प्यारे मित्रो,
एक लम्बी ख़ामोशी के बाद एक बार फिर मैं आपकी महफ़िल में हाज़िर हूं. इधर बीच कई तरह की उलझनें रहीं, 28 दिसम्बर को मज़े की मोटर साइकिल दुर्घटना हो गयी. शायद पीड़ा का कोटा अभी पूरा नहीं हुआ था या शायद सेवा कराने का. जो भी हो, नये साल का पहला पखवाड़ा काफ़ी कष्ट में बीता. पर जैसा कि संगीतकार-विचारक कुमार गन्धर्व कहते थे, दुख हाथी की चाल आता है और चींटी की चाल जाता है, पर जाता ज़रूर है. सो, दुख-भरे दिन लगभग बीत चुके हैं. ज़माने ने एक करवट ली है, आज ही सुप्रसिद्ध ब्लोग "जानकी पुल डाट काम" संचालित करने वाले मेरे मित्र और हिन्दी के कथाकार प्रभात रंजन ने याद दिलाया कि मुझे डुबकी मारे बहुत दिन हो गये, लिहाज़ा मैं भी पिछला खाता साफ़ करके नयी बही के साथ उपस्थित हूं. नवम्बर से कलकत्ता के एक नये अख़बार "प्रभात वार्ता" के लिए एक स्तम्भ लिखना शुरू किया है. उसकी एक बानगी अपको इस बार मिलती रहेगी, मगर सबसे पहले जयपुर में हाल ही में सम्पन्न हुए साहित्योत्सव की चर्चा. तो लीजिये पेश है --
जयपुर साहित्योत्सव : पैसे का खेल
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन-सा दयार है, हद-ए-निगाह तक जहां ग़ुबार-ही-ग़ुबार है.
हालांकि घर से चलने से पहले ही कुछ-कुछ अन्दाज़ा था कि इस बार का जयपुर साहित्योत्सव पहले से काफ़ी अलग साबित होने वाला है, मगर वह इस क़दर अजीबो-ग़रीब होगा इसका अनुमान किसी को नहीं था, यहां तक आयोजकों को भी नहीं. बेसाख़्ता मेरे दिमाग़ में "उमराव जान" की ये पंक्तियां कौंध उठीं.
अभी आयोजन में कई दिन बाक़ी थे कि भारत में जन्मे अंग्रेज़ी के लेखक सलमान रुशदी अचानक ही उस समय चर्चा में आ गये जब देवबन्द के उलूम की ओर से इस आयोजन में उनकी शिरकत पर विरोध किया गया. ज़ाहिर है, इस विरोध के पीछे उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव थे, क्योंकि रुशदी की किताब "शैतानी आयतें" पर उठे विवाद और उनके खिलाफ़ जारी किये गये फ़तवे तो कभी के दब-दबा गये थे. ख़ुद सलमान रुश्दी भी इधर कुछ ख़ास चर्चा में नहीं थे. देवबन्दियों का विरोध भी जनता के एक हिस्से की जनतान्त्रिक कार्रवाई ही थी. यही नहीं, भारत सरकार ने भी यह साफ़ कर दिया था कि रुशदी को बिना रोक-टोक हिन्दुस्तान आने का अधिकार है और वे कई बार यहां आ भी चुके हैं. लेकिन चूंकि रुशदी की भारत यात्रा पर विरोध देवबन्दियों की तरफ़ से हुआ था, इसलिए मामले ने कुछ और ही रंगत अख़्तियार कर ली और ऊपर से रुशदी ने यह कह कर उसे और भी उलझा दिया कि उन्हें विश्वस्त सूत्रों ने बताया है कि मुम्बई के किसी डौन ने उन्हें मारने की सुपारी दी है. हालांकि बाद में यह ख़बर रुशदी ही की उड़ायी हुई जान पड़ी, लेकिन इसका प्रकाशित-प्रसारित होना था कि सुरक्षा-व्यवस्था हरकत में आ गयी और इस आयोजन के शुरू होने से पहले ही सबसे बड़ा सवाल यह बन गया कि सलमान रुशदी उत्सव में भाग लेंगे कि नहीं. उद्घाटन वाले रोज़ तक कभी यह घोषणा होती कि वे आ रहे हैं, कभी यह कि वे पहले नहीं दूसरे दिन आयेंगे. आख़िरकार जब यह पता चल गया कि वे नहीं आ रहे तब भी उनकी छाया समारोह पर मंडराती रही क्योंकि उद्घाटन की शाम को चार लेखकों ने, जो रुश्दी ही की तरह अंग्रेज़ी में लिखते हैं और जिनमें से दो अमरीका में रहते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्ष में और रुशदी को न आने देने के विरोध में "शैतानी आयतों" के कुछ अंश सार्वजनिक रूप से पढ़ कर सुनाये. ज़ाहिर है, किताब पर अभी तक पाबन्दी लगी हुई है और लेखकों के इस क़दम ने न केवल उनके लिए, बल्कि आयोजकों के लिए भी ख़ासी परेशानी पैदा कर दी और उत्सव की एक निदेशक हड़बड़ा कर क़रीब ढाई सौ लेखकों को यह ईमेल भेजने पर मजबूर हुईं कि वे जो भी करें संविधान और क़ानून की हद में रह कर करें. विरोध प्रकट करने वाले चारों लेखकों को तुरत-फुरत जयपुर से रवाना करना पड़ा सो अलग. उत्सव के अन्तिम दिन आयोजकों ने रुश्दी की विडियो कौनफ़रेन्स कराने का जो बन्दोबस्त किया था, वह कुछ मुस्लिम संगठनों के विरोध के चलते रद्द करना पड़ा. एक औसत-से लेखक को मीडिया और राजनीति किस तरह हीरो बना सकती है, रुश्दी इसकी ताज़ा मिसाल हैं, क्योंकि वे पहले भी जयपुर साहित्योत्सव में आ चुके हैं और किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी. दिलचस्प बात यह भी है कि तमाम तरह की स्वाधीनताओं की वकालत करने और पश्चिमी इशरत-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीने वाले सलमान रुश्दी ने कभी दमन और उत्पीड़न के शिकार लोगों के पक्ष में आवाज़ बुलन्द नहीं की. न तो कश्मीरियों के पक्ष में, न पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों और आदिवासियों के पक्ष में. ऐसी हालत में हमेशा की तरह इस बार भी आख़िरी बाज़ी रुशदी के हाथ रही -- फिर से चर्चित होने का सुख और किताबों की बिक्री में आयी उछाल से बढ़ी हुई आमदनी.
बहरहाल, इस शुरुआती हंगामे को अलग करके देखें तो पांच दिन और 136 सत्रों में फैले इस आयोजन की प्रकृति, स्वरूप और प्रभाव के बारे में कई सवाल उठते हैं. पहला सवाल तो यही है कि इस आयोजन को कौन करा रहा है और किस उद्देश्य से. अगर आयोजकों के बयानों पर जायें तो सन 2006 में शुरू हुआ यह आयोजन प्रमुख रूप से कला, संगीत और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था, ख़ास तौर पर साहित्य को. लेकिन जो देखने में आया वह ऐसा मंज़र था जिसमें गम्भीर साहित्यकार हाशिये पर थे और गुलज़ार, जावेद अख्तर, कपिल सिब्बल, अनुपम खेर, शशि थरूर, स्वामी अग्निवेश, चेतन भगत, बरखा दत्त, कबीर बेदी, अमरीकी मीडिया शख्सियत ओप्रा विन्फ़्रे, कवि सम्मेलनों में समां बांधने वाले कवि अशोक चक्रधर, फ़िल्मी गीतकार प्रसून जोशी और नये गुरु दीपक चोपड़ा जैसी सेलेब्रिटियां केन्द्र में. ऐसा लगता था कि यह साहित्य और संस्कृति का पेज थ्री है. चूंकि जानी-मानी शख्सियतों के प्रति लोगों का सहज आकर्षण होता है, इसलिए उत्सव में शामिल होने वाले श्रोताओं की एक बड़ी संख्या तो इसी से खिंच कर चली आयी थी. लेकिन इससे भी बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो महज़ शनिवार-इतवार को थोड़ा रौनक़-अफ़रोज़ करने की ख़ातिर इस मेले में चले आये थे. एक समय तो समारोह में उमड़ी चली आ रही भीड़ ने बाहर सड़क पर आम आवा-जाही को भी बाधित कर दिया था. इन लोगों को न तो कला-संस्कृति से कुछ लेना-देना था, न वहां चल रहे कार्यक्रमों से. वे यहां-वहां मंडराते हुए तितलियों की तरह कभी इस सत्र पर पल भर रुकते, कभी उस कार्यक्रम में झांकते, शहर के इस पंच सितारा विरासती होटल डिग्गी पैलेस के परिसर में महंगी कौफ़ी-चाय और पेस्ट्री से ले कर इडली-दोसे और सैण्ड्विच उड़ाते हुए, सर्दियों की गुनगुनी धूप का मज़ा ले रहे थे. इतवार को तो ऐसा नज़ारा था कि बी.बी.सी. की पूर्व पत्रकार-प्रसारक रमा पाण्डे को कहना पड़ा कि यह उत्सव अब उत्सव नहीं रहा, भीड़ बन गया है.
इस बार के आयोजन की थीम भक्ति और हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं थी, मगर उन पर भी ज़्यादातर चर्चा अंग्रेज़ी में हो रही थी. कहा जाये कि अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत का बोलबाला था. वैसे भी, जो लेखक और प्रतिभागी बुलाये गये थे, वे उन्हीं लोगों में से थे जिनसे ईमेल और मोबाइल से सम्पर्क किया जा सकता था. इसलिए अगर उत्सव में घूमते समय कानों में उच्चाकांक्षी मध्यवर्ग द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अंग्रेज़ी के टुकड़े पड़ रहे थे तो इसमें आश्चर्य कैसा. सारा आयोजन ही अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत में रंगा हुआ था -- प्रचार सामग्री से ले कर संचालन और दूसरी आयोजकीय कार्रवाइयों तक. ऐसे में बेचारे हिन्दी और देसी भाषाओं के लेखकों की क्या बिसात. वे तो जैसे प्रतीक स्वरूप वहां बुला लिये गये थे.
इसके अलावा एक ही समय में चल रहे चार-चार कार्यक्रमों ने भी इस साहित्य समारोह को तमाशे में बदल दिया था. यह ठीक है जिन लोगों की किसी ख़ास कार्यक्रम में दिलचस्पी थी, वे तो उसी कार्यक्रम में आदि से अन्त तक मौजूद रहते, मगर जो भारी भीड़ उमड़ आयी थी उसका भी एक हिस्सा इन सत्रों में जगह छेंक लेता और फिर बीच ही में गम्भीर श्रोताओं में खीज पैदा करता हुआ बाहर निकल आता, बिना यह सोचे कि अपनी इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत से उन्होंने कुछ लोगों को कार्यक्रम से वंचित कर दिया है.
यों, अगर कार्यक्रमों पर नज़र डालें तो उनमें से कुछ बहुत मौज़ूं थे. सम्पादक-पत्रकार विनोद मेहता, पाकिस्तान से आये कवि मुहम्मद हनीफ़, सूफ़ी कवि-गायक मदन गोपाल सिंह, तेलुगू की दलित लेखिका गोगू श्यामला और पंजाबी कवि नवतेज भारती को सुनना ताज़गी-भरा अनुभव था. यहां तक कि दुख दरिद्रता के सरल उपाय बताने वाली अमरीकी मीडिया शख्सियत ओप्रा विन्फ़्रे ने भी कुछ समझदारी की बातें कहीं. भाषा, समाज और साहित्य के सवालों के इर्द-गिर्द बुने गये इन कार्यक्रमों को अगर सूझ-बूझ के साथ सजाया गया होता तो उनका प्रभाव पड़ सकता था. लेकिन अपने कुल स्वरूप में यह आयोजन बिखरा-बिखरा बन कर रह गया. हां, प्रतिनिधियों के तौर पर आये जिन लोगों की दिलचस्पी उस भव्य भोजन और विदेशी मदिरा पर थी जो नदी की तरह वहां बह रही थी या बहायी जा रही थी, उनके लिये आयोजकों ने सटीक इन्तज़ाम कर रखा था. पांच सितारा होटलों में ठहराने से ले कर लाने-ले जाने और महंगे उपहारों समेत दूसरी सभी सुविधाओं का बन्दोबस्त करने तक.
इसी को देख कर बारम्बार मन में सवाल उठता था कि जिस देश में भुखमरी और कुपोषण का दौर-दौरा है, विषमता ने महामारी की-सी सूरत अख़्तियार कर ली है, वहां ऐसा भव्य-दिव्य आयोजन किस तुफ़ैल में हो रहा है और इसके लिए पैसा किसने जुटाया है. और यही इस आयोजन का सबसे अंधेरा पक्ष कहा जा सकता है. शीर्ष पर तो बड़ी-बड़ी निर्माण परियोजनाओं के ठेके लेने वाली डी.एस. कंस्ट्रक्शन कम्पनी है, जिसने पिछले साल से दक्षिण एशियाई साहित्य के लिए 50 हज़ार डालर का पुरस्कार भी घोषित कर रखा है जो इस साल, श्रीलंकाई तमिल लेखक शेहन करुणातिलक को उनके पहले उपन्यास "चाइनामैन" पर दिया गया. 1979 में स्थापित डी.एस. कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने पिछले सात वर्षों में अभूतपूर्व प्रगति की है और कौमनवेल्थ खेलों के घोटाले में भी बड़ी हद तक लिप्त है. लेकिन इस कम्पनी के अलावा इस आयोजन के पीछे रियो टिण्टो और शेल जैसे बहुराष्ट्रीय निगम भी हैं जिन्होंने खदान और तेल उत्खनन के क्षेत्र में लगातार मानवाधिकारों का हनन किया है.
शेल पर तो नाइजीरिया के फ़ौजी शासकों द्वारा वहां के अत्यन्त प्रतिष्ठित साहित्यकार, प्रसारक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा को फांसी की सज़ा दे कर मार डालने का भी आरोप है जो ओगोनीलैण्ड में पर्यावरण की क़ीमत शेल की निर्मम मुनाफ़ाखोरी का विरोध कर रहे थे. रियो टिण्टो ब्रिटिश-औस्ट्रेलियाई कम्पनी है, जो तीसरी दुनिया के देशों की खनिज सम्पदा को हासिल करने की फ़िराक़ में रहती है और अब उसकी नज़र हिन्दुस्तान पर है. यही वजह है कि उत्सव में आये विदेशियों में अंग्रेज़ और औस्ट्रेलियाई बहुतायत में थे. रही कोकाकोला कम्पनी तो उसका कच्चा-चिट्ठा सब जानते ही हैं. इन चौधरियों के नीचे छोटे-बड़े, देसी-विदेशी ढेरों कार्पोरेट घरानों के नाम हैं -- टाटा स्टील और आर.पी.-संजीव गोयनका समूह से ले कर बैंक औफ़ अमरीका और ग्लेनलिवेट शराब बनाने वाली कम्पनी तक.
कहना न होगा कि यह उस भूमण्डलीय अर्थ-व्यवस्था और लुटेरी पूंजी का सांस्कृतिक मुखौटा है, हमारे देश में जिसकी शुरुआत उदारीकरण के युग में नयी आर्थिक नीतियों से हुई थी और जो अब साहित्य-संस्कृति के माध्यम से अवाम में नहीं, तो कम-से-कम उस ख़ास वर्ग में स्वीकृति चाहता है जो उसकी चालों को समझने की क्षमता भी रखता है, और उससे लाभान्वित भी होता है. इसी वर्ग को अपने पाले में लाने और रखने की एक कोशिश यह उत्सव है. अकारण नहीं था कि एक ओर "अनकही कहानियां : माओवादी गुरिल्ले और भारतीय गणतन्त्र" वाले सत्र में बढ़ती हुई हिंसा-प्रतिहिंसा की छान-बीन थी, दूसरी ओर स्टीवन पिंकर यह साबित करने पर जुटे थे कि कैसे "हिंसा का ग्राफ़ लगातार नीचे गिरता चला गया है." ओसामा से ओबामा तक, इस्रायल से फिलिस्तीन तक और अफ़्रीका से ले कर लातीनी अमरीका तक -- चर्चा के केन्द्र में सिर्फ़ साहित्य ही नहीं, राजनीति भी थी.
यह भी एक विडम्बना ही कही जायेगी कि इस बार के समारोह का उद्घाटन भूटान की राजमाता आशी दोरजी वांग्मो वांग्चुक ने किया जो देश कि अपने यहां जनतन्त्र की मांग करने वालों को सख़्ती से कुचलने और राज शाही को बनाये रखने के लिए हर हर्बा आज़माने के लिए कुख्यात है.
लेकिन सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने बताया कि मूल रूप में यह आयोजन जयपुर विरासत फ़ाउण्डेशन द्वारा शुरू किया गया था जो राजस्थानी दस्तकारी को बढ़ावा देने लिए श्रीमती फ़ेथ सिंह ने स्थापित की थी. दस्तकारी के ख़रीदारों को इस प्रान्त और देश का परिचय देने के लिए एक छोटा-मोटा सांस्कृतिक आयोजन किया जाता था. उसी आयोजन को हथिया कर नयी व्यावसायिक सूझ-बूझ के साथ जयपुर साहित्य समारोह नींव रखी गयी और धीरे-धीरे जयपुर विरासत फ़ाउण्डेशन तो महज़ एक स्टाल में सिमट गयी, जबकि डिग्गी पैलेस पर नवधनाड्य सांस्कृतिक आयोजकों का क़ब्ज़ा हो गया. हैरत नहीं कि इस पंच सितारा साहित्योत्सव के बारे में एक प्रतिनिधि की टिप्पणी थी कि यह आयोजन पैसे का खेल, साहित्य और बाज़ार का मेल और सेलेब्रिटियों की रेलमपेल ही है.
२३-१-२०१२
बहुत ही सही और तथ्यपरक विश्लेषण किया है भाई! आदरणीय बड़े भाई वरिष्ट लेखक नंद भारद्वाज ने जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल की पैरवी और तरफ़दारी करते हुए फ़ेसबुक पर मित्रों द्वारा रिपोर्ट के आधार पर की गई टिप्पणियों को कूढ और भाग न ले पाने के कारण कोसने का आरोप लगाया था तो मैने उन्हें निवेदन किया था-
ReplyDeleteन कोई कूढ रहा है भाई!
न कोई किसी को कोस रहा
जो होना चाहिए, नहीं होता
यही देख, जान अफ़सोस रहा
हम जानें, क्या है हदें हमारी
क्या अपनी औकात है
हमने तो बस वही लिखा
जो वक्त के हालात है
रही बात क्या-होता-कैसे
सब जाने-पहचाने हैं
कौन दूध-धूला है यहां पर
सब के खेमे-ठिकाने हैं
विकल्पों के प्रश्न उठा सब
अपने विकल्प तलाशे हैं
शब्द-उपासक, बन शब्द-विध्वंस्क
केवल अपनी धार तराशे हैं
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एक औसत-से लेखक को मीडिया और राजनीति किस तरह हीरो बना सकती है, रुश्दी इसकी ताज़ा मिसाल हैं
ReplyDeleteइसके अलावा और तमाम बातें अच्छी लगीं। शुक्रिया इस लेख के लिये! :)