Tuesday, September 8, 2015

एक औलिया की ज़बानदानी



दोस्तो,
इधर कुछ दिनों से हमें ये ख़दशा बुरी तरह सताने लगा है कि रफ़्त:-रफ़्त: हम औलियों की कोटि में पहुंचनेे वाले हैं. बात यों है कि जब लोग हम जैसे सीधे-सादे (अपनी तरफ़ के गांव-जवार की बोली में कहें तो "सोधे") शख़्स से उस के ग़लत गुणों-अवगुणों की वजह से रश्क करने लगें तो मामला कुछ ऐसा ही होता है. यानी दिगरगूं.
अब यही देखिये कि कुछ दिन पहले हमारे एक युवा मित्र ने जो ख़ासे ज़हीन हैं मगर अपनी तमामतर ज़हानत को एक बिल्ली के प्रेम में ज़ाया कर रहे हैं और आये दिन उसकी फोटू चिपकाय-चिपकाय के हम लोगों का सुख-चैन हराम किये रहते हैं, हमें अपनी हसरत-भरी आंखों से देखते हुए ययाति के लक़ब से नवाज़ा दिया.
कल एक और युवा मित्र ने, जो ख़ासे लड़ाके मशहूर हैं और अब नौ हज़ार चूहे खाने के बाद सब त्याग कर योग की शरण चले गये हैं, हमारी उमर के ब्योरे तलब करने के बाद हमारे बुढ़ापे पर तंज़ करते हुए हमारा शुमार "जवानों" में कर डाला.. पिछले दिनों किन्हीं और वजूहात से लोग हमारे बारे में तरह-तरह की चर्चा-कुचर्चा में मुब्तिला रहे ही हैं.
और रही-सही क़सर आख़िरी तिनके की मसल पर अमल करते हुए जब आज हमारी एक सगोतिया युवा और प्रतिभाशाली कवयित्री ने हमारी कविता के नहीं, बल्कि एकाधिक भाषाओं की हमारी जानकारी के सबब हमसे ईर्ष्या का इज़हार करते हुए पूरी कर दी, तो हमको यक़ीन हो गया कि हम चाहें या न चाहें, हमारे ये शुभ-चिन्तक हमें सूली पर देख कर ही ख़ुश होंगे.
बहुत दिन पहले एक कहावत पढ़ी थी कि कुछ तो पैदाइशी औलिया होते हैं, कुछ अपने कर्मोम से औलिया बनते हैं, मगर कुछ ऐसे ख़ुश या बद नसीब होते हैं जिन पर औलियाई थोप दी जाती है.लगता है कि हम इस तीसरी कोटि में प्रवेश किया ही चाहते हैं. लगातार हमें हृत्कम्प होता रहता है कि या रब्ब, अब और क्या हमें देखना बाक़ी है.
बहरहाल यह तो उस कहानी की भूमिका मात्र है जो हम आपके सामने बयान करना चाहते हैं उस आख़िरी टीप के हवाले से जो हमारी ज़बानदानी के सिलसिले में की गयी. मगर उसे हम एक अदद चाय की चुस्की और एक सुट्टा 501 नम्बर गणेश छाप मंगलूर बीड़ी का लगा कर बयान करेंगे. तब तक जिसे रुख़सत होना है वो किसी दूसरे के लिए जगह ख़ाली करके फ़ेसबुक सर्फ़िंग का एक दौर पूरा कर ले. (क़िस्सा जारी है).

लीजिये आपके इन्तज़ार की घड़ियां ख़त्म करते हुए  क़िस्सा पेश है.

हां तो जनाब, अब हम क़िस्से को आगे बढ़ाते हैं, मगर उससे पहले दो बातें. पहली यह कि हर माहिर क़िस्सागो जानता है कि जब तक क़िस्से में पेंच-ओ-ख़म न हों, लज़्ज़त नहीं आती. चुनांचे: हमने एक भूमिका पहले ही लगा दी और अब इस क़िस्से को जो एक बाहुनर, बावक़ार मलियाली शख़्स की सलाह से ताल्लुक़ रखता है, बयान करने से पहले कुछ पुरपेंच गलियों की सय्याही करने की इजाज़त चाहते हैं. दूसरी बात यह है कि हमने बहुत पहले संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था जो अरसिकों से काव्य निवेदन करने से सम्बन्धित है. जाने भर्तृहरि का था या कालिदास का. कुछ यों था --

इतरकर्मफलानि यद्दच्छ्या विलिखितानि सहे चतुरानन |
अरिसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मालिखमालिखमालिख ||
(हे चतुरानन, मेरी ज़िन्दगी के दूसरे प्रसंगों के सिलसिले में तुम मेरे नसीब में चाहे जो लिखना चाहो या गवारा करो, मुझे स्वीकार होगा, मगर अरसिकों के सामने काव्य निवेदन करने का नसीबा मुझे मत देना, मत देना, मत देना.)

तो जिनको इतना पढ़ने के बाद जमुहाई सताने लगे, वे बराये-मेहरबानी तशरीफ़ ले जायें. ताकि हम क़िस्से को आगे बढ़ा सकें.

बात उस समय की है, जब हमारी उमर मुश्किल से 23 बरस की थी. शादी हुए फ़क़त पांच हफ़्ते हुए थे कि हमें अपने बड़े भाई के साथ केरल के दौरे पर जाना पड़ा. आसानी यह थी कि संयुक्त परिवार था और हमें यह फ़िक्र न थी कि हमारी नयी ब्याही बीवी को अकेलेपन का सामना करना पड़ेगा. उन दिनों आज जैसी तेज़-रौ रेलगाड़ियां नहीं थीं, न रिज़र्वेशन की ऐसी सुविधा, न सीधा कनेक्शन. इलाहाबाद से इटारसी, इटारसी से गाड़ी बदल कर मद्रास और मद्रास से फिर लम्बा सफ़र मीटर गेज की गाड़ी पर तय करते हुए तिरुवनन्तपुरम. 

ख़ैर साह्ब, इटारसी से हम जी.टी. पर सवार हो गये. भोर में कोई चार बजे हम नेल्लूर-गुण्टूर के क़रीब आन्ध्र-तमिलनाडु की सीमा पार कर रहे थे कि एक अख़बार वाला आया और बोला कि  अन्नादुरै का देहान्त हो गया है. यह सुनना था कि लोगों ने फटाफट खिड़्कियां बन्द करना शुरू कर दिया. हम चकित. अभी आन्ध्र में थे और लोग भी ज़्यादातर आन्ध्रवासी थे. बोले, देखते चलिये, अभी लोग पत्थर चलाने लगेंगे. हमें और हैरत हुई. हमने कहा यह तो दुख का मौक़ा है, पत्थर चलाने की क्या ज़रूरत. और फिर अन्नादुरै का क़त्ल तो हुआ नहीं है. बोले यहां के लोग ऐसे ही पागल हैं. बहरहाल. कुछ देर बाद सचमुच खिड़कियों से कुछ पत्थर आ टकराये. 

सुबह हुई. हम मद्रास पहुंचे तो पहली बार मैंने टोटल हड़ताल का मंज़र देखा. मैं मान गया कि तमिलनाडु सार्वजनिक हड़तालों के सिलसिले में हिन्दुस्तान का सूबा-ए-सिरमौर है. कुछ नहीं चल रहा था. हम मद्रास सेण्ट्रल पर थे और हमें शाम को वह गाड़ी पकड़नी थी जो एगमोर से तिरुवनन्तपुरम जाती थी. मज़े की बात यह कि खाने को भी कुछ नहीं मिल रहा था. किसी तरह जुगाड़ करके कुछ साम्बर-भात का जुगाड़ किया गया और एक चार पहिये की ठेला गाड़ी पर सामान रखे (बैग, सूटकेस, प्रकाशन की किताबों का ट्रंक, आदि), ठेलेवाले के साथ बराबर का हाथ लगाते हुए हम एगमोर पहुंचे.

(बाद में मुझे राजीव गान्धी की हत्या के बाद हैदराबाद में कुछ इसी क़िस्म का नज़ारा देखने को मिला जब मैं वहां गोलकुण्डा के साउण्ड ऐण्ड लाइट शो की स्क्रिप्ट लिखने के सिलसिले में ठहरा हुआ था और मैंने किसी लोकप्रिय नेता की मौत या गिरफ़्तारी पर हड़ताल और ख़ुदकुशियों की उस प्रवृत्ति को पहचाना जो आन्ध्र और तमिलनाडु में आम है. यह बात अलग है कि तमिलनाडु इसमें अव्वल है और  बाज़ी मार ले जाता है.)

ख़ैर, इस विषयान्तर के बाद, आगे बढ़ें तो रात को हम केरल जाने वाली गाड़ी में जा सवार हुए. रात भर से ज़्यादा की सफ़र था और भीड़ नाम मात्र को थी. हमारे डिब्बे में एक और शख़्स था. उससे बातों का सिलसिला चल निकला. नाम तो उसका अब इतने बरस बाद याद नहीं, पर उसकी सूरत-शक्ल आज भी स्मृति में नक़्श है. आम मलियालियों की तरह सांवला रंग था उसका, गठा हुआ छरहरा लम्बा क़द, तीखे नख-शिख, बदन पर सफ़ेद लुंगी और सफ़ेद ही बुश्शर्ट. बोली में अनुभव के कशिश और ख़ुशबू. पता चला बहुत दिन कराची और उधर फ़्रण्टियर सूबे तक के इलाक़े में कटे हैं उसके. दिलचस्प शख़्सियत का मालिक था.

बातों-बातों में मैंने ज़बानें सीखने के अपने शौक़ का ज़िक्र किया. तब उसने मुस्कराते हुए जो कहा वह मैं आज तक नहीं भूला. बोला, हमारे यहां एक कहावत है कि अगर कोई भाषा सीखनी हो तो उस भाषा-भाषी प्रान्त की लड़की से शादी कर लो. मैंने कहा, इससे तो बहुत मुश्किल पैदा हो जायेगी. कारण यह कि अगर कोई एक से ज़्यादा ज़बानें सीखना चाहे तो.... इस पर वह कुछ नहीं बोला. सिर्फ़ अपनी मानीख़ेज़ मुस्कान बिखेरता रहा. फिर बातें दूसरी तरफ़ मुड़ गयीं.

आज जब रश्मि भारद्वाज ने भाषाओं की मेरी जानकारी की बात उठायी तो बेसाख़्ता मुझे 46 साल पहले की यह घटना, वह मलियाली सज्जन, और वह पहली केरल यात्रा ज़ेहन में कौंध गयी. 

(मेहरबानी करके इससे यह अन्दाज़ा मत लगा लीजियेगा कि अपने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, पंजाबी और बांग्ला ज्ञान के लिए मुझे कोई वैसी हिकमत-अमली आज़मानी पड़ी है, जैसी उन मलियाली सज्जन ने तजवीज़ की थी. यों हमारे कुछ टेढ़ी नज़र वाले दोस्त इस क़िस्से से ये नसीहत निकाल कर पेश कर सकते हैं कि एक पत्नीव्रत लोगों को एक से ज़्यादा भाषा नहीं सीखनी चाहिये, ज़रूरत ही क्या है.)     


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