Saturday, September 19, 2015

तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा



क़िस्त सोम


हमारे बीबीसी पहुंचने के कुछ ही समय बाद रमा पाण्डे और नरेश कौशिक भी वहां आ शामिल हुए थे. दोनों आख़िरी दौर तक बीबीसी के उम्मीदवारों की सफ़ में हमारे साथ-साथ थे. संयोग की बात कि मनोज भटनागर (जो अब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह कर हमारा साथ छोड़ गये हैं) और मैं पहले चुन लिये गये. ख़ैर, रमा पाण्डे के मिज़ाज का अन्दाज़ा मुझे आवाज़ के टेस्ट और आख़िरी जी.के. के पर्चे के समय ही हो गया था, जब उसने बाहर आ कर हंसते हुए बताया था कि वो जी.के. में कुछ का कुछ लिख आयी है.
रमा प्रसिद्ध गायिका और अभिनेत्री इला अरुण की बहन है, हालांकि ये बात उसने हमें सरे-राहे यों बतायी मानो कह रही हो "नो बिग डील."
(इसी तरह उसने एक बार हंसते हुए बताया कि मंझली बहन होने की वजह से उसे इला से बहुत हसद होती थी और उसने एक बार इला के बहुत-से तमग़े नाली में फेंक दिये थे. तीन चार साल पहले जयपुर साहित्यिक उत्सव में जब रमा और इला से मेरी और रानी की मुलाक़ात हुई तो दोनों बहनों के आपसी लगाव को देख कर मुझे बेसाख़्ता वो क़िस्सा याद आ गया. रमा ने बड़े तपाक से इला से हमारा परिचय कराया था और हमें तो इला भी बिन्दास लगी थी.)
चूंकि हम ख़ुद नामी रिश्तेदारों से ख़ुद को जोड़ने के क़ायल नहीं चुनांचे: हमें रमा की यह फ़ितरत अच्छी लगी थी.. अलावा इसके रमा बहुत बहिर्मुखी है, आगे -आगे रहने की शौक़ीन, हंसने-हंसाने वाली, मन में कीना न रखने वाली, बातूनी, दोस्त-नवाज़ और उस विनोद-वृत्ति से कूट-कूट कर भरी हुई, हिन्दीवालों में जिसका अज़हद अभाव रहता है. चुनांचे: हमारी उस से पट गयी और आज तक पटती है, हालांकि अब मिलने-जुलने के मौक़े बहुत कम हो गये हैं. इला अरुण तो अपने लोकगीतों की अदायगी के लिए मशहूर हैं ही, रमा ने भी इनमें काफ़ी महारत हासिल कर रखी है, गो वह गाती नहीं है. सो, एक दिन बातों-बातों में रमा ने हमें एक दिलचस्प गीत नुमा चीज़ सुनायी --
"सांझ भयी दिन अथवन लागा 
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार, 
रात भयी चन्दा चमकानो, 
राजा छतियां लगावें चुमकार-चुमकार, 
भोर भयी चिड़ियां चहचानीं, 
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार"
बहुत बाद में चल कर हमने अपने एक और दोस्त ज्ञानरंजन के बारे में लिखते हुए अपनी किताब में उसका इस्तेमाल किया. बहरहाल, इससे आप रमा के मिज़ाज का अन्दाज़ा लगा लीजिये.
इसी तरह एक दिन रमा कंजी आंखों वाली एक सुन्दर गुजराती युवती को ले कर हमारे कमरे में आ धमकी और उससे हमारे सामने ही बोली, "देखो, यह आदमी तो बहुत दिलफेंक और गड़बड़ है, पर पूरे हिन्दी सेक्शन में अगर कोई तुम्हें काम सिखा सकता है तो यही वो आदमी है." हमारे लिए हमारी ये तारीफ़ साहित्य अकादेमी पुरस्कार से रत्ती भर कम न थी. वैसे, उन दिनों ख़ुद रमा हमारे एक पाकिस्तानी दोस्त शफ़ी नक़ी जामी को (जो संयोग से छै-सात साल बाद पाकिस्तान जाने पर पता चला कि हमारे मित्र कथाकार-आलोचक आसिफ़ अस्लम फ़र्रुखी का कज़न था) हिन्दी सिखा रही थी. उसने शफ़ी को इतना ताक़ कर दिया कि लौटने के बाद एक दिन नौस्टैल्जिया के मूड़ में जब हमने "खेल और खिलाड़ी" प्रोग्राम लगाया, जो कभी हम किया करते थे, तो शफ़ी के प्रसारण को सुन कर दिल बाग़-बाग़ हो गया था.
अचला तो थोड़ी नहीं, ख़ासी इन्टलेक्चुअल मिज़ाज थी, और है, और हमारी ही तरह "हिसाब-ए-दोस्तां दर दिल" के उसूल पर पर चलने वाली, मगर रमा पाण्डे की ख़सलत बिलकुल अलग क़िस्म की थी. ऐन मुमकिन था कि आप से शदीद झगड़ा हो जाने के घण्टे भर बाद वो आये और खिली-खिली मुस्कान फेंकते और गालों के गड्ढे खिलाते हुए सीधे ही किसी जुमले से लड़ाई को दफ़्न कर दे, जो शायद न मेरे बस की बात है, न अचला के. हिन्दुस्तान लौट आने के बाद रमा से बहुत दिन तक मुलाक़ात नहीं हुई, पर फिर राबिता क़ायम हो गया और अब कभू-कभार मुलाक़ात हो जाती है और देख कर अच्छा लगता है कि सरापा बदल जाने के बावजूद रमा की सीरत नहीं बदली.
तेज़ी से बदलती इस दुनिया में यह क्या कोई कम बात है.
मज़े की बात देखिये, अभी कुछ महीने घर-बदर कर दिये जाने के बाद एक रोज़ जब हम अपने काग़ज़ात उलट-पलट रहे थे तो हमें वो रुक़्क़ा हाथ लगा जिस पर रमा ने अपने डील-डौल से मेल खाते बड़े-बड़े अक्षरों में ऊपर वाला गीत लिख कर दिया था. हमने अचला के कार्ड की तरह उसे भी संभाल कर रखा हुआ है और इसे अपनी ख़ुशनसीबी मानते हैं कि घर-बदर होते हुए तमामतर चीज़ों में से, जो दुनियावी नज़रों में क़ीमती मानी जायेंगी और हमें अज़ीज़ भी थीं, हम इस क़िस्म की अनमोल दौलत बचा लाने में कामयाब रहे.

(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें.
आखिरी क़िस्त अब कल सुबह की सभा में प्रसारित होगी क्योंकि एक दिन में ऐसे क़िस्से की तीन क़िस्तें ही ज़ायद हैं, चार तो यक़ीनन हाज़्मे के लिए नामुनासिब होंगी.)

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