में आक्रोश की जगह अवसाद का पुट अधिक गहरा है। वे बेहतर समाज की इच्छा तो करते हैं, पर उसकी राहों का सन्धान करने की जद्दोजहद उनकी कविता में नहीं है। इसीलिए सरसरी नज़र से पढ़ने वाले को ऐसा महसूस हो सकता है कि उनकी कविता पलायन की कविता है; लेकिन उनकी कविता में मनुष्य और उसके सुख-दुख, हर्ष-विषाद की निरन्तर उपस्थिति इस बात को झुठलाती है और उसे यों ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में उनकी कविता की प्रासंगिकता बनी रहेगी। "एक अद्भुत अँधेरा" जैसी कविता तो मानो आज का दस्तावेज़ है।

वैसे अपनी कविता के बारे में जीवनानन्द दास ने काफ़ी खुल कर लिखा है और वे अपनी कविता पर लगे लगभग सभी आरोपों से परिचित भी थे। उनका कहना है - ‘‘मेरी कविता पर या ऐसी कविताओं के कवि पर निर्जन या निर्जनतम होने का आरोप है। कोई इन्हें मूलतः प्रकृति की कविताएँ कहता है, कोई इन्हें मूलतः इतिहास और समाज चेतना की कविताएँ मानता है, कुछेक को ये चेतनाशून्य भी लगती हैं। किसी के विश्लेषण में ये महज़ प्रतीकों की, अवचेतन मन की, सुर्रियलिस्ट कविताएँ हैं। और भी कई तरह के विश्लेषणों से मैं अवगत हूँ। कमोबेश सभी मत, आरोप, विश्लेषण सही हैं, मगर किसी कविता-विशेष या वाक्यांश-विशेष के लिए सही हैं -- मेरी समग्र कविताओं के लिए नहीं। बहरहाल, कविता लिखने और पढ़ने का सम्बन्ध अन्ततः मनुष्य से है; इसीलिए पाठकों और आलोचकों के विचारों और निष्कर्षों में इतना तारतम्य नज़र आता है। पर इस तारतम्य की एक सीमा भी है जिसे पार करने में बड़े आलोचकों के लिए एक ख़तरा हो सकता है।’’

जीवनानन्द दास का जन्म 17 फ़रवरी 1893 को बारिशाल, पूर्वी बंगाल में हुआ और निधन 22 अक्तूबर 1954 को कलकत्ता में एक ट्राम दुर्घटना में।




एक अद्भुत अँधेरा


एक अद्भुत अँधेरा आया है इस पृथ्वी पर आज,
जो सबसे ज़्यादा अन्धे हैं आज वे ही देखते हैं उसे।
जिनके हृदय में कोई प्रेम नहीं, प्रीति नहीं,
करुणा की नहीं कोई हलचल
उनके सुपरामर्श के बिना भी पृथ्वी आज है अचल।

जिन्हें मनुष्य में गहरी आस्था है आज भी,
आज भी जिनके पास स्वाभाविक लगती है
कला या साधना अथवा परम्परा या महत सत्य,
सियार और गिद्ध का भोजन है आज उनका हृदय।

बनलता सेन

हजार वर्षों से मैं मुसाफिर हूँ पृथ्वी की राहों का,
सिंहल समुद्र से रात के अँधेरे में मलय-सागर तक
बहुत घूमा हूँ मैं; बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में
भी था मैं; और सुदूर अन्धकार में डूबी विदर्भ नगरी में;
मैं थका हुआ प्राणी एक, चारों ओर जीवन के सागर की लहरों का फेन,
मुझे दो घड़ी शान्ति दे गयी थी नाटोर की बनलता सेन !

केश उसके जाने कब के विदिशा की
निशा के अन्धकार से हो गये एकाकार,
मुख उसका श्रावस्ती की नक्काशी में;
सुदूर समुद्र के पार खो कर पतवार
जो नाविक दिशा भूल चुका है
वह जैसे निहारता है हरी घास के प्रदेश दालचीनी के द्वीप में,
वैसे ही देखा है मैंने उसे अन्धकार में; कहा उसने -- कहाँ रहे इतने दिन ?
पक्षी के नीड़ सरीखी आँखें उठा कर बोली नाटोर की बनलता सेन।

समस्त दिनों के अन्त में शिशिर के शब्द की तरह
आती है सन्ध्या; डैनों से धूप की गन्ध को झाड़ देती है चील;
पृथ्वी के सब रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती है आयोजन
जब कहानी के लिए जुगनुओं के रंग झिलमिलाते हैं;
घर आते हैं पाखी सब -- सारी नदियाँ --
चुकता होता है इस जीवन का सब लेन-देन
रहता है केवल अन्धकार, सम्मुख रहती है केवल बनलता सेन।

हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है

हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है अन्धकार में जुगनुओं की तरह;
चारों ओर पिरामिड; कफ़नों की गन्ध;
रेत के विस्तार पर चाँदनी; खजूरों की छाया यहाँ वहाँ
भग्न स्तम्भ की तरह; असीरया -- रुका हुआ मृत, म्लान;
हमारे शरीरों में परिरक्षित शवों की गन्ध --
पूरा हो चुका है जीवन का लेन-देन
याद है ?’ उसने स्मरण कराया, किया याद मैंने केवलबनलता सेन।


लोकेन बोस का रोज़नामचा

सुजाता से प्रेम करता था मैं --
क्या अब भी करता हूँ प्रेम ?
यह तो फ़ुरसत में सोचने की बात है,
लेकिन फ़ुरसत नहीं है।
शायद एक दिन सर्दियों के आने पर मौक़ा मिलेगा।
अभी शेल्फ़ पर चार्वाक, फ्रायड, प्लेटॊ, पावलोव सोचते हैं
कि सुजाता से मुझे प्रेम है या नहीं।

कुछ फ़ाइलें हैं पुरानी चिट्ठियों की :
जो सुजाता ने लिखी थीं मुझे,
बारह, तेरह, बीस साल पहले की वे बातें;
कैसे छोटे किरानी का काम है फ़ाइल छूना;
नहीं छूऊँगा मैं,
छूने से किसको क्या लाभ।

लगता है मानो अमिता सेन के साथ सुबल की दोस्ती है
क्या केवल सुबल के ही साथ ? हालांकि मैं उसको --
मतलब यह -- यह जिसको मैं अमिता कह कर रहा हूँ मैं --
लेकिन यह बात रहने दो
मगर फिर भी --
अब और पथिक नहीं बनना चाहता हृदय आज।
नारी अगर मृगतृष्णा जैसी है तो
किस तरह मन बनेगा कारवाँ अब

प्रौढ़ हृदय, तुम
उस सारी मृगतृष्णा के ताल में, हलकी सिमूम में
शायद कभी भुतहा मरुभूमि हो,
हृदय, हृदय तुम।
इसके बाद तुम अपने अन्दर लौट कर भी चुपचाप
मरीचिका को विजयी बनाते हो विनयी जो भीषण नामरूप है
वहाँ रेत की सारी ख़ामोशी हू-हू करती है
प्रेम नहीं फिर भी सिर्फ़ प्रेम की तरह।
सुबल क्या अमिता सेन से प्यार करता है,
अमिता क्या ख़ुद भी उसे ?
फ़ुरसत पाने पर सोचा जायेगा,
ढेर फुरसत चाहिए;
सुदूर ब्रह्माण्ड को खींच कर तिल में समाहित करना होगा,
अभी तो जाना है टेनिस खेलने,
फिर लौट कर रात को क्लब
जाने कब समय होगा ?

हेमन्त की घास पर नीले फूल फूटे हैं --
दिल धड़कता है जाने क्यों,
प्यार करता था’ -- स्मृति उत्ताप पाप में
तर्क में क्यों फंसा रहता है वर्तमान
क्या वह भी मुझे --
सुजाता क्या मुझे प्यार करने लगी थी ?
आज भी क्या प्यार नहीं करती ?
इलेक्ट्रॉन अपने गुण-दोषों के साथ घूमते रहेंगे,
किसी अन्तिम टूटे हुए आकाश में
क्या इसका उत्तर मिलेगा ?

सुजाता अभी भुवनेश्वर में है;
और अमिता क्या मिहीजाम में।
बहुत दिन से अता-पता जानना
अच्छा ही हुआ है।

घास में नीले-सफ़ेद फूल खिलते हैं
हेमन्त के राग में
एक ओर समय का यह ठहराव
फिर भी नहीं है स्थिर
हर दिन के नये जीवाणु स्थापित होते हैं फिर-फिर

यात्री

लगता है प्राणों ने किसी सुदूर स्वच्छ सागर-तट पर
कभी जन्म लिया था;
पीछे मृत्युहीन, जन्महीन और अचीन्हे
कुहासे का जो इशारा था
वह सब धीरे-धीरे भूल कर कोई और ही अर्थ पाया था
यहाँ जन्म लेने पर;
प्रकाश, जल और आकाश के आकर्षण से;
क्या पता किसके प्रेम में।

मृत्यु और जीवन का श्वेत-श्याम
हृदय से बाँध कर यात्री लोग
आये हैं इस पृथ्वी पर।
कंकाल लाल-स्याह
चारों ओर रक्त के भीतर अन्तहीन करुण इच्छा के चिह्न देख कर
पथ पहचान इस धूल में अपने जन्म के चिह्न दिखाने आया हूँ;
मगर किसे ? पृथ्वी को ? आकाश को ?
आकाश में जो सूर्य प्रज्वलित है, उसे ?
धूल के कणों, अणु-परमाणुओं, छाया, बारिश के जल कणों को ?
नगर, बन्दरगाह, राष्ट्र, ज्ञान और अज्ञान से भरी दुनिया को ?

यही कुज्झटिका थी जन्म और सृष्टि से पहले, और
वह सब कुहासा ख़त्म हो जायेगा एक दिन
उसका अँधेरा आज प्रकाश के छल्ले में पड़ता है पल-पल;
नीलिमा की ओर मन जाना चाहता है प्रेम में;
सनातन काले महासागर की तरफ़ जाने को कहता है।

तब भी प्रकाश पृथ्वी की तरफ़
रोज़ सूर्य को अपने साथ लाता है
लाता है वह मौसम, वह तारीख़, वह जीवन, वह मृत्यु की रीति,
महाइतिहास कर अब भी नहीं जान पाया जिसका मतलब

उसी तरफ जाते हैं लोग ग्लानि प्रेम क्षय को
रोज़ पदचिह्न की तरह साथ ले कर
नदी और मनुष्य का दौड़ता हुआ धूसर हृदय
भोर में बदलने वाली रात - कहानी की तरह कितनी सैकड़ों सुबहें
नया सूर्य नये पाखी नये चिह्न नगर में रहते हैं
नये-नये यात्रियों के साथ मिल जाती है
प्राणलोक यात्रियों की भीड़;
हृदय के चलने की गति गीत प्रकाश है,
कूलरहित मनुष्य की पृष्ठभूमि ही शाश्वत यात्री की है


वह

उसने मुझे आवाज़ दे कर बुला लिया था,
कहा था : "इस नदी का जल
तुम्हारी आँखों की तरह म्लान बेत फल;
सारी थकान रक्त से स्निग्ध रखती है पृष्ठभूमि;
यही नदी तुम हो।

"इसका नाम क्या धानसिड़ि है ?"
माछरांगा से कहा मैंने;
गम्भीर लड़की ने कर दिया था नाम।
आज भी मैं ढूँढता हूँ उस लड़की को।
जल की अनेक सीढ़ियों को तय करते हुए
कहाँ चली गयी वह लड़की।

समय की अविरल स्याह और सफ़ेद
बुनावट के सीने तक कर
मछली और मन और माछरांगा को प्यार करके
बहुत दिन पहले नारी एक --
लेकिन आँखों को चौंधियाने वाले प्रकाश से प्रेम करके
सोलह आना नागरिक हो कर
होता अगर धानसिड़ि नदी।

नग्न निर्जन हाथ

फिर से आसमान में अँधेरा घिर आया
प्रकाश के रहस्यमय सहोदर की तरह यह अन्धकार

जिसने मुझे हमेशा प्यार किया
मगर जिसका चेहरा मैंने कभी नहीं देखा,
उसी नारी की तरह
फाल्गुन के आकाश पर अँधेरा घिर उठा है।
लगता है किसी विलुप्त नगरी का क़िस्सा
उसी नगरी के एक धूसर प्रासाद का रूप जगाता है हृदय में।

हिन्द महासागर के तीर पर
अथवा भूमध्यसागर के किनारे
या फिर टायर नदी के पार
आज नहीं है, पर कभी एक नगरी थी,
कोई एक प्रासाद था, बेशक़ीमती सामान से भरा एक प्रासाद --
ईरानी ग़ालीचे, कश्मीरी शॉल, बहरीन की तरंगों से निकले मोती और प्रवाल,
मेरा खोया हुआ हृदय, मेरे निष्प्राण नेत्र, मेरी खोयी हुई आकांक्षा और स्वप्न
और तुम नारी --
यह सब था उस दुनिया में एक दिन।

ढेर सारी नारंगी धूप थी,
बहुत-से काकातूआ कबूतर थे,
मोहोगनी की सघन छाया और पत्ते थे ढेरों,
ढेर सारी नारंगी धूप थी,
ढेर सारी नारंगी धूप,
और तुम;
तुम्हारे चेहरे का रूप कितनी शत-शताब्दियों से मैंने नहीं देखा,
नहीं खोजा।

फाल्गुन का अन्धकार ले आता है
समुद्र पार का यही क़िस्सा,
अपरूप बुर्ज और गुम्बदों की वेदनामय रेखा,
खोयी हुई नाशपाती की गन्ध,
असंख्य हिरनों और सिंहों की खाल की धूसर पाण्डुलिपियाँ,
इन्द्रधनुषी काँच की खिड़की,
मोर के पंखों की तरह रंगीन पर्दों से
कमरे-दर-कमरे से हो कर
सुदूर कमरे-दर-कमरों का क्षणिक आभास,
आयुहीन स्तब्धता और विस्मय,
पर्दों और ग़ालीचों में रक्तिम धूप का छिटका हुआ पसीना,
रक्तिम पात्र में तरबूज़ी शराब,
तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ।

तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ।

शंखमाला

सघन वन के पथ को छोड़ कर सन्ध्या के अन्धकार में
जाने किस नारी ने कर पुकारा मुझे
बोली - मुझे तुम चाहिए:

मैंने तुम्हारी बेत के फल की तरह नीली व्यथित
आँखों को ढूँढा है नक्षत्रों में -- कुहासे के पंख में --
सांझ को जुगनू की देह से हो कर
नदी के जल में उतरता है जो प्रकाश -- ढूँढा है तुम्हें वहीं --
मटमैले घुग्घू की तरह पंख फैला कर अगहन के अँधेरे में
धानसिड़ि नदी पर तिरते हुए
सोने की सीढ़ियों की तरह धान और धान में
तुम्हें खोजा है मैंने एकाकी घुग्घू जैसे प्राण में

देखी है देह उसकी शोकाकुल पक्षी के रंग से रंजित :
जो पकड़ा जाता है सन्ध्या के अन्धकार में भीगे
शिरीष की डाल पर,
टेढ़ा-बांका चाँद टंगा रहता है जिसके माथे पर,
सींग की तरह तिरछा नीला चाँद सुनता है जिसका स्वर।

कौड़ियों की तरह सफ़ेद मुखड़ा उसका;
हिम की तरह उसके दोनों हाथ;
हिजल की लकड़ी सरीखी रक्तिम चिता जलती है
उसकी आंखों में :
दक्खिन की ओर सिर किये शंखमाला
जैसे जल जाती है उस आग में हाय।

आँखें उसकी
जैसे सौ शताब्दियों का नीला अन्धकार;
स्तन उसके
करुण शंख सरीखे -- दूध से भीगे हुए --
जाने कब की शंखिनीमाला के;
यह पृथ्वी एक बार पाती है उसको, फिर नहीं पाती।

घास
कच्चे नींबू के पत्ते की तरह नरम हरी रोशनी से
पृथ्वी भर गयी है इस भोर की बेला में;
कच्चे चकोतरे की तरह हरी घास -- वैसी ही महकदार --
हिरन जिसे कुतर रहे हैं दाँतों से
मेरी भी इच्छा होती है --
इस घास की गन्ध को एक-एक गिलास करके पीता रहूँ
हरी मदिरा की तरह
इस घास के शरीर को मसलता रहूँ -- उसकी आँखों पर आँखें घिसूँ,
इस घास के डैनों पर है मेरे पंख,
घास के भीतर घास हो कर जन्म लूँ।
किसी एक सघन घास-माँ के शरीर के
सुस्वादु अँधेरे से उतर कर।

बीस साल बाद

फिर बीस बरस बाद उससे मुलाकात हो अगर !
फिर बीस साल बाद --
कार्तिक के महीने में --
शायद धान की बाली के पास --
जब साँझ के समय कौए घर लौटते हैं --
जब नदी हो जाती है पीली,
नरम हो उठते हैं सब कास और सरपत -- मैदानों में।

अथवा खेत में नहीं है और धान;
व्यस्तता नहीं है और,
झरते हैं
हंस के घोंसले से तिनके;
पक्षियों के नीड़ से तिनके;
लाल मुनिया के घर में दाख़िल होती है
रात, शीत और ओस।
जीवन चला गया है हम लोगों का बीस बरस पार --
तब अचानक अगर सोंधी पगडण्डी पर पाऊं तुम्हें फिर एक बार !

आया है चाँद शायद आधी रात को पत्तों के झुण्ड के पीछे
पतली-पतली काली-काली टहनियों-शाखाओं को
मुंह में दबाये,
शिरीष अथवा जामुन की, झाऊ की -- आम की;
बीस साल बाद
लेकिन भूल चुका हूं मैं तुम्हें।

जीवन चला गया है हम लोगों का बीस बरस पार --
तब अचानक अगर हो हमारी-तुम्हारी मुलाक़ात फिर एक बार !

तब शायद मैदान में घुग्घू उतर कर चलते हैं --
बबूल की क़तार के अंधेरे में
बरगद के झरोखों की फाँक में
कहाँ छुपाते हैं अपने आप को
आँखों की पलकों की तरह मुंद कर चुपचाप
कहाँ रुकते हैं चील के डैने --
सोनल-सोनल चील -- शिशिर ले गया उसे करके शिकार --
बीस साल बाद उसी कोहरे में सहसा तुम्हें पाऊँ यदि फिर एक बार !

सुचेतना

सुचेतना, तुम एक सुदूर द्वीप हो
सांझ के नक्षत्र के पास;
वहीं दालचीनी की झाड़ी की फाँक में
है निर्जनता का निवास;
यही पृथ्वी के रण रक्त की सफलता
सत्य, लेकिन अन्तिम सत्य नहीं;
एक दिन कल्लोलिनी तिलोत्तमा होगा कलकत्ता,
तब भी रहेगा मेरा हृदय तुम्हारे पास वहीं।

आज प्रचण्ड धूप में घूमते हुए
प्राणों से मनुष्य को मनुष्य की तरह
प्यार करते हुए भी देखता हूं
शायद मेरे ही हाथों से मारे गये
भाई-बहन, मित्र-परिजन बिखरे पड़े हैं;
पृथ्वी का गहरे-से-गहरा दुख-दैन्य है अभी
तब भी ऋणी है मनुष्य पृथ्वी का ही।

देखा है मैंने हमारे बंदरगाह की धूप में
बार-बार जहाज़ अनाज लिये उतरते हैं;
वही अनाज अगणित मनुष्यों के शब हैं;
शव से निकलता स्वर्ण का विस्मय --
हमारे पिता बुद्ध और कन्फ़्यूशियस की तरह --
हमारे प्राणों को भी चुप कराये रखता है;
फिर भी है चारों ओर रक्तक्लान्त कार्य का आह्नान।

सुचेतना, इसी पथ में जोत जगा कर --
इसी पथ पर क़दम-दर-क़दम पृथ्वी की मुक्ति होगी;
यह अनेक शताब्दियों के मनीषियों का काम है;
परम सूर्य की किरणों से कितनी उद्भासित है यह हवा,
प्रायः उतनी दूर है भले मनुष्यों का समाज
हमारे जैसे थके हुए अनथक नाविकों के हाथ से;
गढ़ दूँगा, आज नही, बहुत दिनों बाद अन्तिम प्रभात में।

माटी और धरती के आकर्षण से
मनुष्य योनि में कबका आया हूं मैं,
आता तो अच्छा होता ऐसा अनुभव करके;
आने पर जो ढेरों लाभ हुआ
वह सब जानता हूँ
शिशिर शरीर छू कर समुज्ज्वल भोर में;
देखा है मैंने जो हुआ
होगा मनुष्य का
होना नहीं है जो --
शाश्वत रात के सीने पर
सकल अनन्त सूर्योदय !

1 comment:

  1. आभार आपकी इतनी बेहतरीन प्रस्तुति, कवि जीवनान्द दास से परिचय कराने और उनकी कविताएं पढवाने के लिए।

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