Saturday, July 4, 2015

सोहबते-ग़ालिब

पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या

आगरे से आ कर दिल्ली को मुस्तकिल तौर पर अपना घर बना लेने वाले हमारे महबूब शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब (१७९७-१८६९) का ज़िक्र इतनी मर्तबा हो चुका है कि एक और तज़्किरा करने से पहले ठिठक जाना पड़ता है. मगर फिर ख़याल आता है कि ग़ालिब की प्रिय शै -- इश्क़ -- का ज़िक्र भी तो बेइन्तहा मर्तबा हो चुका है और उसमें कोई ठहराव आता नज़र नहीं आता. फ़ेसबुक की क़सम या फ़ेसबुकियों की, जिसे देखिये इश्क़ की किसी-न-किसी सूरत, किसी-न-किसी सीरत पर फ़िदा हुआ पड़ा है. मरने-मारने को तैयार है. तो साहेब, इश्क़ की तरह ग़ालिब के लिखे को भी चाहे जितनी बार उलटिये-पलटिये-बरतिये, हर बार नया लुत्फ़ मिलता है, नये मानी खुलते हैं, खयाल नयी दिशाओं की तरफ़ जाते महसूस होते हैं, ज़िन्दगी के -- और उसे देखने के ढंग के -- नये पहलू उजागर होते हैं.
चुनांचे यही सब सोच कर हमने अपनी इब्तेदाई हिचक पर क़ाबू पाते हुए यह फ़ैसला किया कि कुछ दिन अपने इस महबूब शायर की सोहबत में गुज़ारेंगे. अगर हमारे इल्म में कोई इज़ाफ़ा न भी हुआ तो क्या, उनकी सोहबत में यह वक़्त गुज़ारने की लज़्ज़त से तो हमें कोई महरूम न कर सकेगा. अलबत्ता, हमारी अक़ीदत को हमारी पाबन्दी से आंकना शायद हम पर कुछ ज़्यादती होगी. कोशिश तो हमारी यही रहेगी कि हम पाबन्द रहें, मगर ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता इस पाबन्दी में कोई ख़लल पैदा हुआ तो बहुत करके उसकी वजह वही होगी जो ग़ालिब ने ही अपने एक शेर में बयान करते हुए बतायी थी कि 
गो मैं रहा रहीन-ओ-सितमहा-ए-रोज़गार 
फिर भी तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

तो दोस्तो, इस छोटी-सी भूमिका के बाद हम ग़ालिब का ज़िक्र अपने टेढ़े-बैंगे अन्दाज़ में उनके एक ख़त का एक छोटा-सा अंश और उनका एक असंकलित शेर उद्धृत करते हुए शुरू कर रहे हैं.
१६ फ़रवरी १८६२ को, यानी १८५७ की उथल-पुथल के तक़रीबन पांच साल के बाद, ग़ालिब ने अपने अज़ीज़ मिर्ज़ा अलाउद्दीन अहमद ख़ां अलाई को लिखा--
"ऐ मेरी जान, ये वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुम पैदा हुए हो; वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुमने इल्म तहसील किया है; वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुम शाबान बेग की हवेली में मुझसे पढ़ने आते थे; वो दिल्ली नहीं है जिसमें मैं सात बरस की उम्र से आता-जाता हूं; वो दिल्ली नहीं है जिसमें इक्यावन बरस से मुक़ीम हूं. एक कैम्प है -- मुसलमान, अहले हर्फ़ा या हुक्काम के शागिर्द पेशा, बाक़ी सरासर हनूद."
दिलचस्प बात है कि डेढ़ सौ साल के अर्से में दिल्ली की यह कैफ़ियत काफ़ी हद तक वैसी-की-वैसी है. बरबादी के जिन निशानात ने ग़ालिब के वक़्त में इस शहर को नाक़ाबिल-ए-रिहाइश बना दिया था, वे मिट गये हैं. दिल्ली फिर चाक-चौबन्द हो गयी है, पर उसका बुनियादी रंग-ढंग पुराना है. ढहने ही का ज़िक्र करना हो तो आज ही की ख़बर है कि दिल्ली की हृदय-स्थली, गुरुद्वारा शीशगंज के पास फ़व्वारे के नज़दीक "घण्टेवाला" के नाम से मिठाई की जो दुकान पिछले २२५ बरस से मौजूद थी उसने अपने दरवाज़े हमेशा के लिए मुक़फ़्फ़ल कर लिये. अलबत्ता, इज़ाफ़ा हुआ है तो बाहर से आने वाले उन लोगों का जो ग़ालिब द्वारा गिनायी गयी कोटियों में से बीच की कोटि में आते हैं -- अहले हर्फ़ा या हुक्काम के शागिर्द पेशा. तो जनाब, इसी दिल्ली में जिसमें मैं भी सात बरस की उम्र से आता-जाता हूं और पिछले आठ बरस से मुक़ीम हूं, हम ग़ालिब को याद कर रहे हैं.
इस मौज़ूं को बन्द करने से पहले तीन बातें. पहली यह कि यह ज़िक्र ग़ालिब का है, चुनांचे इसमें उनकी शायरी तो आयेगी ही, उनके ख़ुतूत का भी अच्छा-ख़ासा दख़ल रहेगा, क्योंकि वे भी उनके अशआर और कलाम के साथ एक अलग ही अहमियत रखते हैं. दूसरे, दिल्ली का भी उल्लेख ग़ालिब ने अपने कलाम ही में नहीं, बल्कि ख़तों में भी बार-बार किया है. हम उस तरफ़ भी बीच-बीच में पलटेंगे. तीसरी बात यह कि हम कोई आलोचना की पुस्तक नहीं लिख रहे, अपने महबूब शायर की सोहबत कर रहे हैं तो इस का क्रम भी किसी तन्क़ीदी मज़मून की तरह आदि, मध्य और अन्त की शक्ल में नहीं होगा. उसकी अपनी गति और अपनी रविश रहेगी.माशूक़ की महफ़िल में रखी शमा से उठते धुएं के पेच-ओ-ख़म की मानिन्द.
आज यहीं तक. कल उस असंकलित शेर के हवाले से अपनी बात शुरू करेंगे जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर आये हैं.

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