Tuesday, May 31, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की बाइसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - २२

मित्रो,
एक लम्बे अन्तराल के बाद इस तवील संस्मरण का तीसरा और आख़िरी हिस्सा पेश कर रहा हूं. बहुत चाहने पर भी इसे इससे पहले देना सम्भव नहीं हुआ, क्योंकि आप से छिपाना क्या, यह लिखा ही नहीं गया था. बहरहाल, अब हाज़िर है जैसा अंग्रेज़ी में कहते हैं -- अच्छा या बुरा, जैसा भी है. उम्मीद है, आप हमदर्दी से पढ़ेंगे.






मित्रता की सदानीरा - १

हमारी दोस्ती वह नदी थी जिसने हमें समृद्ध किया
-- अपौलिनेयर



प्रिय नीलाभ,
तुम्हारी चिट्ठी बहुत अच्छे मूड में मिली थी। वह दिन बहुत अच्छा था और उस दिन इलाहाबाद की बहुत याद आयी थी। फिर भी तुम्हें शीघ्र पत्र नहीं लिख पाया।
मार्च अन्त तक आने की उम्मीद है। यहाँ से जाने वाले मौसम की शुरूआत हो गयी है। तुमने इन दिनों क्या किया है? मैं तो वह कहानी अधूरी ही छोड़े पड़ा हूं, जो कहानी-संग्रह के अन्त में जानी थी। वह अब कुछ दूसरे तरीके से लिखे जाने की प्रतीक्षा में है और मेरे आलस्य पर चिढ़ रही है।
नवल का पत्र आया था। मैंने उसे मुँह-तोड़ उत्तर भेज दिया है। मुझे उम्मीद है उसने तुम्हें भी अवश्य लिखा होगा। सईद अभी वहीं है या दिल्ली चला गया? अपने हाल-चाल नये समाचार वग़ैरह लिखना। घर में सबको यथायोग्य, छोटे साहब कैसे हैं?
प्रतीक्षा होगी
तुम्हारा
ज्ञानरंजन
12/2/1971

ज्ञान का पत्र। स्वाभाविक आत्मीयता और गर्मजोशी से भरा हुआ, जिसे मैंने इस गर्मजोशी की स्मृति के साथ पिछले चालीस बरस से सँजो कर रखा हुआ है। उसके दूसरे ख़तों की तरह। अभी उसने चिट्ठी लिखने के लिए टाइपराइटर का इस्तेमाल करना शुरू नहीं किया था और उसके पत्रों में, तब तक, वे चाहे संक्षिप्त ही क्यों न हों, यह आत्मीयता रची-बसी रहती थी, जैसी हिना के इत्र की महक, जो नहाने के बाद भी बदन में रची-बची रहती है। ज्ञान की एक बुरी आदत यह थी कि वह पत्रों पर क़ायदे से दिन-तारीख़ नहीं डालता था। कभी सन ग़ायब रहता, कभी तारीख़ पड़ी ही न होती। इस पत्र में पूरी-पूरी तारीख़ लिखी हुई थी और यह तो फिर बाद में सीधे टाइपराइटर पर लिखे गये पत्रों मंे हुआ कि सन-तारीख़ बाकायदगी से लिखी मिलने लगी, हालाँकि तब भी कभी-कभी वह तारीख़ गोल कर जाता था।

ज्ञानरंजन के साथ मेरी मैत्री का तीसरा दौर 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में हिस्सा ले कर पटना से लौटने के बाद इसी पत्र से शुरू हुआ। लेकिन यह दौर अब तक के दो चरणों की तुलना में कितना अधिक ऊबड़-खाबड़ और विकट साबित होने वाला था, और एक अवधि ऐसी भी आने वाली थी, जिसमें हमारी ख़तो-किताबत से आत्मीयता लुप्त हो कर सिर्फ एक कारोबारीपन रह जाने वाला था, इसका आभास भी इस पत्र से नहीं मिलता था, जो ज्ञान ने पटना से जबलपुर लौटने के बाद मुझे लिखा था।

यह ठीक है कि ज्ञान की यह सहज स्वाभाविक गर्मजोशी और आत्मीयता आगे चल कर कुछ अनचाही परिस्थितियों से उपजी कड़वाहट के पीछे या फिर जि़न्दगी के दवाबों की वजह से ओझल हो जाती रही, लेकिन यह भी ज्ञान ही की खूबी है कि उन कड़वाहटों में भी एक मिठास बराबर सतह पर उतराती रही, वैसे ही जैसे कई बार मीठे पानी की धारा में खारे जल की धारा के आ मिलने पर उसका मीठापन कुछ देर को दब जाता है, लेकिन थोड़ी ही देर बाद फिर उभर आता है। मैं आगे चल कर भले ही कटु-तिक्त हुआ, लेकिन ज्ञान ने कभी नाराजगी या कड़वाहट जाहिर नहीं की। यही वजह है कि आगे के दिनों में जो चोट मुझे ज्ञान से, उसके चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने लगी और हमारे सम्बन्धों में कटुता घोल गयी, उसे दूर करने का श्रेय मैं ज्ञान ही को देता हूं। मैं शायद इतनी आसानी से ऐसा न कर पाता।

यहाँ थोड़ा रूक कर विषयान्तर करते हुए मैं कुछ ऐसी बातें कहना चाहता हूं, जिन्हें नाटक और रंगमंच की जबान में ‘असाइड’ (aside) कहते हैं। यानी स्वगत-कथन। मंच पर चल रहे कार्य-व्यापार के दौरान कुछ ऐसे सम्वाद जो अमूमन दर्शकों की खातिर होते हैं और ऐसी जानकारी उन्हें देते हैं, जो मंच पर चल रहे प्रसंग से जुड़ी होती है या फिर उस पात्र-विशेष की निजी प्रतिक्रिया अथवा मनोभाव दर्शकों तक पहुंचाते हैं। संस्कृत नाटकों में इस युक्ति को भिन्न रूप से ‘नेपथ्य से’ भी कहा गया है। बहरहाल।

जब इस संस्मरण-नुमा आलेख की पहली किस्त 2007 में ‘पक्षधर’ में छपी तो कई लोगों ने इस पर एतराज जाहिर किये। मुझे याद पड़ता है विभूति नारायण राय को उस आलेख का लहजा, उसका टोन, पसन्द नहीं आया था और ऐसा उन्होंने बेबाकी से मुझे कह भी दिया था। उनसे तो विस्तार से बात नहीं हुई, लेकिन जब ‘तद्भव’ के सम्पादक, कहानीकार अखिलेश लखनऊ से इलाहाबाद आये तो उनसे लम्बी बात हुई। उनकी आपत्ति यह थी कि इस संस्मरण में मैंने अपना पक्ष ही सामने रखा है और आपसी सम्बन्धों को एकांगी नजरिये से देखा-परखा बयान किया है; कि मैंने दूसरों के दोष तो गिनाये हैं, खुद को बचा गया हूं; कि कुछ प्रसंगों में ऐसा लगता है कि मैं बदला चुका रहा हूं। मुझे उनकी बात कुछ अजीब-सी लगी, गोया संस्मरणों का कोई ‘पराया पक्ष’ भी हो सकता है या फिर संस्मरण लिखते समय एक छद्म न्यायप्रियता से भर कर हम झूठे ही ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ का रेशा भी उसमें बुनते चलें। अखिलेश ने दो बातें और कहीं। पहली यह कि जो मैंने लिखा है उसकी तसदीक कैसे होगी? क्या प्रमाण है कि वह वैसे ही घटा? दूसरी यह कि मैंने कई लोगों का मजाक उड़ाया है।

अखिलेश की बातों पर मैंने इस बीच कई बार सोचा है, दिल को टटोला है, यह जांचने की कोशिश की है कि ज्ञान के साथ अपनी लम्बी मैत्री के अलग-अलग पहलुओं को अंकित करते हुए क्या मैंने उसके या किसी और के प्रति किसी प्रच्छन्न मन्तव्य से, छिपे हुए या छिपाये गये विद्वेष से वह सब लिखा है। मैंने यह भी परखने की कोशिश की कि ज्ञान के बारे में लिखते हुए मैंने दूसरे कुछ लोगों के बारे में जो टिप्पणियाँ की हैं - मसलन रवीन्द्र कलिया या सतीश जमाली - वे कुछ ज़्यादा कड़ी तो नहीं हो गयीं। या अगर फारसी से शब्द लेकर कहा जाय तो उस संस्मरण में बुग़्ज़ तो नहीं है?

ऐसा ही कुछ दूसरी किस्त के साथ भी हुआ। सबसे पहले तो ‘पक्षधर’ के सम्पादक विनोद तिवारी ने उसे प्रकाशित करने से इनकार कर दिया, जबकि उनसे तय हुआ था कि वे इसकी सारी किस्तें छापेंगे और मैंने उन्हें बता भी दिया था कि मैं इसमें क्या कुछ लिखने जा रहा हूं। लेकिन हिन्दी जगत, जैसा कि पहले भी था और अब और भी हो गया है, वैसे संस्मरणों को आसानी से पचा नहीं पाता है जैसे मिसाल के लिए प्रसाद जी पर विनोद शंकर व्यास के या मंटो पर उपेन्द्रनाथ अश्क के या फिर अनेक काशीवासियों के बारे में मेरे मित्र कुमार पंकज के या फिर बहुत-से जाने-माने लोगों पर कान्ति कुमार जैन के। उर्दू में ऐसा कभी नहीं रहा। वहाँ लेखकों ने एक-दूसरे पर यहाँ तक कि अपने घरवालों के बारे में भी बहुत खुले मन से लिखा है। हिन्दी में एक किस्म का पाखण्ड हमेशा मौजूद रहा है। अप्रिय सत्यों को ढांकने और व्यक्ति के चरित्र को लौंड्री में भेजकर धुलवा-पुंछवा के पेश करने का रूझान। साथ ही हिन्दी में एक खास किस्म का विद्वेष भी मौजूद है। अकसर ऐसे लोगों के बारे में झूठी बातें लिख दी जाती है, उन्हें कलंकित करते हुए, जो या तो उनका जवाब देने को मौजूद नहीं होते या फिर इस लायक नहीं होते।

ऊपर से पिछले तीसेक वर्षों से ‘प्रयोजनमूलक हिन्दी’ का युग चल रहा है। किससे किसको प्रयोजन है या हो सकता है यह भी सम्बन्धों के नख-शिख तय करता है। ज़ाहिर है, समर्थ और शक्ति-सम्पन्न व्यक्तियों के बायें जाना कई बार मुसीबतें खड़ी कर सकता है, खास तौर पर नये साहित्यकारों के लिए (चाहे वे कितने ही क्रान्तिकारी होने का दमन भरते हों) या फिर उस युवा सम्पादक के लिए जो हिन्दी विभाग की नौकरी भी करना चाहता हो। सो, ‘पक्षधर’ के सम्पादक विनोद तिवारी ने एक अजीब छायावादी इनकार-भरा पत्र भेज कर हाथ खड़े कर दिये।

तब मेरे एक और मित्र-सम्पादक प्रकाश त्रिपाठी ने, जो अध्यापन को सम्पादन से अलग रखते हुए ‘वचन’ नाम से पत्रिका निकालते थे, इसे बिना कुछ काटे-छांटे अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया।

इस बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन कर रहे मित्र सूर्यनारायण ने मुखर आपत्ति की। उन्हें भी संस्मरण का लहजा पसन्द नहीं आया था। उन्होंने कहा कि लोग कहते हैं मैंने उसमें मनगढ़न्त बातें लिख दी हैं; कि जिस तरह के अराजक दृश्यों को मैंने अंकित किया, वे नहीं किये जाने चाहिएं थे; कि किसी ने वीरेन डंगवाल के हवाले से कहा कि उन्हें तो धूमिल और रामधनी वाला प्रसंग याद नहीं है। आदि, आदि।

अब, वीरेन डंगवाल की स्मृति का तो मैंने ठेका ले नहीं रखा है। यूं भी कई बार हम (और इस ‘हम’ में मैं भी शामिल हूं) ‘सिलेक्टिव मेमोरी’ - चयनधर्मा स्मृति - के अधीन चीजों को बुनते हैं। यही नहीं, बल्कि उसी प्रसंग की स्मृति दो व्यक्तियों मंे दो तरह की हो सकती है। या फिर यह भी ऐन सम्भव है कि उनमें से कोई एक या दोनों ही उसे यकसर भुला भी बैठे, जैसे मेरे मित्र अजय सिंह को लखनऊ में कवि राजेश शर्मा के घर पर हुए जमावड़े की कोई याद नहीं है, जिसका जि़क्र मैं आगे करूंगा।

दूसरी बात यह है कि आखिर दूसरों की उंगलियाँ भी तो फिगार नहीं है, वे भी तो बाकलम हैं। वे ‘अपना पक्ष’ रख दें या जवाबी हलफ़नामा दाखिल कर दें। कोई अदालत तो लगी नहीं है कि फैसला करना हो कि मामला क्या था। अभी कुछ समय पहले पुष्पपाल सिंह ने ‘तद्भव 21’ में अश्क जी की और मेरी पटियाला यात्रा के बारे में लिखते हुए एक संस्मरणात्मक टिप्पणी छपायी है, जिस पर मेरे मित्र चमन लाल ने, जो उन दिनों जब हम वहाँ गये थे पटियाला में पढ़ा रहे थे, बड़ी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। खुद रवीन्द्र कालिया ने ‘स्मृतियों की जन्मपत्री’ और दूधनाथ सिंह ने ‘लौट आ ओ धार’ के अपने संस्मरणों में अपनी स्मृतियों को अपने हिसाब से दर्ज किया है। दूधनाथ तो इस बात को ले कर बहुत नाराज भी हो गया था, जब मैंने ‘लौट आ ओ धार’ के बारे में चुटकी लेते हुए कहा था कि इस पुस्तक के आरम्भ में वह चेतावनी छपी होनी चाहिए थी जो पहले कई उपन्यासों पर छपा करती थी-‘इस पुस्तक के सभी पात्र और प्रसंग काल्पनिक हैं और किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से उनका साम्य एक संयोग ही माना जाय।’

सो, मित्रो, कोई मेरे संस्मरणों के बारे में भी ऐसी ही टिप्पणी कर सकता है। पाठक के नाते उसे रचना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का पूरा अधिकार है।
(जारी)

1 comment:

  1. आपके संस्मरण से रू-ब-रू होकर एक अद्भुत रोमांच का अनुभव हो रहा है।

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