इस लेख की अन्तिम कड़ी
मेरे लेखों के जवाब में लिखे अपने लेख "बरसाती नदियां बहुत धोखेबाज़ होती हैं नीलाभ जी" की भूमिका में मृणाल वल्लरी लिखती हैं -- "जनवादी ख़ेमों में पार्टी शिक्षण और अस्मिता के सवाल पर लिखने से पहले अन्देशा था कि चौतरफ़ा हमला होगा."
इस भोले-से झूठ पर बलिहारी जाने को मन करता है. कारण यह कि जनवादी होने का दावा तो सभी वामपन्थी दल करते हैं, फिर चाहे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी हो या भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) न्यू डेमोक्रेसी, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) या और भी कोई कम्यूनिस्ट धड़ा. लेकिन मृणाल वल्लरी ने अपनी सारी तहक़ीक़ात माओवादियों पर ही केन्द्रित रखी है, क्योंकि फ़िलहाल वही महाराज चिदम्बरम और सम्राट मनमोहन सिंह के निशाने पर हैं; और मृणाल वल्लरी के ये आक़ा माओवादियों ही के ख़िलाफ़ झूठ और फ़रेब का तूमार खड़ा करना चाहते हैं; फिर वे प्रतिबन्धित होने के नाते वैसे भी जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं. सी.पी.आई., सी.पी.आई.एम. और सी.पी.आई.एम-एल लिबेरशन के सिलसिले में ऐसी कोई पाबन्दी नहीं है और इसलिए मृणाल वल्लरी ने उन्हें "जनवादी खेमों में पार्टी शिक्षण और स्त्री अस्मिता" वाले इस "मेधावी" शोध-पत्र के दायरे से बाहर रखा है. इस कारण भी कि इन जनवादी दलों के बारे में वैसी ऊल-जुलूल बातें लिखना मृणाल वल्लरी के लिए ख़ासी सांसत खड़ी कर सकता था. सो, मृणाल ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. आक़ाओं को खुश किया है, ऐसे लोगों के विरुद्ध दुष्प्रचार किया है जो जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं, अपने स्त्रीवादी होने को साबित करने की कोशिश की है और लगे हाथ जनवादियों पर कीचड़ उछालने की कुचेष्टा की है.
इसलिए इस प्रसंग में हमारा आरोप अब भी क़ायम है. जवाब मृणाल वल्लरी को देना है. और कुछ नहीं तो स्त्रीवादी होने के नाते उमा उर्फ़ सोमा मांडी की ख़ातिर.
अब आइए मृणाल वल्लरी की दूसरी व्यथा-कथा पर. उनकी आपत्तियों और आक्षेपों को एक-एक करके उठाऊं तो --
पहली बात यह है कि जिस गोष्ठी का ज़िक्र मृणाल वल्लरी कर रही हैं, वह आज़ाद और हेमचन्द्र पण्डेय, दोनों की हत्या का विरोध करने के लिए बुलायी गयी थी और मैं न तो उसके आयोजकों में शामिल था, न यह तय करने वालों में कि उसमें कौन आयेगा कौन नहीं. इस तरह के कुतर्क से तो यह भी कहा जा सकता है कि सरकार की बनायी सड़क पर मैं भी चलता हूं और स्वामी अग्निवेश और चिदम्बरम भी और महज़ इस कारण मैं उनका साथी हो गया.
मृणाल की दूसरी आपत्ति "होते-सोतों" शब्द के इस्तेमाल पर है.वे लिखती हैं -- "लेकिन नीलाभ जी एक प्रतिबद्ध रचनाकार की तरह सैद्धांतिकी में फटकार कर चुप नहीं रहे। मेरे लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने एक स्त्री की नियति की तरह मुझे बिस्तर पर पटक डाला, मेरे होते/सोतों की जानकारी दी। मेरे लिए नीलाभ जी का यह स्टैंड भयावह और स्तब्ध कर देने वाला था। इधर कुछ दिनों से रोज नीलाभ जी के ब्लॉग पर वह लेख एक बार पढ़ लेती थी।"
मुझे लगता है मृणाल जी ने मेरे इस शब्द को राजेन्द्र यादव के कुख्यात लेख "होना सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ"में प्रयुक्त "होना-सोना" से कन्फ़्यूज़ कर दिया है. मृणाल जी की जानकारी के लिए बता दूं कि यह शब्द आम तौर पर सगे-सम्बन्धियों और समर्थकों के लिए इस्तेमाल होता है और इसका हमबिस्तरी से कोई ताल्लुक़ नहीं है. हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित और आचार्य राम चन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित "मानक हिन्दी कोश, १९६६" में "होता-सोता" का अर्थ दिया गया है --
"होता-सोता - (वि० हिन्दी} - निकट का सम्बन्धी. जैसे - अपने होते-सोतों की ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं."
तथा
"होते-सोते ०- अव्य० - किसी के वर्तमान रहते हुए. जैसे - हमारे होते-सोते तुम्हें कौन कुछ कह सकता है."
मृणाल ने आगे अपने लेख में मुझ पर व्यंग्य करते हुए लिखा है -- "नीलाभ जी के बारे में सुना है कि वे साहित्य और विचार की दुनिया में विचरने वाले एक वरिष्ठ व्यक्ति हैं। अपनी उम्र वे बार-बार बता रहे हैं कि वे 65 साल के हैं। इसका मतलब वरिष्ठ ही होंगे। बहरहाल, उनके बारे में अपनी अज्ञानता पर कम-से-कम अब मुझे अफसोस नहीं है।"
मेरे बारे में अज्ञानता पर उन्हें क़तई अफ़सोस न होना चाहिए, लेकिन हिन्दी के अपने अज्ञान पर ज़रूर होना चाहिए क्योंकि वे अगर जुझारू पत्रकार हैं भी तो हिन्दी की ही हैं, किसी और भाषा की नहीं. और यह भी देखिए कि वे ख़ुद ही लिखती हैं कि "इधर कुछ दिनों से रोज नीलाभ जी के ब्लॉग पर वह लेख एक बार पढ़ लेती थी।" मेरे ब्लॉग पर सिर्फ़ वह लेख ही नहीं और भी बहुत कुछ है और पढ़तीं चाहे वे उसी एक लेख को रही हों बाक़ी का लिखा हुअ भी उनकी नज़र से गुज़रा ही होगा. इस पर भी अगर उनमें अज्ञानता बनी रही है तो वे उस कड़छुल की तरह हैं जो सारी उम्र दाल में घुमायी जाने के बाद भी उसके स्वाद से अनभिज्ञ ही रहती है.
मृणाल को ऐतराज़ है कि मैंने हेम चन्द्र पाण्डेय और उसकी पत्नी का ज़िक्र क्यों किया, तमाम दलितों-वंचितों के ख़िलाफ़ अत्याचारों और बर्बरताओं की अन्तहीन-सी श्रृंखला का ज़िक्र क्यों नहीं किया. इसलिए नहीं किया प्रिय मृणाल जी, क्योंकि जो प्रसंग हो उसी की बात करनी चाहिए. आप माओवादियों पर एक सरासर झूठा आरोप लगा रही थीं जो पकड़ा जा चुका था और यह भी साबित हो चुका था कि वह अंग्रेज़ी अख़बार की जूठन था. अगर प्रसंग दलितों और वंचितों और उनके ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों का होता तो बात दूसरी होती. चूंकि अपने सारे बड़बोलेपन और झूठ के नीचे आप यह छिपाने में नाकाम रही हैं कि आपको किसी भी कम्यूनिस्ट पार्टी का प्रथम दृष्टया अनुभव नहीं है, इसलिए मार्क्स हों या माओ या और कोई कम्यूनिस्ट विचारक, या माओवादी या और कोई वाम अथवा जनवादी आन्दोलन, आपकी बातें अज्ञान से भरे पूर्वाग्रहयुक्त प्रलाप के सिवा और कुछ नहीं हैं. संवेदना, सम्वेदनशीलता की दुहाई भी आपने निहायत अमूर्त ढंग से अपने लचर तर्कों को ढांपने की ख़ातिर दी है.
रही बात आपके सात साल पुराने लेख से मेरे मतभेदों को ले कर आपकी व्यथा की.
मेरी पहली आपत्ति मृणाल के वैचारिक कच्चेपन को ले कर थी जिसकी वजह से उन्होंने यह मान कर भी कि हमारे समाज में पुरुष स्त्रियों पर अब भी ज़ोर-ज़ुल्म करते हैं, अर्चना नामक लड़की के मामले को एक केस-स्टडी बना कर एक सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्या को नितान्त व्यक्तिवादी ढंग से देखते हुए अपार भोलेपन और नक़ली सात्विक आक्रोश से पुरुषों को "दोग़ले" कहा था. मेरा कहना था कि "दोग़ला" शब्द न सिर्फ़ पुरुष-प्रधान मानसिकता से नि:सृत हुआ है, बल्कि उसमें वर्णवादी, जातिवादी और नस्लवादी अभिप्राय भी नत्थी हैं. पुरुषों को उन्हीं की मानसिकता से नि:सृत गाली देना अन्तत: उन्हीं के पाले में उतर जाना है. चूंकि मृणाल ने इस शब्द को अपने लेख में कई बार इस्तेमाल किया है, इसलिए भी अनुमान होता है कि उन्हें पुरुषों का प्रतिकार करने के लिए यह शब्द बहुत उपयुक्त लगता है, वरना "पाखण्डी" शब्द न केवल बेहतर था, बल्कि अधिक उपयुक्त भी और उन सारे अभिप्रायों से मुक्त जो "दोग़ला" में निहित हैं. इसीलिए मैंने कहा था -- "ब्लौग के पाठक चूंकि इस जानकारी से अपरिचित हैं इसलिए उन्हें मृणाल का सतही आक्रोश इस गाली से मण्डित हो कर और भी मनमोहक लगता है वैसे ही जैसे किसी औरत का मां और बहन की गाली देना; कि भई वाह, क्या मर्दानगी दिखायी है. "
इसी से जुड़ी मेरी दूसरी आपत्ति यह थी कि -- "हमारा समाज पिछले चार-पांच हज़ार वर्षों के अर्से में इतनी पुरपेच गलियों से हो कर आया है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताएं कई तरह के परस्पर विरोधी विचार-आचार सरणियों, संस्कारों और दबावों का शिकार हो गयी हैं और स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में ( मृणाल जी और उनके प्रशंसक ग़ौर करेंगे कि मैं जान बूझ कर "वैवाहिक दायरे" जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहा) -- एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, लड़ी भी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही नहीं, मर्द भी शरीक हैं और होंगे. वर्ना क्या मृणाल जी बता पायेंगी कि पुरुष तो स्त्रियों पर अत्याचार करते ही हैं, औरतें क्यों औरतों पर ज़ुल्म ढाती हैं ? परम्परागत सास-बहू, ननद-भौजाई और देवरानी-जेठानी की दुश्मनी के अलावा कई बार सहोदरा बहनों में भी कैसी कट्टम-जुज्झ मचती है, उससे क्या मृणाल जी नावाक़िफ़ हैं."
मृणाल ने मुझे जड़ और मूर्ख कहते हुए अपनी जड़ता और मूर्खता का जो प्रदर्शन किया है वह मुलाहिज़ा करने लायक़ है -- "अब नीलाभ जी की इस बात पर पता नहीं हंसा जाए कि रोया जाए। किसी इस तरह की बात पर हंसने की गुंजाइश तब बनती है, जब किसी व्यक्ति की समाज की समझ बिल्कुल वही हो, जो उसे विरासत में मिली हो। पितृसत्तात्मक पुरुष व्यवस्था को अपने भीतर हूबहू उतारे हुए कोई व्यक्ति अगर इस तरह की राय जाहिर करता है, तो इससे उसके भीतर की ‘क्रांतिकारिता’ के पैमाने का अंदाजा लगाया जा सकता है। नीलाभ ने ‘स्त्रियां ही स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं’ की जड़ और मूर्खता की प्रदर्शनी लगाने वाली धारणा को साबित करने के लिए ऊपर जो तथाकथित ‘प्रश्नवाचक’ तर्क दिये हैं, उस पर आज का एक नौसिखिया सोच-समझ रखने वाला व्यक्ति भी हंसता है। कट्टम-जुज्झ मचाती हुई परंपरागत सास-बहू, ननद-भौजाई या देवरानी-जेठानी को मानव व्यवहार की जटिलता के बजाय पुरुष द्वंद्व के बरक्स और औरतों पर जुल्म ढाती हुई औरतों को पितृसत्ता निबाहती हुई स्त्रियों के रूप में देखना दरअसल एक ऐसे अविकास का उदाहरण है, जिसके साथ जीता हुआ व्यक्ति अगर खुद को प्रगतिशील भी बताता है, तो सचमुच सिर्फ हंसी ही आएगी।"
पहली बात तो यह कि मैंने कहीं भी यह नहीं कहा कि ‘स्त्रियां ही स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं.’
निहायत बेइमानी से, जिसका सबूत मृणाल पग-पग पर देती हैं, उन्होंने ऐसे शब्द मेरे मुंह में रख दिये हैं जो मैंने कहे ही नहीं. अलबत्ता, यह बात मैं अब भी मानता हूं कि औरतों का बहुत-सा आचरण पुरुष प्रधान समाज की "कण्डिशनिंग" -- अनुकूलन -- का नतीजा है. औरतें क्यों औरतों पर ज़ुल्म ढाती हैं ? का सवाल इसी से उपजा है. पुरुष प्रधान समाज की "कण्डिशनिंग" -- अनुकूलन -- के चलते ही सास-बहू, ननद-भौजाई और देवरानी-जेठानी की परम्परागत दुश्मनी के और कई बार सहोदरा बहनों में भी कट्टम-जुज्झ मचने के अलावा हमारे समाज में ऐसी माएं भी हैं जो इज़्ज़त के नाम पर अपने ही जाये बेटों-बेटियों को या तो क़त्ल हो जाने देती हैं या ख़ुद भी उस क़त्ल में शरीक हो जाती हैं. यही नहीं, गुजरात के मोदी संचालित फ़सादों में गुजराती महिलाओं का अपने पतियों को मुस्लिम महिलाओं की बेहुरमती करने के लिए उकसाना (जो कई जांच दलों द्वारा सिद्ध हो चुका है) भी इसी मानसिकता की उपज है.
यही नहीं कई बार अजाने ही स्त्रियां ऐसी "बौडी-लैंग्वेज" अपना लेती हैं जो पुरुषों से ही नि:सृत है. मिसाल के लिए बैडमिण्टन की दो ख़िताबी खिलाड़िनों की मुद्राओं पर ग़ौर कीजिए जो हिन्दुस्तान टाइम्ज़ के १५ अक्तूबर के अंक में छपी हैं. सायना नेहवाल की मुद्रा आम तौर पर पुरुष खिलाड़ियों के सिलसिले में देखने को आती है और समाज शास्त्रियों के अनुसार इस में यौन अभिप्राय निहित हैं. कई बार जब यह खेल के मैदान के बाहर प्रदर्शित की जाती है तो किसी क़दर अश्लील भी समझी जा सकती है. इसके विपरीत ज्वाला गुट्टा की मुद्रा में कोई यौन अभिप्राय नहीं है. अगर कोई सायना नेहवाल से पूछे तो शायद उसे इस बात का आभास भी नहीं होगा. उसे ही क्यों, संसार की अनेक खिलाड़िनों को नहीं होगा कि यह मुद्रा पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता से उद्भूत है. उन सभी ने अजाने ही इसे अपना लिया है.
एक और उदाहरण दूंगा. मृणाल ने अर्चना वाले लेख में "बहनचोद" गाली का ज़िक्र किया है. पूरब हो या पश्चिम ज़्यादातर गालियां स्त्री-आधारित ही हैं. इसी को लक्ष्य करके डाक्टर राम विलास शर्मा ने "निराला की सहित्य साधना" में लिखा है कि निराला जी स्त्री-आधारित गालियां नहीं देते थे. लेकिन वे "चूतिया" शब्द का इस्तेमाल करते थे. ऐसा इसलिए होता होगा, क्योंकि पूरब में यह शब्द आम तौर पर "मूर्ख" के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है और किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. लेकिन क्या मृणाल जी को समझाना पड़ेगा कि जहां इसे इसके मूल अभिप्राय में ही ग्रहण किया जाता है, मसलन पंजाब और उससे लगते उत्तर प्रदेश के ज़िलों में, वहां सभ्य समाज में इसका इतना बुरा क्यों माना जाता है. चुनांचे, मृणाल जी को समझना चाहिए कि पुरुष अनुकूलन कहां-कहां और किस तरह काम करता है और फ़ालतू की कजबहसी न करनी चाहिए. "दोग़ले" शब्द के सिलसिले में भी अगर मृणाल ने सिर्फ़ एक बार इसका प्रयोग किया होता तो शायद दरगुज़र किया भी जा सकता, लेकिन उन्होंने लगभग प्रतिशोध-प्रियता से इसे बार-बार इस्तेमाल किया है, भले ही "पाखण्डी" के अर्थ में, और ऐतराज़ इसी बात पर है कि उन्हें ऐसा न करना चाहिए था.
बहरहाल, इस प्रसंग मे इतना और कहना है कि चूंकि मृणाल ने मनमाने ढंग से मेरे मुंह में अपने शब्द -- "स्त्रियां ही स्त्री की दुशमन है" -- धर दिये हैं और अपने लेख में आगे उन्हीं को बार-बार उद्धृत करते हुए अनर्गल प्रलाप किया है, इसलिए ऐसे प्रसंगों पर मैं कुछ नहीं कहूंगा.
जहां तक विवाह और वैवाहिक सम्बन्धों का प्रश्न है, यहां भी मृणाल ने मनमाने ढंग से मेरे वाक्यों को सन्दर्भ-च्युत करके उद्धृत करते हुए अनाप-शनाप लिख मारा है और मोहल्ला लाइव के ब्लौगियों ने मेरा मूल लेख देखने की ज़हमत उठाये बिना मूढ़ता-भरी टिप्पणियां चेंप दी हैं. यहां मैं अपने कुछ वाक्य उद्धृत कर रहा हूं :--
१. "हमारा समाज पिछले चार-पांच हज़ार वर्षों के अर्से में इतनी पुरपेच गलियों से हो कर आया है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताएं कई तरह के परस्पर विरोधी विचार-आचार सरणियों, संस्कारों और दबावों का शिकार हो गयी हैं और स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में ( मृणाल जी और उनके प्रशंसक ग़ौर करेंगे कि मैं जान बूझ कर "वैवाहिक दायरे" जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहा) -- एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, लड़ी भी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही नहीं, मर्द भी शरीक हैं और होंगे."
( इस कथन में तथ्यत: क्या ग़लत है ? यों विरोध करने के लिए कोई कुछ भी कहने के लिए स्वतन्त्र है. क्या मृणाल जी यह कहना चाहती हैं कि स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में -- एक लम्बी लड़ाई नहीं लड़नी है, नहीं लड़ी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही शरीक हैं, मर्द नहीं, और न उन्हें होना चाहिए ?)
2. "विवाह की प्रथा का आरम्भ मातृसत्ता की पराजय के बाद और व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के बाद ही हुआ था. अगर मृणाल जी को मार्क्स-एंगेल्स-माओ से बहुत एलर्जी है तो अपने ही वेद-पुराणों में श्वेतकेतु की कथा पढ़ने की ज़हमत उठाएं. शुरू से आज तक विवाह एक पौरुष प्रधान समाज की अभिव्यक्ति रहा है और समय के साथ वह इतना पेचीदा हो गया है कि विवाह का टूटना या उसमें विकृतियों का पैदा होना केवल एक पक्ष ही की ज़िम्मेदारी नहीं होता. भिन्न-भिन्न मात्राओं में स्त्री-पुरुष और उनके साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द का समाज भी ज़िम्मेदार होता है. इसलिए एक तो इस सिलसिले में कोई सरलीकरण करना ग़लत है. अनेक दलित स्त्रियां सवर्ण या या ब्राह्मण स्त्रियां दलित पुरुषों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताती रही हैं, बिता रही हैं, यहां तक कि अलग-अलग धर्मॊं के दम्पति भी निर्विघ्न जीवन जीते रहे हैं, जी रहे हैं जबकि चारों ओर खुले दिमाग़ से नज़र दौड़ाने पर अनेक सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- बल्कि ९५ प्रतिशत सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- किसी न किसी व्यथा और रुग्णता का शिकार पाये जायेंगे."
(मुझे नहीं मालूम मृणाल जी विवाहित हैं या नहीं और उन्हें वैवाहिक सम्बन्धों की कितनी और कैसी जानकारी है. समाजशास्त्रीय विवेचन में कोई भी सामान्य निष्कर्ष केवल एक मिसाल के बल पर नहीं निकाला जाता. यह सर्वमान्य सिद्धान्त है. लेकिन मृणाल ने हठधर्मी से एक अर्चना वाले मामले को उठा कर अपने लेख "वह चुप्पी जो आज भी गूंज रही है" में सामान्यीकरण किया है और उनके समर्थक ने इसी से "क्यू" ले कर आलोकधन्वा और उनकी पत्नी के मामले पर टिप्पणी करने की असभ्यता की है. मुझे इसी पर ऐतराज़ था. अगर मृणाल अनेक मामलों के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालतीं तो शायद उनका लेख इतना वायवी, उच्छवासपूर्ण और भावुक आक्रोश से भरा न होता, बल्कि गम्भीर और विचारोत्तेजक होता. अगर दो-तीन अखबारों में ले कर घूमने के बावजूद किसी ने उसे छापने लायक़ नहीं समझा और यह बहुत बाद में ही छप पाया तो इसका कारण कदाचित इस लेख में सही "फ़ोकस" का अभाव ही है.)
3." दूसरे उनके विचारों से ही उत्तेजित हो कर किन्हीं महाशय ने सन्दर्भ-च्युत ढंग से कवि आलोकधन्वा को और क्रान्ति भट्ट से उनके वैवाहिक सम्बन्धों पर अनाप-शनाप टिप्पणी कर मारी है. दो व्यक्तियों का सम्बन्ध और फिर सम्बन्ध-विच्छेद कोई सार्वजनिक विश्लेषण और निष्कर्ष प्रतिपादन का मामला नहीं होता. चूंकि मैं इस दम्पति विशेष के काफ़ी क़रीब रहा हूं इसलिए मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं कि आलोकधन्वा और क्रान्ति ( अब असीमा ) भट्ट का अलग होना सिर्फ़ एक पक्ष के चलते नहीं हुआ. यों कोई भी ब्लौग पर कुछ भी कहने के लिए स्वतन्त्र है, चाहे वह दूसरे पर कीचड़ उछालने से ले कर उसका चरित्र हनन करने तक क्यों न चला जाये."
(यह कथन बस इतनी टिप्पणी की अपेक्षा रखता है कि ऊपर जो मैंने लिखा कि "विवाह का टूटना या उसमें विकृतियों का पैदा होना केवल एक पक्ष ही की ज़िम्मेदारी नहीं होता. भिन्न-भिन्न मात्राओं में स्त्री-पुरुष और उनके साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द का समाज भी ज़िम्मेदार होता है." और फिर आगे यह कि "दो व्यक्तियों का सम्बन्ध और फिर सम्बन्ध-विच्छेद कोई सार्वजनिक विश्लेषण और निष्कर्ष प्रतिपादन का मामला नहीं होता," तो इसमें कोई विरोधाभास नहीं है. किसी भी सम्बन्ध-विच्छेद के कई पहलू होते हैं. मृणाल के लेख में बुनियादी खोट यह है कि उन्होंने अर्चना वाले मामले का सरलीकरण करते हुए मनमाने ढंग से स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर लिखा है.)
4. "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर मृणाल की मुहिम से एक भी अर्चना की जान बचती है, और सिर्फ़ जान ही नहीं बचती, बल्कि वह अपने बल पर जीवन जीने में समर्थ भी होती है तो मैं मृणाल के प्रयत्नों का स्वागत करूंगा लेकिन मृणाल केवल पढ़ी-लिखी साधन-सम्पन्न अर्चनाओं पर ही नज़र न टिकाये रखें, न अपने दायरे को वर्ण या धर्म के बन्धनों तक ही सीमित रखें. वे ज़रा वहां भी नज़र दौड़ायें जहां औरतें सत्ता और सत्ता के गुर्गों -- पुलिसवालों, नेताओं आदि का शिकार बनती हैं. जहां दलितों से बदला लेने या उन्हें उनकी औक़ात बताने के लिए उनकी औरतों के साथ बलात्कार किया जाता है."
(इसमें क्या ग़लत है, क्या मृणाल जी बतायेंगी, या वे नीलाभ-विरोध से इस क़दर ग्रस्त हैं कि विवेक ही खो बैठी हैं.)
5. "कौन नहीं जानता है कि एक सवर्ण पढ़ी-लिखी लड़की के पास आत्महत्या के अलावा सौ रास्ते होते हैं जो समाज की दलित ८० फ़ीसदी औरतों को उपलब्ध नहीं होते. उच्छ्वास बहुत अच्छा लगता है, पर कैरियर की सीढ़ियां चढ़ने में सहायक होने के अलावा बहुत दूर नहीं ले जाता. फिर इससे आगे बढ़ कर वे स्त्रियां हैं जो यह जानती हैं कि शोषण पर टिके इस समाज में सिर्फ़ स्त्रियां ही परतन्त्र नहीं हैं, बल्कि पुरुष भी उतनी ही मात्रा में परतन्त्र हैं और स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई लामुहाला पुरुषों की मुक्ति की भी लड़ाई है. मृणाल अगर अपने कर्म को वाक़ई सार्थक करना चाहती हैं तो उन्हें यह सत्य समझना चाहिए."
(पहली बात तो यह है कि एक सवर्ण पढ़ी-लिखी लड़की जब किसी दलित लड़के से विवाह करती है तो क्या वह सिर्फ़ भावुकता में ऐसा करती है या उसने सोच-समझ कर यह क़दम उठाया होता है. मैं चूंकि अर्चना से वाक़िफ़ नहीं इसलिए मेरे पास इस मामले में मृणाल के लेख में दिये गये तथ्य ही हैं. ज़रा देखिए वे क्या लिखती हैं --
"यह कोई आम घरेलू लड़की नहीं थी। उच्च शिक्षा प्राप्त इस लड़की को सरकारी नौकरी मिली हुई थी। अर्चना एक ब्राह्मण परिवार से आती थी, जिसने अपनी मर्जी से एक दलित युवक से शादी की थी। आज दिल्ली जैसे आधुनिक समाज में भी किसी दलित युवक से शादी करने के लिए एक ब्राह्मण परिवार की लड़की को पारिवारिक तथा सामाजिक स्तर पर जितनी और जिस प्रकार की उपेक्षा सहनी पड़ती है, अर्चना उससे मुक्त नहीं थी। अर्चना के इस निर्णय से उसके जुझारू और प्रगतिशील प्रवृत्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है।"
मृणाल आगे लिखती हैं -- "लेकिन शादी के बाद उसने उस लड़की के सामने अपनी कौन सी पहचान को पेश किया? दलित होने के कारण सामाजिक वर्चस्व के खिलाफ एक स्त्री के प्रति जिस संवेदनशीलता की उम्मीद उस लड़की को थी, वह पूरी नहीं हुई। अंततः उसके पति का पौरुष ही उसपर हावी हो गया। समाज से विद्रोह कर विवाह करने वाली वह लड़की परिवार के अंदर ही इस पौरुष का शिकार हो गयी। इसका प्रमाण है उसका आत्मकथ्य, जो पुलिस को कुछ पन्नों के रूप में मिला है।
अपने आप को लेकर सजग रहने वाली नारी फेमीनिस्ट एप्रोच के साथ वैवाहिक संस्था नहीं चला पाती है। अब तक जो मेल डामिनेटिंग रहा है, वो कैसे बदल जाएगा पर बदलने की कोशिश तो जो है, सो है।
अर्चना के इन शब्दों से हमें उसके प्रगतिशीलता तथा उसके नारी विमर्श संबंधी एक परिपक्व सोच का पता चलता है। उसने इन दृष्टिकोणों में आस्था रखते हुए एक दलित युवक से शादी की। पर वह युवक नारीवादी दृष्टिकोण में अपनी आस्था नहीं रख पाया। विश्वविद्यालय कैंपस की सभाओं-गोष्ठियों में उसने जैसा चरित्र प्रस्तुत किया, वैसा ही चरित्र वह अपने घर के अंदर नही रख पाया। पत्नी में अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी हो सकता है शायद यह उसे स्वीकृत न हो सका। ऐसी पत्नी जिसका अपना कोई व्यक्तित्व न होता तो शायद यह हादसा भी न होता।
अब जब भी कोई अच्छे-अच्छे उसूलों की बात करता है, तो अंदर से हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं कि पता नहीं खुद ये कितनी कोशिश करते होंगे, कितना स्त्री सम्मान जैसी अवधारणाएं मन में होती होंगी। ‘बहनचोद’ जैसी गाली आम है एक पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी व्यक्ति के लिए जो अपने संस्कारों से निकलने के प्रोसेस में है… मैं चाहूं तो सब कुछ सही चल सकता है। प्रतिरोध करना बंद कर दूं, अच्छी सुघड़ गृहिणी बन जाऊं, पति के पैर पूजूं (कोई भी लड़की मुझे पूजती… अक्सर कहा जाने वाला जुमला), जबान न चलाऊं, तो सब कुछ अच्छा ही अच्छा है।"
दिक़्क़त यह है कि अपने जोश में मृणाल ने यह स्पष्ट रूप से इंगित नहीं किया कि ठीक-ठीक कौन-सी पंक्तियां अर्चना की हैं और कौन-सी ख़ुद मृणाल की. इसीलिए मुझे इतना लम्बा अंश उद्धृत करना पड़ा है. तो भी इतना तो समझ में आता ही है कि यह विवाह जो हर तरह के विरोध को झेल कर अपनी मर्ज़ी से किया गया था, एक अनमेल विवाह साबित हुआ. इसमें भी शक करने की कोई बात नहीं है कि अर्चना के पति का रवैया आम पुरुषों वाला रवैया ही रहा होगा. ऐतराज़ वहां है जहां मृणाल यह कहने के बाद कि अर्चना "कोई आम घरेलू लड़की नहीं थी। उच्च शिक्षा प्राप्त इस लड़की को सरकारी नौकरी मिली हुई थी," और अर्चना के जुझारूपन, परिपक्व सोच और प्रगतिशीलता का ज़िक्र करने के बाद उसे एक थकी-हारी, पस्त और कच्ची लड़की के रूप में चित्रित करके सिर्फ़ पौरुष-प्रधान समाज को गालियां दे कर रह जाती हैं और इस मामले में सिर्फ़ अर्चना की डायरी में लिखे हुए को इकतरफ़ा सबूत मान लेती हैं.
पौरुष-प्रधान समाज और उसकी विकृतियों और स्त्री-दमनकारी प्रवृत्तियों से मुझे इनकार नहीं है, लेकिन जिन गुणों से अर्चना को मृणाल ने सम्पन्न बताया है, उन गुणों वाली लड़की आत्म-हत्या नहीं करती. अगर वह सवर्ण है तो उसके पास एक अनमेल विवाह से जूझने और बाहर आने के सौ रास्ते होते हैं. ऐसा ही मैंने पहले भी लिखा था और ऐसा ही मैं अब भी मानता हूं. आम तौर पर अनमेल विवाहों में आत्महत्या करने वाली लड़कियां और औरतें उन गुणों के अभाव की स्थिति में ही ऐसा करती हैं. जहां-जहां और जिन-जिन मामलों में लड़कियां और औरतें पढ़ी-लिखी, परिपक्व सोच वाली, जुझारू, प्रगतिशील, वैवाहिक सम्बन्ध बनाते समय हर तरह के विरोध से पार पाने वाली और सरकारी नौकरी प्राप्त होती है, वह आत्म-हत्या नहीं करती, या अपवाद स्वरूप ही ऐसा क़दम उठाती है. )
6. अन्त में यह कि हाल के सर्वेक्षणों ने यह भी बताया है कि जहां स्त्रियों ने आर्थिक वर्चस्व हासिल कर लिया है, वहां थोड़ी मगर बढ़ती मात्रा में पुरुष भी यौन अथवा अन्य उत्पीड़नों का शिकार बने हैं, बन रहे हैं. मृणाल चाहें तो किसी भी समाज शास्त्री से पूछ सकती हैं. इसलिए उन्हें चाहिए कि ज़रा गहरे उतरें. फ़िलहाल तो यही लगता है कि -- भले ही सात साल पुराना लेख दोबारा पेश करते हुए उन्होंने यह कहा है कि आज वे इसे दूसरी तरह लिखतीं -- वे इस लेख से बहुत दूर नहीं हटी हैं वरना इसे दोबारा पेश करने के लालच में न पड़तीं.
(स्त्री-विमर्श का उद्देश्य स्त्रियों का वर्चस्व क़ायम करना नहीं हो सकता. पुरुषों का वर्चस्व समाप्त करने का अर्थ अगर स्त्रियों का वर्चस्व स्थापित करना होगा तो नतीजा मृणाल वल्लरी के लेखों जैसा ही होगा. स्वस्थ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का आधार वर्चस्व नहीं, समता और सामंजस्य पर ही आधारित हो सकता है. वर्चस्व की लड़ाई हमेशा विकृतियों की तरफ़ ले जायेगी. मैं फिर कहूंगा कि जहां स्त्रियों ने आर्थिक वर्चस्व हासिल कर लिया है, वहां थोड़ी मगर बढ़ती मात्रा में पुरुष भी यौन अथवा अन्य उत्पीड़नों का शिकार बने हैं, बन रहे हैं. मृणाल चाहें तो किसी भी समाज शास्त्री से पूछ सकती हैं. इतना और जोड़ूंगा -- बशर्ते कि वे अपने को सर्वज्ञ न समझें).
अब तक इस पर सार्वजनिक रूप से कुछ बोलने से बच रही थी। लेकिन मैं आपकी लिखी बातों से पूरी तरह सहमत हूं। नारीवाद को सबसे पहले नारीवाद की ही बखिया उधेड़ने की जरूरत है।
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