एक जलते हुए सवाल पर
कुछ विचार
ग़रीबी की मनमोहिनी परिभाषा
अगर आज गेब्रियल गार्सिया मार्केज़, गुण्टर ग्रास या मिखेल बुलगाकोव जैसे जादूई यथार्थवाद के रचनाकार हिन्दुस्तान में होते तो वे भी मनमोहन सिंह और उनके सहयोगियों के आगे नत-मस्तक हो जाते, क्योंकि वास्तविकता का जो जादूई नज़ारा आजकल ये लोग दिखा रहे हैं उसकी कोई और मिसाल दूर-दूर तक दिखायी नहीं देती.
आज के "टाइम्स आफ़ इण्डिया" में जहां बड़ी-बड़ी सुर्ख़ियों में बंगाल के चुनावों के अनुमानित परिणामों की, या फिर पाकिस्तान में दाऊद के होने-न होने की अटकलें या फिर रिलायन्स अधिकारियों के पास केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की बैठक की कार्रवाई की प्रति होने की ख़बरें छपी हैं और खास ख़बर के तौर पर कैलिफ़ोर्निया के पूर्व गवर्नर और बाडी बिल्डर फ़िल्म अभिनेता आर्नल्ड श्वार्ज़नेगर और केनेडी परिवार की उनकी पत्नी के तलाक़ की "ज़रूरी" सूचना दी गयी है, वहीं बड़े मामूली ढंग से यह विस्फोटक ख़बर भी जैसे घुसा दी गयी है कि योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि शहरों में जो व्यक्ति 578 रुपये महीने से एक रुपया भी ज़्यादा ख़र्च करता है वह ग़रीब नहीं माना जा सकता और उसे किसी रूप में उस सामाजिक सुरक्षा और सरकारी अनुदानों का लाभ नहीं मिल सकता जो केन्द्र सरकार ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों को मुहैया कराती है. है न चकरा देने वाली ख़बर ? मगर, रुकिये, खेल इतना सीधा-सादा नहीं है. इसलिए पहले यह तो देख लें कि योजना आयोग ने, जिसके अध्यक्ष हमारे महान प्रधान मन्त्री और वित्तीय जादूगर मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष उनसे भी दो क़दम आगे रहने वाले मोनटेक सिंह आहलूवालिया हैं, सर्वोच्च न्यायालय को बताया क्या है.
मंगलवार को योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि पूरे देश को ध्यान में रखते हुए 578 रुपये महीना प्रति व्यक्ति वह औसत मासिक ख़र्च है जिसे वह शहरी लोगों के सन्दर्भ में सरकारी तौर पर ग़रीबी रेखा को निर्धारित करने के लिए अपने सामने रख कर चल रही है. योजना आयोग ने ग़रीबी रेखा निर्धारित करने के लिए खर्च की जो दरें तय की हैं वे 12 चीज़ों के लिए इस प्रकार हैं :
1. मकान किराया और यातायात 31.00 प्रति माह 2. शिक्षा 18.50 प्रति माह
3. नमक और मसाले 14.60 प्रति माह 4. ईंधन 70.40 प्रति माह
5. कपड़े 38.30 प्रति माह 6. खाने का तेल 29.00 प्रति माह
7. सब्ज़ियां 36.50 प्रति माह 8. दालें 19.20 प्रति माह
9. अनाज 96.50 प्रति माह 10. जूते 6.00 प्रति माह
11. चीनी 13.10 प्रति माह 12. दवाई 25.00 प्रति माह
जले पर नमक छिड़कने के लिए जैसे इतना ही काफ़ी न हो, योजना आयोग ने शहर निवासियों के कल्याण का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा है. इन 578 रुपयों में फलों और मनोरंजन की भी गुंजाइश रखी गयी है. फलों के लिए 8.20 रुपये और मनोरंजन के लिए 6.60 की शाहाना रक़मों का प्रावधान है.
वैसे योजना आयोग के ये आंकड़े सन 2004-05 की क़ीमतों को सामने रख कर तैयार किये गये हैं. अगर मौजूदा मुद्रास्फीति और महंगाई को भी शामिल कर लिया जाये तो शहर निवासियों के लिए यह प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 35 रुपये के आस-पास बैठेगा. ग्रामवासियों के लिए ग़रीबी रेखा का निर्धारण पुराने हिसाब से 15 रुपये प्रति व्यक्ति मासिक ख़र्च तय किया गया है जो आज के हिसाब से 20 रुपये होगा. हैरत नहीं कि समीक्षकों ने एकमत से इसे ग़रीबी रेखा निर्धारण के नहीं कंगाली रेखा के निर्धारण के आंकड़े बताया है.
साथियो, मुझे तो यह भी लगता है कि हमारी सरकार के मन्त्री, नौकरशाह वग़ैरा कभी झोला ले कर ख़ुद सौदा-सुलुफ़ लाने नहीं जाते वरना मनमोहन सिंह को एक घण्टे में आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता. पेंच दरअसल यह है कि सरकार अब पूरी तरह बड़े पूंजीपति और कॉर्पोरेट घरानों की बांदी बन चुकी है और इस फ़िराक़ में है कि अगली बार जब बजट में सामाजिक सुरक्षा और सब्सिडी आदि पर बहस हो तो सरकार यह साबित कर सके कि ग़रीबी रेखा के नीचे बहुत कम लोग आते हैं और इसलिए अनुदान वग़ैरा बढ़ाने के बजाय कम करने की ज़रूरत है ताकि यही पैसा बड़े उद्योगपतियों को दिये जाने वाले अनुदानों और सब्सिडियों पर या सुरक्षा जैसे अनुत्पादक लेकिन सरकार के लिए आवश्यक मदों पर ख़र्च किया जा सके वरना एक ओर कॉर्पोरेट घराने असन्तुष्ट हो जायेंगे दूसरी ओर असन्तुष्ट जनता से निपटने के लिए अतिरिक्त सिपाही कहां से आयेंगे.
यों केन्द्र ने अपनी ओर से ये आंकड़े घोषित कर के पल्ला झाड़ दिया है. यह मानते हुए कि प्रान्त इस मुद्दे पर पहले भी चीख़-पुकार मचाते और केन्द्रीय सरकार की मन-मर्ज़ी को कोसते रहें हैं, उसने कहा है कि अगर प्रान्तीय सरकारों को लगता है कि ग़रीब इससे ज़्यादा हैं तो वे अपनी जेबों से इसकी भरपाई कर सकती हैं.
इस सब को जान समझ कर यह तय करना मुश्किल है कि हम कैसे समय और समाज में रह रहे हैं. चारों तरफ़ के हालात विचित्र-से-विचित्रतर और विचित्रतर-से-विचित्रतम होते जा रहे हैं और वह दिन दूर नहीं जब इस देश में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ कोई ग़रीब नहीं बचेगा, सब अमीर ही अमीर होंगे और मनमोहन सिंह और उनका दल अमीरी रेखा के आंकड़े तैयार करने में संलग्न होंगे.
देशान्तर में जल्द ही शुरू हो रही है
नीलाभ के लम्बे संस्मरण
के अन्तिम हिस्से
की क़िस्तें
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - २२
see this on http://neelabhkamorcha.blogspot.com/
कुछ विचार
ग़रीबी की मनमोहिनी परिभाषा
अगर आज गेब्रियल गार्सिया मार्केज़, गुण्टर ग्रास या मिखेल बुलगाकोव जैसे जादूई यथार्थवाद के रचनाकार हिन्दुस्तान में होते तो वे भी मनमोहन सिंह और उनके सहयोगियों के आगे नत-मस्तक हो जाते, क्योंकि वास्तविकता का जो जादूई नज़ारा आजकल ये लोग दिखा रहे हैं उसकी कोई और मिसाल दूर-दूर तक दिखायी नहीं देती.
आज के "टाइम्स आफ़ इण्डिया" में जहां बड़ी-बड़ी सुर्ख़ियों में बंगाल के चुनावों के अनुमानित परिणामों की, या फिर पाकिस्तान में दाऊद के होने-न होने की अटकलें या फिर रिलायन्स अधिकारियों के पास केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की बैठक की कार्रवाई की प्रति होने की ख़बरें छपी हैं और खास ख़बर के तौर पर कैलिफ़ोर्निया के पूर्व गवर्नर और बाडी बिल्डर फ़िल्म अभिनेता आर्नल्ड श्वार्ज़नेगर और केनेडी परिवार की उनकी पत्नी के तलाक़ की "ज़रूरी" सूचना दी गयी है, वहीं बड़े मामूली ढंग से यह विस्फोटक ख़बर भी जैसे घुसा दी गयी है कि योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि शहरों में जो व्यक्ति 578 रुपये महीने से एक रुपया भी ज़्यादा ख़र्च करता है वह ग़रीब नहीं माना जा सकता और उसे किसी रूप में उस सामाजिक सुरक्षा और सरकारी अनुदानों का लाभ नहीं मिल सकता जो केन्द्र सरकार ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों को मुहैया कराती है. है न चकरा देने वाली ख़बर ? मगर, रुकिये, खेल इतना सीधा-सादा नहीं है. इसलिए पहले यह तो देख लें कि योजना आयोग ने, जिसके अध्यक्ष हमारे महान प्रधान मन्त्री और वित्तीय जादूगर मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष उनसे भी दो क़दम आगे रहने वाले मोनटेक सिंह आहलूवालिया हैं, सर्वोच्च न्यायालय को बताया क्या है.
मंगलवार को योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि पूरे देश को ध्यान में रखते हुए 578 रुपये महीना प्रति व्यक्ति वह औसत मासिक ख़र्च है जिसे वह शहरी लोगों के सन्दर्भ में सरकारी तौर पर ग़रीबी रेखा को निर्धारित करने के लिए अपने सामने रख कर चल रही है. योजना आयोग ने ग़रीबी रेखा निर्धारित करने के लिए खर्च की जो दरें तय की हैं वे 12 चीज़ों के लिए इस प्रकार हैं :
1. मकान किराया और यातायात 31.00 प्रति माह 2. शिक्षा 18.50 प्रति माह
3. नमक और मसाले 14.60 प्रति माह 4. ईंधन 70.40 प्रति माह
5. कपड़े 38.30 प्रति माह 6. खाने का तेल 29.00 प्रति माह
7. सब्ज़ियां 36.50 प्रति माह 8. दालें 19.20 प्रति माह
9. अनाज 96.50 प्रति माह 10. जूते 6.00 प्रति माह
11. चीनी 13.10 प्रति माह 12. दवाई 25.00 प्रति माह
जले पर नमक छिड़कने के लिए जैसे इतना ही काफ़ी न हो, योजना आयोग ने शहर निवासियों के कल्याण का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा है. इन 578 रुपयों में फलों और मनोरंजन की भी गुंजाइश रखी गयी है. फलों के लिए 8.20 रुपये और मनोरंजन के लिए 6.60 की शाहाना रक़मों का प्रावधान है.
वैसे योजना आयोग के ये आंकड़े सन 2004-05 की क़ीमतों को सामने रख कर तैयार किये गये हैं. अगर मौजूदा मुद्रास्फीति और महंगाई को भी शामिल कर लिया जाये तो शहर निवासियों के लिए यह प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 35 रुपये के आस-पास बैठेगा. ग्रामवासियों के लिए ग़रीबी रेखा का निर्धारण पुराने हिसाब से 15 रुपये प्रति व्यक्ति मासिक ख़र्च तय किया गया है जो आज के हिसाब से 20 रुपये होगा. हैरत नहीं कि समीक्षकों ने एकमत से इसे ग़रीबी रेखा निर्धारण के नहीं कंगाली रेखा के निर्धारण के आंकड़े बताया है.
साथियो, मुझे तो यह भी लगता है कि हमारी सरकार के मन्त्री, नौकरशाह वग़ैरा कभी झोला ले कर ख़ुद सौदा-सुलुफ़ लाने नहीं जाते वरना मनमोहन सिंह को एक घण्टे में आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता. पेंच दरअसल यह है कि सरकार अब पूरी तरह बड़े पूंजीपति और कॉर्पोरेट घरानों की बांदी बन चुकी है और इस फ़िराक़ में है कि अगली बार जब बजट में सामाजिक सुरक्षा और सब्सिडी आदि पर बहस हो तो सरकार यह साबित कर सके कि ग़रीबी रेखा के नीचे बहुत कम लोग आते हैं और इसलिए अनुदान वग़ैरा बढ़ाने के बजाय कम करने की ज़रूरत है ताकि यही पैसा बड़े उद्योगपतियों को दिये जाने वाले अनुदानों और सब्सिडियों पर या सुरक्षा जैसे अनुत्पादक लेकिन सरकार के लिए आवश्यक मदों पर ख़र्च किया जा सके वरना एक ओर कॉर्पोरेट घराने असन्तुष्ट हो जायेंगे दूसरी ओर असन्तुष्ट जनता से निपटने के लिए अतिरिक्त सिपाही कहां से आयेंगे.
यों केन्द्र ने अपनी ओर से ये आंकड़े घोषित कर के पल्ला झाड़ दिया है. यह मानते हुए कि प्रान्त इस मुद्दे पर पहले भी चीख़-पुकार मचाते और केन्द्रीय सरकार की मन-मर्ज़ी को कोसते रहें हैं, उसने कहा है कि अगर प्रान्तीय सरकारों को लगता है कि ग़रीब इससे ज़्यादा हैं तो वे अपनी जेबों से इसकी भरपाई कर सकती हैं.
इस सब को जान समझ कर यह तय करना मुश्किल है कि हम कैसे समय और समाज में रह रहे हैं. चारों तरफ़ के हालात विचित्र-से-विचित्रतर और विचित्रतर-से-विचित्रतम होते जा रहे हैं और वह दिन दूर नहीं जब इस देश में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ कोई ग़रीब नहीं बचेगा, सब अमीर ही अमीर होंगे और मनमोहन सिंह और उनका दल अमीरी रेखा के आंकड़े तैयार करने में संलग्न होंगे.
देशान्तर में जल्द ही शुरू हो रही है
नीलाभ के लम्बे संस्मरण
के अन्तिम हिस्से
की क़िस्तें
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - २२
see this on http://neelabhkamorcha.blogspot.com/
हद है!
ReplyDeleteअब इस तरह तो भारत का २०२० तक गरीबी हटाने का लक्ष्य पूर्ण हो चूका है | मूलभूत की तो बात ही क्या, अब हमें ऊँचे और महत्वकांक्षी लक्ष्य रखने चाहिए जैसे अमीरी में इस बार कौनसी रेंक लानी है | लेकिन आप जैसे लोग तो लगता है जैसे रह-रह कर भारत की बेईजत्ती खराब करने में लगे रहते हैं | हमें अब गरीबी नहीं आप जैसे मानसिक गरीबों को ख़तम कर देना चाहिए | अब हम लोगो की मसाले से लेकर फल फ्रूट जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की चिंता तो योजना आयोग ने हर ली हैं | हमें अब चर्चा-डिसकशन के लिए ये मुद्दे चाहिए की सारा पालिन ने ब्रेस्ट सर्जरी किसके पास करवाई, श्वार्जनेगर के तलाक के पीछे कौनसी शारीरिक कमी रह गयी....वगैरह वगैरह |
ReplyDeleteआजकल तो 31/- महीने में तो फुटपाथ पर सोने की जगह भी नहीं मिलती, यहाँ इतनी रकम घर किराया के लिए रखी है। मिठाई खाना तो दूर जिसने महीने में आधा किलो शक्कर खाली या जिसने पाव किलो दाल मंगा ली (मूंग की दाल तो पाव भी नहीं आएगी) वह अब अमीर कहलाएगा।
ReplyDeleteजय हो!!
शक्कर खा-ली पढ़ें
ReplyDeleteजरूरी खबर .
ReplyDelete31रूपये मकान का माहाना किराया देकर किसी आदमी के रहने की बात करने वाले जेहन के दरिद्रों को एक महीने सुलभ शौचालय इस्तेमाल करके देख लेना चाहिए
ReplyDeletemanmohan aur uss saale montek ke saath saath uss judge yaa judgon ko 578 rrupaye dekar ek maheena chalaane ko kahanaa chaahiye..
ReplyDeleteदोस्तो, थोथे ग़ुस्से से क्या होगा, कुछ कार्रवायी दरकार है.
ReplyDeleteवस्तुतः हमारे माननीय प्रधान मंत्री और वित्तीय मामलों के विशेषग्य/सलाहकार मनमोहन सिंह जी के गरीबी रेखा के भीतर आने वाले आंकडे बहुत बुद्धिमत्ता से लिए गए हैं !प्रतिमाह मासिक खर्च 35 रुपये ,15 या 20रुपये निर्धारित किया गया है ! गौरतलब है कि अघोषित रूप ये दुर्दांत स्थिति ''गरीबी रेखा ''नहीं बल्कि उनकी ''जीवन रेखा''हो जायेगी ,और जब उसके आगे जीवन ही नहीं तो (तथाकथित गरीब)ही नहीं बचेंगे तो गरीबी रेखा खुद ब खुद मिट जायेगी !दरअसल ,आम आदमी कि लाचारी कि खास वजह हमारी लचर न्यायिक प्रणाली ,हमारे लचीला संविधान और उस पर काबिज राजनीती कि दलदल है !इसी के चलते ,हमारे देश में आय का चौथा हिस्सा देश के सिर्फ 52 अरबपतियों के पास है जबकि 77प्रतिशत भारतीयों कि आमदनी मुश्किल से रोजाना 20 रुपये है !
ReplyDelete!त्रासद और सच वास्तविकता यह है कि हम एक नायक विहीन दौर में जी रहे हैं