एक जलते हुए सवाल पर
कुछ विचार
जादूई यथार्थवाद और विनायक सेन
पार्टनर, तुम्हारी पौलिटिक्स क्या है ?
-मुक्तिबोध
हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए
-रघुवीर सहाय
सोचा था कि आज से अपनी यादों की अगली किस्त शुरू करूंगा, लेकिन लगता है कि इस मरदूद जादूई यथार्थवाद से पीछा छूटता नहीं जान पड़ता.सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो देश के युवराज की गिरफ़्तारी की ख़बर के साथ ही इस ख़बर पर नज़र गयी कि सुप्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ.विनायक सेन को मनमोहन सिंह की सरकार ने योजना आयोग की स्वास्थ्य की स्थायी समिति का सदस्य नियुक्त किया गया है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोनटेक सिंह आहलूवालिया ने बुधवार को यह ख़बर प्रसारित की है और डॉ.विनायक सेन ने सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए छत्तीसगढ़ से फ़ोन पर कहा है,"मैं यह सूचना पा कर बहुत ख़ुश हूं. मैं जो भी कर सकता हूं, करूंगा.मैं निश्चित तौर पर समिति की पहली बैठक में हिस्सा लूंगा. मेरी कोशिश होगी कि वंचित समुदायों के लिए स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों में समानता लायी जाये.मैं अपने अनुभवों का लाभ समिति को दूंगाऔर मेरा ध्यान स्वास्थ्य सुविधाओं की समानता पर होगा.
यहां यह याद कराने की ज़रूरत नहीं है कि डॉ.विनायक सेन अभी कुछ ही दिन पहले जेल से ज़मानत पर छूटे हैं जहां वे देशद्रोह और माओवादियों के समर्थक होने के जुर्म में आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाये जाने के बाद से बन्द थे और उनके रिहा होने के पीछे यक़ीनन भारी जन प्रतिरोध का भी हाथ था.
मैं भा.ज.पा. की तरह यह आरोप तो नहीं लगाऊंगा कि डॉ.विनायक सेन को योजना आयोग में शामिल करने का फ़ैसला मनमोहन सिंह की सरकार ने इसलिए लिया है, क्योंकि वह छत्तीसगढ़ की भा.ज.पा, सरकार को नीचा दिखाना चहती है. कारण यह कि छत्तीसगढ़ की भा.ज.पा, सरकार ने डॉ.विनायक सेन को मनमोहन सिंह के यह कहने के बाद ही गिरफ़्तार किया था कि नक्सलवादी देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं. लेकिन डॉ.विनायक सेन को योजना आयोग की स्वास्थ्य की स्थायी समिति का सदस्य नियुक्त करने के इस मुद्दे पर कुछ सवाल ज़रूर उठते हैं. ख़ास तौर पर इसलिए कि अब तक डॉ.विनायक सेन की राजनैतिक समझदारी चाहे बहुत स्पष्ट न रही हो, पर छत्तीसगढ़ में उनका चिकित्सा-सम्बन्धी काम और उनके द्वारा कुख्यात सल्वा जुडुम का सक्रिय विरोध स्तुत्य रहा है.मसलन, पहला सवाल तो यही है कि जिस आदमी को ऐसी संगीन धाराओं में अन्य दो व्यक्तियों के साथ गिरफ़्तार किया गया था उसने सबसे पहले इस लड़ाई को अपने वाजिब अंजाम तक पहुंचाने का कठिन बीड़ा उठाने की बजाय उसी सरकार द्वारा निगल लिया जाना कैसे स्वीकार कर लिया जो उसकी इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार थी ? क्या डॉ.विनायक सेन इस सच्चाई से अनजान हैं कि जिस सल्वा जुडुम का विरोध वे कर रहे थे उसका गठन इसी कान्ग्रेस पार्टी के विधायक महेन्द्र करमा ने किया था ? यही नहीं, बल्कि पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर जो क़हर बरपा किया गया है, उसके पीछे इसी कान्ग्रेस सरकार के स्वनामधन्य गृह मन्त्री पी. चिदम्बरम का हाथ है ? क्या रिहाई की यही क़ीमत है जो डॉ.विनायक सेन ने इस सरकार के साथ सहयोग करने का वादा करके चुकायी है और अपने बेगिनती ऐसे साथियों को अधर में छोड़ दिया है जो उन्हीं की तरह और उन्हीं की-सी धाराओं में अब भी बन्द हैं और उन्का पुछवैया कोई नहीं -- जैसे इलाहाबाद में क़ैद सीमा आज़ाद और उसके कामरेड-पति विश्वविजय या फिर तिहार में बन्द अनु और उसके कामरेड-पति ?
जब अपनी रिहाई के बाद पहले ही बयान में डॉ.विनायक सेन ने ऐलान किया था कि वे जल्द ही सीमा आज़ाद की रिहाई के लिए आवाज़ बुलन्द करेंगे तो डॉ.विनायक सेन के समर्थकों के दिल और भी फूल उठे थे. किसे मालूम था कि यह शेर तो काग़ज़ी निकलेगा ?
क्या डॉ.विनायक सेन इतना भी नहीं क़यास लगा सकते कि जो योजना आयोग ग़रीबों के लिए दवा-दारू के मद में 25 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह से ज़्यादा की व्यवस्था करने को तैयार नहीं है, उसकी समिति में अकेले डॉ.विनायक सेन कौन-सी मूली उखाड़ लेंगे ? हां, सरकारी समिति में शामिल हो कर कुछ "सार्थक " भूमिका अदा करने का भ्रम पाल लें या पैदा कर दें तो बात दीगर है.
अब तो पण्डित सुदर्शन की कहानी "बाबा भारती का घोड़ा" के बाबा भारती की तरह डॉ.विनायक सेन से यह कहने को जी चाहता है कि हे महानुभाव, आप चाहे जो करें पर मेहरबानी करके जनता के विश्वास को इस तरह खण्डित न करें वरना आपके बाद आने वाले विनायक सेनों को पूछने वाला कोई न होगा जो सम्भव है जैलों ही में सड़-सड़ जायें. फिर फ़ैज़ की वही पंक्तियां ज़ेहन में उभरती हैं -- अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आयी, नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आयी, चले चलो कि मंज़िल अभी नहीं आयी.
देशान्तर में जल्द ही शुरू हो रही है
नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सोलहवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - १६
see this on http://neelabhkamorcha.blogspot.com/
नीलाभ जी, हमें ये कयास क्यूँ हो? कि सारी लड़ाई जो हम सभी की है उसे एक बिनायक सेन ही लड़े. अब अगर ऐसे में सरकार ने उन्हें ये मौका दिया है कि वो सरकार के दिए हुए जख्मों पर (जो आदिवासियों कों दिए हैं) उन पर मरहम पट्टी करें तो चलो ये भी ठीक है. हम सभी ने कहीं न कहीं अपने अपने जीवन में तमाम समझौते किये होंगे. और ये हक सभी कों है. फिर एक ही आदमी कब तक हमारी जिम्मेदारियों का बोझ उठाये और क्यूँ ? ये कहाँ की दिलेरी है.
ReplyDeleteअगर कोई आदमी लड़ाई का मैदान छोडकर जनहित में जारी सरकारी सेवा करना चाहता है तो इसमें हर्ज ही क्या है? कहने का मतलब है कि बिनायक के लिए राजनीति अपनी जगह है और जिंदगी अपनी जगह. जरूरी नही कि हम और आप इससे सहमत हों. दो राजनैतिक पार्टियों के बीच जो कुछ भी पक रहा है उसका लाभ अगर बिनायक कों मिलता है य बिनायक उसे अपने लिए हितकर मान बैठे हैं तो इसमें कोई कर भी क्या सकता है? ज्यादा से ज्यादा यही कि बिनायक कों छोडकर हम अपनी लड़ाई कों और मजबूत हाथों में दें और विचार करें . और संयम बरतें . बिनायक मात्र एक घुन है जिसे सरकार की चक्की में इसी तरह गेहूँ क साथ पिसना है अब चाहे वो लड़ाई लड़ते हुए पिसे या फिर सरकार की मुहैया कराई गयी सुविधाओं कों साथ लेकर लड़े. हम किसी विनायक के हाथ में अपनी लड़ाई कों यूँ ही नही छोड़ सकते. हर पल हमें अपनी जिंदगी कों सरकारी हुक्मरानों के खिलाफ जो हमें हमारे अधिकारों से वंचित रखना चाहती है उससे लड़ना ही होगा.
आप बिलकुल सही हैं मगर बिनायक भी क्या करे वो अगर सरकार के हाथ की कठपुतली बन ही गया तो क्या हुआ? यही न, कि हमारी हर कोशिश जो उसके पक्ष में थी अब नहीं रही. न रहे . न हमारी विचारधारा बदली है, न कोशिश.
आपने इस लेख में जो चिंता जताई है वह बिलकुल जायज है. कोई आदमी जो जन आंदोलन का कुशल सिपेसालार था वो ऐसा कैसे कर सकता है? हमें इसका विरोध दर्ज करना एकमात्र उपाय है. हम आपके साथ हैं.